तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

शनिवार, मार्च 10, 2012

छह दिन हफ्ता क्यों नहीं कर दिया जाए?

होली की छुट्टी के बाद सरकारी दफ्तर खुले और जिला कलेक्टर श्रीमती मंजू राजपाल ने आकस्मिक निरीक्षण किया तो पाया कि एडीएम व एसीएम समेत 67 कर्मचारी नदारद हैं। यह तो उस दफ्तर की हालत है, जहां स्वयं जिला कलेक्टर व अन्य बड़े प्रशासनिक अधिकारी बैठते हैं। उसके बावजूद कर्मचारी अपनी ड्यूटी के प्रति लापरवाह हैं। लापरवाही की पराकाष्ठा का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि मुख्य सचिव ने हाल ही में वीडियो कॉन्फ्रेंसिग में कार्मिकों के ऑफिस में समय पर पहुंचना सुनिश्चित करने के निर्देश देते हुए आकस्मिक निरीक्षण शुरू करने का अभियान शुरू करने को कहा था। उसकी भी कर्मचारियों को कोई चिंता नहीं थी। जिला कलेक्टर इस बात से भली भांति वाकिफ थीं, इस कारण सर्वप्रथम कलेक्टर परिसर के दफ्तरों पर ही कार्यवाही को अंजाम दिया और पाया कि राजपत्रित अधिकारीअतिरिक्त कलेक्टर मोहम्मद हनीफ, सहायक कलेक्टर भगवत सिंह राठौड़, प्रोटोकाल अधिकारी सुनीता डागा, लेखाधिकारी लालचंद मूंदड़ा व सहायक विधि परामर्शी हरीश कुमार शर्मा सहित 67 कर्मचारी सीट पर नहीं हैं। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि अन्य सरकारी दफ्तरों का क्या हाल होगा।
असल में तीन साल से ज्यादा बीतने के बाद भी राज्य कर्मचारी पांच दिन के हफ्ते के साथ ड्यूटी समय बढ़ाए जाने के आदी नहीं हुए हैं। अधिसंख्य कर्मचारी पुराने ढर्रे पर ही दफ्तर आते हैं और शाम को भी जल्द ही बस्ता बांध लेते हैं। इससे आम लोगों को परेशानी होती है। यह परेशानी इस कारण भी बढ़ जाती है कि कई कर्मचारी छुट्टी के इन दो दिनों के साथ अन्य किसी सरकारी छुट्टी को मिला कर आगे-पीछे एक-दो दिन की छुट्टी ले लेते हैं और नतीजा ये रहता है कि उनके पास जिस सीट का चार्ज होता है, उसका काम ठप हो जाता है। अन्य कर्मचारी यह कह कर जनता को टरका देते हंै कि इस सीट का कर्मचारी जब आए तो उससे मिल लेना। यानि कि काम की रफ्तार काफी प्रभावित होती है।
कलेक्ट्रेट को छोड़ कर अधिकतर विभागों में पुराना ढर्रा चल रहा है। कलेक्ट्रेट में जरूर कुछ समय की पाबंदी नजर आती है, क्योंकि वहां पर राजनीतिज्ञों, सामाजिक संगठनों व मीडिया की नजर रहती है। आम जनता के मानस में भी आज तक सुबह दस से पांच बजे का समय ही अंकित है और वह दफ्तरों में इसी दौरान पहुंचती है। कोई इक्का-दुक्का ही होता है, जो कि सुबह साढ़े नौ बजे या शाम पांच के बाद छह बजे के दरम्यान पहुंचता है। यानि कि काम के जो घंटे बढ़ाए गए, उसका तो कोई मतलब ही नहीं निकला। बहुत जल्द ही उच्च अधिकारियों को यह समझ में आ गया कि छह दिन का हफ्ता ही ठीक था। इस बात को जानते हुए उच्च स्तर पर कवायद शुरू तो हुई और कर्मचारी नेताओं से भी चर्चा की गई, मगर यह सब अंदर ही अंदर चलता रहा। चर्चा कब अंजाम तक पहुंचेगी, कुछ कहा नहीं जा सकता।
ज्ञातव्य है कि पूर्व मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे सरकार के जाते-जाते कर्मचारियों के वोट हासिल करने के लिए पांच दिन का हफ्ता कर गई थीं। चंद दिन बाद ही आम लोगों को अहसास हो गया कि यह निर्णय काफी तकलीफदेह है। लोगों को उम्मीद थी कि कांगे्रस सरकार इस फैसले को बदलेगी। उच्च स्तर पर बैठे अफसरों का भी यह अनुभव था कि पांच दिन का हफ्ता भले ही कर्मचारियों के लिए कुछ सुखद प्रतीत होता हो, मगर आम जनता के लिए यह असुविधाजन व कष्टकारक ही है। हालांकि अधिकारी वर्ग छह दिन का हफ्ता करने पर सहमत है, लेकिन इसे लागू करने पर कर्मचारियों के विरोध का सामना करना पड़ सकता है। वस्तुत: यह फैसला न तो आम जन की राय ले कर किया गया और न ही इस तरह की मांग कर्मचारी कर रहे थे। बिना किसी मांग के निर्णय को लागू करने से ही स्पष्ट था कि यह एक राजनीतिक फैसला था, जिसका फायदा तत्कालीन मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे जल्द ही होने जा रहे विधानसभा चुनाव में उठाना चाहती थीं। उन्हें इल्म था कि कर्मचारियों की नाराजगी की वजह से ही पिछली गहलोत सरकार बेहतरीन काम करने के बावजूद धराशायी हो गई थी, इस कारण कर्मचारियों को खुश करके भारी मतों से जीता जा सकता है। हालांकि दुर्भाग्य से ऐसा हो नहीं पाया।
असल बात तो ये है कि जब वसुंधरा ने यह फैसला किया, तब खुद कर्मचारी वर्ग भी अचंभित था, क्योंकि उसकी मांग तो थी नहीं। वह समझ ही नहीं पाया कि यह फैसला अच्छा है या बुरा। हालांकि अधिकतर कर्मचारी सैद्धांतिक रूप से इस फैसले से कोई खास प्रसन्न नहीं हुए, मगर कोई भी कर्मचारी संगठन इसका विरोध नहीं कर पाया। रहा सवाल राजनीतिक दलों का तो भाजपाई इस कारण नहीं बोले क्योंकि उनकी ही सरकार थी और कांग्रेसी इसलिए नहीं बोले कि चलते रस्ते कर्मचारियों को नाराज क्यों किया जाए।
ऐसा नहीं कि लोग परेशान नहीं हैं, बेहद परेशान हैं, मगर बोल कोई नहीं रहा। कर्मचारी संगठनों के तो बोलने का सवाल ही नहीं उठता। राजनीतिक संगठन ऐसे पचड़ों में पड़ते नहीं हैं और सामाजिक व स्वयंसेवी संगठनों को क्या पड़ी है कि इस मामले में अपनी शक्ति जाया करें। ऐसे में जनता की आवाज दबी हुई पड़ी है। देखना ये है कि कांग्रेस सरकार आम लोगों के हित में फैसले को पलट पाती है या नहीं।
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