पाकिस्तान के राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी की महान सूफी संत हजरत ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह जियारत तो सुकून से हो गई, मगर इसके साथ ही दो बड़े विवाद जुड़ गए हैं। एक तो दरगाह दीवान सैयद जैनुल आबेदीन अली खान द्वारा उचित पास न मिलने के कारण बहिष्कार और जरदारी की ओर से की गई पांच करोड़ रुपए देने की घोषणा।
दरगाह दीवान |
उनका कहना है कि जरदारी की की दरगाह पर यात्रा के समय जिला प्रशासन ने सैकड़ों साल पुरानी परंपरा को तिलांजलि दे दी। प्रशासन ने दीवान पूरे दरगाह परिसर का अधिकृत पास नहीं दिया, जिसके चलते उन्होंने जरदारी की यात्रा का बॉयकाट किया। उन्होंने कहा कि हजरत ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह में सज्जादानशीन, खादिम और दरगाह कमेटी की अपनी अपनी भूमिका है। जहां दरगाह कमेटी दरगाह एक्ट के अनुसार प्रबंधन का कार्य करती है, वहीं सज्जादानशीन ख्वाजा साहब के वंशज की हैसियत से धार्मिक रस्में अदा करते आ रहे हैं। प्राचीन परंपराओं के अनुसार दरगाह दीवान किसी भी राष्ट्राध्यक्ष के निजाम गेट पर आगवानी करने के बाद मजार तक साथ जाते हैं। मजार शरीफ पर खादिम द्वारा जियारत कराई जाती है। उनका कहना है कि इस मरतबा अतिविशिष्ट व्यक्ति की यात्रा के दौरान दीवान साहब को निजाम गेट तक का पास दिया गया था।
दरगाह दीवान के सचिव ने सैयद जैनुल आबेदीन अली खान क े हवाले से कहा कि सैकड़ों साल पुरानी परंपरा को प्रशासन कैसे तोड़ सकता है? पाकिस्तानी राष्ट्रपति के लिए परंपराओं को नहीं तोड़ा जा सकता है। प्रशासन में कुछ ऐसे तत्व हैं जो दोनों देशों के बीच दोस्ती का माहौल नही चाहते हैं और उन्होने बेवजह का विवाद पैदा कर दीवान साहब और खादिमों के कथित विवाद की आड़ लेकर सैकड़ों वर्षो की परंपराओं को तोड़ा है। उन्होंने बताया कि वर्ष 2005 में पाक के पूर्व राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ के आगमन, बंगलादेश की राष्ट्रपति शेख हसीना के अलावा इंदिरा गांधी, राजीव गांधी के यात्रा के दौरान दरगाह दीवान साहब पुरानी रस्मों के साथ आगवानी की थी। इस समय नए विवाद को जन्म दिया गया है। उन्होंने बताया कि बंगलादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना की अजमेर जियारत के दौरान भी इस तरह का विवाद उत्पन्न हुआ था, लेकिन प्रशासन ने अपनी गलती स्वीकार करते हुए ऐन वक्त पर समस्त दरगाह परिसर का पास जारी किया। उन्होंने कहा कि ताजा प्रकरण में सरकार का रवैया दगाह पर आस्था रखने वाले करोड़ों श्रद्धालुओं की धार्मिक अस्था को ठेस पहुंचाने वाला है।
असल में ऐसा प्रतीत होता है कि दरगाह दीवान, खुद्दामे ख्वाजा व दरगाह कमेटी के बीच चलती वर्षों पुरानी खींचतान के चलते ही प्रशासन ने विवाद से बचने के लिए दीवान को पास नहीं दिया होगा, मगर उसे यह ख्याल नहीं रहा कि उसने एक नई बला को न्यौता दे दिया है। हालांकि ख्वाजा साहब के वंशज के मामले में वर्षों से विवाद होता रहता है, मगर इतना तो तय है कि परंपरा के मुताबिक दरगाह दीवान किसी भी राष्ट्राध्यक्ष के निजाम गेट पर अगवानी करने के बाद मजार तक साथ जाते हैं और परंपरा के ही मुताबिक मजार शरीफ पर जियारत खादिम द्वारा कराई जाती है। इस मरतबा दीवान को केवल निजाम गेट तक का ही पास दिया गया था।
यहां उल्लेखनीय है कि दरगाह दीवान अपने हकों के लिए वर्षों से लड़ रहे हैं और इसके लिए वे किसी भी सीमा तक चले जाते हैं। दरगाह ख्वाजा साहब एक्ट से संबंधित किताबें तो उन्हें कंठस्थ याद हैं। कानून के भी पक्के जानकार हैं। और कोई छोटा मसला होता तो कदाचित गम भी खा जाते, मगर पाक राष्ट्रपति का मसला काफी बड़ा है। प्रशासन के पास भले ही नगर निगम मेयर कमल बाकोलिया, भाजपा विधायक वासुदेव देवनानी, पाकिस्तान की जेल में बंद सरबजीत की बहिन व पुत्री आदि को पास जारी न करने का कोई संतोषजनक जवाब हो, मगर दरगाह शरीफ की धार्मिक परंपरा से जुड़े मसले पर उठे विवाद से निपटने में प्रशासन को जोर आएगा।
जरदारी की इस यात्रा के साथ जुड़ा विवाद ये है कि उन्होंने जियारत के दौरान पांच करोड़ रुपए देने की घोषणा की। इस पर उनको जियारत कराने वाले खादिम और खादिमों की संस्था अंजुमन सैयद जादगान का कहना है कि वे नजराने के तौर पर घोषणा करके गए हैं, इस कारण उस राशि पर उनका हक है, दूसरी ओर दरगाह कमेटी का मानना है कि वे दरगाह के विकास के लिए घोषणा करके गए हैं, अत: यह राशि उसको मिलनी चाहिए, ताकि वह उसका दरगाह के विकास में उपयोग कर सके। बहरहाल, अब यह विवाद तभी समाप्त होगा, जब जरदारी राशि भेजते समय उसका क्या उपयोग करना है, यह साफ करते हैं।
-तेजवानी गिरधर
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