तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

शनिवार, जुलाई 29, 2017

मुख्यमंत्री हेल्पलाइन : नई बोतल में पुरानी शराब

राज्य सरकार आमजन की समस्याओं के समाधान के लिए आगामी 15 अगस्त से मुख्यमंत्री हेल्पलाइन लॉन्च करने जा रही है। यह निश्चित ही स्वागत योग्य कदम है, क्योंकि इसके लिए जो प्रक्रिया बनाई गई है, वह परिणाममूलक नजर आती है, मगर हमारा जो प्रशासनिक ढ़ांचा है, वह इसे कामयाब होने देगा, इसमें तनिक संदेह है। संदेह की वजह भी है। राज्य की जनता का पिछला अनुभव अच्छा नहीं रहा है।
आपको ज्ञात होगा कि पिछली सरकार के दौरान लोक सेवा गारंटी कानून लागू कर हर शिकायत का निपटारा करने के लिए चालीस दिन की अवधि तय की गई थी। बेशक वह भी जनता को राहत देने वाला एक अच्छा कदम था, मगर उसका हश्र क्या हुआ, सबको पता है। आरंभ में जरूर इस पर काम हुआ और वह गति पकड़ता, इससे पहले ही सत्ता परिवर्तन हो गया। प्रशासनिक ढ़ांचे ने राहत की सांस ली। हालांकि कानून आज भी लागू है, मगर न तो उसके तहत समाधान तलाशा जा रहा है और न ही प्रशासन को उसकी चिंता है। कुछ इसी तरह का सूचना का अधिकार कानून बना, मगर सूचना देने में अधिकारी कितनी आनाकानी या कोताही बररते हैं, यह सर्वविदित है। अव्वल तो वे अर्जी में ही कोई न कोई तकनीकी गलती बताते हुए सूचना देने से इंकार कर देते हैं। अगर कोई पीछे ही पड़ जाए तो सूचना देने से बचने के उपाय के बतौर शब्दों की बारीकी में उलझा देते हैं। सच बात तो ये है कि आम आदमी थोड़ी बहुत बाधा आने पर आगे रुचि ही नहीं लेता। अगर कोई पीछे पड़ता है तो कई बाधाओं को पार करने के बाद ही संबंधित अधिकारी पर जुर्माना करवा पाता है।
खैर, अब बात करते हैं मौजूदा सरकार की ओर से शुरू किए गए मुख्यमंत्री संपर्क पोर्टल की। इसमें भी समस्याओं के ऑन लाइन समाधान की व्यवस्था है, मगर कितनों का समाधान मिलता है, यह किसी से छिपा नहीं है। असल में जो व्यवस्था बनाई गई है, वह तो पूरी तरह से दुरुस्त है, मगर उस पर अमल का जो तरीका है, वह पूरी तरह से बाबूगिरी स्टाइल का है। उसमें कहीं न कहीं टालमटोल नजर आती है। शिकायतकर्ता को जवाब तो आता है, मगर उसमें समाधान कहीं नजर आता। वस्तुत: हमारे सरकारी अमले में कागजी खानापूर्ति की आदत पड़ गई है, समाधान हो या न हो, उसकी कोई फिक्र नहीं।
अब अगर मुख्यमंत्री हेल्पलाइन लॉन्च की जा रही है तो यह अपने आप में इस बात का सबूत है कि मुख्यमंत्री संपर्क पोर्टल कारगर नहीं हो पाया। बेशक मुख्यमंत्री हेल्पलाइन की व्यवस्था भी बड़ी चाक-चौबंद नजर आती है, मगर असल में ये है पुरानी व्यवस्था का ही नया तकनीकी रूप।  जैसे नई बोतल में पुरानी शराब। पहले पोर्टल पर शिकायत ऑन लाइन, दर्ज होती रही है, और अब भी वह ऑन लाइन ही है। फर्क सिर्फ इतना है कि अब अनपढ़ शिकायतकर्ता भी मोबाइल फोन पर अपनी आवाज में अपनी परेशानी दर्ज करवा सकता है। रहा सवाल शिकायत के निपटाने का तो पहले भी संबंधित विभाग के पास शिकायत जाती थी, अब भी जाएगी। रहा सवाल समस्या समाधान की समय सीमा का तो वह लोक सेवा गारंटी कानून के तहत भी थी और मुख्यमंत्री संपर्क पोर्टल में भी। मगर हुआ क्या?
असल में हमारे यहां गणेश जी की बड़ी महिमा है, इस कारण हर योजना का श्रीगणेश बहुत बढिय़ा, गाजे-बाजे के साथ किए जाने की परंपरा रही है। योजनाएं बनाते वक्त भी उसकी हर बारीकी को ध्यान में रखा जाता है, मगर बाद में वही ढर्ऱे पर चल पड़ती है। एक छोटे से उदाहरण से आप हमारी मानसिकता को समझ सकते हैं। आपने देखा होगा कि जब भी कहीं सार्वजनिक मूत्रालय बनाया जाता है तो बाकायदा में चिकनी टाइलें लगाई जाती हैं, पॉट भी लगाया जाता है, निकासी की भी पुख्ता व्यवस्था की जाती है, यहां तक कि पानी की टंकी का भी इंतजाम होता है, मगर चंद दिन बाद ही उसकी हालत ऐसी हो जाती है कि वहां जाने पर घिन्न सी आती है। टंकी में पानी नहीं भरा जाता, टाइलें टूट जाती हैं, पॉट साबूत बचता है तो उसका पाइप गायब होता है। कहीं कहीं तो निकासी ही ठप होती है। यानि कि बनाते समय जरूर सारी जरूरतों का ध्यान रखा जाता है, मगर बाद में मॉनिटरिंग पर कोई ध्यान नहीं देता। कुछ ऐसा ही है सरकारी योजनाओं का हाल।
आपने देखा होगा कि दैनिक भास्कर में भी भास्कर हस्तक्षेप कॉलम में स्थानीय संपादक डॉ. रमेश अग्रवाल ने भी मुख्यमंत्री हैल्पलाइन को यद्यपि   नई आजादी की संज्ञा दी है, मगर साथ ही यह भी आशंका जता दी है कि दफ्तरी पैंतरों के शातिर, नौकरशाह उम्मीदों से भरी नई व्यवस्था को भी अपने पंजों का शिकार बना डालें। दफ्तरों से फाइल की फाइल गायब कर डालना, किसी अर्जी पर एक बार में सारी आपत्तियां डालना, स्पष्ट कानूनों में भी भ्रम के पेंच डालकर मार्गदर्शन मांगने के नाम पर आवेदनों को अटका देना, कानूनों की नकारात्मक व्याख्या निकालना, ये सब वे फंदे हैं, जिनमें उलझकर बड़े से बड़े लोक कल्याणकारी कानून जमीन सूंघ चुके हैं।
कुल मिला कर योजना निश्चित रूप से सराहनीय है, मगर यदि सरकार की यह मंशा है कि इससे वाकई आमजन को राहत मिले तो उसे इसे परिणाममूलक बनाने के लिए दंडात्मक बनाना होगा, वरना हमारा प्रशासनिक तंत्र कितना चतुर है, उसकी व्याख्या करने की जरूरत नहीं है।
-तेजवानी गिरधर
7742067000

शुक्रवार, जुलाई 28, 2017

सत्ता की खातिर भ्रष्टाचार को छोड़ सांप्रदायिकता से नाता जोड़ा

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने एक बार फिर यह स्थापित कर दिया है कि राजनीति अब सिद्धांत विहीन होती जा रही है। सत्ता की खातिर कुछ भी किया जा सकता है। कैसी विडंबना है कि सांप्रदायिकता के नाम पर जिन को पानी पी-पी कर कोसा और सत्ता भी हासिल की, उन्हीं से हाथ मिला लिया। हालांकि उन्होंने लालू से नाता तोड़ कर ये संदेश देने की कोशिश की है कि वे भ्रष्टाचार के साथ कोई समझौता नहीं कर सकते, मगर सांप्रदायिकता के जिस मुद्दे को लेकर भाजपा से पुराना नाता तोड़ा, आज उसी से गलबहियां कर रहे हैं, तो यह भी तो संदेश जा रहा है कि सत्ता की खातिर आप जमीर व जनभावना को भी ताक पर रख सकते हैं। केवल इतना ही क्यों, जब आपने भाजपा का साथ छोड़ कर लालू का हाथ पकड़ा था, तब भी चारा घोटाले में उन्हें सजा सुनाई जा चुकी थी, मगर चूंकि आपको जीत का जातीय समीकरण समझ आ गया था, इस कारण उस वक्त भ्रष्टाचार के साथ समझौता करने में जरा भी देर नहीं की। यानि की आपका मकसद केवल सत्ता हासिल करना है, जब जो अनुकूल लगे, उसके साथ। न आपको सांप्रदायिकता से परहेज है और न ही भ्रष्टाचार से।
और सबसे बड़ा सवाल ये कि जिस जनता का वोट आपने सांप्रदायिकता के खिलाफ बोल कर हासिल किया, उसके प्रति भी आपकी कोई जिम्मेदारी बनती है या नहीं। इन सबसे अफसोसनाक पहलु ये है कि जो नरेन्द्र मोदी लोकतंत्र का भारी समर्थन पा चुके हैं, वे लोकतांत्रिक मूल्यों की पुनस्र्थापना करने की बजाय लोकतांत्रिक अनैतिकता को खुले आम बढ़ावा दे रहे हैं।
यह ठीक है कि तेजस्वी यादव पर कानूनी शिकंजा कसने के बाद उनके पास लालू यादव के साथ रहना मुश्किल हो रहा था, ऐसे में इस्तीफा  दे कर उन्होंने भ्रष्टाचार के खिलाफ एक अच्छा संदेश दिया, मगर उनकी अंतरआत्मा की आवाज व नैतिकता तभी स्थापित हो सकती थी, जबकि  वे विपक्ष में बैठने को राजी हो जाते। यदि आपने सत्ता और केवल सत्ता को ही ख्याल में रखा है, तो भ्रष्टाचार और सिद्धांत परिवर्तन में क्या अंतर है? एक आर्थिक भ्रष्टाचार है तो दूसरा नैतिक भ्रष्टाचार। यदि आप अपना जमीर बेच रहे हैं तो आप भी भ्रष्टाचारी हैं।
हां, इतना जरूर है कि उन्होंने अपने आपको एक चतुर राजनीतिज्ञ साबित कर दिया है। वो ऐसे कि यदि अचानक इस्तीफा दे कर सत्ता के गणित को नहीं बदलते तो खुद उनकी ही पार्टी में सेंध पडऩे वाली थी। तेजस्वी यादव के समर्थक जेडीयू विधायक उनके खिलाफ कुछ भी सुनने को तैयार नहीं थे। जेडीयू में ऐसे विधायकों की संख्या करीब डेढ़ दर्जन बतायी जा रही है। इनमें से ज्यादातर यादव और मुस्लिम विधायक हैं। इसके अतिरिक्त उनके खुद के विधायक भी तेजस्वी के साथ जाने को तैयार थे। यानि कि तेजस्वी को हटाने की हिम्मत तो उनकी थी ही नहीं। जैसे ही वे उन्हें हटाते तेजस्वी सहानुभूति का फायदा उठाते और सारा गणित उलटा पड़ जाता।
खैर, अब जबकि नीतीश की कथित सुशासन बाबू की छवि और लालू के जातीय गणित की संयुक्त ढ़ाल तोड़ कर भाजपा ने बिहार में सेंध लगा दी है, वहां नई कुश्ती शुरू होगी। फिलहाल भले ही नीतीश ने कुर्सी बचा ली हो, मगर अगले चुनाव में उनको अपना खुद का जनाधार कायम रखना मुश्किल होगा। और अगर भाजपा कोई बहुत बड़ा ख्वाब देख रही है तो फिलहाल तो ये हवाई किला ही होगा, क्योंकि उसके पास मोदी लहर के अलावा कोई और बड़ा वजूद नहीं है, जो कि अगले चुनाव तक कितनी बाकी रहती है, कुछ नहीं कहा जा सकता।
-तेजवानी गिरधर
7742067000

बुधवार, जुलाई 19, 2017

पार्टी में बगावत के सुर उठे, तब जा कर झुकी सरकार

कुख्यात आनंदपाल के एनकाउंटर मामले में एक ओर जहां भाजपा का राजपूत वोट बैंक खिसकने का खतरा उत्पन्न हो गया था, वहीं पार्टी में भी बगावत के हालात पैदा हो गए थे, तब जा कर सरकार को मामले की सीबीआई जांच के लिए घुटने टेकने पड़े।
असल में राजपूत आंदोलन जिस मुकाम पर आ कर खड़ा हो गया था, वहां पार्टी के राजपूत विधायकों व मंत्रियों की स्थिति अजीबोगरीब हो गई थी। जिस जाति के नाम पर वे राजनीति कर सत्ता का सुख भोग रहे हैं, अगर वही जनाधार ही खिसकने की नौबत आ गई तो उनके लिए पार्टी में बने रहना कठिन हो गया। वे हालात पर गहरी नजर रखे हुए थे। कैसी भी स्थिति आ सकती थी। इसी बीच वरिष्ठ भाजपा नेता व विधायक नरपत सिंह राजवी मुखर हो गए। ज्ञातव्य है कि वे पूर्व उपराष्ट्रपति व पूर्व मुख्यमंत्री स्व. भैरोंसिंह शेखावत के जंवाई हैं और मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे से उनके राजनीतिक रिश्ते किसी से छिपे हुए नहीं हैं। उन्होंने प्रदेश नेतृत्व को दरकिनार करके सीधे राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह को पत्र लिख कर आनंदपाल मामले में राजपूतों पर पुलिस द्वारा की जा रही मनमानीपूर्ण कार्रवाई में दखल देने की मांग कर दी। उन्होंने कहा कि राजस्थान में राजपूत समाज के साथ पुलिस द्वारा अत्यंत निंदनीय बर्ताव किया जा रहा है। राजपूत समाज में असमंजस और आक्रोश की स्थिति उत्पन्न हो गई है। यह समाज अब तक के सभी चुनावों में 90 प्रतिशत तक पार्टी के साथ खड़ा रहा है, लेकिन दुख की बात है कि उसी भाजपा की सरकार में यही राजपूत समाज अपने आपको ठगा सा महसूस कर रहा है। इस पत्र के मायने साफ समझे जा सकते हैं। अगर सरकार सीबीआई जांच के लिए राजी नहीं होती तो अन्य विधायक भी मुखरित हो सकते थे।
शायद ही ऐसी भद पिटी किसी गृहमंत्री की
आनंदपाल मामले में गृहमंत्री गुलाब चंद कटारिया की जितनी भद पिटी, उतनी शायद ही किसी की पिटी हो। पहले जब आनंदपाल राजनीतिक संरक्षण की वजह से पकड़ से बाहर था तो उनसे जवाब देते नहीं बनता था और एनकाउंटर के बाद पुलिस कार्यवाही को सही बताते हुए सीबीआई जांच की मांग किसी भी सूरत में नहीं मानने पर अड़े तो मुख्यमंत्री के कहने पर उसी बैठक में सरकार की ओर से बैठना पड़ा, जिसमें सीबीआई जांच  का समझौता करना पड़ा। इससे बड़ी कोई विडंबना हो नहीं सकती। होना तो यह चाहिए कि इतनी किरकिरी के बाद उन्हें पद त्याग देना चाहिए। उनकी जिद के कारण ही आंदोलन इतना लंबा खिंचा, जिसमें हिंसा और जन-धन की हानि हुई। प्रदेश के कुछ हिस्सों में तो अराजकता की स्थिति उत्पन्न हो गई। एनकाउंटर को सही ठहराने के लिए पुलिस के तीन आला अधिकारियों को प्रेस वार्ता करनी पड़ी। खुद भी यही बोले कि अपनी पुलिस का मनोबल नहीं  गिरने दे सकता। चाहो हाईकोर्ट से जांच के आदेश करवा दो। और फिर यकायक यू टर्न ले लिया। सवाल ये उठता है कि अगर मांग माननी ही थी तो क्यों आनंदपाल के शव की दुर्गति करवाई? क्यों प्रदेश को हिंसक आंदोलन के मुंह में धकेला?
क्या पुलिस ने खो दिया है विश्वास?
क्या अब समय आ गया है कि पुलिसकर्मियों को अपने हथियार मालखाने में जमा करा देने चाहिए, क्योंकि अब पुलिस को दिए गए हथियारों के इस्तेमाल पर जनता को भरोसा नहीं रहा है। देशभर के न्यायालय, राजनेता, सामाजिक संगठना व मीडिया अब पुलिस के हथियारों के प्रयोग पर इतना गहरा संदेह करने लग गए हैं कि पुलिसकर्मी चाहे जितनी गोलियां खा कर घायल हो जाये, तब भी पुलिस के कामकाज पर भरोसा नहीं है। बहुत सोचनीय है कि सोसायटी पुलिस की बजाय खूंखार अपराधी के साथ खड़ी हो जाती है। वस्तुत: कुख्यात अपराधियों के साथ हुए तथाकथित एनकाउंटर की घटनाओं में सुप्रीम कोर्ट व सीबीआई की दखलंदाजी के बाद एनकाउंटर की थ्योरी गलत साबित होने लगी है व कई पुलिसकर्मी जेलों में बंद हुए हैं। क्या ऐसी स्थिति में पुलिस को जनता का विश्वास फिर से हासिल करने के बाद ही हथियारों का इस्तेमाल करना चाहिए? एक तरह से पुलिस की सच्चाई व अस्मिता पर बड़ा सवाल खड़ा हो गया है। इस पर यदि समय रहते गंभीर चिंतन कर रास्ता नहीं निकाला गया तो समाज को बहुत बुरे अंजाम देखने होंगे।
तेजवानी गिरधर
7742067000

वोट बैंक खोने के डर से मानी सीबीआई जांच की मांग

आखिरकार राज्य की वसुंधरा राजे सरकार ने राजपूतों की मांग मान ही ली। अब सरकार एनकाउंटर में मारे गए आनंदपाल के मामले की सीबीआई जांच कराने को तैयार हो गई है। अन्य सभी मांगों पर भी सहमति दे दी है। सवाल उठता है कि अगर ये मांगें माननी ही थीं, तो काहे तो आनंदपाल के पार्थिव शरीर की दुर्गति होने दी गई? काहे को इतना लंबा आंदोलन होने दिया गया? काहे को सांवराद में मुठभेड़ और हिंसा की नौबत पैदा होने दी गई? काहे को गृह मंत्री गुलाब चंद कटारिया के उस बयान की किरकिरी करवाई, जिसमें उन्होंने साफ कहा था कि हम तो सीबीआई की जांच नहीं करवाएंगे, चाहें तो इसके लिए हाईकोर्ट से आदेश करवा दें?
साफ दिखाई दे रहा है कि इस मामले से निपटने में वसुंधरा राजे के सलाहकार आरंभ से ही गलत दिशा में चल रहे थे। उन्हें अंदाजा ही नहीं था कि पूरा राजपूत समाज इस प्रकार एकजुट हो जाएगा। वे तो यही मान कर चल रहे थे कि राजपूत नेताओं के बीच किसी न किसी तरह से दोफाड़ कर दी जाएगी और आंदोलन टांय टांय फिस्स हो जाएगा। राजपूत नेताओं में मतभेद के प्रयास भी हुए, मगर आम राजपूत इतना उग्र हो गया था कि किसी भी नेता की हिम्मत नहीं हुई कि वह मुख्य धारा से हट सके। सरकार यह सोच कर चल रही थी कि आंदोलन को लंबा करवा कर उसे विफल करवा दिया जाएगा, मगर वह रणनीति भी कामयाब नहीं हो पाई। यह ठीक है कि सांवराद में हुई हिंसा के बाद लागू कफ्र्यू के बीच आनंदपाल के शव का अंतिम संस्कार करवाने में सरकार सफल हो गई, मगर वह भी उलटा पड़ गया। सरकार को यह लगा कि अंतिम संस्कार के बाद आंदोलन की हवा निकल जाएगी, मगर वह अनुमान भी गलत निकला। राजपूतों को यह कहने का मौका मिल गया कि सरकार ने अंत्येष्टि के लिए दमन का सहारा लिया। सोशल मीडिया पर आम राजपूत का गुस्सा फूटने लगा। हालत ये हो गई राजपूत भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के जयपुर दौरे के दौरान बड़ा जमावड़ा करने को आमादा हो गए। सरकार जानती थी कि लाख कोशिशों के बाद भी वह राजपूतों को जयपुर में एकत्रित न होने देने में कामयाब नहीं हो पाएगी।  और अगर रोकने के लिए पुलिस का सख्त रवैया अख्तियार किया जाता तो राजपूत अपनी अस्मिता को लेकर और उग्र हो जाता। इसका परिणाम ये होता कि भाजपा का यह परंपरागत वोट बैंक पूरी तरह से छिन्न-भिन्न हो जाता। आखिरकार सरकार को अपना स्टैंड बदल कर यू टर्न लेना पड़ा। इसमें गौर करने वाली बात ये है कि आरंभ से वसुंधरा राजे ने चुप्पी साध रखी थी। काफी दिन तक तो गृहमंत्री कटारिया भी मुखर नहीं हुए। और जब सामने आए तो ऐसे कि मानो उनसे मजबूत राजनेता कोई है ही नहीं। वे साफ तौर पर बोले कि वे अपनी पुलिस का मनोबल नहीं गिरा सकते। सीबीआई जांच की मांग किसी भी सूरत में नहीं मानी जाएगी। राजपूत चाहें तो इसके लिए हाईकोर्ट चले जाएं। उन्होंने ऐसा अहसास कराया, मानो उनके पास राजपूतों को कंट्रोल करने की कोई युक्ति हाथ आ गई है। मगर दो दिन बाद ही उनकी किरकिरी हो गई। उनकी फजीहत तो आनंदपाल के लंबे समय तक न पकड़े जाने के कारण भी होती रही और अब उसकी मृत्यु के बाद भी  घुटने टेकने को मजबूर हुए हैं।
आनदंपाल की गिरफ्तारी न हो पाने से लेकर आंदोलन से निपटने तक में पुलिस की नाकामी तो अपनी जगह है ही, सरकार इसके राजनीतिक पहलु को सुलझाने में भी विफल हो गई। कुल मिला कर अब यह साफ हो गया है कि सरकार ने अपना वोट बैंक खत्म हो जाने के डर से सीबीआई की जांच की मांग मानी है।
-तेजवानी गिरधर
7742067000