तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

सोमवार, फ़रवरी 23, 2015

अजीब पसोपेश में है हार के बाद कांग्रेस

देश की राजधानी दिल्ली के विधानसभा चुनाव में सूपड़ा साफ पराजय के बाद भी कांग्रेस पार्टी के नेता न तो कुछ सीखने को तैयार हैं और न ही उन्हें आगे की रणनीति सूझ रही है। हार के तुरंत बाद जिस प्रकार पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने हार का ठीकरा अजय माकन पर फोड़ा, वहीं माकन भी पलट वार करने से नहीं चूके। इससे पार्टी की बहुत छीछालेदर हुई। पार्टी हाईकमान कुछ सख्त हुआ ही था कि एक समूह ने प्रियंका गांधी को आगे लाने की मांग उठा डाली। उठा क्या डाली, दोहरा डाली। जब-जब भी कांग्रेस को झटका लगता है, एक तबका राहुल की बजाय प्रियंका को आगे लानेे की रट लगाता ही है। ऐसे में हाईकमान किंकर्तव्यविमूढ़ सा नजर आता है।
कितनी अफसोसनाक बात है कि हार के बाद कांग्रेस को अपनी दुर्गति पर पश्चाताप करके नए सिरे से समीक्षा करनी चाहिए थी, वहीं इसके दो नेता शीला दीक्षित व अजय माकन अंदर की लड़ाई सड़क पर ले आए। जहां शीला दीक्षित ने खुले रूप में अजय माकन के चुनाव अभियान को नाकाफी बताया है, वहीं माकन भी सीधे शब्दों में शीला दीक्षित के पन्द्रह वर्षों के कार्यकाल को दोषी ठहराया। दोनों के बीच इस प्रकार की बयानबाजी होना, निसंदेह यह तो साबित करता ही है कि कांगे्रस की इस शर्मनाक हार को किसके मत्थे मढ़ा जाए। हालांकि हाईकमान ने अजय माकन के इस्तीफे को नामंजूर करके यह संदेश दिया है कि वह हार के लिए किसी एक नेता को दोषी ठहराने के मूड में नहीं है, बावजूद इसके माकन अपने भविष्य को लेकर सशंकित यह कह बैठे कि शीला दीक्षित अगर चुनाव से पूर्व आम आदमी पार्टी को समर्थन देने की बात नहीं करतीं तो इतनी बुरी स्थिति नहीं होती।
बताया जाता है कि कांग्रेस के एक धड़े में यह सुगबुगाहट भी होने लगी है कि शीला दीक्षित ने अंदरूनी तौर पर केजरीवाल से हाथ मिला लिया है, क्योंकि स्वयं शीला भी इस बात से डरी हुई हैं कि कहीं नई सरकार उनके खिलाफ चल रहे घोटालों के मामलों को उजागर करते हुए कार्रवाई न कर दे। कहा जाता है कि इसका मोर्चा स्वयं शीला दीक्षित ने अपने सांसद पुत्र संदीप दीक्षित को आगे करके संभाला। ज्ञातव्य है कि संदीप दीक्षित ने कांग्रेस के प्रचार अभियान में सक्रिय भूमिका नहीं निभाई। इसीलिए कांग्रेस में उनकी भूमिका को लेकर कई प्रकार के सवाल उठने लगे हैं। ऐसे में कांग्रेस सुप्रीमो सोनिया गांधी की यह नसीहत कि नेता बयानबाजी से बाज आएं, उनके गंभीर होने का प्रमाण है।
जाहिर है लोकसभा और पिछले विधानसभा चुनाव और हाल के दिल्ली विधानसभा चुनावों से कांग्रेस ने कोई सबक नहीं लिया। कांग्रेस के जो अंदरूनी हालात है, उनसे लगता भी नहीं है कि पार्टी में बदलाव और आत्ममंथन का दौर शुरु हो पाएगा। कांग्रेस में नेतृत्व परिवर्तन की मांग लोकसभा चुनाव के बाद से ही शुरु हो गई थी। दिल्ली विधानसभा चुनाव के बाद इस मांग ने एक बार फिर जोर पकड़ लिया है। यह पार्टी के लिए एक गंभीर मसला है। कांग्रेस का एक तबका कांग्रेस की हालत सुधारने के लिए लगातार प्रियंका को आगे लाने की मांग कर रहा है। जाहिर तौर पर ऐसे कांग्रेसी वे हैं जो पाटी्र्र की दिन ब दिन दयनीय होती जा रही स्थिति से चिंतित है, मगर दिक्कत ये है कि प्रियंका को आगे लाने की बात मानना ही इस बात का पुख्ता सबूत और स्वीकारोक्ति हो जाएगी कि राहुल अप्रासंगिक हो गए हैं। हालांकि इक्का-दुक्का को छोड कर किसी की यह कहने की हिम्मत नहीं कि राहुल की जगह प्रियंका को कमान दी जाए, मगर सच ये है कि अधिसंख्य कांग्रेसी कार्यकर्ता यही मानता है कि प्रियंका एक ब्रह्मास्त्र हैं, जिसे अगर अभी नहीं चला गया तो आखिर कब चला जाएगा। कदाचित सोनिया व अन्य बड़े नेता इस बात को अच्छी तरह से जानते होंगे, मगर दिक्कत वही है कि प्रियंका को आगे लाने पर राहुल का राजनीतिक कैरियर समाप्त हो जाएगा। प्रियंका को लाने से संभव है पार्टी की नैया पार लग भी जाए, मगर ऐसे में पुत्र मोह उससे भी बड़ी बात है। ये भी पक्का है कि सोनिया की इच्छा के बिना प्रियंका को आगे लाना कत्तई नामुमकिन है। इस कारण आम तौर पर नेता चुप ही हैं। कोई भी अपना रिपोर्ट कार्ड खराब नहीं करना चाहता।
जहां तक राहुल की बात है, उन पर एक ऐसे समय में कांग्रेस की कमान संभालने का दबाव है, जब कांग्रेस काफी कुछ खो चुकी है। भाजपा पूरी तरह से सशक्त हो कर उभर चुकी है। कई राज्यों में कांग्रेस का वोट अन्य पार्टियां हथिया चुकी हैं। दिल्ली में तो सारा वोट खिसक कर आम आदमी पार्टी के पास चला गया है। भाजपा हिंदूवाद के नाम पर विस्तार पा रही है तो आम आदमी पार्टी ईमानदार राजनीति के नए प्रयोग के कारण आकर्षक हो चली है। ऐसे में कांग्रेस अपने वजूद को कैसे बचाए रखे, इसको लेकर बड़ा पसोपेश है।

आप की जीत ने बढ़ाया विपक्ष का हौसला

आम आदमी पार्टी की दिल्ली में प्रचंड बहुमत से हुई जीत से भाजपा कदाचित चिंतित मात्र हो और समय से पहले खतरे की चेतावनी मिलने के कारण संभलने की विश्वास रखती हो, मगर दूसरी ओर हताश-निराश विपक्ष का हौसला बढ़ा ही है। नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में जिस प्रकार भाजपा ने जीत हासिल की, वह ऐसे लगने लगी थी कि अब भाजपा अपराजेय हो गई है, उसे हराना अब शायद कभी संभव न हो। मगर आम आदमी पार्टी के ताजा चमत्कार ने यह पुष्ट कर दिया है कि राजनीति में कुछ भी स्थाई नहीं होता। जब भाजपा को दिल्ली में पूरी तरह से निपटाया जा सका है तो उसे अन्य राज्यों में भी चुनौती दी जा सकती है। कांग्रेस भी भले ही पूरी तरह निपट गई, मगर  अब वह इस पर चिंतन करने की स्थिति में है कि जिन राज्यों में उसका सीधा मुकाबला भाजपा से है, वहां पार्टी को मजबूत किया जा सकता है। एक वाक्य में कहा जाए तो यह कहना उपयुक्त रहेगा कि आप की जीत ने देश की राजनीति के समीकरणों को बदलने का अवसर दे दिया है।
ज्ञातव्य है कि पिछले दशक की कांग्रेस बनाम विपक्षी राजनीति को समाप्त कर भाजपा बनाम विपक्ष के परिदृश्य का मार्ग प्रशस्त हुआ था। नतीजतन बिहार में पूर्व दुश्मन नीतीश कुमार और लालू प्रसाद ने महागठबंधन बना लिया। भगवा ताकत के खिलाफ विपरीत धु्रव ममता बनर्जी और वाम दल एक ही भाषा बोलते दिख रहे हैं। जनता परिवार के बाकी घटकों को एक साथ लाने की कोशिशें हो रही हैं, हालांकि अभी तक प्रक्रिया धीमी थी, लेकिन आप की कामयाबी के बाद इस मुहिम के फिर से परवान चढऩे की उम्मीद है। पिछले नवंबर-दिसंबर में गैर भाजपा दलों के बीच जो समन्वय दिखाई दिया, वह आगामी बजट सत्र के दौरान पहले की तुलना में अधिक अड़चनें खड़ी कर सकता है।
आप की जीत ने भाजपा के सहयोगी दलों का भी हौसला बढ़ाया है और वे अपने लिए अधिक की मांग कर सकते हैं। महाराष्ट्र का ही उदाहरण देखिए। वहां सरकार में शिव सेना खुद को उपेक्षित महसूस कर रही है। उसी के चलते आप की जीत के बाद उद्धव ठाकरे ने दिल्ली में भाजपा की हार के लिए मोदी की आलोचना की।
सहयोगी दलों की छोडिय़े, भाजपा के अंदर भी वे नेता, जो मोदी की चमक के कारण सहमे हुए थे, अब थोड़ी राहत की सांस ले रहे हैं। यह बात तो मीडिया में खुल कर आई है कि दिल्ली के चुनाव परिणाम का असर राजस्थान में भी माना जाता है। राजनीतिक जानकार मान कर चल रहे थे कि अगर मोदी दिल्ली में भी कामयाब हो गए तो वे वसुंधरा को हटा कर किसी अन्य यानि ओम प्रकाश माथुर को मुख्यमंत्री बना सकते हैं, मगर अब वसुंधरा को कुछ राहत मिली है। चूंकि मोदी पहले दिल्ली में हुई हार के सदमे से उबरना चाहेंगे। इतना ही नहीं उन्हें इस बात पर विचार करना होगा कि जिस जीत को वे शाश्वत मान कर चल रहे थे, उसे कोई भेद भी सकता है।
आम आदमी पार्टी की बात करें तो यह एक अहम सवाल है कि अब आगे उसकी रणनीति क्या होगी? क्या वह उसी तरह गैर भाजपा दलों को एक साथ ला पाएगी, जिस तरह 1989 में वीपी सिंह ने किया था। वी पी सिंह ने गैर कांग्रेस प्लेटफॉर्म बनाया। उन्होंने मिस्टर क्लीन राजीव गांधी को गद्दी से बेदखल किया और प्रचंड बहुमत के साथ 415 लोकसभा सीट जीतने वाली कांग्रेस को सत्ता से बाहर कर दिया। हालांकि ऐसा नहीं लगता कि आप आने वाले दिनों में इस तरह का कोई जोखिम लेना चाहेगी। इसने दिल्ली में अपने पक्ष में नीतीश कुमार के चुनाव प्रचार के प्रस्ताव को स्वीकार करने से परहेज किया क्योंकि भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम इसका केंद्रीय मुद्दा है और भ्रष्टाचार के मामले में दोषी लालू, नीतीश के अब साथ हैं। यह ऐसी समस्या है जिसके चलते आप कई क्षेत्रीय दलों से गठबंधन करने से बचना चाहेगी। क्षेत्रीय दलों से हाथ मिलाने के बजाय इस बात की संभावना है कि भाजपा को हराने के लिए आप अपनी ताकत को बढ़ाना चाहेगी। दिल्ली में ऐतिहासिक जीत के साथ निश्चित रूप से देश के अन्य हिस्सों में आप को अपना विस्तार करने में सहायता मिलेगी।
कुल मिला कर केजरीवाल जानते थे कि राष्ट्रीय फलक पर उभरने के लिए उनको दिल्ली में तत्काल नतीजे दिखाने होंगे, लेकिन अन्य दलों के साथ मिलकर एक प्लेटफॉर्म बनाने का मामला अभी संभव प्रतीत नहीं होता। हालांकि मोदी के विजय रथ को रोक कर हताश क्षेत्रीय क्षत्रपों को उन्होंने नया उत्साह तो दिया ही है।