तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

गुरुवार, जुलाई 31, 2014

राहुल ने ठीक ही मना किया था सोनिया को पीएम बनने से

भाजपा नेता सुब्रह्मण्यम स्वामी सही कह रहे हैं या पूर्व विदेश मंत्री नटवर सिंह, कुछ पता नहीं लग रहा। स्वामी का कहना है कि राष्ट्रपति ने सोनिया को प्रधानमंत्री बनाने में कानूनी अड़चन की बात कही थी और अगर वे बन भी जातीं तो मामला कोर्ट में ले जाया जा सकता था। इस कारण सोनिया को कदम पीछे खींचने पड़े। मगर नटवर सिंह ने अगले महीने आने वाली अपनी किताब वन लाइफ इज नॉट एनफ में जो कुछ अहम खुलासे किए हैं, उसमें कहा गया है कि 2004 में सोनिया गांधी के पीएम नहीं बनने की सबसे बड़ी वजह राहुल गांधी थे। राहुल गांधी को डर था अगर उनकी मां सोनिया, दादी इंदिरा गांधी और पिता राजीव गांधी की तरह पीएम बनीं, तो उनकी भी हत्या कर दी जाएगी। यही वजह थी कि राहुल गांधी ने बेटा होने की दुहाई देते हुए सोनिया को पीएम नहीं बनने दिया। राहुल गांधी ने अपनी मां सोनिया गांधी को सोचने के लिए 24 घंटे का समय दिया था। हालांकि राहुल बेटे के तौर पर अपना निर्णय पहले ही सुना चुके थे। आखिरकार सोनिया गांधी को भी राहुल की यह अपील माननी पड़ी। इन खुलासों का जिक्र उन्होंने न्यूज चैनल हेडलाइंस टुडे को दिए इंटरव्यू में किया है।
संभव है स्वामी की बात सही हो, मगर आज तक उसका ठीक से खुलासा कानूनी नजरिये के पहलुओं से नहीं हो पाया है। ये आज भी बहस का विषय है। मगर नटवर सिंह की बात में दम नजर आता है। ये वही नटवर सिंह हैं जो कभी गांधी-नेहरू परिवार के बेहद करीबी थे और अब कांग्रेस से निष्कासित। कांग्रेस से अलग हुए नेता का ये कहना कुछ गले उतरता है। चाहते तो वे भी स्वामी की तरह का तर्क दे सकते थे क्योंकि सोनिया व राहुल से उनकी अब नाइत्तफाकी है। खुद नटवर सिंह का दावा है कि वह किसी पुरानी कटुता की वजह से किताब नहीं लिख रहे हैं, बल्कि उनकी किताब तथ्यों पर आधारित है।
नटवर सिंह की बातों को अगर उस वक्त के हालात की रोशनी से देखें तो यकीन होता है कि वे शायद सही ही कह रहे हैं। उस वक्त सत्ता से वंचित हो रही भाजपा के नेताओं को बड़ा मलाल था कि विदेश में जन्मी एक महिला उन पर कैसे राज कर सकती है। एक तो वे महिला हैं, दूसरा विदेशी। उस वक्त पूरे देश में ऐसा माहौल बनाया गया था कि लोगों को सोनिया के प्रधानमंत्री बनने पर ऐतराज हो। उनके जज्बात जगाए गए कि तुम एक विदेशी महिला के राज को कैसे स्वीकार कर सकते हो। इसमें बाकायदा देशभक्ति का पुट भी डाला गया था। यहां तक कि भारतीय पुरुषों की मर्दानगी तब को चुनौती तक देकर दबाव बनाया जा रहा था कि सोनिया किसी भी सूरत प्रधानमंत्री नहीं बननी चाहिए। चंद शब्दों में कहा जाए तो सोनिया के प्रति नफरत का माहौल बनाने की भरपूर कोशिश की गई थी। माहौल बना भी था। ऐसे माहौल में मर्दानगी की चुनौती झेला हुआ कोई भी सिरफिरा सोनिया को मारने की साजिश रच सकता था। किसी भी भारतीय के प्रधानमंत्री होने पर उसकी सुरक्षा को लेकर जितनी सतर्कता नहीं चाहिए, उससे कहीं गुना अधिक एक विदेशी महिला के प्रधानमंत्री होने पर बरतने की नौबत आ सकती थी। यहां तक देशभर में हिंसा तक भड़कने का खतरा था। गृहयुद्ध भी हो सकता था। कदाचित उस आशंका की भयावहता का सोनिया और राहुल को आभास रहा होगा। राहुल के अपनी दादी व पिता की हत्या और सोनिया के अपनी सास व पति की हत्या देखने की वजह से ये ख्याल स्वाभाविक ही है। भले ही सोनिया प्रधानमंत्री बन जातीं, मगर यदि केवल उनके विदेशी होने के मुद्दे को लेकर देश में बवाल होता तो वह उनके लिए बेहद शर्मनाक होता। वह इतिहास का काला अध्याय बन जाता। यदि इस अर्थ में सोनिया का त्याग देखा जाए तो उसमें कुछ गलत भी नहीं है कि उनके त्याग से देश हिंसा से बच गया। हालांकि सोनिया के भविष्य में आने वाले उस मन्तव्य का इंतजार करना चाहिए, जो उन्होंने नटवर के बयान के बाद आया है कि वे एक किताब लिखेंगी, जिसमें सब कुछ सामने आ जाएगा।
संभव है कि तब सोनिया व राहुल ने सोचा होगा कि चाहे किसी को प्रधानमंत्री बना दिया जाए, सरकार की कमान तो उनके ही हाथों में रहने वाली है और उनके प्रधानमंत्री बनने न बनने से कोई फर्क नहीं पडऩे वाला था, सो पद त्यागने का विचार आया होगा। यहां कहने की जरूरत नहीं है कि यह मुद्दा कई बार उठा कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह तो कठपुतली मात्र हैं  और सरकार सोनिया के इशारे पर ही चलती है। सत्ता के दो केन्द्र थे, उसमें ज्यादा ताकतवर सोनिया का था। ज्ञातव्य है कि कभी मनमोहन सिंह के मीडिया सलाहकार रहने वाले संजय बारू ने अपनी किताब द ऐक्सिडेंटल प्राइम मिनिस्टर, द मेकिंग ऐंड अनमेंकिंग ऑफ मनमोहन सिंह में खुलासा किया था सोनिया ही असल में सरकार चला रही थीं। नटवर सिंह भी ये कह रहे हैं कि सोनिया गांधी की पहुंच सरकारी फाइलों तक थी।
बहरहाल, चाहे बेटे की जिद के कारण या हिंसा के डर से सोनिया ने प्रधानमंत्री बनने का विचार त्यागा हो, मगर इस सिलसिले में एक बात कहने की इच्छा होती है कि भले ही भाजपा इत्यादि दलों को सोनिया के प्रधानमंत्री न बनने पर सुकून मिला हो, मगर यह भी हकीकत है कि पूरे दस साल सोनिया ने ही सरकार चलाई, चाहे अप्रत्यक्ष रूप से। नटवर सिंह ने तो इससे भी एक कदम आगे कह दिया कि जब वे पार्टी में थे तो सोनिया गांधी का कांग्रेस पर पूरा नियंत्रण था। सोनिया गांधी ने कभी इंटेलेक्चुअल होने का दावा नहीं किया, लेकिन उनके शब्द ही पार्टी के लिए कानून थे। नटवर सिंह ने कहा कि कई मायनों में कांग्रेस पर सोनिया का नियंत्रण इंदिरा गांधी से भी ज्यादा था और वह इंदिरा से भी ज्यादा ताकतवर नजर आती थीं।
-तेजवानी गिरधर

शुक्रवार, जुलाई 25, 2014

इतना क्या जरूरी था वैदिक का हाफिज सईद से मिलना?

इन दिनों वरिष्ठ पत्रकार वेद प्रताप वैदिक के हाफिज सईद से मिलने का मुद्दा गरमाया हुआ है। चूंकि वे बाबा रामदेव से सीधे जुड़े हुए हैं और बाबा रामदेव तथा उन्होंने चुनाव प्रचार के दौरान भी मोदी व भाजपा को जितवाने के प्रयास किए, इस कारण भाजपा खेमे की सिट्टी पिट्टी गुम है। वे इसे पत्रकारिता का मुद्दा बता कर पल्लू झाड़ रहे हैं। उनके गुण-अवगुण को पत्रकार जगत पर छोड़े दे रहे हैं। जाहिर है वे उन्हें बचाना चाहते हैं। यहां तक कि बड़े-बड़े पत्रकार भी पत्रकारिता की खेमेबाजी के कारण उनकी तरफदारी कर रहे हैं। दूसरी ओर कांग्रेस ने इसे बड़ा मुद्दा बना कर आसमान सिर पर उठा रखा है कि वैदिक ने चूंकि देश के सबसे बड़े दुश्मन से मुलाकात की है, इस कारण उनके खिलाफ कार्यवाही होनी चाहिए।
सवाल ये उठता है कि आखिर माजरा क्या है? जैसा कि कुछ वरिष्ठ पत्रकारों का मानना है कि बेशक वैदिक का सईद से मिलना कानूनी अपराध नहीं हो सकता है, विशेष रूप से पत्रकार होने के नाते, क्योंकि पत्रकारिता का कर्म ही ऐसा है कि पत्रकार को कई लोगों से मिलना होता है, मगर क्या वे केवल पत्रकार हैं? क्या उससे पहले भारत देश के नागरिक नहीं? क्या उनका पत्रकारिता का धर्म राष्ट्र भक्ति व देश के वफादारी से कहीं अधिक हो गया? और अफसोस तो तब होता है जबकि आप इस मुलाकात पर इठला रहे हैं कि आपने कोई बड़ा तीर मार लिया है। मुलाकात पर हंगामा होते ही उन्होंने इसे अपनी बड़ी उपलब्धि करार दिया। यहां तक कहा कि कोई कांग्रेसी नेता होता तो उसका पायजामा गीला हो जाता। उनका जो दंभ सामने आया, उससे तो यही लगता है कि भले ही वे किसी मिशन के तहत सईद से नहीं मिले, मगर उससे मिलने पर क्या बवाल होना है, इससे अच्छी तरह से वाकिफ थे। वे ये भी जानते थे कि वे यह कह आसानी से बच जाएंगे कि वे तो पत्रकार हैं, इस कारण कई नेताओं से मिलते रहते हैं।
जो तथ्य हैं उससे साफ है वे मिले ही भले एक पत्रकार के नाते, मगर उन्होंने वहां पत्रकारिता जैसा कोई काम नहीं किया। बात रही उनके पत्रकार होने के नाते वरिष्ठ पत्रकारों के उनकी तरफदारी की तो वजह स्पष्ट है, अनेक उनके शिष्य रहे  हैं या फिर किसी न किसी रूप में जुड़े हुए हैं, इस कारण व्यक्तिगत द्वेष से बचाना चाहते हैं। एक वर्ग इस मुद्दे को पत्रकारिता की स्वतंत्रता की वजह से चुप है।
तस्वीर का एक रुख ये भी है कि भले ही वैदिक को एक पत्रकार के रूप में देखा जा रहा हो, चूंकि उनका अधिकतर जीवन पत्रकारिता में ही बीता है, मगर सच ये भी है कि हाल ही के लोकसभा चुनाव में वे खुल कर भाजपा के पक्ष में लिखने लग गए थे। नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री बनवाने में उनकी भी भूमिका रही, जिसे वे स्वयं स्वीकार करते हैं। यहां तक कहते हैं कि मोदी का नाम उन्होंने ही प्रस्तावित किया था। ऐसे में क्या ये सवाल नहीं उठता कि पत्रकार कब से किसी पार्टी या व्यक्ति विशेष के लिए काम करने लगे। उन्होंने भले ही भाजपा की सदस्यता नहीं ली, जिसका तर्क दे कर भाजपा उनसे पल्लू झाड़ रही है, मगर उनके सारे कृत्य तो भाजपा के ही पक्ष में थे। मोदी के लिए प्रचार करने वाले योग गुरू बाबा रामदेव के साथ उनकी कितनी घनिष्ठता है, ये किसी से छिपी नहीं है। ऐसे में अगर उन पर भाजपाई होने का आरोप लग रहा है तो उसमें गलत क्या है?
वास्तव में वैदिक को पहली बार में ही हाफिज से मिलने के लिए साफ  मना करना चाहिए था, लेकिन उन्होंने राष्ट्र धर्म नहीं निभाया। और सबसे बड़ा सवाल ये कि वे ऐसी कौन सी पत्रकारिता करने का आतुर थे कि राष्ट्रधर्म निभाना ही भूल गए? सबसे बड़ा सवाल ये कि वैदिक को सईद से मिलने की इतनी जरूरत क्या आ पड़ी थी? बहरहाल अब मामला तूल पकड़ चुका है। उनके खिलाफ मुकदमा भी दर्ज हो गया है। अब कोर्ट ही तय करेगा कि उनका कृत्य उचित था या अनुचित।
-तेजवानी गिरधर

गुरुवार, जुलाई 03, 2014

साईं बाबा विवाद पर छिड़ी है वैचारिक जंग

शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद की ओर से साईं बाबा को भगवान न मानने के बयान के बाद देशभर में जबरदस्त बहस छिड़ गई है। टीवी चैनलों पर लगातार कई पैनल डिस्कशन हो रहे हैं। सांई बाबा के भक्त लामबंद हो कर शंकराचार्य का विरोध कर रहे हैं तो शंकराचार्य ने भी विभिन्न संतों की बैठक बुला कर अपने बयान पर बल देने का प्रयास किया है। केन्द्रीय मंत्री साध्वी उमा भारती के बयान के बाद तो इस विवाद ने राजनीतिक रूप भी ले लिया है। भाजपा से जुड़े राजनेता व संत यह कहने से नहीं चूक रहे कि शंकराचार्य कांग्रेस के नजदीकी हैं और उनका भाजपा में सत्ता में आने के बाद ऐसा बयान साजिश का इशारा करता है। ऐसा प्रतीत होता है मानो पूरा हिंदू समाज इस मुद्दे पर दो फाड़ सा हो गया है। कुछ हिंदू वादी साईं बाबा तो मुस्लिम करार देने पर आमादा हैं तो साईं भक्त उन्हें भगवान मानने पर अडिग हैं।
इस मुद्दे पर सोशल मीडिया भी मुखर हो गया है। वाट्स एप पर दोनों की पक्षों की ओर से अपने तर्क दिए जा रहे हैं। आइये, जरा देखें कि उनकी बात में कितना-कितना दम है:-
शंकराचार्य के एक समर्थक की पोस्ट इस प्रकार है- 
कटु सत्य--क्या आप जानते हैं?
1-साईं का असली नाम चांद मियां था।
2-साईं ने कभी अपने जीवन में 2 गांव से बाहर कदम नहीं रखा।
3-साईं सत्चरित में 10 बार से अधिक अल्लाह मालिक शब्द आया है, परन्तु एक बार भी ओम् नहीं आया।
4-साईं के समय में उसके आसपास के राज्यों में भयंकर अकाल पड़ा, परन्तु साईं बाबा ने गरीबों की मदद करना जरूरी नहीं समझा।
5-साईं का जन्म 1834 में हुआ, पर उन्होंने आजादी की लड़ाई, जिसे धर्म युद्ध की संज्ञा दी जाती है, में भारतीयों की मदद करना जरूरी नहीं समझा। पता नहीं क्यों, अगर वे राम-कृष्ण के अवतार थे, तो उन्हें मदद करनी चाहिए थी क्योंकि कृष्ण का हीकहना है कि धर्म युद्ध में सभी को भाग लेना पड़ता है। स्वयं कृष्ण ने महाभारत में पांडवों का मार्ग दर्शन किया और वक्त आने पर शस्त्र भी उठाया। भगवान राम ने भी यही किया, पर पता नहीं साईं कहां थे।
6-साईं भोजन से पहले फातिहा पढ़ते थे, परन्तु कभी गीता और रामायण नहीं पढ़ी, न ही कोई वेद। वाह कमाल के भगवान थे।
7-साईं अपने भक्तों को प्रसाद के रूप में बिरयानी यानि मांस मिश्रित चावल देते थे। खास कर ब्राह्मण भक्तों को। ये तो संभव ही नहीं की कोई भगवान का रूप ऐसा करे।
8-साईं जात के यवनी यानि मुसलमान थे और मस्जिद में रहते थे, लेकिन आज कल उन्हें ब्राह्मण दिखाने का प्रयास चल रहा है। सवाल ये है कि क्या ब्राह्मण मस्जिदों में रहते हैं?
नोट-ये सारी बातें स्वयं साईं सत्चारित में देखें। यहां पर एक भी बात मनगढ़ंत नहीं है। ये हमारी एक कोशिश है अन्धे हिन्दुओं को जगाने की। लेकिन हो सकता है इसका असर नहीं पड़े क्योंकि भैंस के आगे बीन बजाने का कोई लाभ नहीं होता।

जरा अब दूसरा पक्ष भी देख लीजिए-
न्यूज 24 पर साईं विवाद पर चल रही बहस में एंकर एवं अन्य धर्मों मुस्लिम, ईसाई, सिख के प्रतिनिधि उदारवाद के साक्षात अवतार दिखाई देने की कोशिश कर रहे थे एवं शंकराचार्य के बयान की निन्दा कर रहे थे तथा बेचारे हिन्दू प्रतिनिधि स्वामी का बचाव की मुद्रा में थे। सब सबका मालिक एक वाला राग गाये जा रहे थे। इसी दौरान स्वामी मार्तण्ड मणि ने बहुत ही बेहतरीन सवाल किया कि क्या आप सब अपने धर्म स्थानों मस्जिद, चर्च व गुरुद्वारे में साईं बाबा की पूजा की अनुमति देंगे? अब सबके चेहरे देखने लायक थे, सब इधर-उधर की बातें करने लगे। एंकर ने जोर देकर सवाल दोहराया तो टालमटोल करते-करते बताने लगे।
मुस्लिम धर्मगुरू-इस्लाम में अल्लाह के अलावा किसी की इबादत की मनाही है, तो मस्जिद में साईं की इबादत का प्रश्न ही नहीं उठता। बुतपरस्ती की तो सख्त-मनाही है, वगैरह- वगैरह।
पादरी जी-चर्च प्रभु यीशू के शरीर का स्वरूप है, कमाल है पादरी साहब ने आज ये नई बात बतायी, उसमें किसी और की पूजा नहीं हो सकती।
सिख प्रतिनिधि-गुरुद्वारा गुरू का स्थान है। हम केवल गुरू की वाणी में ही विश्वास करते हैं। वह सभी धर्मों का आदर करती है, उसमें सभी भक्तों की वाणियां हैं...वगैरह-वगैरह। दोबारा पूछे जाने पर ज्ञानी जी ने भी माना कि गुरुद्वारे में साईं की पूजा की अनुमति नहीं दी जा सकती।
अब कहां गई वह उदारता एवं सबका मालिक एक की भावना।
तो भाई जब तुम लोग साईं को अपने धर्म स्थान में जगह नहीं दे सकते, उसको अपने भगवान अर्थात अल्लाह, यीशु, गुरू आदि का अवतार नहीं मान सकते तो जब शंकराचार्य ने यही बात हिन्दुओं की ओर से कही तो आलोचना क्यों कर रहे हो।
ये सन्देश सीधा अंतर्मन से आया है। जो भी इसको 11 लोगों को भेजेगा, वह सनातन धर्म सेवा से मिले आनंद का भागी होगा।  और जो पढ़ कर भी डिलीट करेगा या नजर अंदाज करेगा, वह 5 दिन तक इसी टेंशन में रहेगा की बात तो सही लिखी थी, पर मैंने धर्म रक्षा का अवसर खो दिया।

इस विवाद पर राजनीति का रंग लिए यह पोस्ट भी देखिए-
मित्रों, आजकल साईं बाबा की आलोचना हर तरफ हो रही है, लेकिन कभी सोचा ये सब अब क्यों हो रहा है और इतने दिन बाद क्यों हो रहा है? आइये हम आपको बताते क्या हंै मामला.....
आपको पता होगा की शंकराचार्य जी की ओर से उठाये हुए सवाल के कारण आज ये विवाद पैदा हुआ है।
1-हाल ही में मोदी सरकार को बड़ी सफलता मिली है और ये जीत हिंदुस्तान के लिए बड़े गर्व का बात है और कांग्रेस के लिए ये शर्मनाक हार थी, इसी के कारण चलते कांग्रेस की बड़ी साजिश तैयार हुई। शंकराचार्य द्वारा जो अब बड़ा सिरदर्द बनाया हुआ है, बीजेपी व हिंदुस्तान के लिये, क्यों कि आने वाले कुछ ही दिन में महाराष्ट्र, हरियाणा, दिल्ली, झारखण्ड और बिहार में विधानसभा इलैक्शन के लिये वोटिंग होगी।
साईं बाबा के नाम पर होगा हिन्दुओं का बंटवारा और इसके चलते हिंदुस्तान में हिन्दू एक दूसरे से लड़ते रहेंगे, इसका फायदा कांग्रेस और बाकी मुसलमान को मिलेगा क्योंकि वक्फ बोर्ड की नजर साईं बाबा के संपत्ति पर हे, इसे हम अनदेखी नहीं कर सकते। साईं को मुसलमान साबित करके सूफी-संत बता दिया जायेगा और हड़प लेंगे साईं मंदिर की करोड़ों की संपति।
शंकराचार्य जी को कांग्रेस हमेशा सपोर्ट करता है, इसका उदाहरण मीडिया का रिपोर्टर का थप्पड़ कांड है। मोदी जी के बारे में पूछने पर शंकराचार्य ने थप्पड़ मारा था।
साईं बाबा हिन्दू या मुसलमान थे, ये किसी को पता नहीं, न ही कहीं लिखा है। इसलिये हमें सोचना चाहिये । अगर हिन्दुओं का इतना ख्याल है शंकराचार्य जी को तो कहां थे, जब तिरुपति में भगवान बालाजी मंदिर के पास मुसलमानों की यूनिवर्सिटी बन रही थी?
कहां थे जब हैदराबाद के लक्ष्मी मंदिर में घंटा बजने पर बैन हुआ था?
कहां थे जब ओवेसी हिंदुओं पर जहर उगल रहा था?
हिन्दुओं को आपस में लड़ा कर हिन्दू वोट को अलग करना शंकराचार्य जी का लक्ष्य है, जो हमको समझना चाहिए।
सबसे बडी बात है कि मोदी जी को बदनाम करके भारत के विकास को रोकने का काम करेंगे, जो कल तक कुछ एनजीओ करते थे। आईबी की रिपोर्ट आने के बाद एनजीओ का असली चेहरा सामने आया था। हमारा साहित्य, संस्कृति, कला, चाल-चलन और भविष्य हम बनायेंगे या फिर उन लोगों पर छोड़ देंगे जो दूसरे देश से पैसा लेकर हम को ये गलत उपदेश देंगे। और न मानने पर वो कोर्ट पहुंच जाते हैं, फिर रोक लेते हैं बने हुए काम। यही सत्य है। अगर आप इससे सहमत हैं तो शेयर करना न भूलें और देश में स्थिर बनाये रखें। पहले हम भी थे शंकराचार्य जी का साथ, लेकिन अब देश के हित के लिये हिन्दुस्तान के साथ।