असल सवाल ये नहीं है कि राजा ने तो इस्तीफा दे दिया और कर्नाटक के मुख्यमंत्री येदियुरप्पा अड़ गए, असल सवाल ये है कि दूसरी पार्टी के होते हुए भी राजा ने कांग्रेस के दबाव पर पद छोड़ दिया, जबकि येदियुरप्पा इस्तीफा देने के पार्टी हाईकमान के फरमान के बाद भी कुर्सी से चिपके रहे। चिपके क्या रहे, पार्टी हाईकमान पर यह लेबल चिपका दिया कि वह इतना कमजोर हो गया है कि क्षेत्रीय क्षत्रप उसके कब्जे में नहीं रहे हैं।
धरातल का सच तो यह है कि येदियुरप्पा न केवल बगावत की, अपितु पार्टी हाईकमान को ब्लैकमेल तक किया। उन्होंने जब ये चेतावनी दी कि अगर उनसे जबरन इस्तीफा मांगा गया तो कर्नाटक में भाजपा का सफाया हो जाएगा, पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी को झुकना ही पड़ा। दरअसल येदियुरप्पा के पास ब्लैकमेल करने की ताकत थी ही इस कारण कि उन्हें कर्नाटक के सर्वाधिक प्रभावी लिंगायत समाज और ब्राह्मणों का समर्थन हासिल है। इसके अतिरिक्त उन्होंने दो बार विधानसभा में विश्वास मत हासिल करके भी दिखा दिया। यदि पार्टी उन्हें पद से हटने को मजबूर करती तो पार्टी का जनाधार ही समाप्त हो जाता। इसके अतिरिक्त निकट भविष्य में होने जा रहे पंचायती राज चुनाव में भारी घाटा उठाना पड़ता। जाहिर सी बात है कि उत्तर भारत की पार्टी कहलाने वाली भाजपा को कर्नाटक के बहाने दक्षिण में बमुश्किल पांव जमाने का मौका मिला था, भला वहां उखडऩे को कैसे तैयार होती। कदाचित अब भाजपा को भी समझ में आ गया होगा कि आदर्श की बातें करना और उन पर अमल करना कितना कठिन है। उसे यह भी अहसास हो गया होगा कि जिन मुद्दों पर वह कांग्रेस को घेरते हुए अपने आपको पाक साफ बताती थी, उनको लेकर सत्ता की खातिर कांग्रेस कैसे कई बार ढ़ीठ हो जाती थी।
भाजपा की इस ताजा हरकत से यकायक यह एसएमएस याद आ गया, जो पिछले दिनों काफी चर्चित रहा था-
How strange is the logic of our mind, we look for compromise, when we are wrong and we look for justice when others are wrong.
ऐसा नहीं कि भाजपा में यह पहला मामला हो। इससे पहले राजस्थान में पूर्व मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे बगावती तेवर दिखा चुकी हैं। उन्होंने भी पार्टी हाईकमान के इस आदेश को मानने से इंकार कर दिया था कि वे नेता प्रतिपक्ष का पद छोड़ दें। संगठन में राष्ट्रीय महामंत्री बनाए जाने के बाद भी बड़ी मुश्किल से पद छोड़ा, पर नहीं छोडऩे जैसा। उनके छोडऩे के बाद दूसरा आज तक पदारूढ़ नहीं किया जा सका है। प्रदेश में दिखाने भर को अरुण चतुर्वेदी के पास की पार्टी की फं्रैचाइजी है, मगर भाजपा की दुकान की असली मालिक अब भी श्रीमती वसुंधरा ही नजर आती हैं। बीच में तो हालत ये हो गई थी कि यदि हाईकमान ज्यादा ही सख्ती दिखाता तो वसुंधरा नई पार्टी गठित कर देती। ऐसे में हाईकमान यहां समझौता करके ही चल रही है। राजनीतिक गरज की खातिर इससे पूर्व भी हाईकमान ब्लैकमेल हो चुका है। खुद को सर्वाधिक राष्ट्रवादी बताने वाली भाजपा ने पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना की तारीफ में पुस्तक लिखने वाले जसवंत सिंह को छिटकने के चंद माह बाद ही फिर से गले लगा लिया था। उसकी इस राजनीतिक मजबूरी तो तब इसे थूक कर चाटने की संज्ञा दी गई थी। विशेष रूप से इस कारण कि लोकसभा चुनाव में पराजित होने के बाद अपने रूपांतरण और परिमार्जन का संदेश देने पार्टी को एक के बाद एक ऐसे कदम उठाने पड़े। जिस नितिन गडकरी को पार्टी को नयी राह दिखाने की जिम्मेदारी दी गई थी, उन्हें ही चंद माह बाद जसवंत की छुट्टी का तात्कालिक निर्णय पलटने को मजबूर होना पड़ा। इससे पहले आडवाणी से किनारा करने का पक्का मानस बना चुकी भाजपा को अपने भीतर उन्हीं के कद के अनुरूप जगह बनानी पड़ी है।
वसुंधरा इतनी ताकतवर हैं, इसका सबसे बड़ा सबूत ये है कि राज्यसभा चुनाव में दौरान वे पार्टी की राह से अलग चलने वाले राम जेठमलानी को न केवल पार्टी का अधिकृत प्रत्याशी बनवा लाई, अपितु अपनी कूटनीतिक चालों से उन्हें जितवा भी दिया। जेठमलानी का मामला भी थूक कर चाटने वाला ही है। भाजपाईयों के आदर्श वीर सावरकर की तुलना पाकिस्तान के संस्थापक जिन्ना से करने, जिन्ना को इंच-इंच धर्मनिरपेक्ष तक करार देने, पार्टी की मनाही के बाद इंदिरा गांधी के हत्यारों का केस लडऩे, संसद पर हमला करने वाले अफजल गुरु को फांसी नहीं देने की वकालत करने और पार्टी के शीर्ष नेता अटल बिहारी वाजपेयी के खिलाफ ही चुनाव मैदान में उतरने वाले जेठमलानी को पार्टी का प्रत्याशी बनाना क्या थूक कर चाटने से कम है।
बहरहाल, पार्टी आज जिस रास्ते पर चल रही है, उससे उसका पार्टी विद द डिफ्रेंस का तमगा छिन चुका है। माने भले ही खुद को सर्वाधित पाक साफ, मगर राजनीतिक लिहाज से कांग्रेस से अलग या ऊपर होने का गौरव खो चुकी है।