तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

शुक्रवार, नवंबर 06, 2015

बिहार चुनाव की सरगरमी ने भटकाया मोदी के विकास एजेंडे को

बिहार में भले ही प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और भाजपा का सारा जोर जंगल राज से मुक्त हो कर विकास की ओर अग्रसर होने पर है, मगर चाहे अनचाहे वह भटक कर बीफ और साहित्कारों के अकादमी पुरस्कार लौटाने पर केन्द्रित हो गया है। जाहिर तौर पर सबका साथ सबका विकास का नारा देने वाले मोदी बिलकुल भी नहीं चाहते होंगे कि उनका एजेंडा भटके, मगर बिहार चुनाव की सरगरमी में निचले स्तर के नेताओं की बयानबाजी ने माहौल को ऐसा गरमा दिया कि कथित रूप से वामपंथ के इषारे पर साहित्यकारों ने अकादमी पुरस्कार लौटा कर परेषानी में डाल दिया। हालांकि यह सही है कि बिहार चुनाव के बाद माहौल फिर से सामान्य किया जा सकेगा, मगर फिलहाल तो मोदी सरकार ऐसी परेषानी में फंस गई है, जिसकी कल्पना उसने नहीं की होगी।
हुआ यूं कि जैसे ही मोदी सरकार अस्तित्व में आई थी, वैसे ही आरएसएस और उससे जुड़े संगठनों ने अपना एजेंडा कुछ इस तरह चलाया कि मोदी के सबका साथ सबका विकास पर सवाल उठने लगे। इसमें मोदी की चुप्पी ने भी अहम भूमिका अदा की। अगर वे आरंभ में ही बयानवीरों पर अंकुष रखते तो कदाचित ऐसी नौबत नहीं आती।
असल में दादरी कांड के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लंबी चुप्पी ने भाजपा का बड़ा नुकसान किया है। मोदी की चुप्पी को अजब-गजब बयान देने वाले नेता अपने लिए मौन समर्थन समझ बैठे थे या वास्तव में मोदी ही उन्हें मूक समर्थन दे रहे थे, इस सवाल का जवाब नहीं दिया जा सकता, लेकिन इतना तय है कि दोनों ही सूरत में नुकसान भाजपा का ही हुआ है और दुनिया में देश की छवि पर असर पड रहा है।
वस्तुतः जब नरेंद्र मोदी को भाजपा का प्रधानमंत्री का उम्मीदवार चुना गया था, तब भी और उनके भारी बहुमत से जीतकर आने के बाद भी देश के बुद्धिजीवियों ने शंका जाहिर की थी कि देश में अतिवादी हिंदू संगठन मुखर होकर सामने आ सकते हैं। दुर्भाग्य से उनकी शंका सही साबित हुई। कन्नड़ लेखक एमएम कुलबर्गी की हत्या और दादरी कांड से देश सकते में आ गया। सबसे बुरी बात यह हुई कि भाजपा के कुछ नेताओं ने दादरी कांड को सही ठहराने की कोशिश की, जिसका खंडन भाजपा के शीर्ष नेतृत्व की तरफ से इस तरह नहीं आया, जैसा आना चाहिए था। हर छोटी-बड़ी और अच्छी-बुरी घटना पर ट्वीट करने वाले प्रधानमंत्री दादरी कांड पर चुप्पी लगा गए। दस दिन बाद जब प्रधानमंत्री की चुप्पी टूटी तो वह बेमायने थी। नतीजा यह हुआ हरियाणा के मुख्यमंत्री खट्टर ने मुस्लिमों और बीफ के बारे में ऐसा बयान दिया कि भाजपा का शीर्ष नेतृत्व भी उसे पचा नहीं सका और उसने बिना वक्त गंवाए उससे अपने को अलग कर लिया।
यहां तक आरएसएस के मुखपत्र कहे जाने वाले साप्ताहिक समाचार पत्र पांचजन्य की उस कवर स्टोरी ने भी भाजपा नेतृत्व को बैकफुट पर आने को मजबूर कर दिया, जिसमें बाकायदा वेदों का हवाला देकर अखलाक की हत्या को सही ठहराया गया था। आखिरकार भाजपा ने पांचजन्य्य और आर्गेनाइजर को अपना मुखपत्र मानने से ही इंकार कर दिया। भाजपा अध्यक्ष अमित षाह को भी लगा कि मामला गंभीर होता जा रहा है और उन्हें भाजपा सांसद साक्षी महाराज, केंद्रीय संस्कृति मंत्री महेश शर्मा और भाजपा विधायक संगीत सोम को दिल्ली तलब करके बीफ मुद्दे पर उलटे-सीधे बयान न देने की सख्त ताकीद करना पडा।
कुछ लोगों का मानना है कि भाजपा के शीर्ष नेतृत्व ने यह सब जानबूझ कर होने दिया। संभवतः वह समझ रहा था कि बीफ मुद्दे का बिहार चुनाव में फायदा मिल सकता है, लेकिन बिहार में इसके नकारात्मक प्रभाव सामने आने के बाद भाजपा आलाकमान को होश आया।  
बहरहाल, कन्नड लेखक एमएम कुलबर्गी और दादरी कांड पर प्रधानमंत्री की चुप्पी ने देश के साहित्यकारों और बुद्धिजीवियों को इतना असहज कर दिया कि उन्होंने विरोधस्वरूप अपने साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाने शुरू किए तो उनका सिलसिला रुकने का नाम नहीं ले रहा है। साहित्यकारों के विरोध हवा में उड़ा देने वाली भाजपा को शायद अभी एहसास नहीं है कि इसका दुनिया के देशों में क्या प्रभाव पड़ रहा है। एक अमेरिकी संस्था ने अपनी रिपोर्ट में हाल में ही कहा है कि मोदी सरकार के आने के बाद भारत में धार्मिक असहिष्णुता बढ़ी है, जिससे वहां के अल्पसंख्यक असुरक्षित महसूस कर रहे हैं। देश के मौजूदा हालात से प्रधानमंत्री के मेक इन इंडिया जैसे महत्वाकांक्षी कार्यक्रमों पर भी ग्रहण लग सकता है। विदेशी निवेश उसी देश में आ सकता है, जब वहां के हालात सही हों।
अजब विडंबना है कि जो देश अमेरिका की तरह अति विकसति बनना चाहता है, संयुक्त राष्ट्र संघ में स्थाई सदस्यता के लिए दावेदारी पेश कर रहा है, वह उन मुद्दों पर उलझ गया है, जो देश को पीछे ही ले जाएंगे।
-तेजवानी गिरधर