तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

बुधवार, अक्टूबर 19, 2011

दर्द भी कम नहीं दे रही मुफ्त की दवा

राज्य सरकार की ओर से गत 2 अक्टूबर से शुरू की गई मुफ्त दवा योजना बेशक बेहतरीन है, मगर उसको अमल में लाए जाने वे पहले पूरी तैयारी नहीं किए जाने के कारण मरीजों को सुविधा मिलने की बजाय परेशानियां ज्यादा हो रही हैं। हालांकि योजना की तैयारी काफी वक्त पहले ही शुरू कर दी गई, मगर घोषित तिथि पर लागू करने की जल्दबाजी के कारण आधी अधूरी व्यवस्थाओं में ही शुरू कर दिया गया। नतीजतन हालत ये है कि न तो निर्धारित सभी दवाइयां अस्पतालों में पहुंची और न ही यकायक बढऩे वाली भीड़ को व्यवस्थित करने के उपाय किए गए। हालत ये है कि इस योजना की तारीफ करने वालों से कहीं ज्यादा है परेशान होने वाले लोगों की तादात। यह सही है कि इस योजना का बाजार पर फर्क पड़ा है, मगर अस्पताल में धक्के खा कर सरकार को कोसते हुए लौटने वाले भी बहुत हैं।
इस महत्वाकांक्षी योजना का सबसे अहम पहलु ये है कि सरकार लाख कोशिशों के बाद भी दवा माफिया के कुप्रचार से नहीं निपट पाई है। आपको याद होगा कि योजना से पहले जब सरकार ने डॉक्टरों को जेनेरिक दवाई ही लिखने के लिए बाध्य किया, तब भी माफिया के निहित स्वार्थों के कारण उस पर ठीक से अमल नहीं हो पाया था। दवा माफिया ने ब्रांडेड और उन्नत किस्म की दवा के नाम पर बड़े पैमाने पर कमीशनबाजी चला रखी है और एक ओर जहां चिकित्सकों को मालामाल कर दिया, वहीं आम आदमी की कमर तोड़ रखी है। अब तो हाईकोर्ट तक को कड़ा रुख अपना कर जेनेरिक दवाई न लिखने वाले डाक्टरों के विरुद्ध सख्त कार्यवाही करने की चेतावनी दी गई है।
असल में शुरू से यह कुप्रचार किया जाता रहा कि जेनेरिक दवाई सस्ती भले ही हो, मगर वह ब्रांडेड दवाइयों के मुकाबले घटिया है और उससे मरीज ठीक नहीं हो पाता। यह धारणा आज भी कायम है। इसकी खास वजह ये है कि सरकार के नुमाइंदे ये तो कहते रहे कि जेनेरिक दवाई अच्छी होती है, मगर आम जनता में उसके प्रति विश्वास कायम करने के कोई उपाय नहीं किए गए। इसी कारण दवा माफिया का दुष्प्रचार अब भी असर डाल रहा है।
यह आशंका शुरू से थी कि क्या सरकार वाकई उतनी दवाई उपलब्ध करवा पाएगी, जितनी कि जरूरत है? क्या सरकार ने वाकई पूरा आकलन कर लिया है कि प्रतिदिन कितने मरीजों के लिए कितनी दवाई की खपत है? इसके अतिरिक्त क्या समय पर दवा कंपनियां माल सप्लाई कर पाएंगी? ये आशंकाएं सही ही निकलीं। सरकार यह सोच रही थी कि जब मरीज को अस्पताल में ही मुफ्त दवाई उपलब्ध करवा दी जाएगी तो वह बाजार में जाएगा ही नहीं, मगर जरूरत के मुताबिक दवाइयां उपलब्ध न करवा पाने के कारण वह सोच धरी रह गई है। हालत ये है कि मरीज अस्पताल में लंबी लाइन में लग कर पर्ची लिखवाने के बाद सरकारी स्टोर पर जाता है तो उसे छह में से चार दवाइयां मिलती ही नहीं। मजबूरी में उसे बाजार में जाना पड़ता है और वहां उसे ब्रांडेड दवाई ही खरीदनी पडती है। वहां एक और धांधली होने की भी जानकारी है। बताया जाता है कि जेनेरिक दवाई पर भी उसके वास्तविक मूल्य से कई गुना अधिक प्रिंट रेट होती है। यानि कि अब उसमें भी कमीशनबाजी का चक्कर शुरू हो गया है। सरकार ने इससे निपटने के लिए कोई पुख्ता इंतजाम नहीं किया है।
योजना की सफलता को लेकर एक आशंका तो ये भी है कि कमीशन के आदी हो चुके डॉक्टर क्या इसे आसानी से सफल होने देंगे, जिनकी भूमिका इसे लागू करवाने में सबसे महत्वपूर्ण है। कदाचित वे यह कह सकते हैं कि वह सरकार के कहने पर अमुक जेनेरिक दवाई लिख तो रहे हैं और वह अस्पताल में मिल भी जाएगी, मगर असर नहीं करेगी। यदि असरकारक दवाई चाहिए तो अमुक ब्रांडेड दवाई लेनी होगी।
एक छिपा हुआ तथ्य ये भी है कि जेनेरिक दवाई की गुणवत्ता कायम रखने का दावा भले ही जोरशोर से किया जा रहा हो, मगर असल स्थिति ये है कि टेंडर के जरिए दवा कंपनियों को दिए गए आदेश को लेकर उठे सवालों पर सरकार चुप्पी साधे बैठी है। ऐसे में यह सवाल तो कायम ही है कि जो कंपनी राजनीतिक प्रभाव अथवा कुछ ले-दे कर आदेश लेने में कामयाब हुई है, वह दवाई बनाने के मामले में कितनी ईमानदारी बरत नहीं होगी।
इस योजना पर एक खतरा ये भी है कि सरकारी दवाई में कहीं बंदरबांट न हो जाए। अगर अस्पताल प्रशासन मुस्तैद नहीं रहा तो सरकारी दवाई बिकने को मार्केट में चली जाएगी। कुल मिला कर योजना तभी कारगर होगी, जबकि सरकार इस मामले की मॉनिटरिंग मुस्तैदी से करेगी।
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