यह बात सिद्धांतत: तो सही है कि लोकतंत्र में व्यक्तिवाद और परिवारवाद का कोई स्थान नहीं होना चाहिए और नीति व विचार को ही महत्व दिया जाना चाहिए, मगर सच्चाई ये है कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश कहलाने वाले हमारे भारत में परिवारवाद और व्यक्तिवाद ही फलफूल रहे हैं। कांग्रेस की आधारशिला तो टिकी ही परिवारवाद पर है, जबकि भाजपा में आंतरिक लोकतंत्र होने के बावजूद व्यक्तिवाद का बोलबाला है।
ताजा उदाहरण ही लीजिए। गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी पार्टी पर इतने हावी हो गए हैं कि उनकी नाराजगी से डर कर संघ पृष्ठभूमि के संजय जोशी का पहले भाजपा राष्ट्रीय कार्यकारिणी से इस्तीफा लेना पड़ा और उसके बाद जब मोदी के खिलाफ एवं जोशी के समर्थन में पोस्टरबाजी होने लगी तो जोशी को पार्टी ही छोड़ देनी पड़ी। जोशी को पार्टी से बाहर निकाले जाने को मोदी की बड़ी जीत माना जा रहा है। इसमें भी रेखांकित करने लायक बात ये है कि मोदी भी संघ पृष्ठभूमि के ही हैं, इसके बाद भी जोशी को शहीद किया गया है। साफ है कि अब संघ में भी धड़ेबाजी हो गई है। यूं संघ की विशेषता ये रही है कि वह कभी व्यक्ति को अहमियत नहीं देता, विशेष रूप से नीति के मामले में। इसका सबसे ज्वलंत उदाहरण ये है कि जब संघ पृष्ठभूमि के भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी ने जिन्ना की तारीफ में चंद शब्द कह दिए तो उन्हें पद से इस्तीफा देने को मजबूर कर दिया गया। मगर अब ऐसा लगता है कि संघ भी व्यावहारिक होने लगा है। वह समझ रहा है कि जोशी भले ही बड़े काम के नेता हैं, मगर उनकी तुलना में मोदी का जनाधार कई गुना अधिक है। जोशी के चक्कर में मोदी की नाराजगी मोल नहीं ली जा सकती। ताजा मोदी-जोशी प्रकरण में संघ व भाजपा की जबरदस्त किरकिरी हो रही है। दोनों संगठन समझ रहे हैं कि यह विवाद पार्टी हित में नहीं है, मगर उनकी नजर में आगामी लोकसभा चुनाव में जीत का लक्ष्य सबसे अहम है। हालांकि अभी तय नहीं है कि मोदी ही भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री पद के दावेदार होंगे, मगर चाहे-अनचाहे वे दावेदार तो हो ही गए हैं। इसके अतिरिक्त एक राज्य गुजरात में उनका व्यक्तिगत बोलबाला है। भले ही ताजा प्रकरण में मोदी एक व्यक्ति के रूप में ताकतवर बन कर उभर आए हैं और यह संघ व भाजपा की नीतियों के अनुकूल नहीं है, मगर सत्ता में आने के लक्ष्य को पूरा करने के लिए उन्हें अपनी नीति को तिलांजलि देनी पड़ रही है। इसकी आलोचना भी हो रही है। बिहार के उप-मुख्यमंत्री सुशील मोदी ने तो साफ कहा है कि पार्टी से बड़ा कोई नहीं। संजय जोशी से जिस तरह से इस्तीफा लिया गया वह आंतरिक लोकतंत्र के लिए ठीक नहीं है, मगर उसके बाद भी यदि संघ व भाजपा को जोशी को हटाना उचित लग रहा है, तो इसका मतलब साफ है कि सत्ता में आने के लिए वह आंतरिक लोकतंत्र को छोडऩे संबंधी आलोचना सहने को तैयार है।
इतिहास में जरा पीछे जाएं तो अंदाजा लग जाएगा कि आज संघ पर हावी हो चुके मोदी संघ की ताकत से ही भाजपा के दिग्गजों से टक्कर ले चुके हैं। मोदी की वजह से जब पार्टी पर सांप्रदायिक होने का आरोप लग रहा था, तब भी भाजपा हाईकमान में इतनी ताकत नहीं थी कि उन्हें इस्तीफे के लिए कह सके। संघ के दम पर मोदी अपना हठ तब भी दिखा चुके हैं, जब गुजरात दंगों के बाद हुए विधानसभा चुनावों में अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी जैसे वरिष्ठ नेताओं के कहने के बावजूद उन्होंने हरेन पंड्या को टिकट देने से इंकार कर दिया था।
भाजपा में व्यक्तिवाद का मोदी ही अकेला उदाहरण नहीं हैं। राजस्थान, दिल्ली, उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड, झारखण्ड, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और जम्मू-कश्मीर जैसे कई राज्य हैं, जहां के क्षत्रपों ने न सिर्फ पार्टी आलाकमान की आंख से आंख मिलाई, अपितु अपनी शर्तें भी मनवाईं। मजे की बात है कि उसके बाद भी पार्टी सर्वाधिक अनुशासित कहलाती है। और उसी में अनुशासनहीनता की सर्वाधिक घटनाएं होती हैं।
आपको याद होगा कि राजस्थान में पार्टी आलाकमान के फैसले के बावजूद पूर्व मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे ने नेता प्रतिपक्ष के पद से इस्तीफा देने से इंकार कर दिया था। बड़ी मुश्किल से उन्होंने पद छोड़ा, वह भी राष्ट्रीय महासचिव बनाने पर। उनके प्रभाव का आलम ये था कि तकरीबन एक साल तक नेता प्रतिपक्ष का पद खाली ही पड़ा रहा। आखिरकार पार्टी को झुकना पड़ा और फिर से उन्हें फिर से इस पद से नवाजा गया। ऐसे में भाजपा के इस मूलमंत्र कि 'व्यक्ति नहीं, संगठन बड़ा होता है�, की धज्जियां उड़ गईं। हाल ही पूर्व गृह मंत्री गुलाबचंद कटारिया की यात्रा के विवाद में भी वसुंधरा की ही जीत हुई। कटारिया को अपनी यात्रा रद्द करनी पड़ी। केवल इतना ही नहीं, विवाद की आड़ में वसुंधरा इस बात पर अड़ गई कि रोजाना की किचकिच खत्म करते हुए घोषित कर दिया जाए कि राजस्थान में आगामी चुनाव उनके ही नेतृत्व में लड़ा जाएगा। हालांकि पार्टी इसकी घोषणा तो नहीं कर पाया, मगर जानकारी ये ही है कि नीतिगत रूप से उनकी मांग मानी ली गई है। मतलब साफ है, मोदी की तरह वसुंधरा भी पार्टी पर हावी हैं। मोदी तो फिर भी संघ पृष्ठभूमि के हैं, मगर राजस्थान में तो संघ से विपरीत चल रही वसुंधरा के आगे पार्टी व संघ को झुकना पड़ रहा है।
इसी प्रकार कर्नाटक में पार्टी को खड़ा करने वाले निवर्तमान मुख्यमंत्री येदियुरप्पा का कद पार्टी से बड़ा हो गया। वो तो लोकायुक्त की रिपोर्ट का भारी दबाव था, वरना मुख्यमंत्री पद छोडऩे के पार्टी के आदेश को तो वे साफ नकार ही चुके थे। कुछ दिन शांत रहने के बाद वे अब भी फिर से मुख्यमंत्री बनाए जाने के लिए दबाव बना रहे हैं।
दिल्ली का उदाहरण लीजिए। मदन लाल खुराना की जगह मुख्यमंत्री बने साहिब सिंह वर्मा ने हवाला मामले से खुराना के बरी होने के बाद उनके लिए मुख्यमंत्री पद की कुर्सी को छोडऩे से साफ इंकार कर दिया था। जब उन्हें केंद्रीय मंत्रिमंडल में अपने लिए पद देने का प्रस्ताव दिया गया, तब जा कर माने। उत्तर प्रदेश में तो बगावत तक हुई। कल्याण सिंह से जब मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा लिया गया तो वे पार्टी से अलग हो गए और नई पार्टी बना कर भाजपा को भारी नुकसान पहुंचाया। उनका आधार भी जातिवादी ही था। इसी प्रकार उत्तराखण्ड में भगत सिंह कोश्यारी और भुवन चंद्र खंडूरी को हाईकमान के कहने पर मुख्यमंत्री पद छोडऩा पड़ा, मगर जब वहां विधानसभा चुनाव हुए तो पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी के कहने के बावजूद उस रैली में खंडूरी और कोश्यारी नहीं पहुंचे। मध्यप्रदेश में उमा भारती का मामला भी छिपा हुआ नहीं है। वे राष्ट्रीय कार्यसमिति की बैठक में तत्कालीन अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी को खुद पर कार्रवाई की चुनौती देकर बैठक से बाहर निकल गई थीं। शिवराज सिंह चौहान को मुख्यमंत्री बनाए जाने पर उन्होंने अलग पार्टी ही गठित कर ली। एक लंबे अरसे बाद उन्हें पार्टी में शामिल कर थूक कर चाटने का मुहावरा चरितार्थ किया गया। इसी प्रकार झारखण्ड में शिबू सोरेन की पार्टी से गठबंधन इच्छा नहीं होने के बावजदू अर्जुन मुण्डा की जिद के आगे भाजपा झुकी। इसी प्रकार जम्मू-कश्मीर में वरिष्ठ नेता चमन लाल गुप्ता का विधान परिषद चुनाव में कथित रूप से क्रास वोटिंग करना और महाराष्ट्र के वरिष्ठ भाजपा नेता गोपीनाथ मुंडे का दूसरी पार्टी में जाने की अफवाहें फैलाना भी पार्टी के लिए गंभीर विषय रहे हैं।
कुल मिला कर आंतरिक लोकतंत्र की दुहाई देने वाली पार्टी में अब विभिन्न क्षत्रप व व्यक्ति उभर आए हैं, जो कि संघ व भाजपा पर हावी हो चुके हैं।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com
ताजा उदाहरण ही लीजिए। गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी पार्टी पर इतने हावी हो गए हैं कि उनकी नाराजगी से डर कर संघ पृष्ठभूमि के संजय जोशी का पहले भाजपा राष्ट्रीय कार्यकारिणी से इस्तीफा लेना पड़ा और उसके बाद जब मोदी के खिलाफ एवं जोशी के समर्थन में पोस्टरबाजी होने लगी तो जोशी को पार्टी ही छोड़ देनी पड़ी। जोशी को पार्टी से बाहर निकाले जाने को मोदी की बड़ी जीत माना जा रहा है। इसमें भी रेखांकित करने लायक बात ये है कि मोदी भी संघ पृष्ठभूमि के ही हैं, इसके बाद भी जोशी को शहीद किया गया है। साफ है कि अब संघ में भी धड़ेबाजी हो गई है। यूं संघ की विशेषता ये रही है कि वह कभी व्यक्ति को अहमियत नहीं देता, विशेष रूप से नीति के मामले में। इसका सबसे ज्वलंत उदाहरण ये है कि जब संघ पृष्ठभूमि के भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी ने जिन्ना की तारीफ में चंद शब्द कह दिए तो उन्हें पद से इस्तीफा देने को मजबूर कर दिया गया। मगर अब ऐसा लगता है कि संघ भी व्यावहारिक होने लगा है। वह समझ रहा है कि जोशी भले ही बड़े काम के नेता हैं, मगर उनकी तुलना में मोदी का जनाधार कई गुना अधिक है। जोशी के चक्कर में मोदी की नाराजगी मोल नहीं ली जा सकती। ताजा मोदी-जोशी प्रकरण में संघ व भाजपा की जबरदस्त किरकिरी हो रही है। दोनों संगठन समझ रहे हैं कि यह विवाद पार्टी हित में नहीं है, मगर उनकी नजर में आगामी लोकसभा चुनाव में जीत का लक्ष्य सबसे अहम है। हालांकि अभी तय नहीं है कि मोदी ही भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री पद के दावेदार होंगे, मगर चाहे-अनचाहे वे दावेदार तो हो ही गए हैं। इसके अतिरिक्त एक राज्य गुजरात में उनका व्यक्तिगत बोलबाला है। भले ही ताजा प्रकरण में मोदी एक व्यक्ति के रूप में ताकतवर बन कर उभर आए हैं और यह संघ व भाजपा की नीतियों के अनुकूल नहीं है, मगर सत्ता में आने के लक्ष्य को पूरा करने के लिए उन्हें अपनी नीति को तिलांजलि देनी पड़ रही है। इसकी आलोचना भी हो रही है। बिहार के उप-मुख्यमंत्री सुशील मोदी ने तो साफ कहा है कि पार्टी से बड़ा कोई नहीं। संजय जोशी से जिस तरह से इस्तीफा लिया गया वह आंतरिक लोकतंत्र के लिए ठीक नहीं है, मगर उसके बाद भी यदि संघ व भाजपा को जोशी को हटाना उचित लग रहा है, तो इसका मतलब साफ है कि सत्ता में आने के लिए वह आंतरिक लोकतंत्र को छोडऩे संबंधी आलोचना सहने को तैयार है।
इतिहास में जरा पीछे जाएं तो अंदाजा लग जाएगा कि आज संघ पर हावी हो चुके मोदी संघ की ताकत से ही भाजपा के दिग्गजों से टक्कर ले चुके हैं। मोदी की वजह से जब पार्टी पर सांप्रदायिक होने का आरोप लग रहा था, तब भी भाजपा हाईकमान में इतनी ताकत नहीं थी कि उन्हें इस्तीफे के लिए कह सके। संघ के दम पर मोदी अपना हठ तब भी दिखा चुके हैं, जब गुजरात दंगों के बाद हुए विधानसभा चुनावों में अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी जैसे वरिष्ठ नेताओं के कहने के बावजूद उन्होंने हरेन पंड्या को टिकट देने से इंकार कर दिया था।
भाजपा में व्यक्तिवाद का मोदी ही अकेला उदाहरण नहीं हैं। राजस्थान, दिल्ली, उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड, झारखण्ड, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और जम्मू-कश्मीर जैसे कई राज्य हैं, जहां के क्षत्रपों ने न सिर्फ पार्टी आलाकमान की आंख से आंख मिलाई, अपितु अपनी शर्तें भी मनवाईं। मजे की बात है कि उसके बाद भी पार्टी सर्वाधिक अनुशासित कहलाती है। और उसी में अनुशासनहीनता की सर्वाधिक घटनाएं होती हैं।
आपको याद होगा कि राजस्थान में पार्टी आलाकमान के फैसले के बावजूद पूर्व मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे ने नेता प्रतिपक्ष के पद से इस्तीफा देने से इंकार कर दिया था। बड़ी मुश्किल से उन्होंने पद छोड़ा, वह भी राष्ट्रीय महासचिव बनाने पर। उनके प्रभाव का आलम ये था कि तकरीबन एक साल तक नेता प्रतिपक्ष का पद खाली ही पड़ा रहा। आखिरकार पार्टी को झुकना पड़ा और फिर से उन्हें फिर से इस पद से नवाजा गया। ऐसे में भाजपा के इस मूलमंत्र कि 'व्यक्ति नहीं, संगठन बड़ा होता है�, की धज्जियां उड़ गईं। हाल ही पूर्व गृह मंत्री गुलाबचंद कटारिया की यात्रा के विवाद में भी वसुंधरा की ही जीत हुई। कटारिया को अपनी यात्रा रद्द करनी पड़ी। केवल इतना ही नहीं, विवाद की आड़ में वसुंधरा इस बात पर अड़ गई कि रोजाना की किचकिच खत्म करते हुए घोषित कर दिया जाए कि राजस्थान में आगामी चुनाव उनके ही नेतृत्व में लड़ा जाएगा। हालांकि पार्टी इसकी घोषणा तो नहीं कर पाया, मगर जानकारी ये ही है कि नीतिगत रूप से उनकी मांग मानी ली गई है। मतलब साफ है, मोदी की तरह वसुंधरा भी पार्टी पर हावी हैं। मोदी तो फिर भी संघ पृष्ठभूमि के हैं, मगर राजस्थान में तो संघ से विपरीत चल रही वसुंधरा के आगे पार्टी व संघ को झुकना पड़ रहा है।
इसी प्रकार कर्नाटक में पार्टी को खड़ा करने वाले निवर्तमान मुख्यमंत्री येदियुरप्पा का कद पार्टी से बड़ा हो गया। वो तो लोकायुक्त की रिपोर्ट का भारी दबाव था, वरना मुख्यमंत्री पद छोडऩे के पार्टी के आदेश को तो वे साफ नकार ही चुके थे। कुछ दिन शांत रहने के बाद वे अब भी फिर से मुख्यमंत्री बनाए जाने के लिए दबाव बना रहे हैं।
दिल्ली का उदाहरण लीजिए। मदन लाल खुराना की जगह मुख्यमंत्री बने साहिब सिंह वर्मा ने हवाला मामले से खुराना के बरी होने के बाद उनके लिए मुख्यमंत्री पद की कुर्सी को छोडऩे से साफ इंकार कर दिया था। जब उन्हें केंद्रीय मंत्रिमंडल में अपने लिए पद देने का प्रस्ताव दिया गया, तब जा कर माने। उत्तर प्रदेश में तो बगावत तक हुई। कल्याण सिंह से जब मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा लिया गया तो वे पार्टी से अलग हो गए और नई पार्टी बना कर भाजपा को भारी नुकसान पहुंचाया। उनका आधार भी जातिवादी ही था। इसी प्रकार उत्तराखण्ड में भगत सिंह कोश्यारी और भुवन चंद्र खंडूरी को हाईकमान के कहने पर मुख्यमंत्री पद छोडऩा पड़ा, मगर जब वहां विधानसभा चुनाव हुए तो पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी के कहने के बावजूद उस रैली में खंडूरी और कोश्यारी नहीं पहुंचे। मध्यप्रदेश में उमा भारती का मामला भी छिपा हुआ नहीं है। वे राष्ट्रीय कार्यसमिति की बैठक में तत्कालीन अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी को खुद पर कार्रवाई की चुनौती देकर बैठक से बाहर निकल गई थीं। शिवराज सिंह चौहान को मुख्यमंत्री बनाए जाने पर उन्होंने अलग पार्टी ही गठित कर ली। एक लंबे अरसे बाद उन्हें पार्टी में शामिल कर थूक कर चाटने का मुहावरा चरितार्थ किया गया। इसी प्रकार झारखण्ड में शिबू सोरेन की पार्टी से गठबंधन इच्छा नहीं होने के बावजदू अर्जुन मुण्डा की जिद के आगे भाजपा झुकी। इसी प्रकार जम्मू-कश्मीर में वरिष्ठ नेता चमन लाल गुप्ता का विधान परिषद चुनाव में कथित रूप से क्रास वोटिंग करना और महाराष्ट्र के वरिष्ठ भाजपा नेता गोपीनाथ मुंडे का दूसरी पार्टी में जाने की अफवाहें फैलाना भी पार्टी के लिए गंभीर विषय रहे हैं।
कुल मिला कर आंतरिक लोकतंत्र की दुहाई देने वाली पार्टी में अब विभिन्न क्षत्रप व व्यक्ति उभर आए हैं, जो कि संघ व भाजपा पर हावी हो चुके हैं।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com