तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

शुक्रवार, अगस्त 17, 2012

जिस गंदगी को गाली दी, उसी में जा गिरे रामदेव


करीब डेढ़ साल पहले 25 फरवरी 2011 को अनेक न्यूज पोर्टल पर अपने एक आलेख में मैने आशंका जाहिर की थी कि कहीं खुद की चाल भी न भूल जाएं। आखिर वही हुआ, जिस गंदगी को वे पानी पी पी कर गालियां दे रहे थे, आखिर उसी गंदगी में जा कर गिरे।
बेशक हमारे लोकतांत्रिक देश में किसी भी विषय पर किसी को भी विचार रखने की आजादी है। इस लिहाज से बाबा रामदेव को भी पूरा अधिकार है। विशेष रूप से देश हित में काले धन और भ्रष्टाचार के खिलाफ बोलना और उसके प्रति जनता में जागृति भी स्वागत योग्य है। इसी वजह से कुछ लोग तो शुरुआत में ही बाबा में जयप्रकाश नारायण तक के दर्शन करने लगे थे। अब तो करेंगे ही, क्योंकि बाबा अब उसी राह पर चल पड़े हैं। जयप्रकाश नारायण ने भी व्यवस्था परिवर्तन के नाम पर कांग्रेस सरकार के खिलाफ मुहिम छेड़ी। मुहिम इस अर्थ में कामयाब भी रही कि कांग्रेस सरकार उखड़ गई, मगर व्यवस्था जस की तस ही रही। उस मुहिम की परिणति में जो जनता पार्टी बनी, उसका हश्र क्या हुआ, किसी से छिपा हुआ नहीं है। बाबा पहले तो बार बार यही कहते रहे कि उनकी किसी दल विशेष से कोई दुश्मनी नहीं है, मगर आखिर कांग्रेस मात्र के खिलाफ बिगुल बजाने के साथ ही उनका एजेंडा साफ हो गया है। बाबा का अभियान देश प्रेम से निकल कर कांग्रेस विरोध तक सिकुड़ कर रह गया है। इसे यूं भी कह सकते हैं कि बाबा का अभियान एनडीए की रामदेव लीला बन कर रह गया है। पिछले साल रामलीला मैदान में संपन्न हुई रणछोड़ लीला के बाद साख की जो शेष पूंजी बची थी, वो 13 अगस्त को रामलीला मैदान में कांग्रेस विरोध के नाम पर एनडीए के हाथों लुट गयी।
ऐसा नहीं कि हमारे देश में आध्यात्मिक व धर्म गुरू राजतंत्र के जमाने से राजनीति में शुचिता पर नहीं बोलते थे। वे तो राजाओं को दिशा देने तक का पूरा दायित्व निभाते रहे हैं। हालांकि बाबा रामदेव कोई धर्म गुरू नहीं, मात्र योग शिक्षक हैं, मगर जीवन चर्या और वेशभूषा की वजह से अनेक लोग उनमें भी धर्म गुरू के दर्शन करते रहे हैं। लाखों लोगों की उनमें व्यक्तिगत निष्ठा है। उनके शिष्य मानें या न मानें, मगर यह कड़वा सच है कि राजनीतिक क्षेत्र में अतिक्रमण करते हुए जिस प्रकार आग उगलते हैं, जिस प्रकार अकेली कांगे्रस के खिलाफ निम्न स्तरीय भाषा का उपयोग करते हैं, उससे उनकी छवि तो प्रभावित हुई ही है। उनकी मुहिम कितनी कामयाब होगी, ये तो वक्त ही बताएगा, मगर मगर योग गुरू के रूप में उन्होंने जो अंतरराष्ट्रीय ख्याति व प्रतिष्ठा अर्जित की है, उस पर आई आंच को वे बचा नहीं पाएंगे। असल में गुरु तुल्य कोई शख्स राजनीति का मार्गदर्शन करे तब तक तो उचित ही प्रतीत होता है, किंतु अगर वह स्वयं ही राजनीति में कूद पड़ता है तो फिर कितनी भी कोशिश करे, काजल की कोठरी में काला दाग लगना अवश्यंभावी है।
यह सर्वविदित ही है कि जब वे केवल योग की बात करते हैं तो उसमें कोई विवाद नहीं करता, लेकिन भगवा वस्त्रों के प्रति आम आदमी की श्रद्धा का नाजायज फायदा उठाते हुए राजनीतिक टीका-टिप्पणी की तो उन्हें भी दिग्विजय सिंह जैसे शातिर राजनीतिज्ञों की घटिया टिप्पणियों का सामना करना पड़ा। तब बाबा के शिष्यों को बहुत बुरा लगता था। भला ऐसा कैसे हो सकता था कि केवल वे ही हमला करते रहते। हालांकि शुरू में वे यह रट लगाए रहते थे कि उनकी कांग्रेस से कोई दुश्मनी नहीं है, मगर काले धन के बारे में बोलते हुए गाहे-बगाहे नेहरू-गांधी परिवार को ही निशाना बनाते रहे। शनै: शनै: उनकी भाषा भी कटु होती गई, जिसमें दंभ साफ नजर आता था।
रहा सवाल जिस कालेधन की वे बात करते हैं, क्या वे उस काले धन की वजह से ही आज वे सरकार पर हमला बोलने की हैसियत में नहीं आ गए हैं। हालांकि यह सही है कि अकूत संपत्तियां बाबा रामदेव के नाम पर अथवा निजी नहीं हैं, मगर चंद वर्षों में ही उनकी सालाना आमदनी 400 करोड़ रुपए तक पहुंचने का तथ्य चौंकाने वाला ही है। कुछ टीवी चैनलों में भी बाबा की भागीदारी है। बाबा के पास स्कॉटलैंड में दो मिलियन पौंड की कीमत का एक टापू भी बताया जाता है, हालांकि उनका कहना है वह किसी दानदाता दंपत्ति ने उन्हें भेंट किया है। भले ही बाबा ने खुद के नाम पर एक भी पैसा नहीं किया हो, मगर इतनी अपार धन संपदा ईमानदारों की आमदनी से तो आई हुई नहीं मानी जा सकती। निश्चित रूप से इसमें काले धन का योगदान है। इस लिहाज से पूंजीवाद का विरोध करने वाले बाबा खुद भी परोक्ष रूप से पूंजीपति हो गए हैं। और इसी पूंजी के दम पर वे अब खम ठोक कर कह रहे हैं कि कांगे्रस को उखाड़ कर नई सरकार बनाएंगे।
ऐसा प्रतीत होता है कि योग और स्वास्थ्य की प्रभावी शिक्षा के कारण करोड़ों लोगों के उनके अनुयायी बनने से बाबा भ्रम में पड़ गए हैं। उन्हें ऐसा लगने लगा है कि आगामी चुनाव में जब वे खुल कर भाजपा सहित कुछ पार्टियों के प्रत्याशियों को समर्थन देंगे तो वे सभी अनुयायी उनके कहे अनुसार मतदान करेंगे। योग के मामले में भले ही लोग राजनीतिक विचारधारा का परित्याग कर सहज भाव से उनके इर्द-गिर्द जमा हैं, लेकिन जैसे ही वे सक्रिय राजनीति का चोला धारण करेंगे, लोगों का रवैया भी बदल जाएगा।
जहां तक देश के मौजूदा राजनीतिक हालात का सवाल है, उसमें शुचिता, ईमानदारी व पारदर्शिता की बातें लगती तो रुचिकर हैं, मगर उससे कोई बड़ा बदलाव आ जाएगा, इस बात की संभावना कम ही है। ऐसा नहीं कि वे ऐसा प्रयास करने वाले पहले संत है, उनसे पहले करपात्रीजी महाराज और जयगुरुदेव ने भी अलख जगाने की पूरी कोशिश की, मगर उनका क्या हश्र हुआ, यह किसी ने छिपा हुआ नहीं है।  इसी प्रकार राजनीति में आने से पहले स्वामी चिन्मयानंद, रामविलास वेदांती, योगी आदित्यनाथ, साध्वी ऋतंभरा और सतपाल महाराज के प्रति कितनी आस्था थी, मगर अब उनमें लोगों की कितनी श्रद्धा है, यह भी सब जानते हैं। कहीं ऐसा न हो कि बाबा रामदेव भी न तो पूरे राजनीतिज्ञ हो पाएं और न ही योग गुरू जैसे ऊंचे आसन की गरिमा कायम रख पाएं।
कुल मिला कर यह बेहद अफसोस की बात है कि जनभावनाओं के अनुरूप पिछले एक डेढ़ साल में राजनीतिक दलों के खिलाफ दो बड़े आंदोलन पैदा हुए लेकिन अन्ना का आंदोलन राजनीतिक दल बनाने की घोषणा के साथा खत्म हो गया तो बाबा रामदेव का गैर कांग्रेसी राजनीतिक दलों का समर्थन लेकर व उनका समर्थन करने की घोषणा के साथ समाप्त हो गया।
-तेजवानी गिरधर