तीसरी आंख

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मंगलवार, जुलाई 10, 2012

आखिर वसुंधरा का तोड़ नहीं निकाल पाया भाजपा हाईकमान


विधानसभा चुनाव में प्रदेश अध्यक्ष बना कर फीहैंड देने की तैयारी
अपने आपको सर्वाधिक अनुशासित बता कर पार्टी विद द डिफ्रेंस का नारा बुलंद करने और व्यक्ति से बड़ी पार्टी होने का दावा करने वाली भाजपा का शीर्ष नेतृत्व आखिरकार पूर्व मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे के आगे नतमस्तक हो गया प्रतीत होता है। जैसी की पूरी संभावना है उन्हें न केवल राजस्थान में पार्टी की कमान सौंपे जाने की तैयारी चल रही है, अपितु आगामी विधानसभा चुनाव भी उन्हीं के नेतृत्व में लड़ा जाना तय है। पिछले दिनों जिस तरह उन्होंने कोटा में दिग्गज नेताओं से मंत्रणा की उससे भी इस बात के संकेत मिले हैं कि पार्टी हाईकमान ने उन्हें चुनावी जाजम बिछाने का संकेत दे दिया है।
दरअसल राजस्थान में पार्टी दो धड़ों में बंटी हुई है। एक बड़ा धड़ा वसुंधरा के साथ है, जिनमें कि अधिंसख्य विधायक हैं तो दूसरा धड़ा संघ पृष्ठभूमि का है, जिसमें प्रमुख रूप से प्रदेश भाजपा अध्यक्ष अरुण चतुर्वेदी, पूर्व मंत्री ललित किशोर चतुर्वेदी व गुलाब चंद कटारिया शामिल हैं। पिछले दिनों जब पूर्व प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने घोषणा की कि राजस्थान में अगल चुनाव वसुंधरा के नेतृत्व में लड़ा जाएगा तो ललित किशोर चतुर्वेदी व गुलाब चंद कटारिया ने उसे सिरे से नकार दिया। इसके बाद जब कटारिया ने मेवाड़ में रथ यात्रा निकालने ऐलान किया तो वसुंधरा ने इसे चुनौती समझते हुए विधायक किरण माहेश्वरी के जरिए रोड़ा अटकाया। नतीजे में विवाद इतना बढ़ा कि वसुंधरा ने विधायकों के इस्तीफे एकत्रित कर हाईकमान पर भारी दबाव बनाया। वह अस्त्र काम आ गया और आखिरकार अब हाईकमान उन्हें राजस्थान में पार्टी का नेतृत्व सौंपने की तैयारी कर रही है। ऐसा इसलिए क्योंकि अगर कोई और अध्यक्ष होगा तो वह रोड़े अटकाएगा। कुल मिला कर टिकट वितरण में वसुंधरा को फ्री हैंड देने की योजना है, हालांकि कुछ सीटें संघ लाबी के लिए भी छोड़ी जाएंगी।
वसुंधरा को कमान सौंपने के संकेत इस बात से भी मिले कि उन्होंने पिछले दिनों भाजपा व कांग्रेस के पुराने नेताओं की खैर खबर ली। कुशलक्षेम पूछने के बहाने कोटा में उन्होंने भाजपा के वरिष्ठ नेता पूर्व मंत्री के के गोयल और पूर्व सांसद रघुवीरसिंह कौशल समेत कांग्रेस के वरिष्ठ नेता पूर्व केंद्रीय मंत्री भुवनेश चतुर्वेदी, जुझारसिंह और रामकिशन वर्मा के घर पहुंच कर मंत्रणा की। साहित्यकार व वयोवृद्ध भाजपा नेता गजेंद्रसिंह सोलंकी से भी उन्होंने मुलाकात की। इसके बाद उन्होंने जयपुर में वरिष्ठ नेता हरिशंकर भाभड़ा की भी खैर खबर ली। यह सारी कवायद रूठों को मनाने और शतरंज की बिसात बिछाने के रूप में देखी जा रही है।
राजस्थान में वसुंधरा राजे पार्टी से कितनी बड़ी हैं और उनका कोई विकल्प ही नहीं है, इसका अंदाजा इसी बात से हो जाता है कि हाईकमान को पूर्व में भी उन्हें विधानसभा में विपक्ष के नेता पद से हटाने में एडी चोटी का जोर लगाना पड़ गया था। सच तो ये है कि उन्होंने पद छोडऩे से यह कह कर साफ इंकार कर था दिया कि जब सारे विधायक उनके साथ हैं तो उन्हें कैसे हटाया जा सकता है। हालात यहां तक आ गए थे कि उनके नई पार्टी का गठन तक की चर्चाएं होने लगीं थीं। बाद में बमुश्किल पद छोड़ा भी तो ऐसा कि उस पर करीब साल भर तक किसी को नहीं बैठाने दिया। आखिर पार्टी को मजबूर हो कर दुबारा उन्हें पद संभालने को कहना पड़ा, पर वे साफ मुकर गईं। हालांकि बाद में वे मान गईं, मगर आखिर तक यही कहती रहीं कि यदि विपक्ष का नेता बनाना ही था तो फिर हटाया क्यों? असल में उन्हें फिर बनाने की नौबत इसलिए आई कि अंकुश लगाने के जिन अरुण चतुर्वेदी को प्रदेश भाजपा अध्यक्ष बनाया गया, वे ही फिसड्डी साबित हो गए। पार्टी का एक बड़ा धड़ा अनुशासन की परवाह किए बिना वसुंधरा खेमे में ही बना रहा। वस्तुत: राजस्थान में वसु मैडम की पार्टी विधायकों पर इतनी गहरी पकड़ है कि वे न केवल संगठन के समानांतर खड़ी हैं, अपितु संगठन पर पूरी तरह से हावी हो गई हैं। उसी के दम पर राज्यसभा चुनाव में दौरान वे पार्टी की राह से अलग चलने वाले राम जेठमलानी को न केवल पार्टी का अधिकृत प्रत्याशी बनवा लाईं, अपितु अपनी कूटनीतिक चालों से उन्हें जितवा भी दिया।
प्रसंगवश बता दें कि ये वही जेठमलानी हैं, जिन्होंने भाजपाइयों के आदर्श वीर सावरकर की तुलना पाकिस्तान के संस्थापक जिन्ना से की, जिन्ना को इंच-इंच धर्मनिरपेक्ष तक करार दिया, पार्टी की मनाही के बाद इंदिरा गांधी के हत्यारों का केस लड़ा, संसद पर हमला करने वाले अफजल गुरु को फांसी नहीं देने की वकालत की और पार्टी के शीर्ष नेता अटल बिहारी वाजपेयी के खिलाफ ही चुनाव मैदान में उतर गए।
खैर जेठमलानी को जितवा कर लाने से ही साफ हो गया था कि प्रदेश में दिखाने भर को अरुण चतुर्वेदी के पास पार्टी की फं्रैचाइजी है, मगर असली मालिक श्रीमती वसुंधरा ही हैं। कुल मिला कर ताजा घटनाक्रम से तो यह पूरी तरह से स्थापित हो गया है के वे प्रदेश भाजपा में ऐसी क्षत्रप बन कर स्थापित हो चुकी हैं, जिसका पार्टी हाईकमान के पास कोई तोड़ नहीं है। उनकी टक्कर का एक भी ग्लेमरस नेता पार्टी में नहीं है, जो जननेता कहलाने योग्य हो। अब यह भी स्पष्ट हो गया है कि आगामी विधानसभा चुनाव में केवल वे ही पार्टी की नैया पार कर सकती हैं।
-तेजवानी गिरधर
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