तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

सोमवार, फ़रवरी 28, 2011

कहीं खुद की चाल भी न भूल जाएं बाबा रामदेव

एक कहावत है- कौआ चला हंस की चाल, खुद की चाल भी भूल गया। हालांकि यह पक्के तौर पर अभी से नहीं कहा जा सकता कि प्रख्यात योग गुरू बाबा रामदेव की भी वैसी ही हालत होगी, मगर इन दिनों वे जो चाल चल रहे हैं, उसमें अंदेशा इसी बात का ज्यादा है।
हालांकि हमारे लोकतांत्रिक देश में किसी भी विषय पर किसी को भी विचार रखने की आजादी है। इस लिहाज से बाबा रामदेव को भी पूरा अधिकार है। विशेष रूप से देशहित में काले धन और भ्रष्टाचार के खिलाफ बोलना और उसके प्रति जनता में जागृति भी स्वागत योग्य है। इसी वजह से कुछ लोग तो बाबा में जयप्रकाश नारायण तक के दर्शन करने लगे हैं। हमारे अन्य आध्यात्मिक व धार्मिक गुरू भी राजनीति में शुचिता पर बोलते रहे हैं। मगर बाबा रामदेव जितने आक्रामक हो उठे हैं और देश के उद्धार के लिए खुल कर राजनीति में आने का आतुर हैं, उसमें उनको कितनी सफलता हासिल होगी, ये तो वक्त ही बताएगा, मगर योग गुरू के रूप में उन्होंने जो अंतरराष्ट्रीय ख्याति व प्रतिष्ठा अर्जित की है, उस पर आंच आती साफ दिखाई दे रही है। गुरुतुल्य कोई शख्स राजनीति का मार्गदर्शन करे तब तक तो उचित ही प्रतीत होता है, किंतु अगर वह स्वयं ही राजनीति में आना चाहता है तो फिर कितनी भी कोशिश करे, काजल की कोठरी में काला दाग लगना अवश्यंभावी है।
यह सर्वविदित ही है कि जब वे केवल योग की बात करते हैं तो उसमें कोई विवाद नहीं करता, लेकिन भगवा वस्त्रों के प्रति आम आदमी की श्रद्धा का नाजायज फायदा उठाते हुए राजनीतिक टीका-टिप्पणी करेंगे तो उन्हें भी वैसी ही टिप्पणियों का सामना करना होगा। ऐसा नहीं हो सकता कि केवल वे ही हमला करते रहेंगे, अन्य भी उन पर हमला बोलेंगे। इसमें फिर उनके अनुयाइयों को बुरा नहीं लगना चाहिए। स्वाभाविक सी बात है कि उन्हें हमले का विशेषाधिकार कैसे दिया जा सकता है?
हालांकि काले धन के बारे में बोलते हुए वे व्यवस्था पर ही चोट करते हैं, लेकिन गाहे-बगाहे नेहरू-गांधी परिवार को ही निशाना बना बैठते हैं। शनै: शनै: उनकी भाषा भी कटु होती जा रही है, जिसमें दंभ साफ नजर आता है, इसका नतीजा ये है कि अब कांग्रेस भी उन पर निशाना साधने लगी है। कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने तो बाबा रामदेव के ट्रस्ट, आश्रम और देशभर में फैली उनकी संपत्तियों पर सवाल उठाने शुरू कर दिए हैं। हालांकि यह सही है कि ये संपत्तियां बाबा रामदेव के नाम पर अथवा निजी नहीं हैं, मगर चंद वर्षों में ही उनकी सालाना आमदनी 400 करोड़ रुपए तक पहुंचने का तथ्य चौंकाने वाला ही है। बताया तो ये भी जा रहा है कि कुछ टीवी चैनलों में भी बाबा की भागीदारी है। बाबा के पास स्कॉटलैंड में दो मिलियन पौंड की कीमत का एक टापू भी बताया जाता है, हालांकि उनका कहना है वह किसी दानदाता दंपत्ति ने उन्हें भेंट किया है। भले ही बाबा ने खुद के नाम पर एक भी पैसा नहीं किया हो, मगर इतनी अपार धन संपदा ईमानदारों की आमदनी से तो आई हुई नहीं मानी जा सकती। निश्चित रूप से इसमें काले धन का योगदान है। इस लिहाज से पूंजीवाद का विरोध करने वाले बाबा खुद भी परोक्ष रूप से पूंजीपति हो गए हैं। और इसी पूंजी के दम पर वे चुनाव लड़वाएंगे।
ऐसा प्रतीत होता है कि योग और स्वास्थ्य की प्रभावी शिक्षा के कारण करोड़ों लोगों के उनके अनुयायी बनने से बाबा भ्रम में पड़ गए हैं।   उन्हें ऐसा लगने लगा है कि आगामी चुनाव में जब वे अपने प्रत्याशी मैदान उतारेंगे तो वे सभी अनुयायी उनके मतदाता बन जाएंगे। योग के मामले में भले ही लोग राजनीतिक विचारधारा का परित्याग कर सहज भाव से उनके इर्द-गिर्द जमा हो रहे हैं, लेकिन जैसे ही वे राजनीति का चोला धारण करेंगे, लोगों का रवैया भी बदल जाएगा। आगे चल कर हिंदूवादी विचारधारा वाली भाजपा को भी उनसे परहेज रखने की नौबत आ सकती है, क्योंकि उनके अनुयाइयों में अधिसंख्य हिंदूवादी विचारधारा के लोग हैं, जो बाबा के आह्वान पर उनके साथ होते हैं तो सीधे-सीधे भाजपा को नुकसान होगा। कदाचित इसी वजह से 30 जनवरी को देशभर में भ्रष्टाचार के खिलाफ जनयुद्ध अभियान के तहत निकाली गई जनचेतना रैलियों को भाजपा या आरएसएस ने खुल कर समर्थन नहीं दिया। बाबा रामदेव के प्रति व्यक्तिगत श्रद्धा रखने वाले लोग भले ही रैलियों में शामिल हुए हों, मगर चुनाव के वक्त वे सभी बाबा की ओर से खड़े किए गए प्रत्याशियों को ही वोट देंगे, इसमें तनिक संदेह ही है। इसकी एक वजह ये है कि वे योग गुरू के रूप में भले ही बाबा रामदेव को पूजते हों, मगर राजनीतिक रूप से उनकी प्रतिबद्धता भाजपा के साथ रही है।
जहां तक देश के मौजूदा राजनीतिक हालात का सवाल है, उसमें शुचिता, ईमानदारी व पारदर्शिता की बातें लगती तो रुचिकर हैं, मगर उससे कोई बड़ा बदलाव आ जाएगा, इस बात की संभावना कम ही है। ऐसा नहीं कि वे ऐसा प्रयास करने वाले पहले संत है, उनसे पहले करपात्रीजी महाराज और जयगुरुदेव ने भी अलख जगाने की पूरी कोशिश की, मगर उनका क्या हश्र हुआ, यह किसी ने छिपा हुआ नहीं है।  इसी प्रकार राजनीति में आने से पहले स्वामी चिन्मयानंद, रामविलास वेदांती, योगी आदित्यनाथ, साध्वी ऋतंभरा और सतपाल महाराज के प्रति कितनी आस्था थी, मगर अब उनमें लोगों की कितनी श्रद्धा है, यह भी सब जानते हैं। कहीं ऐसा न हो कि बाबा रामदेव भी न तो पूरे राजनीतिज्ञ हो पाएं और न ही योग गुरू जैसे ऊंचे आसन की गरिमा कायम रख पाएं।

आखिर वसुंधरा का तोड़ नहीं निकाल पाया भाजपा हाईकमान

अपने आपको सर्वाधिक अनुशासित बता कर च्पार्टी विद द डिफ्रेंसज् का नारा बुलंद करने वाली भाजपा का शीर्ष नेतृत्व आखिरकार पूर्व मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे के आगे नतमस्तक हो गया। हालत ये हो गई कि वे राजस्थान विधानसभा में विपक्ष का नेता दुबारा बनने को तैयार नहीं थीं और बड़े नेताओं को उन्हें राजी करने के लिए काफी अनुनय-विनय करना पड़ा। इसे राजस्थान भाजपा में व्यक्ति के पार्टी से ऊपर होने की संज्ञा दी जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। कैसी विलक्षण स्थिति है कि एक साल पहले जिस वसुंधरा को विपक्ष का नेता पद छोडऩे के लिए हाईकमान मजबूर कर रहा था, वही उनका तोड़ नहीं निकाल पाने के कारण अंतत: पुन: उन्हीं को यह आसन ग्रहण करने की विनती करने को मजबूर हो गया। प्रदेश भाजपा के इतिहास में वर्षों तक यह बात रेखांकित की जाती रहेगी कि हटाने और दुबारा बनाने, दोनों मामलों में पार्टी को झुकना पड़ा। पार्टी के कोण से इसे थूक कर चाटने वाली हालत की उपमा दी जाए तो गलत नहीं होगा। चाटना क्या, निगलना तक पड़ा।
वस्तुत: राजस्थान में वसु मैडम की पार्टी विधायकों पर इतनी गहरी पकड़ है कि हाईकमान को एक साल पहले विपक्ष का नेता पद छुड़वाने के लिए एडी चोटी का जोर लगाना पड़ा। असल बात तो ये कि उन्होंने पद छोड़ा ही न छोडऩे के अंदाज में। इसका नतीजा ये रहा कि उनके इस्तीफे के बाद किसी और को नेता नहीं बनाया जा सका और जब बनाया गया तो भी उन्हीं को, जबकि वे तैयार नहीं थीं। आखिर तक वे यही कहती रहीं कि यदि बनाना ही था तो फिर हटाया ही क्यों।
पार्टी हाईकमान वसुंधरा को फिर से विपक्ष नेता बनाने को यूं ही तैयार नहीं हुआ है। उन्हें कई बार परखा गया है। पार्टी ने जब अरुण चतुर्वेदी को प्रदेश अध्यक्ष बनाया, तब भी वे दबाव में नहीं आईं और पार्टी का एक बड़ा धड़ा अनुशासन की परवाह किए बिना वसुंधरा खेमे में ही बना रहा। ये उनकी ताकत का ही प्रमाण है कि राज्यसभा चुनाव में दौरान वे पार्टी की राह से अलग चलने वाले राम जेठमलानी को न केवल पार्टी का अधिकृत प्रत्याशी बनवा लाईं, अपितु अपनी कूटनीतिक चालों से उन्हें जितवा भी दिया। ये वही जेठमलानी हैं, जिन्होंने भाजपाइयों के आदर्श वीर सावरकर की तुलना पाकिस्तान के संस्थापक जिन्ना से की, जिन्ना को इंच-इंच धर्मनिरपेक्ष तक करार दिया, पार्टी की मनाही के बाद इंदिरा गांधी के हत्यारों का केस लड़ा, संसद पर हमला करने वाले अफजल गुरु को फांसी नहीं देने की वकालत की और पार्टी के शीर्ष नेता अटल बिहारी वाजपेयी के खिलाफ ही चुनाव मैदान में उतर गए। जेठमलानी को जितवा कर लाने से ही साफ हो गया था कि प्रदेश में दिखाने भर को अरुण चतुर्वेदी के पास पार्टी की फं्रैचाइजी है, मगर असली मालिक श्रीमती वसुंधरा ही हैं। चतुर्वेदी ने भी चालें कम नहीं चलीं, मगर विधायकों पर वसुंधरा के तिलिस्म को भंग नहीं कर पाए। वसुंधरा के आभा मंडल के आकर्षण का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि पार्टी में पद चाहने वाले भी चतुर्वेदी से छुप-छुप कर ही मिलते रहे कि कहीं वसुंधरा को पता न लग जाए, क्यों कि आने वाले दिनों में वसुंधरा के फिर से मजबूत होने के पूरे आसार हैं। आम भाजपाइयों में भी वसुंधरा के प्रति स्वीकारोक्ति ज्यादा है। प्रदेश में जहां भी जाती हैं, कार्यकर्ता और भाजपा मानसिकता के लोग उनके स्वागत के लिए पलक पांवड़े बिछा देते हैं।
हालांकि हाईकमान को वसुंधरा की ताकत का अंदाजा था, मगर संघ लॉबी के दबाव की वजह से वह सी एंड वाच की नीति बनाए हुए था। जब उसे यह पूरी तरह से समझ में आ गया कि वसुंधरा को दबाया जाना कत्तई संभव नहीं है और वीणा के तार ज्यादा खींचे तो वे टूट ही जाएंगे तो मजबूर हो कर उसे शरणागत होना पड़ा। जहां तक संघ का सवाल है, उसकी सोच ये रही कि वसुंधरा के पावरफुल रहते पार्टी का मौलिक चरित्र कायम रखना संभव नहीं है। संघ का ये भी मानना रहा कि वसुंधरा की कार्यशैली के कारण ही भाजपा की पार्टी विथ द डिफ्रंस की छवि समाप्त हुई। उन्होंने पार्टी की वर्षों से सेवा करने वालों को हाशिये पर खड़ा कर दिया, उन्हें खंडहर तक की संज्ञा देने लगीं, जिससे कर्मठ कार्यकर्ता का मनोबल टूट गया। यही वजह रही कि वह आखिरी क्षण तक इसी कोशिश में रहा कि वसुंधरा दुबारा विपक्ष का नेता न बनें, मगर आखिरकार झुक गया।
कुल मिला कर ताजा घटनाक्रम से तो यह पूरी तरह से स्थापित हो गया है के वे प्रदेश भाजपा में ऐसी क्षत्रप बन कर स्थापित हो चुकी हैं, जिसका पार्टी हाईकमान के पास कोई तोड़ नहीं है। उनकी टक्कर का एक भी ग्लेमरस नेता पार्टी में नहीं है, जो जननेता कहलाने योग्य हो। अब यह भी स्पष्ट हो गया है कि आगामी विधानसभा चुनाव में केवल वे ही पार्टी की नैया पार कर सकती हैं।
-गिरधर तेजवानी

मंगलवार, फ़रवरी 22, 2011

वसुंधरा का मूड नहीं दिखता फिर जूठन खाने का

प्रदेश में भाजपा गहरे अंतद्र्वंद्व में जी रही है। जब से संघ ने पूर्व मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे को विधानसभा में विपक्ष के नेता पद से हटने के लिए मजबूर किया और उन्होंने काफी ना-नुकुर और भारी मन से पद छोड़ा, तब से पार्टी अंदर ही अंदर बड़ी परेशानी में है। हालांकि वसुंधरा की नापसंद के बाद भी हाई कमान प्रदेश भाजपा अध्यक्ष पद पर अरुण चतुर्वेदी को बैठाने में कामयाब हो गया, लेकिन वसुंधरा राजे के अडिय़ल रुख के कारण काफी प्रयास के बाद भी विपक्ष का नेता नहीं चुना जा सका। संघ ने भी अपनी पूरी ताकत लगाई, लेकिन पार्टी के दोफाड़ हो जाने के खतरे को देख कर वह भी आखिरकार चुप हो गया। हालांकि हाल ही ऐसी खबरें आईं कि गतिरोध समाप्त न होता देख हाईकमान ने अंतत: थक-हार कर पूरी जिम्मेदारी वसुंधरा पर ही डाल दी कि वे ही तय करें कि विपक्ष का नेता कौन हो।
बताया जाता है कि ऐसा वसुंधरा के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी के साथ विदेश दौरे के दौरान सामंजस्य बैठ जाने के बाद ही संभव हो पाया। वसुंधरा को यहां तक छूट दी गई है कि चाहें तो वे स्वयं भी फिर से पद पर बैठ सकती हैं। इसी के साथ यह भी संभावना बनी कि गतिरोध खत्म होने के कारण विधानसभा सत्र शुरू होने से पहले ही भाजपा विधायक दल का नेता तय हो जाएगा, चाहे वसुंधरा बनें या कोई और। विधानसभा सत्र भी शुरू हो गया, लेकिन अब तक उस कुर्सी पर कोई नहीं बैठा है।
हालांकि पहले यही माना गया कि हाईकमान के झुकने के बाद वसुंधरा एक बार फिर शान से कुर्सी संभाल कर यह जताना चाहती हैं कि देखो आखिर उनकी ही चली। अधिसंख्य समर्थक विधायकों की भी यही राय है कि वे ही उनकी नेता के रूप में विधानसभा में बैठें। अन्य किसी के प्रति तो फिर भी आम सहमति बनानी होगी, जबकि वसुंधरा के मामले में आमराय पहले से ही बनी हुई है। लेकिन समझा जाता है कि उनके सलाहकारों ने राय दी है कि अब उसी कुर्सी पर वापस बैठने में कोई शान नहीं है। ऐसे में कदाचित वसुंधरा स्वयं असमंजस में हैं। उन्होंने अपनी ताकत से जंग तो जीत ली है, लेकिन अब समझ नहीं पा रही हैं कि अपनी ताकत का इस्तेमाल अब किस रूप में करें। एक और वे यह कहती हैं कि यदि हाईकमान फिर यह चाहता है कि कमान वे ही संभालें तो पहले हटाया ही क्यों था। दूसरी ओर सोचती हैं कि मौका मिला ही है तो इसे चूकूं क्यों? कहते हैं न कि त्रिया चरित्र को न तो देवता जान सकते हैं और न ही त्रिया चरित्र के हठ के आगे कोई टिकता है। बस यूं ही समझ लीजिए। विधानसभा सत्र शुरू होने के बाद भी वे अपने पत्ते नहीं खोल रही हैं। इसी अंतद्र्वंद्व के बीच विधानसभा में विपक्ष के नेता का पद अब भी खाली पड़ा है। 
समझा जा रहा है कि वे अपनी पसंद किसी विधायक को विपक्ष का नेता बना कर दोहरी भूमिका अदा करना चाहती हैं। एक तो जो उनकी कृपा से नेता बनेगा, वह हर बात उन्हीं से पूछ-पूछ कर काम करेगा, दूसरा ये कि राष्ट्रीय महामंत्री होने के नाते वे राष्ट्रीय राजनीति में भी टांग फंसाए रखेंगी। हालांकि यह तो पूरे प्रदेश के भाजपाइयों में आमराय बन चुकी है कि अगला विधानसभा चुनाव वंसुधरा राजे के नेतृत्व में लड़ा जाएगा और जीतना भी उनके नेतृत्व में ही संभव है, क्योंकि उनके अतिरिक्त फिलहाल पार्टी के पास ग्लैमरस नेता दूसरा नहीं है। इसके बावजूद समझा जाता है कि वसुंधरा की नजर केन्द्र पर भी है। क्या पता कभी वहां भी चांस लग जाए। यूं वहां भी नंबर वन को लेकर खींचतान है, लेकिन जिनके भी बीच जंग चल रही है, उनके मुकाबले की तो वसुंधरा भी हैं। महिला नेताओं में भले ही दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री सुषमा स्वराज अपने वाक्चातुर्य के दम पर शीर्ष पर हैं, मगर राजनीतिक जोड़-तोड़ और धन-बल में वंसुधरा कहीं अधिक भारी पड़ती हैं। खैर, यह काफी दूर की कौड़ी है, मगर समझा जाता है कि वसुंधरा की उसी पर नजर है, अथवा केन्द्र में भी अच्छी पोजीशन बनाए रखने की नीयत है, इस कारण संभव है प्रदेश में विपक्ष का नेता किसी और को ही बनाएंगी। संभावना यही बताई जा रही है कि इसी माह के अंत तक फैसला हो जाएगा।

शुक्रवार, फ़रवरी 04, 2011

...इसलिए नहीं जुड़ रही युवा पीढ़ी संघ के संग

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत की मौजूदगी में इन दिनों अजमेर में चल रही बैठकों में इस बात पर जोर दिया जा रहा है कि संगठन को मजबूत करने के लिए अधिकाधिक युवाओं को जोड़ा जाए और शाखाओं का विस्तार किया जाए। वजह साफ है कि पिछले कुछ वर्षों से संघ के प्रति आकर्षण कम होने से संघ की शाखाओं में युवाओं की संख्या कम होने से शिथिलता आती जा रही है, जो कि सांप्रदायिकता के आरोप से कहीं ज्यादा चिंताजनक है।
वस्तुत: संघ के प्रति युवकों के आकर्षण कम होने का सिलसिला हाल ही में शुरू नहीं हुआ है अथवा अचानक कोई कारण नहीं उत्पन्न हुआ है, जो कि आकर्षण कम होने के लिए उत्तरदायी हो। पिछले करीब 15 साल के दरम्यान संघ की शाखाओं में युवाओं की संख्या में गिरावट महसूस की गई है। यह गिरावट इस कारण भी संघ के नीति निर्धारकों को ज्यादा महसूस होती है, क्योंकि जितनी तेजी से जनसंख्या में वृद्धि हुई है, उसी अनुपात में युवा जुड़ नहीं पाया है। भले ही यह सही हो कि जो स्वयंसेवक आज से 10-15 साल पहले अथवा उससे भी पहले जुड़ा, वह टूटा नहीं है, लेकिन नया युवा उतने उत्साह के साथ नहीं जुड़ रहा, जिस प्रकार पहले जुड़ा करता था। इसके अनेक कारण हैं।
मोटे तौर पर देखा जाए तो इसकी मुख्य वजह है टीवी और संचार माध्यमों का विस्तार, जिसकी वजह से पाश्चात्य संस्कृति का हमला बढ़ता ही जा रहा है। यौवन की दहलीज पर पैर रखने वाली हमारी पीढ़ी उसके ग्लैमर से सर्वाधिक प्रभावित है। गांव कस्बे की ओर, कस्बे शहर की तरफ और शहर महानगर की दिशा में बढ़ रहे हैं। सच तो यह है कि भौतिकतावादी और उपभोक्तावादी संस्कृति के कारण शहरी स्वच्छंदता गांवों में भी प्रवेश करने लगी है। युवा पीढ़ी का खाना-पीना व रहन-सहन तेजी से बदल रहा है। बदलाव की बयार में बह रहे युवाओं को किसी भी दृष्टि से संघ की संस्कृति अपने अनुकूल नहीं नजर आती। संघ के स्वयंसेवकों में आपस का जो लोक व्यवहार है, वह किसी भी युवा को आम जिंदगी में कहीं नजर नहीं आता। व्यवहार तो दूर की बात है, संघ का अकेला डे्रस कोड ही युवकों को दूर किए दे रहा है।
जब से संघ की स्थापना हुई है, तब से लेकर अब तक समय बदलने के साथ डे्रस कोड में कोई परिवर्तन नहीं किया गया है। सच्चाई तो ये है कि चौड़े पांयचे वाली हाफ पैंट ही मजाक की कारक बन गई है। यह कम दुर्भाग्यपूर्ण नहीं है कि अपने आप को सबसे बड़ा राष्ट्रवादी मानने वालों के प्रति आम लोगों में श्रद्धा की बजाय उपहास का भाव है और वे स्वयंसेवकों को चड्ढा कह कर संबोधित करते हैं। स्वयं सेवकों को भले ही यह सिखाया जाता हो कि वे संघ की डे्रस पहन कर और हाथ में दंड लेकर गर्व के साथ गलियों से गुजरें, लेकिन स्वयं सेवक ही जानता है कि वह हंसी का पात्र बन कर कैसा महसूस करता है। हालत ये है कि संघ के ही सियासी चेहरे भाजपा से जुड़े नेता तक संघ के कार्यक्रम में हाफ पैंट पहन कर जाने में अटपटा महसूस करते हैं, लेकिन अपने नंबर बढ़ाने की गरज से मजबूरी में हाफ पैंट पहनते हैं। हालांकि कुछ वर्ष पहले संघ में ड्रेस कोड में कुछ बदलाव करने पर चर्चा हो चुकी है, लेकिन अभी तक कोर गु्रप ने ऐसा करने का साहस नहीं जुटाया है। उसे डर है कि कहीं ऐसा करने से स्वयंसेवक की पहचान न खो जाए। ऐसा नहीं है कि डे्रस कोड की वजह से दूर होती युवा पीढ़ी की समस्या से केवल संघ ही जूझ रहा है, कांग्रेस का अग्रिम संगठन सेवादल तक परेशान है। वहां भी ड्रेस कोड बदलने पर चर्चा हो चुकी है।
जहां तक संघ पर सांप्रदायिक आरोप होने का सवाल है, उसकी वजह से भी युवा पीढ़ी को संघ में जाने में झिझक महसूस होती है, चूंकि व्यवहार में धर्मनिरपेक्षता का माहौल ज्यादा बन गया है। भले ही भावनाओं के ज्वार में हिंदू-मुस्लिम दंगे होने के कारण ऐसा प्रतीत होता हो कि दोनों संप्रदाय एक दूसरे के विपरीत हैं, लेकिन व्यवहार में हर हिंदू व मुसलमान आपस में प्रेम से घुल-मिल कर ही रहना चाहता है। देश भले ही धार्मिक कट्टरवाद की घटनाओं से पीडि़त हो, मगर आम जनजीवन में कट्टरवाद पूरी तरह अप्रासंगिक है। युवकों को इस बात का भी डर रहता है कि यदि उन पर सांप्रदायिक संगठन से जुड़े होने का आरोप लगा तो उनका कैरियर प्रभावित होगा। आज बढ़ती बेरोजगारी के युग में युवकों को ज्यादा चिंता रोजगार की है, न कि हिंदू राष्ट के लक्ष्य को हासिल करने की और न ही राष्ट्रवाद और राष्ट्र की। असल में राष्ट्रीयता की भावना और जीवन मूल्य जितनी तेजी से गिरे हैं, वह भी एक बड़ा कारण हैं। युवा पीढ़ी को लगता है कि संघ में सिखाए जाने वाले जीवन मूल्य कहने मात्र को तो अच्छे नजर आते हैं, जब कि व्यवहार में भ्रष्टाचार का ही बोलबाला है। सुखी वह नजर आता जो कि शिष्टाचार बन चुके भ्रष्टाचार पर चल रहा है, ईमानदार तो कष्ट ही कष्ट ही झेलता है।
जरा, राजनीति के पहलु को भी देख लें। जब तक संघ के राजनीतिक मुखौटे भाजपा से जुड़े लोगों ने सत्ता नहीं भोगी थी, तब तक उन्हें सत्ता के साथ आने वाले अवगुण छू तक नहीं पाए थे, लेकिन जैसे ही सत्ता का स्वाद चख लिया, उनके चरित्र में ही बदलाव आ गया है। इसकी वजह से संघ व भाजपा में ही दूरियां बनने लगी हैं। संघर्षपूर्ण व यायावर जिंदगी जीने वाले संघ के प्रचारकों को भाजपा के नेताओं से ईष्र्या होती है। हिंदूवादी मानसिकता वाले युवा, जो कि राजनीति में आना चाहते हैं, वे संघ से केवल इस कारण थोड़ी नजदीकी रखते हैं, ताकि उन्हें चुनाव के वक्त टिकट आसानी से मिल जाए। बाकी संघ की संस्कृति से उनका दूर-दूर तक वास्ता नहीं होता। अनेक भाजपा नेता अपना वजूद बनाए रखने के लिए संघ के प्रचारकों की सेवा-चाकरी करते हैं। कुछ भाजपा नेताओं की केवल इसी कारण चलती है, क्योंकि उन पर किसी संघ प्रचारक व महानगर प्रमुख का आशीर्वाद बना हुआ है। प्रचारकों की सेवा-चाकरी का परिणाम ये है कि प्रचारकों में ही भाजपा नेताओं के प्रति मतभेद हो गए हैं। संघ व पार्टी की आर्थिक बेगारियां झेलने वाले भाजपा नेता दिखाने भर को प्रचारक को सम्मान देते हैं, लेकिन टिकट व पद हासिल करते समय अपने योगदान को गिना देते हैं। भीतर ही भीतर यह माहौल संघ के नए-नए स्वयंसेवक को खिन्न कर देता है। जब स्वयं स्वयंसेवक ही कुंठित होगा तो वह और नए युवाओं को संघ में लाने में क्यों रुचि लेगा। ऐसा नहीं है कि संघ के कर्ताधर्ता इन हालात से वाकिफ न हों, मगर समस्या इतनी बढ़ गई है कि अब इससे निजात कठिन ही प्रतीत होता है।
एक और अदृश्य सी समस्या है, महिलाओं की आधी दुनिया से संघ की दूरी। भले ही संघ के अनेक प्रकल्पों से महिलाएं जुड़ी हुई हों, मगर मूल संगठन में उन्हें कोई स्थान नहीं है। इस लिहाज से संघ को यदि पुरुष प्रधान कहा जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। संघ ने महिलाओं की भी शाखाएं गठित करने पर कभी विचार नहीं किया। आज जब कि महिला सशक्तिकरण पर ज्यादा जोर दिया जा रहा है, महिलाएं हर क्षेत्र में आगे आ रही हैं, संघ का महिलाओं को न जोडऩे की वजह से संघ उतना मजबूत नहीं हो पा रहा, जितना कि होना चाहिए।
बहरहाल, देखना ये है कि देश के बदलते हालात में भगवा आतंकवाद के आरोप से तिलमिलाया संघ शाखाओं के विस्तार व युवा स्वयंसेवकों की संख्या बढ़ाने के लिए क्या कारगर उपाय करता है।

गुरुवार, फ़रवरी 03, 2011

मोहन भागवत जी, क्या आप दरगाह जियारत करेंगे?

परम आदरणीय श्री मोहन भागवत जी,
इन दिनों ऐतिहासिक अजमेर शहर देश के सबसे बड़े विपक्षी दल भाजपा की  च्आत्माज् राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख के नाते आपकी गरिमामय मौजूदगी का गवाह बन रहा है। दुनिया भर को सांप्रदायिक सौहाद्र्र का संदेश देने वाला यह शहर इस बात का भी गवाह रहा है कि राजा हो या रंक, हर कोई दोनों अंतर्राष्ट्रीय धर्मस्थलों तीर्थराज पुष्कर व दरगाह ख्वाजा साहब में हाजिरी जरूर देता है। ऐसे में आमजन में यह सवाल कुलबुला रहा है कि क्या आप भी इन स्थलों के प्रति अपनी श्रद्धा व्यक्त करेंगे। जहां तक पुष्कर का सवाल है, अगर वहां जाते हैं तो उसमें कोई आश्चर्य नहीं होगा, या यूं कहिए कि उसमें कुछ भी असहज नहीं लगेगा, क्योंकि आप हिंदूवादी संगठन के अगुवा हैं, मगर क्या दरगाह जाएंगे, यह सवाल जरूर तनिक चौंकाने वाला हो सकता है। यह कदाचित संघ से जुड़े लोगों की मन:स्थिति को कुछ असहज भी कर सकता है कि कैसा बेहूदा सवाल उठाया जा रहा है? मगर सवाल तो सवाल है। अनुकूल जमीन पर हवा, पानी, धूप मिलते ही खुद-ब-खुद उगता है। बस फर्क सिर्फ उसे दबा देने अथवा उजागर करने का है।
वस्तुत: आप देश के सबसे बड़े हिंदूवादी व राष्ट्रवादी संगठन के शीर्षस्थ नेता हैं। देश के एक प्रमुख सत्ता केन्द्र हैं। इन दिनों चूंकि दरगाह बम ब्लास्ट में कुछ संघनिष्ठों के शामिल होने के आरोप लग रहे हैं और संघ इस वजह से लगाए जा रहे भगवा आतंकवाद के आरोप को सिरे से नकार रहा है, अत: यह सवाल बिलकुल सहज और प्रासंगिक है। यह इसलिए भी स्वाभाविक है कि बम ब्लास्ट मामले में संघ के प्रमुख पदाधिकारी इन्द्रेश कुमार भी आरोप के घेरे में आए तो संघ और भाजपा ने कड़ा ऐतराज किया। राजस्थान की मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे ने तो इन्द्रेश कुमार का बचाव करते हुए यहां तक कहा कि सरकार उन्हें झूठा फंसाने का षड्यंत्र रच रही है। यह एक ऐसे व्यक्तित्व को बदनाम करने की साजिश है, जिसने राष्ट्रीय मुस्लिम मंच के माध्यम से सभी मजहबों में भाईचारा कायम करने के लिए सेतु का काम किया है। जाहिर है संघ  केवल कथनी में ही नहीं, अपितु करनी में भी इन्द्रेश कुमार के माध्यम से राष्ट्रवादी मुस्लिमों को अपने करीब करने में जुटा हुआ है। कुछ मुस्लिम जुड़े भी हैं। वैसे भी संघ की अवधारणा है कि हिंदू कोई धर्म नहीं, अपितु एक संस्कृति है, जीवन पद्धति है, जिसमें यहां पल रहे सभी धर्मावलम्बी शामिल हैं।
इसी संदर्भ में संघ के ही एक प्रमुख विचारक के विचार देखिए। उन्होंने लिखा है कि आजादी से पूर्व संघ के संस्थापक डॉ0 केशवराव बलिराम हेडगेवार की सबसे बड़ी पीड़ा यह थी कि इस देश का सबसे प्राचीन समाज यानि हिन्दू समाज राष्ट्रीय स्वाभिमान से शून्य प्राय: आत्म विस्मृति में डूबा था। इसी परिप्रेक्ष्य में संघ का उद्देश्य हिन्दू संगठन यानि इस देश के प्राचीन समाज में राष्ट्रीय स्वाभिमान, नि:स्वार्थ भावना व एकजुटता का भाव निर्माण करना बना। यहां यह स्पष्ट कर देना उचित ही है कि डॉ. हेडगेवार का यह विचार सकारात्मक सोच का परिणाम था। किसी के विरोध में या किसी क्षणिक विषय की प्रतिक्रिया में से यह कार्य नहीं खड़ा हुआ। अत: इस कार्य को मुस्लिम विरोधी या ईसाई विरोधी कहना संगठन की मूल भावना के ही विरुद्ध हो जायेगा। हिन्दू संगठन शब्द सुनकर जिनके मन में इस प्रकार के पूर्वाग्रह बन गये हैं, उनके लिए संघ को समझना कठिन ही होगा। हिन्दू के मूल स्वभाव उदारता व सहिष्णुता के कारण दुनिया के सभी मत-पंथों को भारत में प्रवेश व प्रश्रय मिला। भारत में अनेक मत-पंथों के लोग रहने लगे। भारत में सभी पंथों का सहज रहना यहां के प्राचीन समाज (हिन्दू) के स्वभाव के कारण है। उस हिन्दुत्व के कारण है जिसे देश के सर्वोच्च न्यायालय ने भी जीवन पद्धति कहा है, केवल पूजा पद्धति नहीं। संघ की प्रार्थना में प्रार्थना में मातृभूमि की वंदना, प्रभु का आशीर्वाद, संगठन के कार्य के लिए गुण, राष्ट्र के परम वैभव (सुख, शांति, समृद्धि) की कल्पना की गई है। प्रार्थना में हिन्दुओं का परम वैभव नहीं कहा है, राष्ट्र का परम वैभव कहा है।
उन महाशय के ये विचार जाहिर करते हैं कि संघ मुसलमानों को अपने से अलग करके नहीं मान रहा, भले ही उनकी पूजा पद्धति भिन्न है। आज जब कि इसी पूजा पद्धति की बिना पर कांग्रेस संघ को मुस्लिमों के विरुद्ध खड़ा माना रही है, आपके समक्ष यह चुनौती है कि आप अजमेर की सरजमीं से यह संदेश दें कि उसके आरोप निराधार हैं। कि संघ मुस्लिमों अथवा उनके धर्मस्थलों के प्रति घृणा का भाव नहीं रखता। विशेष रूप से सूफी मत की इस कदीमी दरगाह के प्रति, जो कट्टरवादी इस्लाम से अलग हट कर सभी धर्मों में भाईचारे का संदेश दे रही है।
यदि आपके दरगाह जियारत करने के सवाल को बेहूदा माना जाता है तो इसकी क्या वजह है कि दरगाह में जियारत को आने वालों में मुसलमानों की तुलना में हिंदू ही अधिक होते हैं? क्या उन्हें पता नहीं है कि उन्हें यहां सिर नहीं झुकाना चाहिए।
इसी सिलसिले में बम विस्फोट के आरोप में गिरफ्तार असीमानंद के उस इकबालिया बयान पर गौर कीजिए कि बम विस्फोट किया ही इस मकसद से गया था कि दरगाह में हिंदुओं को जाने से रोका जाए। दरगाह बम विस्फोट की बात छोड़ भी दें तो आज तक किसी भी हिंदू संगठन ने ऐसे कोई निर्देश जारी करने की हिमाकत नहीं की है कि हिंदू दरगाह में नहीं जाएं। वे जानते हैं कि उनके कहने को कोई हिंदू मानने वाला नहीं है। वजह साफ है। चाहे हिंदू ये कहें कि ईश्वर एक ही है, मगर उनकी आस्था छत्तीस करोड़ देवी-देवताओं में भी है। बहुईश्वरवाद के कारण ही हिंदू धर्म लचीला है। और इसी वजह से हिंदू धर्मावलम्बी कट्टरवादी नहीं हैं। उन्हें शिवजी, हनुमानजी और देवीमाता के आगे सिर झुकाने के साथ पीर-फकीरों की मजरों पर भी मत्था टेकने में कुछ गलत नजर नहीं आता। रहा सवाल मुस्लिमों का तो वह खड़ा ही बुत परस्ती के खिलाफ है। ऐसे में भला हिंदू कट्टरपंथियों का यह तर्क कहां ठहरता है कि अगर हिंदू मजारों पर हाजिरी देता है तो मुस्लिमों को भी मंदिर में दर्शन करने को जाना चाहिए। सीधी-सीधी बात है मुस्लिम अपने धर्म का पालन करते हुए हिंदू धर्मस्थलों पर नहीं जाता, जब कि हिंदू इसी कारण मुस्लिम धर्म स्थलों पर चला जाता है, क्यों कि उसके धर्म विधान में देवी-देवता अथवा पीर-फकीर को नहीं मानने की कोई हिदायत नहीं है।
बहरहाल, आज जब कि संघ मुस्लिम विरोधी और भगवा आतंकवाद के आरोप से मुक्त होने को तत्पर है, भले ही वह घर-घर जा कर खुलासा करे, मगर संघ प्रमुख होने के नाते आपके लिए यह विचारणीय है कि अजमेर में अपनी मौजूदगी का लाभ उठाएंगे या नहीं? क्या दरगाह जियारत करके अथवा दरगाह में सिर्फ औपचारिकता मात्र के लिए श्रद्धा सुमन अर्पित करके कोई उदाहरण पेश करेंगे? क्या भाजपा से जुड़े मुस्लिमों व खादिमों अपनी जमात में गर्व से सिर उठाने का मौका देंगे? या फिर इस सवाल को अनुत्तरित ही छोड़ देंगे?
-गिरधर तेजवानी