तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

रविवार, अप्रैल 30, 2017

भाजपा बड़े पैमाने पर काटेगी मौजूदा विधायकों के टिकट?

हालांकि मोटे तौर पर यही माना जाता है कि नरेन्द्र मोदी के नाम में अब भी चमत्कार है और मोदी लहर अभी नहीं थमी है, बावजूद इसके स्वयं भाजपा का मानना है कि एंटी एस्टेब्ल्शिमेंट फैक्टर भी अपना काम करता है, जिसका ताजा उदाहरण उत्तर प्रदेश व पंजाब हैं। उत्तर प्रदेश में चूंकि भाजपा को बंपर बहुमत मिला, इस कारण उसे मोदी लहर की संज्ञा मिल गई, मगर सच्चाई ये थी कि मायावती व अखिलेश की सरकारों के प्रति जो असंतोष था, वहीं मोदी लहर में शामिल हो गया। उधर पंजाब में मोदी लहर नाकायाब हो गई, क्योंकि वहां एंटी एस्टेब्ल्शिमेंट फैक्टर पूरा काम कर गया। ऐसे में पार्टी केवल इसी मुगालते में नहीं रहना चाहती कि चुनाव जीतने के लिए केवल मोदी का नाम ही काफी है।
सूत्रों के अनुसार भाजपा के अंदरखाने यह सोच बन रही है कि अगले साल होने जा रहे राजस्थान विधानसभा चुनाव में भी मोदी फोबिया के साथ एंटी एस्टेब्ल्शिमेंट फैक्टर काम करेगा। इसके अतिरिक्त विशेष रूप से राजस्थान के संदर्भ में यह तथ्य भी ध्यान में रखा जा रहा है कि यहां की जनता हर साल पांच साल बाद सत्ता बदल देती है। हालांकि मौजूदा मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे चूंकि क्षेत्रीय क्षत्रप हैं और उनका भी अपना जादू है, मगर समझा जाता है कि वह भी अब फीका पड रहा है। हालांकि भाजपा का एक बड़ा खेमा यही मानता है कि वसुंधरा राजे का मौजूदा कार्यकाल संतोषजनक रहा है, मगर फिर भी यह आम धारणा बन गई है कि उनका मौजूदा कार्यकाल पिछले कार्यकाल की तुलना में अलोकप्रिय रहा है। इसकी एक वजह ये रही है कि इस बार भाजपा के पास ऐतिहासिक बहुमत था, इस कारण सभी विधायकों को संतुष्ट नहीं किया जा सका, जिसकी छाया आम जनता में भी नजर आती है। ऐसे में भाजपा के लिए चिंता का विषय है कि राजस्थान में सत्ता विरोधी पहलु से निपटने के लिए क्या किया जाए?
सूत्रों के अनुसार भाजपा हाईकमान की सोच है कि एंटी एस्टेब्ल्शिमेंट फैक्टर तभी कमजोर किया जा सकता है, जबकि बड़े पैमाने पर पुराने चेहरों के टिकट काटे जाएं। चेहरा बदलने से कुछ हद तक पार्टी के प्रति असंतोष को कम किया जा सकता है। पार्टी के भीतर भी मौजूदा विधायक के विरोधी खेमे का असर तभी कम किया जा सकता है, जबकि चेहरा ही नया ला दिया जाए। पार्टी का मानना है कि विशेष रूप से दो या तीन बार लगातार जीते हुए विधायकों के टिकट काटना जरूरी है। हालांकि ऐसा करना आसान काम नहीं है, और उसकी कोई ठोस वजह भी नहीं बनती, मगर फार्मूला यही रखने का विचार है। बस इतना ख्याल जरूर रखा जा सकता है कि सीट विशेष पर यदि किसी विधायक का खुद का समीकरण बहुत मजबूत है तो उसे फिर मौका दिया जा सकता है।
भाजपा हाईकमान ने ऐसे पुराने चेहरों को भी हाशिये पर रखना चाहती है, जो कि पूर्व में विधायक, सांसद या प्रभावशाली रहे हैं। इसके लिए संघ प्रचारकों की तर्ज पर पार्टी में भी विस्तारकों की टीम तैयार की गई है। पिछले दिनों ऐसे विस्तारकों को मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने साफ तौर पर कहा कि न तो वे टिकट मिलने की आशा रखें और न ही इस गलतफहमी में रहें कि उनके रिपोर्ट कार्ड पर टिकट दिए जाएंगे। उनका काम केवल पार्टी का जनाधार बढ़ाना है। इसका मतलब साफ है कि पार्टी इस बार बिलकुल नए चेहरों पर दाव खेलना चाहती है।
सूत्रों का मानना है कि अगर चेहरे बदलने के फार्मूले पर ही चुनाव लड़ा गया तो तकरीबन साठ से सत्तर फीसदी टिकट काटे जाएंगे, जिनमें मौजूदा विधायक और पिछली बार चुनाव हारे प्रत्याशी शामिल होंगे।
-तेजवानी गिरधर
7742067000

मंगलवार, अप्रैल 25, 2017

आडवाणी के फंसने से है सिंधियों को मोदी पर गुस्सा

हालांकि पूर्व उपप्रधानमंत्री लाल कृष्ण आडवाणी सिंधी हैं, मगर वे अकेले सिंधी समाज के नेता नहीं हैं, वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पृष्ठभूमि के होने की वजह से हिंदुत्व में ज्यादा यकीन रखते हैं। असल में वे सिंधी समाज से कहीं ऊपर उठ कर हिंदुत्व का प्रतिनिधित्व करते हैं। बावजूद इसके सिंधी समाज उन्हें अपना नेता मानता है। इतना मानता है कि एक बार जब उन्होंने कह दिया कि सिंधी पुरुषार्थी हैं और उन्हें आरक्षण की जरूरत नहीं है तो उसके बाद सिंधी समाज ने कभी इस मांग पर जोर नहीं दिया। आज जब वे बाबरी मस्जिद विध्वंस मामले में सीबीआई की अपील पर फिर से आपराधिक साजिश के आरोपी बन गए हैं तो सिंधी समाज में गुस्सा है। गुस्सा इस वजह से है कि भाजपा में हाशिये पर धकेल दिए जाने के बाद पहली बार राष्ट्रपति पद के प्रबल दावेदार बने तो ताजा मामला आड़े आता दिखाई दे रहा है।
यूं तो पिछले कुछ माह से सिंधियों के कुछ संगठन सोशल मीडिया पर आडवाणी को राष्ट्रपति बनाए जाने की मुहिम छेड़े हुए हैं ही, मगर ताजा हालात में वह मुहिम गुस्से में तब्दील होने लगी है। चूंकि सोशल मीडिया बेलगाम है, इस कारण यूं तो कई प्रकार की आपत्तिजनक टिप्पणियां पसरी पड़ी हैं, मगर उनका निचोड़ इन चंद लाइनों में पेश है:-
आडवाणी ने अपनी जान की परवाह न करते हुए देशभर में राम रथ यात्रा की और उसका परिणाम ये है कि जिस पार्टी की संसद में केवल दो ही सीटें थीं, वह तीन सौ तक पहुंच गई। जब प्रधानमंत्री बनने की बारी आई तो कट्टर हिंदुत्व का चेहरा आड़े आ गया और अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बन गए। गोधरा कांड में जब वाजपेयी ने नरेन्द्र मोदी को राजधर्म का पालन करने की नसीहत दी तो आडवाणी ने उनको बचाया। मगर आज वही मोदी अहसान फरामोश हो कर आडवाणी के राष्ट्रपति बनने में आड़े आ रहे हैं। उनके इशारे पर ही सीबीआई ने सुप्रीम कोर्ट में अपील कर बाबरी मामले की फिर से सुनवाई के आदेश जारी करवा दिए। कैसी विडंबना है कि जिस शख्स ने पार्टी को खड़ा किया, आज वही अपनी पार्टी के शासन में अपराधी कर श्रेणी में खड़ा है, जबकि यूपीए के शासन काल में ऐसा नहीं हुआ।
सिंधी समाज आडवाणी को अपना आइकन मानता है। उनकी ही वजह से आज बहुसंख्यक सिंधी भाजपा के साथ जुड़ा हुआ है, मगर भाजपा ने सिंधियों का इस्तेमाल केवल सत्ता हासिल करने के लिए किया है। सिंधी समाज को चाहिए कि वह मोदी व भाजपा को सबक सिखाए, ताकि उनकी अक्ल ठिकाने आए।
हालांकि सिंधी समाज का कोई सशक्त राष्ट्रीय संगठन नहीं है और अगर हैं तो भी वे कहीं न कहीं संघ या भाजपा विधारधारा के ही नजदीक हैं। ऐसे में कोई भी मोदी के विपरीत जा कर सांगठनिक रूप से आडवाणी के लिए दबाव नहीं बना पाएगा, मगर इस प्रकार की मुहिम आम सिंधियों की भावना को तो प्रदर्शित करती ही है। यह बाद दीगर है कि ऐसी मुहिम के कामयाब होने की संभावना कम ही है।
-तेजवानी गिरधर
7742067000

सोमवार, अप्रैल 24, 2017

मोदी के अश्वमेघ यज्ञ को कोई बाधा मंजूर नहीं?

-तेजवानी गिरधर-
देश के इतिहास में पहली बार जिस प्रकार भाजपा ने नरेन्द्र मोदी को ब्रांड बना कर सत्ता पर कब्जा किया है, उस सफल प्रयोग ने भाजपा की मानसिकता बना दी है कि भले ही कॉमन सिविल कोड, राम मंदिर, कश्मीर में धारा 370 सहित कट्टर हिंदुत्व के अन्य एजेंडे समानांतर रूप से कायम रखे जाएं, मगर यदि इस देश की जनता व्यक्तिवाद में विश्वास रखती है तो बेहतर ये है कि मोदी ब्रांड को ही आगे रखा जाए। भाजपा को समझ में आ चुका है कि वह जिन मुद्दों को लेकर वर्षों से चल रही है, वे प्रभावी तो हैं, मगर ऐसे वैचारिक आंदोलन सत्ता हासिल करने के लिए नाकाफी हैं। सालों के मंथन व उतार-चढ़ाव देखने के बाद अलादीन के चिराग से निकले मोदी ब्रांड को वह तब तक भुनाना चाहती है, जब तक कि वे मंद पड़ता न दिखाई दे। ऐसे ही इरादों को मन में रख कर भुवनेश्वर में आयोजित राष्ट्रीय कार्यकारिणी में भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने यह कहा कि अभी पार्टी अपने चरम पर नहीं पहुंची है और स्वर्णिम काल तब आएगा जब पूरे देश में पंचायत से लेकर हर प्रांत एवं संसद तक उसका शासन होगा।
तेजवानी गिरधर
ये इरादे यही इंगित करते हैं कि भाजपा उन राज्यों में भी अपनी दमदार उपस्थिति चाहती है, जहां वह सत्ता से दूर है। ओडिशा में राष्ट्रीय कार्यकारिणी का आयोजन भी इसी बात को रेखांकित करता है।
असल में हाल के विधानसभा चुनावों में भाजपा को जिस फार्मूले से सफलता मिली, उसके बाद उसने तय कर लिया है कि एक तो मोदी ब्रांड को ज्यादा से ज्यादा चमकाया जाए और दूसरा ये कि अगर जीत के लिए घोर विरोधी कांग्रेस के नेता भी पार्टी में शामिल करने पड़ें तो उससे परहेज न किया जाए। लब्बोलुआब, मोदी के अश्वमेघ यज्ञ में उसे कोई बाधा मंजूर नहीं। न पार्टी के भीतर की और न ही बाहर की। यहां तक कि उसे पार्टी के क्षेत्रीय क्षत्रप भी मंजूर नहीं। उन्हें भी ताश के पत्तों की तरह फैंट रही है। गोवा के क्षत्रप मनोहर पर्रिकर को केन्द्र में बुला कर रक्षा मंत्री बनाना और जरूरत पडऩे पर वापस गोवा का मुख्यमंत्री बनाना इसका सबसे ज्वलंत उदाहरण है। बात राजस्थान की करें तो श्रीमती वसुंधरा राजे भी तो क्षेत्रीय क्षत्रप हैं। प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता का संचालन करने वाली पार्टी की चमकदार चेहरे वाली वसुंधरा राजे तक को यहां से हटा कर केन्द्र में ले जाने की चर्चाएं सामने आ रही हैं। मोदी के नाम पर जीत की शिद्दत कितनी मजबूत है, उसका अंदाजा इसी बात से लग जाता है कि एंटी इंकंबेंसी के चलते जरा सी चूक से कहीं सत्ता हाथ से न निकल जाए, वह राजस्थान में अगला विधानसभा चुनाव मोदी के नाम पर ही लडऩे का मानस बना चुकी है।
इतना ही नहीं, अगर देश की राजधानी से इस प्रकार की खबरें आती हैं कि उसने प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सचिन पायलट तक को भाजपा में शामिल होने पर केन्द्रीय मंत्री पद ऑफर किया है तो समझा जा सकता है कि सत्ता के लिए उसे घोर विरोधियों को भी अपने भीतर समा लेने से कोई गुरेज नहीं। सत्ता के विस्तार के लिए अश्वमेघ यज्ञ इसी का तो नाम है। ऐसा प्रयोग उसने उत्तर प्रदेश में भी किया था। वहां की प्रदेश अध्यक्ष रीता बहुगुणा को उनके कांग्रेस में तनिक असंतुष्ट दिखाई देते ही तुरंत हाथ मारा। कदाचित रीता बहुगुणा को भी हालात के मद्देनजर कांग्रेस छोड़ कर भाजपा में जाना ज्यादा फायदे का सौदा लगा। कुछ इसी प्रकार सचिन को वह यह डर दिखा कर कि कहीं उनकी सारी मेहनत के बाद भी अशोक गहलोत को मुख्यमंत्री बना दिया जाए, तो क्या करेंगे, बेहतर ये है कि भाजपा में चले आने का निमंत्रण दे रही है। जानकारी के अनुसार इसी कड़ी में महाराष्ट्र में मिलिंद देवड़ा व नारायण राणे पर डोरे डाले जा रहे हैं।
बात अगर विपक्ष की करें तो वह मोदी की बढ़ती लोकप्रियता से चिंतित है। एक के बाद एक प्रमुख विपक्षी नेता भाजपा के खिलाफ एकजुट होने को वक्त की जरूरत बता रहे हैं। स्थिति यह है कि उत्तर प्रदेश में भी बिहार की तरह गठबंधन बनने के आसार बढ़ गए हैं। पहले मायावती ने ऐसे किसी गठबंधन की संभावना को रेखांकित किया और फिर अखिलेश यादव ने भी। वैसे इस प्रकार की एकजुटता देश के लोकतंत्र के लिए बेहतर है। क्षेत्रीय दलों की भीड़ के कारण केन्द्र व राज्यों में ब्लैकमेलिंग के अनेक उदाहरण सामने हैं। हालात अगर देश को द्विदलीय राजनीतिक व्यवस्था की ओर ले जाते हुए दिख रहे हैं, तो यह राजनीति के हित में है। राजनीतिक दलों की भारी भीड़ का कोई औचित्य नहीं। इसमें हर्ज नहीं कि समान विचारधारा वाले दल गोलबंद हो जाएं, लेकिन यह गोलबंदी विचारों के आधार पर होनी चाहिए।

गुरुवार, अप्रैल 20, 2017

कानून के शिकंजे में जकड़ा भाजपा का शीर्ष पुरुष

जैसा कि मीडिया में आशंका जाहिर की जा रही है कि लाल कृष्ण आडवाणी व मुरली मनोहर जोशी को राष्ट्रपति पद की दौड़ से बाहर करने की खातिर ही सोची समझी साजिश के तहत बाबरी मस्जिद विध्वंस मामले में आपराधिक साजिश के आरोप में मुकदमा चलाया जा रहा है, अगर ये सच है तो राजनीति वाकई निकृष्ठ चीज है। भले ही सीबीआई की अपील पर सुप्रीम कोर्ट के ताजा फैसले से यह स्थापित हो रहा हो कि कानून सब के लिए समान है, मगर भाजपा के शीर्ष पुरुष लाल कृष्ण आडवाणी के लिए यह जीते जी मर जाने के समान है। जिस राम मंदिर आंदोलन के वे सूत्रधार रहे, उसने देश की दशा व दिशा बदली, उसी की परिणति में भाजपा दो सीटों से बढ़ कर आज सत्ता पर काबिज है, मगर उसी की परिणति में वे खुद उम्र के इस पड़ाव पर भी कानून के शिकंजे में जकड़े हुए हैं। कैसी विडंबना है कि जिस राम के नाम पर कुछ नेता आज सत्ता का सुख भोग रहे हैं, और आगे और भी ज्यादा ताकतवर होना चाहते हैं, उन्हीं राम की खातिर आडवाणी के हाथों हुआ कथित कृत्य उनको सलाखों के करीब ले आया है। यह तब और ज्यादा दर्दनाक हो जाता है कि जब पार्टी की खातिर किए गए बलिदान की एवज में ईनाम का मौका आया तो उन्हें उससे वंचित रखने के लिए अपने ही लोग नए सिरे से शिकंजे में कसना चाहते हैं। उस पर तुर्रा ये कि औपचारिकता निभाते हुए पार्टी आपके साथ खड़ी है।
बाबरी मस्जिद के विध्वंस की साजिश में अगर वे शामिल थे, यह कोर्ट में साबित हो जाता है तो उन्हें सजा होनी ही है, होनी ही चाहिए, मगर क्या यह सच नहीं है कि उसी विध्वंस ने हिंदुओं को लामबंद किया, ऊर्जा भरी और उसी सांप्रदायिक धु्रवीकरण की बदौलत भाजपा आज पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में है। कोर्ट को यह तो दिख जाएगा कि साजिश करने वाले कौन थे, मगर उसे यह कदापि नजर नहीं आएगा कि उसी साजिश के परिणामस्वरूप  पार्टी के कुछ और नेता सत्तारूढ़ हो कर इठला रहे हैं। बकौल आडवाणी,  राम मंदिर आंदोलन से वे गौरवान्वित हैं, मगर उसी आंदोलन की वजह से बने मार्ग पर चल कर सुशोभित तो कुछ और रहे हैं।
यह भी एक संयोग या भाजपा के लिए सुयोग है कि मुकदमे में रोज सुनवाई होगी और जब तक फैसला आने वाला होगा तब तक प्रतिदिन राम मंदिर का नाम सुर्खियों में रहेगा, जिसका लाभ स्वाभाविक रूप से भाजपा उठाएगी ही। अगर आरोपित बरी हो गए तो ठीक, नहीं तो इसे हिंदुओं के लिए शहादत के रूप में भुनाया जाएगा। यानि कि भुगतेंगे शहादत देने वाले और भोगेंगे कंगूरे।
इस कष्ट की पीड़ा कितनी गहरी होगी, ये तो आडवाणी ही जानते होंगे कि नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद वे न केवल हाशिये पर धकेल दिए गए, अपितु अनुशासन के नाम पर उनका मुंह भी सिल गया है। वे अपना ब्लॉग तक लिखना छोड़ चुके हैं। संगठन के हित को लेकर कभी कुछ टिप्पणी भी की और मौजूदा नेतृत्व को रास नहीं आया तो उन्होंने न बोलने का फैसला कर लिया। यहां तक कि भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी या कार्यसमिति तक में उन्होंने चुप्पी साधे रखी है।
देश के सर्वोच्च पद के मुहाने पर खड़े शख्स को यदि सामने सलाखें नजर आ जाएं तो उसकी मन:स्थिति की व्याख्या करना नितांत असंभव है। मरने के बाद पीछे क्या होता है, किसी ने नहीं देखा, मगर जीते जी अपनी दुर्गति देखने वाले को शायद मृत्यु से भी हजारों गुणा भयंकर पीड़ा होती होगी। तभी कुछ लोग कहते हैं कि स्वर्ग और नर्क कहीं ऊपर नहीं, यहीं धरती पर है, यहीं पर है।
तेजवानी गिरधर
सुप्रीम कोर्ट के ताजा निर्णय से जहां हमारी न्यायिक व्यवस्था पर गर्वानुभूति होती है, उसी व्यवस्था पर शर्म भी आनी चाहिए कि 25 साल तक  मुकदमा चलने के बाद भी उसका फैसला नहीं आया। अभी दो साल और इंतजार करना होगा। इस बीच साजिश रचने के 21 आरोपियों में से 8 तो इस दुनिया से रुखसत हो चुके हैं। धन्य है।
और उधर उमा भारती को देखिए, उन्हें तो कोई मलाल ही नहीं। कहती हैं-कोई साजिश नहीं हुई, साजिश तो अंधेरे में होती है, वहां तो जो हुआ, खुल्लम-खुल्ला हुआ...। अयोध्या में राम मंदिर के लिए फांसी चढऩे को भी तैयार हूं। कोई माई का लाल मंदिर बनने से रोक नहीं सकता।
-तेजवानी गिरधर
7742067000

बुधवार, अप्रैल 19, 2017

क्या ऐसा आडवाणी को राष्ट्रपति पद से दूर रखने के लिए हुआ?

तेजवानी गिरधर
बाबरी विध्वंस मामले पर सुप्रीम कोर्ट के बुधवार को आए अहम फैसले को राष्ट्रपति पद के लिए होने वाले आगामी चुनाव के साथ जोड़ कर देखा जा रहा है। सोशल मीडिया तो इस सवालों से अटा पड़ा है कि क्या ऐसा पूर्व उप प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी को इस पद की दौड़ से अलग करने के लिए किया गया है? उल्लेखनीय है कि लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, उमा भारती समेत 12 नेताओं पर आपराधिक साजिश का मुकदमा चलाने के आदेश हुए हैं और दूसरी ओर आडवाणी राष्ट्रपति पद के प्रबल दावेदार माना जाते है।
हालांकि सुप्रीम कोर्ट व सीबीआई पूरी तरह से स्वतंत्र हैं, ऐसे में मूल रूप से इस तरह का सवाल बेमानी है, मगर पिछले सालों में सीबीआई की भूमिका को लेकर जिस तरह से प्रश्नचिन्ह लगते रहे हैं, इस कारण लोगों को इस तरह की संभावना पर सहसा यकीन भी हो जाता है। बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव ने तो बाकायदा अपने बयान में ऐसा कह ही दिया, जिसकी प्रतिक्रिया में भाजपा के रविशंकर प्रसाद की ओर से इतना भर जवाब आया कि वे खुद व खुद के परिवार पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों पर ध्यान दें। एक बात और। वो यह कि इस फैसले से यह संदेश भी तो गया ही है कि सरकार सीबीआई व सुप्रीम कोर्ट के मामलों में हस्तक्षेप नहीं करती, भले ही भाजपा के दिग्गजों का मसला हो।
ज्ञातव्य है कि गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए भाजपा के शीर्ष नेता लाल कृष्ण आडवाणी व मुरली मनोहर जोशी सरीखों को जिस तरह से मार्गदर्शक मंडल के नाम पर हाशिये पर रख छोड़ा गया है, पार्टी के अधिसंख्य लोगों के लिए यह तकलीफ है कि जिन नेताओं ने पार्टी को अपने खून पसीने से सींचा है, उनकी यह दुर्गति ठीक नहीं है। हालांकि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जिस तरह एक तानाशाह की तरह मजबूत बने हुए हैं, उनको पार्टी में कोई चुनौति देने वाला नहीं है, मगर फिर भी आडवाणी व जोशी जैसे नेताओं के कुछ न कुछ गड़बड करने का अंदेशा बना ही रहता है। इस कारण पार्टी के भीतर इस प्रकार की राय बनाई जाने लगी कि आडवाणी को राष्ट्रपति बना कर उपकृत कर दिया जाए। इससे वह काला दाग भी धुल जाएगा कि पार्टी में वरिष्ठों को बेकार समझ कर अलग-थलग कर दिया जाता है। मगर साथ यह भी ख्याल रहा कि अगर आडवाणी सर्वोच्च पद पर बैठा दिए गए तो कहीं वे सरकार के कामकाज में दिक्कतें न पैदा करते रहें। चाहे कुंठा की वजह से ही, मगर आडवाणी का इस प्रकार का स्वभाव सामने आता रहा है। कदाचित प्रधानमंत्री मोदी की भी यही सोच हो, इस कारण उन्हें उलझा दिया है, ताकि उन्हें राष्ट्रपति बनाने का जो दबाव बन रहा है, उसकी हवा निकल जाए। इसी सिलसिले में पिछले दिनों जिस तरह से संघ प्रमुख मोहन भागवत को राष्ट्रपति बनाने की मांग उठी है, उसे भी इसी से जोड़ कर देखा जा रहा है, ताकि आडवाणी के नाम से ध्यान हटे। ज्ञातव्य है कि पिछले दिनों मुस्लिम युवा आतंकवाद विरोधी समिति के राष्ट्रीय अध्यक्ष शकील सैफी ने अजमेर में सूफी संत ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह में हाजिरी दे कर यह दुआ मांगी कि भागवत को राष्ट्रपति बनाया जाए। अगर मुस्लिम ही हिंदुओं के शीर्षस्थ नेता को राष्ट्रपति बनाने की मंशा जाहिर करें तो वह वाकई चौंकाने वाला था। जियारत की प्रस्तुति से ही लग रहा था कि यह सब प्रायोजित है।
बहरहाल, सुप्रीम कोर्ट के ताजा फैसले से सब भौंचक्क हैं। हर कोई अपने हिसाब से आकलन कर रहा है। कुछ का कहना है कि ऐसा उन नेताओं को शिकंजे में रखने के लिए किया गया है, जिनकी राम मंदिर आंदोलन में अहम भूमिका है और इसी वजह पार्टी में उनकी अलग ही अहमियत रहती है। मोदी कभी नहीं चाहते कि बुरे वक्त में पार्टी को खड़ा करने वाले अपने बलिदान के नाम पर उन पर किसी प्रकार कर दबाव बनाए रखें। बतौर बानगी इन्हीं में से एक उमा भारती का बयान देखिए वे तो कह  रही हैं कि बाबरी विध्वंस के लिए साजिश का तो सवाल ही नहीं उठता, जो कुछ हुआ खुल्लमखुल्ला हुआ। उन्हें तो गर्व है कि वे मन, वचन व कर्म से राम मंदिर आंदोलन से जुड़ी हुई रही हैं। है न बिंदास तेवर।
-तेजवानी गिरधर
7742067000

रविवार, अप्रैल 16, 2017

सचिन पायटल पर हाथ मारना चाहती है भाजपा?

तेजवानी गिरधर
जैसे-जैसे विधानसभा चुनाव नजदीक आ रहे हैं, राजनीतिक हलकों में अफवाहों का बाजार गर्म हो रहा है। बाजारवाद के दौर में मीडिया भी ऐसे बाजार का हिस्सा बनता दिख रहा है। प्रदेश के एक बड़े दैनिक समाचार पत्र में देश की राजधानी से लीड खबर आई कि राजस्थान में भाजपा अपनी जीत सुनिश्चित करने के लिए राजस्थान प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष सचिन पायलट को अपने खेमे में शामिल करना चाहती है। बताया गया कि उन्हें बाकायदा ऑफर भी दी जा चुकी है कि उन्हें केन्द्रीय मंत्री बना दिया जाएगा। हालांकि अभी तक सचिन ने इस पर अपनी कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है। बताया गया है कि भाजपा की कांग्रेस के ऐसे ही कुछ और चेहरों यथा मिलिंद देवड़ा व नारायण राणे पर भी भाजपा की नजर है। है न विस्फोटक खबर या यूं कहिये ब्लास्टिंग अफवाह।
खबर में दम भरने के लिए बाकायदा तर्क भी दिया गया है। वो यह कि पिछले विधानसभा चुनाव में रसातल में पहुंच चुकी कांग्रेस को सजीव करने के लिए सचिन ने एडी से चोटी का जोर लगा रखा है। यह सच भी है। वाकई सचिन की मेहनत के बाद आज स्थिति ये है कि इस धारणा को बल मिलने लगा है कि अगली सरकार कांग्रेस की ही होगी। दूसरी ओर पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के समर्थक लगातार गहलोत-गहलोत की रट लगाए हुए हैं। अर्थात रोटी तो पकाएं सचिन व खाएं गहलोत। भाजपा सचिन व गहलोत के बीच की कथित नाइत्तफाकी का लाभ लेना चाहती है। वह सचिन के दिमाग में बैठाना चाहती है कि कांग्रेस के लिए दिन रात एक करने के बाद भी ऐन वक्त पर कांग्रेस गहलोत को मुख्यमंत्री बना सकती है। ऐसे में बेहतर ये है कि भाजपा में चले आओ।
राजस्थान वासियों के लिए यह खबर हजम करने के लायक नहीं है, मगर भाजपा ने उत्तर प्रदेश सहित अन्य राज्यों में जो प्रयोग किया, उससे लगता है कि वह सत्ता की खातिर किसी भी हद तक जा सकती है। वैसे भी उसे अब कांग्रेसियों से कोई परहेज नहीं है। भाजपा व मोदी को पानी पी पी कर कोसने वालों से भी नहीं। ज्ञातव्य है कि चुनाव से कुछ समय पूर्व ही उत्तर प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष रीता बहुगुणा भाजपा में शामिल हो गई थीं। उसके सकारात्मक परिणाम भी आए। उन्हें बाकायदा ईनाम भी दिया गया। संभव है भाजपा ऐसा ही प्रयोग राजस्थान में दोहराना चाहती हो। वह जानती है कि सचिन इस वक्त राजस्थान में कांग्रेस के यूथ आइकन हैं। ऊर्जा से लबरेज हैं। उनके नेतृत्व में कांग्रेस सत्ता पर काबिज भी हो सकती है। अगर वह उन्हें तोडऩे में कामयाब हो गई तो राजस्थान में कांग्रेस की कमर टूट जाएगी। वे गुर्जर समाज के दिग्गज नेता भी हैं। उनके जरिए परंपरागत कांग्रेसी गुर्जर वोटों में भी सेंध मारी जा सकती है। हालांकि इस बात की संभावना कम ही है कि सचिन भाजपा का ऑफर स्वीकार करें, मगर इस खबर से यह संकेत तो मिलता ही है कि भाजपा राजस्थान में जीत हासिल करने के लिए कांग्रेस में तोडफ़ोड़ के मूड में है।
-तेजवानी गिरधर
7742067000

शनिवार, अप्रैल 15, 2017

क्या वसुंधरा का मुख्यमंत्री पद से हटना टल जाएगा?

तेजवानी गिरधर
राजनीति में प्रति पल बदलते समीकरणों के बीच धौलपुर विधानसभा उपचुनाव में भाजपा को शानदार जीत दिलवाने के बाद क्या श्रीमती वसुंधरा राजे के मुख्यमंत्री पद से हटने की अफवाहों पर विराम लगेगा?ï यह सवाल बदले बदले हालात के कारण राजनीतिक हलकों में चर्चा का विषया बना हुआ है।
असल में इस चुनाव से पूर्व पिछले दिनों मीडिया में यह खबर आम हो गई थी कि श्रीमती वसुंधरा को मुख्यमंत्री पद से हटा कर केन्द्र में विदेश मंत्री बनाया जाएगा। उनके स्थान पर वरिष्ठ भाजपा नेता ओम माथुर को मुख्यमंत्री सौंपे जाने की चर्चा थी। हालांकि इसकी पुष्टि न होनी थी और न ही हुई, मगर जिस प्रकार मीडिया में बार बार यह खबर उछल रही थी, यह आम धारणा सी बन गई थी कि जल्द ही वसुंधरा को मुख्यमंत्री पद से हटाया जा रहा है। हाल ही में ओम माथुर के राजस्थान प्रवास के दौरान जिस प्रकार उनके समर्थकों ने उनका स्वागत किया, उससे भी इस धारणा को बल मिला। माथुर ने भी खंडन नहीं किया और यही कहा कि पार्टी जो भी जिम्मेदारी देगी, वे उसका बखूबी निर्वहन करेंगे।
अब जबकि वसुंधरा ने धौलपुर में पार्टी को शानदार जीत दिलवाई दी है तो यह सवाल उठ खड़ा हुआ है कि क्या अब भी उनकी सीट को खतरा है? यहां यह कहने की आवश्यकता प्रतीत नहीं होती कि उन्होंने इस उपचुनाव को प्रतिष्ठा का प्रश्न बना दिया था। अपनी पूरी ताकत इसमें झौंक दी थी। हालांकि विधानसभा में उनके पास जितना बंपर बहुमत हासिल है, इस चुनाव में जीत कर एक सीट और हासिल करना उनके लिए कत्तई जरूरी नहीं था, फिर भी उन्होंने जीतने के लिए कोई कोर कसर बाकी नहीं छोड़ी। वे चाहती थीं कि इस जीत से यह साबित हो जाए कि उनका दबदबा अब भी कायम है, लोग भले ही चर्चा कर रहे हों कि भाजपा की लोकप्रियता का ग्राफ गिरा है। वसुंधरा समर्थक भाजपाइयों का मानना है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी केलिए अब वसुंधरा को हटाना आसान नहीं होगा। उनकी बात में दम भी है, कि जब तीन साल बाद भी वसुंधरा का जादू कायम है तो उन्हें हटाने का क्या औचित्य है। जहां तक स्वयं वसुंधरा का सवाल है तो वे कभी नहीं चाहेंगी कि उन्हें राजस्थान से जाना पड़े। इसके लिए वे एडी चोटी का जोर लगा देंगी। बहुत अधिक दबाव आने पर ही समझिये कि वे केन्द्र में जाने को तैयार होंगी।
दूसरी ओर वसुंधरा के हटने का इंतजार कर रहे भाजपाई मानते हैं कि मात्र एक सीट पर जीतने का तो कोई मसला ही नहीं है। असल मोदी की दूरगामी योजना है और वे आगामी विधानसभा चुनाव के मद्देनजर वसुंधरा को हटाना चाहते हैं। जैसी कि चर्चा है कि अगले चुनाव में जनता भाजपा को पलटी खिला देगी, वे इस संभावना को पूरी तरह से समाप्त कर देना चाहते हैं। उनकी मंशा है कि आगामी विधानसभा चुनाव में केवल उनके नाम पर ही लड़ा जाए, जिससे जीतने के बाद अपनी पसंद से मुख्यमंत्री बना सकें।
बहरहाल, बहुत जल्द ही साफ हो जाएगा कि क्या राजस्थान में सत्ता  का हस्तांतरण वसुंधरा से माथुर या और किसी और को होगा। इसकी वजह  ये है कि इस प्रकार के परिवर्तन के लिए यही उपयुक्त समय है। पार्टी में ऊर्जा भरने व नई जाजम बिछाने के लिए कम से कम एक-डेढ़ साल तो चाहिए ही। यदि अभी परिवर्तन नहीं हुआ तो बाद में होना मुश्किल हो जाएगा। देखते हैं क्या होता है?
-तेजवानी गिरधर
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