तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

गुरुवार, मई 08, 2014

यकायक कहां खो गए दूसरे गांधी अन्ना हजारे?

देश की राजनीति व तंत्र के प्रति व्याप्त नैराशय के बीच नि:स्वार्थ जनआंदोलन के प्रणेता और प्रकाश पुंज अन्ना हजारे एक दूसरे गांधी के रूप में उभर कर आए थे और यही लग रहा था कि देश को दूसरी आजादी के सूत्रधार वे ही होंगे, मगर आज जब कि देश में परिवर्तन की चाह के बीच आम चुनाव हो रहे हैं तो वे यकायक राष्ट्रीय क्षितिज से गायब हो गए हैं। हर किसी को आश्चर्य है कि एक साल पहले तक जो शख्स सर्वाधिक प्रासंगिक था, वह आज अचानक अप्रासंगिक कैसे हो गया? इसमें दो ही कारण समझ में आते हैं। या तो आंदोलन को सिरे तक पहुंचाने की सूझबूझ के अभाव या अपनी टीम को जोड़ कर रख पाने की अक्षमता ने उनका यह हश्र किया है  या फिर चुनावी धूमधड़ाके में चाहे-अनचाहे सांप्रदायिकता व जातिवाद ने मौलिक यक्ष प्रश्रों को पीछे छोड़ दिया है। हालांकि चाह तो अब भी परिवर्तन की ही है, मगर ये परिवर्तन सत्ता परिवर्तन के साथ व्यवस्था परिवर्तन का आगाज भी करेगा, इसमें तनिक संदेह है। वजह साफ है कि व्यवस्था परिवर्तन की चाह जगाने वाले अन्ना हजारे राष्ट्रीय पटल से गायब हैं। आज जबकि उनकी सर्वाधिक जरूरत है तो वे कहीं नजर नहीं आ रहे।
आपको याद होगा कि अन्ना के आंदोलन ने देश में निराशा के वातावरण में उम्मीद की किरण पैदा की थी। आजादी के बाद पहली बार किसी जनआंदोलन के चलते संसद और सरकार को घुटने टेकने पड़े थे। ऐसा इसलिए संभव हो पाया कि क्योंकि इसके साथ वह युवा वर्ग शिद्दत के साथ शामिल हो गया था, जिसे खुद के साथ अपने देश की चिंता थी। उस युवा जोश ने साबित कर दिया था कि अगर सच्चा और विश्वास के योग्य नेतृत्व हो तो वह देश की कायापलट करने के लिए सबकुछ करने को तैयार है। मगर दुर्भाग्य से ऐसा हो नहीं पाया। इसके दो प्रमुख कारण रहे। एक तो स्वयं अन्ना   का भोलापन, जिसे राजनीतिक चालों की अनुभवहीनता कहा जा सकता है, और दूसरा बार-बार यू टर्न लेने की मजबूरी।
शुरू में यह नजर आया कि एक दूसरे के पर्याय भ्रष्टाचार व काला धन के खिलाफ बाबा रामदेव और अन्ना हजारे का जोड़ कामयाब होगा, मगर पर्दे के पीछे के भिन्न उद्देश्यों ने जल्द ही दोनों को अलग कर दिया। बाबा रामदेव अन्ना हजारे को आगे रख कर भी पूरे आंदोलन को हथिया लेना चाहते थे, मगर अन्ना आंदोलन के वास्तविक सूत्रधार अरविंद केजरीवाल को ये बर्दाश्त नहीं हुआ। सरकार भी बड़े ही युक्तिपूर्ण तरीके से दोनों के आंदोलनों को कुचलने में कामयाब हो गई। जैसे ही केजरीवाल को ये लगा कि सारी मेहनत पर पानी फिरने जा रहा है या फिर उनका सुनियोजित प्लान चौपट होने को है, उन्होंने आखिरी विकल्प के रूप में खुद ही राजनीति में प्रवेश करने का ऐलान कर दिया। ऐसे में अन्ना हजारे ठगे से रह गए। वे समझ ही नहीं पा रहे  थे कि उन्हीं के आंदोलन के गर्भ से पैदा हुई आम आदमी पार्टी को समर्थन दें या अलग-थलग हो कर बैठ जाएं। इस अनिश्चय की स्थिति में वे अपने मानस पुत्र को न खोने की चाह में कभी अरविंद को अशीर्वाद देते तो कभी उनसे कोई वास्ता न होने की बात कह कर अपने व्यक्तित्व को बचाए रखने की जुगत करते। अंतत: उन्हें यही लगा कि चतुराई की कमी के कारण उनका उपयोग कर लिया गया है और आगे भी होता रहेगा, तो उन्होंने हाशिये पर ही जाना उचित समझा। समझौतावादी मानसिकता में उन्होंने सरकार लोकपाल समर्थन कर दिया। जब केजरीवाल ने उनको उलाहना दिया कि इस सरकारी लोकपाल से चूहा भी नहीं पकड़ा जा सकेगा तो अन्ना ने दावा किया कि इससे शेर को भी पकड़ा जा सकता है। अन्ना के इस यूटर्न ने उनकी बनी बनाई छवि को खराब कर दिया। उन पर साफ तौर पर आरोप लगा कि वे यूपीए सरकार से मिल गये हैं। बदले हालत यहां तक पहुंच गए कि वे दिल्ली में अरविंद केजरीवाल के मुख्यमंत्री पद के शपथ ग्रहण समारोह में भी नहीं गए। वे किरण बेदी व पूर्व सेनाध्यक्ष वी के सिंह के शिकंजे में आ चुके थे, मगर अन्ना के साथ अपना भविष्य न देख वे भी उनका साथ छोड़कर भाजपा में चले गये। आज हालत ये है कि करोड़ों दिलों में अपनी जगह बना चुके अन्ना मैदान में मैदान में अकेले ही खड़े हैं। इससे यह साफ तौर साबित होता है कि उनको जो भी मिला उनका उपयोग करने के लिए। यहां तक कि पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के साथ भी उनका यही अनुभव रहा। यह स्पष्ट है कि ममता का आभा मंडल केवल पश्चिम बंगाल तक सीमित है और अन्ना का साथ लेकर वे राष्ट्रीय पटल पर आना चाहती थीं। दूसरी ओर अन्ना कदाचित केजरीवाल को नीचा दिखाने की गरज से ममता के प्रस्ताव पर दिल्ली में साझा रैली करने को तैयार हो गए। मगर बाद में उन्हें अक्ल आई कि ममता का दिल्ली में कोई प्रभाव नहीं है और वे तो उपयोग मात्र करना चाहती हैं तो ऐन वक्त पर यू टर्न ले लिया। इससे उनकी रही सही साख भी चौपट हो गई। कहां तो अन्ना को ये गुमान था कि वे जिस भी प्रत्याशी के साथ खड़े होंगे, उसकी चुनावी वैतरणी पर हो जाएगी, कहां हालत ये है कि आज अन्ना का कोई नामलेवा नहीं है। इस पूरे घटनाक्रम से यह निष्कर्ष निकलता है कि अनशन करके आंदोलन खड़ा करने और राजनीतिक सूझबूझ का इस्तेमाल करना अलग-अलग बातें हैं। निष्पत्ति ये है कि अन्ना ने भविष्य में किसी आंदोलन के लिए अपने आपको बचा रखा है, मगर लगता नहीं कि उनका जादू दुबारा चल पाएगा।
-तेजवानी गिरधर
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मंगलवार, मई 06, 2014

खुद को नीची जाति का बता कर नीच हरकत की मोदी ने

मोदी लहर के सूत्रधार को ही जरूरत पड़ गई खुद को नीच बता कर वोट मांगने की जरूरत
योजनाबद्ध रूप से देशभर में अपनी लहर चला कर तीन सौ से ज्यादा सीटें हासिल करने का दावा करने वाले भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी को लोकसभा चुनाव के आखिरी चरण में खुद को नीच जाति का बता कर वोट मांगने की जरूरत पड़ गई। उन्होंने कांग्रेस की स्टार प्रचारक प्रियंका वाड्रा की ओर से किए गए पलटवार को ही हथियार बना कर जिस प्रकार नीची जाति की हमदर्दी हासिल करने कोशिश की, उससे साफ झलक रहा था कि वे भले ही ऊंची राजनीति के प्रणेता कहलाने लगे हैं, मगर वोट की खातिर नीची हरकत कर बैठे।
ज्ञातव्य है कि मोदी ने अमेठी में अपने एक भाषण में गांधी परिवार पर हमला करते हुए पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी पर कटाक्ष किया था कि उन्होंने आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री टी अंजैया को एयरपोर्ट पर सबके सामने अपमानित किया था। इस पर प्रियंका तिलमिला उठीं। उन्होंने पलटवार करते हुए कहा था कि मोदी ने अमेठी की धरती पर मेरे शहीद पिता का अपमान किया है, अमेठी की जनता इस हरकत को कभी माफ नहीं करेगी। इनकी नीच राजनीति का जवाब मेरे बूथ के कार्यकर्ता देंगे। अमेठी के एक-एक बूथ से जवाब आएगा। मोदी को जैसे ही लगा कि प्रियंका ने उनके एक बयान के प्रतिफल में लोगों की संवेदना हासिल करने की कोशिश की है, उन्होंने उससे भी बड़े पैमाने की संवेदना जुटाने का घटिया वार चल दिया। प्रियंका को बेटी जैसी होने का बता कर सदाशयता का परिचय देने वाले मोदी ने यह स्वीकार भी किया कि एक पुत्री को पिता के बारे में सुन का बुरा लगा होगा, तो सवाल ये उठता है कि अमेठी की धरती पर क्या ऐसा बयान देना जरूरी था?
नीची जाति का यह मुद्दा इलैक्ट्रॉनिक मीडिया पर पूरे दिन छाया रहा और सारे भाषाविद, चुनाव विश्लेषक और पत्रकारों ने साफ तौर पर कहा कि प्रियंका ने तो केवल नीची अर्थात घटिया राजनीति का आरोप लगाया था, मगर मोदी ने जानबूझ कर इसे अपनी नीची जाति से जोड़ कर हमदर्दी हासिल करने की कोशिश की है। यह सर्वविदित तथ्य है कि उन्हें आज तक किसी ने नीची जाति का कह कर संबोधित नहीं किया, बावजूद इसके उन्होंने खुद को नीची जाति का बता कर उसे भुनाने की कोशिश की है। पूर्वांचल के सिद्धार्थनगर, महराजगंज, बांसगांव और सलेमपुर में कथित नीची जातियों के वोट बटोरने के लिए उन्होंने यहां तक कहा कि मेरा चाहे जितना चाहे अपमान करो, लेकिन मेरे नीची जाति के भाइयों का अपमान मत करो। खुद को ही पत्थर मार के घायल करने के बाद लोगों की संवेदना हासिल करने की तर्ज पर उन्होंने यह तक कहा कि क्या नीची जाति में पैदा होना गुनाह है। ये जो महलों में रहते हैं, वे नीची जाति का मखौल उड़ाते हैं। उन्हें सुख-शांति इसीलिए मिल रही है क्योंकि सदियों से हम नीच जाति के लोगों ने, हमारे बाप-दादाओं ने अपना पसीना बहाया है ताकि उनकी चमक बरकरार रहे।
मोदी की इस हरकत पर सभी भौंचक्क थे कि चुनाव के आखिरी चरण में मोदी को ये क्या हो गया है? क्या उन्हें अपनी लहर, जिसे कि वे खुद सुनामी कहने लगे हैं, उस पर भरोसा नहीं रहा, जो इतने निचले स्तर पर उतर आए हैं? कहीं जरूरत से ज्यादा जाहिर किए गए आत्मविश्वास पर उन्हें संदेह तो नहीं हो रहा? जीत जाने के दंभ से भरे इस शख्स को यकायक अपनी नीची जाति कैसे याद आ गई? कहीं उन्हें खुद के नीची जाति में पैदा होने का मलाल तो नहीं साल रहा? कहीं वे इस बात से आत्मविमुग्ध तो नहीं कि वे नीची जाति का होने के बावजूद देश के सर्वाधिक ताकतवर पद पर पहुंचने जा रहे हैं? सवाल ये भी कि नीची जाति के प्रति उनकी इतनी ही हमदर्दी है तो जब बाबा रामदेव ने यह कह कर दलित महिलाओं का अपमान किया था कि राहुल गांधी उनके घरों में जा कर रातें बिताते हैं, तब वे चुप क्यों रह गए थे? अव्वल तो प्रियंका ने मोदी को नीची जाति का बताया ही नहीं, मगर यदि मोदी ने यह अर्थ निकाल भी लिया तो भी बाबा रामदेव का कृत्य तो उससे भी कई गुना अधिक घटिया था, तब क्यों नहीं उन्हें फटकारा कि इस प्रकार मेरी नीची जाति की महिलाओं को जलील न करें?
आश्चर्य तो तब हुआ, जब अरुण जेटली जैसे जाने-माने बुद्धिजीवी नेता ने खुदबखुद व्यथित हुए मोदी के सुर में सुर मिला कर कांग्रेस से माफी मांगने तक को कह डाला।
आपको याद होगा कि एक बार कांग्रेस नेता मणिशंकर अय्यर की ओर से उन्हें बचपन में चाय बेचने वाला बताने को पकड़ कर जो रट चालू की है, वह अब तक जारी है। चाय बेचने वाले, ठेले व रेहड़ी लगाने वालों की संवेदना हासिल करने के लिए पूरी भाजपा ने देशभर में नमो चाय की नौटंकी की थी। अमेठी में भी इसी रट को जारी रखते हुए उन्होंने कहा कि हमें बार-बार चाय वाला कह कर गालियां दी गईं, जबकि सच्चाई ये है कि अय्यर के बाद कभी किसी ने इसका जिक्र नहीं किया, मगर मोदी सहित सभी भाजपा नेता बार-बार यह कह कर कि एक चाय बेचने वाला प्रधानमंत्री बनने जा रहा है तो यह कांग्रेस को बर्दाश्त नहीं है, चाय बेचने को भी महिमा मंडित कर रहे हैं।
-तेजवानी गिरधर

सोमवार, मई 05, 2014

गैर भाजपाइयों ने बनाया माहौल को मोदीमय

भले ही गैर भाजपाई दल ये कहें कि भाजपा ने चुनाव जीतने के लिए पार्टी की नीतियों से कहीं अधिक व्यक्तिवाद का रुख अख्तियार कर लिया है, मगर सच ये है कि भाजपा ने तो एक आदर्श के रूप में नरेन्द्र मोदी का चेहरा आगे रखा, जिसे मीडिया ने सुनियोजित तरीके से प्रोजेक्ट किया, मगर उसे मोदीमय बनाने का श्रेय गैर भाजपाइयों को ही जाता है। इसमें कोई दोराय नहीं कि भाजपा ने मोदी को प्रोजेक्ट करने के लिए योजनाबद्ध तरीके से काम किया, मगर विरोधियों ने मोदी पर लगातार ताबड़तोड़ हमले कर उन्हें शीर्ष पर ला दिया है। चहुं ओर मोदी ही मोदी सुनाई दे रहा है। संभवत: यह पहला मौका है जबकि देश में राष्ट्रपति शासन प्रणाली की तरह आम चुनाव हो रहा है, जिसमें जनता को व्यक्ति के नाम पर वोट डालना है। पूरा चुनाव व्यक्ति केन्द्रित हो चुका है। देश में हर जगह राजनीतिक रूप से मोदी की ही चर्चा है। मोदी के समर्थक यही कहते हैं की मोदी सत्ता मे आयेंगे और विरोधी दलों का सारा जोर इस बात पर है कि मोदी को कैसे रोका जाए। वे स्वयं सत्ता में आने के प्रयास तो कर नहीं रहे, कर भी नहीं सकते क्योंकि विखंडित हैं, इससे उलट उनकी मंशा भर है कि किसी भी सूरत में मोदी नहीं आने चाहिए। हालत ये हो गई कि अपनी नीतियों व योजनाओं की पर जोर देने की बजाय केवल मोदी की बुराई में जुट गए हैं। और ये एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि आप जिसका जितना विरोध करेंगे, उतना ही वह और उभर कर आएगा।
असल में भाजपा ने लोकसभा चुनाव की शुरुआत मोदी के गुजरात विकास मॉडल के साथ की थी। इसे किसी ने अन्य दल ने गंभीरता से नहीं लिया। इसका परिणाम ये रहा कि मोदी गुजरात मॉडल को स्थापित करने में कामयाब हो गए। यह बात दीगर है कि बहुत देर से ये तथ्य सामने आए कि धरातल पर गुजरात मॉडल कुछ भी नहीं है, मगर तब तक धारणा बनाई जा चुकी थी। कांग्रेस के पास विकास के नाम पर कहने को बहुत कुछ था, मगर महंगाई और भ्रष्टाचार के मुद्दे इतने हावी हो गए कि उसके सामने सारा विकास गौण हो गया। राहुल गांधी ने तो इसे स्वीकार भी किया कि उनका सारा ध्यान काम पर ही रहा, मोदी की तरह चुनाव मैनेजमेंट व प्रोजेक्शन नहीं कर पाए। कुल मिला कर भाजपा आक्रामक मुद्रा में है तो कांग्रेस रक्षात्मक मुद्रा में।
हालांकि यह सच है कि चार साल पहले तक जहां कांग्रेस की सरकार को विफल माना जा रहा था, वहीं भाजपा पर सशक्त विपक्ष की भूमिका न निभा पाने का आरोप था। कांग्रेस के प्रति नाराजगी तक को भुना पाने में वह सफल नहीं हो पा रही थी। इसका लाभ समाजसेवी अन्ना हजारे ने उठाया। उनके आंदोलन को पूरे देश का समर्थन हासिल हुआ। उन्होंने जो जलवा पैदा किया, उसको भुनाने के लिए उन्हीं कि शिष्य अरविंद केजरीवाल ने आम आदमी पार्टी बना ली। उन्हें दिल्ली विधानसभा चुनाव में फायदा मिला भी, मगर वे कठिनाइयों का सामना करने की बजाय भाग लिए। इसे यूं भी कहा जा सकता है कि दिल्ली की सरकार को छोड़ कर उनकी नजर देश की सरकार पर जा टिकी। पूरे देश के हिसाब से उनके पास सांगठनिक ढ़ांचा था नहीं, इस कारण दिल्ली जैसा जलजला बन ही नहीं पाया। बस इसी कारण कांग्रेस विरोधी माहौल का पूरा फायदा भाजपा की ओर शिफ्ट होता नजर आ रहा है। उसका गुजरात विकास मॉडल कितना कारगर है, इस पर जरूर बहस की जा सकती है, मगर फिलवक्त वही आखिरी विकल्प नजर आ रहा है। लोग भी सोच रहे हैं कि जो सामने है, उसे आजमाने में हर्ज ही क्या है, कांग्रेस को तो वे परख ही चुके। जैसे ही कांग्रेस व अन्य गैर भाजपा दलों को आभास हुआ कि मोदीमय हुई भाजपा सरकार पर काबिज होने के करीब पहुंचती जा रही है, उन्होंने सीधे मोदी पर ही हमले शुरू कर दिए। कोई उन्हें मौत का सौदागर तो कोई कसाई बता रहा है। कोई हिटलर जैसा तानाशाह  करार दे रहा है तो कोई राक्षस की उपमा दे रहा है। इसका नतीजा ये है कि पूरा चुनाव मोदी बनाम गैर मोदी के बीच बंट गया है। एक ओर प्रचंड मोदी लहर है तो दूसरी ओर उसे रोकने के जतन। तभी तो मोदी ने यह कहने का मौका मिल गया कि पहली बार सारे दल सत्तारूढ़ कांग्रेस के खिलाफ एकजुट होने की बजाय विपक्ष में रही भाजपा को रोकने की कोशिश कर रहे हैं। इसका उल्लेख स्वयं मोदी भी करने लगे हैं। यानि कि अपने आप में यह चुनाव अनूठा है। प्रधानमंत्री की कुर्सी नजदीक देख मोदी के भाषणों में भी दंभ आ गया है। वे बाकायदा स्वयं को प्रधानमंत्री मान कर ललकार रहे हैं। इसका उल्लेख सोनिया ने भी किया है कि मोदी अभी से अपने आपको प्रधानमंत्री मान बैठे हैं। इसके जवाब में मोदी यह कह कर मजे ले रहे हैं कि सोनिया गांधी के मुंह में घी-शक्कर।
खैर, चुनाव के आखिरी दिनों में सभी गैर भाजपा दलों का मकसद मोदी को रोकना नजर आ रहा है, मगर दुर्भाग्य से वे एक नहीं हैं। उनके अपने-अपने हित हैं। उनके अपने-अपने वोट बैंक और अपने अपने राज्य हैं। ऐसा विखंडित विपक्ष अगर यह सोचता है कि वह मोदी को रोक पाएगा, तो यह सपना मात्र नजर आता है।
रहा सवाल दूसरी सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस का तो वह जानती थी कि अभी माहौल प्रतिकूल है, इस कारण वह रक्षात्मक मुद्रा में रही। अन्य गैर भाजपाई दल कांग्रेस के साथ अभी इस कारण नहीं आए क्योंकि वे अपने अपने क्षेत्रों में वोट लेते ही गैर कांग्रेस गैर भाजपा के नाम पर हैं। चुनाव बाद जरूर वे मोदी को रोकने के लिए कांग्रेस के साथ आ सकते हैं या फिर कांग्रेस की मदद ले सकते हैं। यदि मोदी को रोकने के लिये सभी गैर भाजपा दल एकजुटता दिखाते तो कदाचित तनिक कामयाबी मिलने की उम्मीद की जा सकती थी, मगर ऐसा हुआ नहीं। इस सिलसिले में आपको याद होगा कि 1977 के लोकसभा चुनाव के लिये जब अनेक दलों ने अपना अस्तित्व मिटा कर, अपने सभी राजनीतिक आग्रह मिटा कर, एक जुट होकर इंदिरा गांधी का मुकाबला किया तो कांग्रेस परास्त हो गई थी। यहां तक कि इंदिरा गांधी खुद भी हार गईं। सत्ता पर काबिज होने के बाद वे यदि इंदिरा गांधी का नाम नहीं रटते तो वे कभी दुबारा सत्ता में नहीं आतीं। आज भी ठीक वैसी ही स्थिति है। गैर भाजपाई मोदी का जितना विरोध कर रहे हैं, उतना ही वे मजबूत होते जा  रहे हैं। हालांकि चुनाव परिणाम किसके पक्ष में जाएगा, इस बारे में 16 मई से पहले भविष्यवाणी करना ठीक नहीं, मगर मोटे तौर पर यही माना जा रहा है कि मोदी ही अगले प्रधानमंत्री होंगे। यदि भाजपा अकेले दम पर अच्छी खासी सीटें नहीं ला पाई तो संभव है मोदी की जगह किसी और भाजपा नेता की किस्मत चेत जाए।
चुनाव के आखिरी दिनों में कांग्रेस ने अपनी स्टार प्रचारक प्रियंका गांधी को उतार कर कुछ हद तक अपने आपको संभाला है, मगर अब देर हो चुकी है। हार सामने देख कर कांग्रेसी नेता यह कहने को मजबूर हैं कि मोदी को रोकने के लिए वह गैर भाजपाई दलों के तीसरे मोर्चे की सरकार बनवाने की कोशिश करेगी। हालांकि इस सिलसिले में राहुल गांधी का बयान फिलवक्त काफी महत्वपूर्ण है कि कांग्रेस गठबंधन नहीं करेगी और हारने पर विपक्ष में बैठना पसंद करेगी, मगर समझा जाता है कि यह बयान चुनाव के वक्त कांग्रेसियों का इकबाल बुलंद रखने मात्र के लिए दिया गया है। चुनाव के बाद इस बयान के कोई मायने नहीं रह जाएंगे और उस वक्त कांग्रेस वह सब कुछ करेगी, जिसकी मांग राजनीति करेगी। उसकी यह कोशिश कामयाब होगी या नहीं, इस बारे में अभी कुछ नहीं कहा सकता।
-तेजवानी गिरधर