दिल्ली गैंग रेप की जघन्य घटना के बाद दिल्ली सहित पूरे देश में जगह-जगह जो आक्रोश फूटा, वह स्वाभाविक और वाजिब है। इतना तो हमें संवेदनशील होना ही चाहिए। संयोग से यह मामला देश की राजधानी का था, इस कारण हाई प्रोफाइल हो गया, वरना ऐसे सामूहिक बलात्कार तो न जाने कितने हो चुके हैं। इलैक्ट्रॉनिक मीडिया ने इसे मुद्दा बनाया, वहां तक तो ठीक था, मगर जब यह अराजकता की ओर बढऩे लगा और बेकाबू हो गया, तब भी मात्र और मात्र सनसनी फैलाने की खातिर उसे हवा देने का जो काम किया गया, वह पूरा देश देख रहा था। सबके जेहन में एक ही सवाल था कि क्या इलैक्ट्रॉनिक मीडिया देश में अराजकता फैलाना चाहता है? मगर... मगर चूंकि इस आंदोलन में युवा वर्ग का गुस्सा फूट रहा था, इस कारण किसी की भी हिम्मत नहीं हुई कि वह इस पर प्रतिक्रिया दे सके। सब जानते थे कि कुछ बोले नहीं कि मीडिया तो उसके पीछे हाथ धो कर पड़ ही ही जाएगा, युवा वर्ग का गुस्सा भी उसकी ओर डाइवर्ट हो जाएगा।
अव्वल तो इस मामले में पुलिस ने अधिसंख्य आरोपियों को पकड़ लिया और पीडि़त युवती को भी बेहतरीन चिकित्सा मिलने लगी। इसके बाद आरोपियों को जो सजा होनी है, वह तो कानून के मुताबिक न्यायालय को ही देनी है। चाहे सरकारी तंत्र कहे या विपक्ष या फिर आंदोलनकारी, कि कड़ी से कड़ी सजा दी जानी चाहिए, मगर सजा देने का काम तो केवल कोर्ट का ही है। उसकी मांग के लिए इतना बवाल करना और कड़ी से कड़ी सजा देने का आश्वासन देना ही बेमानी है। अलबत्ता, बलात्कार के मामले में फांसी की सजा का प्रावधान करने का मांग अपनी जगह ठीक है, मगर उसकी एक प्रक्रिया है। यह बात मीडिया भी अच्छी तरह से जानता है, मगर बावजूद इसके उसने आंदोलन को और हवा दे कर उसने खूब मजा लिया।
जैसा कि मीडिया इस बात पर बार-बार जोर दे रहा था कि आंदोलन स्वत:स्फूर्त है, वह कुछ कम ही समझ में आया। साफ दिख रहा था कि इसके लिए पूरा मीडिया उकसा रहा था। मीडिया लगातार पूरे-पूरे दिन एक ही घटना दिखा-दिखा कर, पुलिस को दोषी व निकम्मा ठहरा-ठहरा कर, सरकार को पूरी तरह से नकारा बता-बता कर उकसा रहा था। भले ही इसके लिए यह तर्क दिया जाए कि हमारी सरकार आंदोलन के उग्र होने की हद पर जा कर सुनती है, इस कारण मुद्दे को इतना जोर-शोर से उठाना जरूरी था, मगर एक सीमा के बाद यह साफ लगने लगा कि मीडिया की वजह से ही हिंसा की नौबत आई। सब जानते हैं कि केमरा सामने होता है तो कोई भी आंदोलनकारी कैसा बर्ताव करने लग जाता है?
एक सामान्य बुद्धि भी समझ सकता है कि कोई भी आंदोलन बिना किसी सूत्रधार के नहीं हो सकता। ऐसा कत्तई संभव नहीं है कि गैंगरेप से छात्रों में इतना गुस्सा था कि वे खुद ब खुद घरों से निकल कर सड़क पर आ गए। एक दिन नहीं, पूरे पांच दिन तक। जानकारी तो ये है कि शुरू में कैमरा टीमों द्वारा प्रदर्शन की जगह और समय छात्रों एवं अन्य संगठनों से तय करके जमावड़ा किया गया। हर वक्त सनसनी की तलाश में रहने वाले इलैक्ट्रॉनिक मीडिया ने अपनी टीआरपी बढ़ाने की खातिर का जो ये खेल खेला, उसमें वाकई समस्याओं से तनाव में आये बुद्धिजीवी वर्ग और छात्रों को समाधान नजर आया। आंदोलन को कितना भी पवित्र और सच्चा मानें, मगर जिस तरह से मीडिया पुलिस व सरकार को कोसते हुए आंदोलनकारियों को हवा दे रहा था, उससे यकायक लगने लगा कि क्या हमारा मीडिया अराजकता को बढ़ाने की ओर बढ़ रहा है? यह सवाल इसलिए भी उठता है कि एक-दो चैनलों ने तो इंडिया गेट को तहरीर चौक तक की संज्ञा दे दी। यानि कि यह आंदोलन ठीक वैसा ही था, जैसा कि मिश्र में हुआ और तख्ता पलट दिया गया।
मीडिया की बदमाशी तब साफ नजर आई, जब एक वरिष्ठतम पत्रकार राजदीप सरदेसाई ने एक ओछी हरकत की। उन्होंने आंदोलनकारियों में अपनी ओर से जबरन शब्द ठूंसे। रेप कांड के विरोध में प्रदर्शन के दौरान आंदोलनकारियों से मिलने को कोई भी जिम्मेदार मंत्री मिलने को नहीं आ रहा था तो उन्होंने खुद चला कर एक आंदोलनकारी से सवाल किया कि आपको नहीं लगता कि युवा सम्राट कहलाने वाले राहुल गांधी को आपसे मिलने को आना चाहिए। स्वाभाविक सी बात है कि इसका उत्तर हां में आना था। इसके बाद उसने पलट कर एंकर की ओर मुखातिब हो कर दर्शकों से कहा कि लोगों में बहुत गुस्सा है और वे कह रहे हैं कि राहुल गांधी को उनसे मिलने को आना चाहिए। उनकी इस हरकत ने यह प्रमाणित कर दिया कि मीडिया आंदोलन को जायज, जो कि जायज ही था, मानते हुए एकपक्षीय रिपोर्टिंग करना शुरू कर दिया। एक और उदाहरण देखिए। एक चैनल की एंकर ने आंदोलन के पांचवें दिन आंदोलन स्थल को दिखाते हुए कहा कि बड़ी तादात में आंदोलनकारी इकत्रित हो रहे हैं और उनकी संख्या लगातार बढ़ती जा रही है और फिर जैसे ही उसने रिपोर्टर से बात की तो उसने कहा कि फिलहाल बीस-पच्चीस लोग जमा हुए हैं और यह संख्या बढऩे की संभावना है। कैसा विरोधाभास है। स्पष्ट है कि एंकरिंग पर ऐसे अनुभवहीन युवक-युवतियां लगी हुई हैं, जिन्हें न तो पत्रकारिता का पूरा ज्ञान है और न ही उसकी गरिमा-गंभीरता-जिम्मेदारी व नैतिकता का ख्याल है। उन्हें बस बेहतर से बेहतर डायलॉग बनाना और बोलना आता है, फिर चाहे उससे अर्थ का अनर्थ होता रहे।
सवाल ये उठता है कि जायज मांग की खातिर आंदोलन का साथ देने वाला ये वही मीडिया वही नहीं है, जो कि धंधे की खातिर जापानी तेल और लिंगवर्धक यंत्र का विज्ञापन दिखाता है? क्या ये वही नहीं है जो कमाई की खातिर विज्ञापनों में महिलाओं के फूहड़ चित्र दिखाता है? क्या ये वही नहीं है जो कतिपय लड़कियों के अश्लील पहनावे पर रोक लगाने वाली संस्थाओं को तालीबानी करार देता है? तब उसे इस संस्कारित देश में आ रही पाश्चात्य संस्कृति पर जरा भी ऐतराज नहीं होता। स्पष्ट है कि जितना यह महान बनने का ढ़ोंग करता है, उसके विपरीत इसका एक मात्र मकसद है कि सनसनी फैलाओ, टीआपी बढ़ाओ, फिर चाहे भारत के मिश्र जैसी क्रांति की नौबत आ जाए।
-तेजवानी गिरधर
अव्वल तो इस मामले में पुलिस ने अधिसंख्य आरोपियों को पकड़ लिया और पीडि़त युवती को भी बेहतरीन चिकित्सा मिलने लगी। इसके बाद आरोपियों को जो सजा होनी है, वह तो कानून के मुताबिक न्यायालय को ही देनी है। चाहे सरकारी तंत्र कहे या विपक्ष या फिर आंदोलनकारी, कि कड़ी से कड़ी सजा दी जानी चाहिए, मगर सजा देने का काम तो केवल कोर्ट का ही है। उसकी मांग के लिए इतना बवाल करना और कड़ी से कड़ी सजा देने का आश्वासन देना ही बेमानी है। अलबत्ता, बलात्कार के मामले में फांसी की सजा का प्रावधान करने का मांग अपनी जगह ठीक है, मगर उसकी एक प्रक्रिया है। यह बात मीडिया भी अच्छी तरह से जानता है, मगर बावजूद इसके उसने आंदोलन को और हवा दे कर उसने खूब मजा लिया।
जैसा कि मीडिया इस बात पर बार-बार जोर दे रहा था कि आंदोलन स्वत:स्फूर्त है, वह कुछ कम ही समझ में आया। साफ दिख रहा था कि इसके लिए पूरा मीडिया उकसा रहा था। मीडिया लगातार पूरे-पूरे दिन एक ही घटना दिखा-दिखा कर, पुलिस को दोषी व निकम्मा ठहरा-ठहरा कर, सरकार को पूरी तरह से नकारा बता-बता कर उकसा रहा था। भले ही इसके लिए यह तर्क दिया जाए कि हमारी सरकार आंदोलन के उग्र होने की हद पर जा कर सुनती है, इस कारण मुद्दे को इतना जोर-शोर से उठाना जरूरी था, मगर एक सीमा के बाद यह साफ लगने लगा कि मीडिया की वजह से ही हिंसा की नौबत आई। सब जानते हैं कि केमरा सामने होता है तो कोई भी आंदोलनकारी कैसा बर्ताव करने लग जाता है?
एक सामान्य बुद्धि भी समझ सकता है कि कोई भी आंदोलन बिना किसी सूत्रधार के नहीं हो सकता। ऐसा कत्तई संभव नहीं है कि गैंगरेप से छात्रों में इतना गुस्सा था कि वे खुद ब खुद घरों से निकल कर सड़क पर आ गए। एक दिन नहीं, पूरे पांच दिन तक। जानकारी तो ये है कि शुरू में कैमरा टीमों द्वारा प्रदर्शन की जगह और समय छात्रों एवं अन्य संगठनों से तय करके जमावड़ा किया गया। हर वक्त सनसनी की तलाश में रहने वाले इलैक्ट्रॉनिक मीडिया ने अपनी टीआरपी बढ़ाने की खातिर का जो ये खेल खेला, उसमें वाकई समस्याओं से तनाव में आये बुद्धिजीवी वर्ग और छात्रों को समाधान नजर आया। आंदोलन को कितना भी पवित्र और सच्चा मानें, मगर जिस तरह से मीडिया पुलिस व सरकार को कोसते हुए आंदोलनकारियों को हवा दे रहा था, उससे यकायक लगने लगा कि क्या हमारा मीडिया अराजकता को बढ़ाने की ओर बढ़ रहा है? यह सवाल इसलिए भी उठता है कि एक-दो चैनलों ने तो इंडिया गेट को तहरीर चौक तक की संज्ञा दे दी। यानि कि यह आंदोलन ठीक वैसा ही था, जैसा कि मिश्र में हुआ और तख्ता पलट दिया गया।
मीडिया की बदमाशी तब साफ नजर आई, जब एक वरिष्ठतम पत्रकार राजदीप सरदेसाई ने एक ओछी हरकत की। उन्होंने आंदोलनकारियों में अपनी ओर से जबरन शब्द ठूंसे। रेप कांड के विरोध में प्रदर्शन के दौरान आंदोलनकारियों से मिलने को कोई भी जिम्मेदार मंत्री मिलने को नहीं आ रहा था तो उन्होंने खुद चला कर एक आंदोलनकारी से सवाल किया कि आपको नहीं लगता कि युवा सम्राट कहलाने वाले राहुल गांधी को आपसे मिलने को आना चाहिए। स्वाभाविक सी बात है कि इसका उत्तर हां में आना था। इसके बाद उसने पलट कर एंकर की ओर मुखातिब हो कर दर्शकों से कहा कि लोगों में बहुत गुस्सा है और वे कह रहे हैं कि राहुल गांधी को उनसे मिलने को आना चाहिए। उनकी इस हरकत ने यह प्रमाणित कर दिया कि मीडिया आंदोलन को जायज, जो कि जायज ही था, मानते हुए एकपक्षीय रिपोर्टिंग करना शुरू कर दिया। एक और उदाहरण देखिए। एक चैनल की एंकर ने आंदोलन के पांचवें दिन आंदोलन स्थल को दिखाते हुए कहा कि बड़ी तादात में आंदोलनकारी इकत्रित हो रहे हैं और उनकी संख्या लगातार बढ़ती जा रही है और फिर जैसे ही उसने रिपोर्टर से बात की तो उसने कहा कि फिलहाल बीस-पच्चीस लोग जमा हुए हैं और यह संख्या बढऩे की संभावना है। कैसा विरोधाभास है। स्पष्ट है कि एंकरिंग पर ऐसे अनुभवहीन युवक-युवतियां लगी हुई हैं, जिन्हें न तो पत्रकारिता का पूरा ज्ञान है और न ही उसकी गरिमा-गंभीरता-जिम्मेदारी व नैतिकता का ख्याल है। उन्हें बस बेहतर से बेहतर डायलॉग बनाना और बोलना आता है, फिर चाहे उससे अर्थ का अनर्थ होता रहे।
सवाल ये उठता है कि जायज मांग की खातिर आंदोलन का साथ देने वाला ये वही मीडिया वही नहीं है, जो कि धंधे की खातिर जापानी तेल और लिंगवर्धक यंत्र का विज्ञापन दिखाता है? क्या ये वही नहीं है जो कमाई की खातिर विज्ञापनों में महिलाओं के फूहड़ चित्र दिखाता है? क्या ये वही नहीं है जो कतिपय लड़कियों के अश्लील पहनावे पर रोक लगाने वाली संस्थाओं को तालीबानी करार देता है? तब उसे इस संस्कारित देश में आ रही पाश्चात्य संस्कृति पर जरा भी ऐतराज नहीं होता। स्पष्ट है कि जितना यह महान बनने का ढ़ोंग करता है, उसके विपरीत इसका एक मात्र मकसद है कि सनसनी फैलाओ, टीआपी बढ़ाओ, फिर चाहे भारत के मिश्र जैसी क्रांति की नौबत आ जाए।
-तेजवानी गिरधर