तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

बुधवार, जून 28, 2017

हीरो कैसे बन गया आनंदपाल?

यह कहना आसान है, सही भी है कि जो आनंदपाल खुले आम दो बार पुलिस की हिरासत से भागा, जिस पर हत्या, लूट, अवैध हथियार रखने, शराब व हथियार तस्करी, संगठित माफिया के रूप में अवैध खनन जैसे सिद्ध आरोप थे, उसे महिमामंडित कैसे किया जा सकता है? परिवारजन की पीड़ा और एनकाउंटर की सीबीआई जांच सहज प्रतिक्रिया हो सकती है, उसे अन्यथा लिया भी नहीं जाना चाहिए, लेकिन अगर पूरा समाज के उसके साथ खड़ा हो गया है तो इसे गंभीरता से लेना और समझना होगा।
यह सर्वविदित है कि आनंदपाल पिछले ढ़ाई साल से सुर्खियों में रहा।  पुलिस के कब्जे से फरार होने के कारण और फिर उसे गिरफ्तार न कर पाने की पुलिस की नाकामयाबी के कारण भी। निश्चित रूप से उसके नहीं पकड़े जाने को लेकर राजस्थान पुलिस के साथ सरकार की खिल्ली भी उड़ रही थी। मगर जैसे ही वह एनकाउंटर में मारा गया तो पुलिस के गले में आ गई। सवाल सिर्फ ये है कि क्या उसका एनकाउंटर फर्जी था? और इसीलिए सीबीआई की जांच की मांग की जा रही है। मगर उससे भी बड़ा सवाल ये कि आखिर क्यों एक पूरा समाज यकायक लामबंद हो गया है? इसका सीधा सा अर्थ ये है कि वह मात्र खूंखार अपराधी ही नहीं था, बल्कि उसके राजनीतिक कनैक्शन भी थे। मीडिया में इस किस्म की चर्चा भी रही उसे भगाने व उसके गिरफ्तार न हो पाने की एक मात्र वजह उसकी चालाकी नहीं, बल्कि राजनीतिक संरक्षण भी था। और अगर राजनीतिक संरक्षण था तो यह भी बात माननी होगी कि जिन राजनीतिज्ञों ने उसे संरक्षण दिया हुआ था, वे जरूर उससे कोई न कोई लाभ उठा रहे थे। वह आर्थिक भी हो सकता है और समाज विशेष के वोटों की शक्ल में भी हो सकता है। वरना कोई राजनीतिज्ञ किसी को क्यों संरक्षण दे रहा था? एक ओर पुलिस पर आनंदपाल को गिरफ्तार करने का दबाव था तो दूसरी ओर उसके कथित कनैक्शन वाले राजनीतिज्ञों को डर था कि अगर वह गिरफ्तार हुआ तो कहीं उनके कनैक्शन न उजागर हो जाएं। ऐसे में आखिरी रास्ता एनकाउंटर ही था। एनकाउंटर के साथ ही बहुत से राजनीतिक राज राज की रह जाते हैं। इसमें कितनी सच्चाई है ये तो सीबीआई जांच में ही उजागर हो पाएगा। एनकाउंटर वास्तविक था, या फिर फर्जी, ये तो साफ होगा ही, कदाचित ये भी सामने आए कि आनंदपाल के किस प्रभावशाली व राजनीतिक व्यक्ति से ताल्लुकात रहे।
दैनिक भास्कर के स्थानीय संपादक डॉ. रमेश अग्रवाल ने इस बात को कुछ इन शब्दों में पिरो कर संकेत देने की कोशिश की है:- जातिवाद के शेर को पाल कर बड़ा करने वाले राजनीतिज्ञ शायद यह नहीं जानते कि शेर जब आदमखोर हो जाता है तो वह अपने पालने वाले को भी नहीं बख्शता।
डॉ. अग्रवाल ने एक बात और लिखी है कि अपराध को जब घोषित रूप से सही ठहराया जाने लगे, समझ लेना चाहिये उस समाज की नींवें हिल चुकी हैं। अपना ये मानना है कि नींवें अभी नहीं हिल रहीं, पहले से हिली हुई थीं, बस दिख नहीं रही थीं। कहने भर को हमारा लोकतंत्र दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है, मगर उसकी बुनियाद जातिवाद पर ही टिकी हुई है। क्या ये सच नहीं है कि आज की राजनीति पूरी तरह से बाहुबल और धनबल से ही संचालित है और वोटों का धु्रवीकरण जाति व धर्म के आधार पर होता है? ऐसे में अगर कोई खूंखार अपराधी पैदा होता है, तो उसकी जननी यही राजनीति है। इसे स्वीकार करना ही होगा।
रहा सवाल राज्य सरकार का तो भले ही उसकी नजर में एनकाउंटर आखिरी चारा था या पूरी तरह से उचित था, मगर मामले की सीबीआई जांच से कतराना दाल में काला होने का संकेत देता है। अगर सरकार व पुलिस सही है तो उसे सीबीआई जांच करवाने में कोई परहेज नहीं होना चाहिए। दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएगा।
-तेजवानी गिरधर
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गुरुवार, जून 22, 2017

तिवाड़ी ने खोला वसुंधरा के खिलाफ मोर्चा

अगर यह सही है कि प्रदेशभर के लाखों मोबाइल फोनों पर जो वॉइस मैसेज आ रहा है, वह वरिष्ठ भाजपा विधायक घनश्याम तिवाड़ी का ही है तो, यह अब साफ है कि पार्टी लाइन से हट कर चल रहे तिवाड़ी ने काफी जद्दोजहद के बाद अपनी ही पार्टी की मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे के खिलाफ आर-पार की जंग छेड़ दी है। इस वॉइस मैसेज में तिवाड़ी बता रहे हैं कि मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे जिस बंगले में निवास कर रही हैं, उसकी कीमत दो हजार करोड़ रुपए हैं और उन्होंने इस पर आजन्म कब्जा करने की कानूनी जुगत बैठा ली है। अर्थात अगर वे दुबारा मुख्यमंत्री नहीं भी बनती हैं तो भी उस पर काबिज रहेंगी, वह उनकी निजी संपत्ति होगी। तिवाड़ी का कहना है कि यह संपत्ति जनता की है और वे जतना के हित के साथ खिलवाड़ कत्तई बर्दाश्त नहीं करेंगे और इस सिलसिले में आगामी 25 जून को आंदोलन आरंभ करेंगे। उन्होंने इस आंदोलन में सहयोग की अपील की है।
ज्ञातव्य है कि इससे पूर्व काफी लंबे समय से तिवाड़ी सरकार, विशेष रूप से मुख्यमंत्री राजे के खिलाफ बोलते रहे हैं। इस पर प्रदेश भाजपा अध्यक्ष अशोक परनामी ने राष्ट्रीय अनुशासन समिति को शिकायत की थी, जिस पर समिति के अध्यक्ष गणेशीलाल ने तिवाड़ी को नोटिस दे कर दस दिन में जवाब मांगा। नोटिस में साफ तौर कहा गया है कि वे पिछले दो साल से लगातार पार्टी विरोधी गतिविधियों एवं पार्टी के विरुद्ध बयानबाजी करने में संलग्न हैं। पार्टी द्वारा आयोजित बैठकों में वे उपस्थित नहीं हो रहे और विपक्षी दलों के साथ मिलकर मंच साझा कर रहे हैं। इसके साथ ही नोटिस में यह भी बताया गया है कि वे समानांतर राजनीतिक दल का गठन करने के प्रयास में जुटे हैं। नोटिस की भाषा से ही स्पष्ट था पार्टी का रुख अब उनके प्रति क्या रहने वाला है। तिवाड़ी भी ये जानते थे और उन्होंने बहुत सोच समझ कर अपनी मुहिम को जारी रखा। नोटिस पर प्रतिक्रियास्वरूप तिवाड़ी ने जो पलटवार किया, उसी से ही लग गया था कि वे आरपार की लड़ाई के मूड में हैं। उन्होंने कहा कि प्रदेश अध्यक्ष अशोक परनामी जिस दीनदयाल वाहिनी के गठन को लेकर केंद्रीय नेतृत्व को मेरी अनुशासनहीनता की शिकायतें कर रहे हैं, उसका गठन 29 साल पहले सीकर में उस समय हो गया था, जब मैं विधायक था और परनामी राजनीति में कुछ नहीं थे। वे उस समय सिर्फ अगरबत्ती बेचते थे। उन्होंने कहा कि वे न तो डरेंगे और न ही झुकेंगे। भ्रष्ट सरकार के खिलाफ लड़ाई जारी रखेंगे। अपनी ही पार्टी की सरकार को भ्रष्ट करार देना कोई मामूली बात नहीं है।
हालांकि इस बीच वसुंधरा के प्रति वफादारी दिखाने वाले कुछ नेताओं ने तिवाड़ी पर आरोपों की झड़ी लगा दी, मगर इससे वे और अधिक मुखर हो गए।
अब जबकि वे खुल कर आंदोलन करने पर उतारु हो ही गए हैं तो लगता नहीं कि बीच का रास्ता निकलेगा। अगर उनको पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाया जाता है तो जाहिर तौर पर प्रदेश भाजपा की राजनीति के समीकरणों में बदलाव आएगा। इसके अतिरिक्त यह भी साफ हो जाएगा कि कौन उनके साथ है और कौन पार्टी के साथ। बाकी एक बात जरूर है कि आज जब कि पार्टी अच्छी स्थिति में है, उसके बाद भी तिवाड़ी ने जो दुस्साहस दिखाया है तो वह गौर करने लायक है।
-तेजवानी गिरधर
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गुरुवार, जून 15, 2017

मोदी का गृहराज्य गुजरात अब उतना आसान नहीं

हालांकि देश की राजनीति में इन दिनों मोदी ब्रांड धड़ल्ले से चल रहा है, ऐसे में यही माना जाना चाहिए कि उनका खुद का गृह राज्य गुजरात तो  सबसे सुरक्षित है, मगर धरातल का सच ये है कि भाजपा के लिए वहां हो रहे आगामी विधानसभा चुनाव बहुत आसान नहीं है। बेशक जब तक मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे, तब तक उन्होंने वहां अपनी जबरदस्त पकड़ बना रखी थी, मगर प्रधानमंत्री बनने के बाद वहां स्थानीय नेतृत्व सशक्त नहीं होने के कारण भाजपा का धरातल कमजोर हुआ है। इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि भाजपा को अपने सशक्त किले में ही मुख्यमंत्री को बदलना पड़ गया। हालांकि वहां अब भी भाजपा जीतने की स्थिति में है, मगर अंतर्कलह संकट का कारण बनी हुई है। गुजरात की राजनीति में थोड़ी बहुत समझ रखने वाले जानते हैं कि मोदी के पीएम बनने के बाद से ही राज्य में अमित शाह, आनंदीबेन पटेल और पुरुषोत्तम रूपाला की गुटबाजी बढ़ी है।
गुजरात में भाजपा के लिए सबसे बड़ी चुनौती आदिवासी नेताओं की उपेक्षा व भिलीस्तान हैं। गुजरात के अधिसंख्य राजनीतिक विशेषज्ञों के ताजा आलेखों पर नजर डालें तो वहां भाजपा के लिए पाटीदारों और दलितों के बाद आदिवासी समुदाय मुसीबत का बड़ा सबब बन सकता। आदिवासी इलाकों में भिलीस्तान आंदोलन खड़ा किया जा रहा है, जिसमें कुछ राजनीतिक दल एवं धार्मिक ताकतें आदिवासी समुदाय को हवा दे रही हैं। अब जबकि चुनाव का समय सामने है यही आदिवासी समाज जीत को निर्णायक बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाला है। हर बार चुनाव के समय आदिवासी समुदाय को बहला-फुसलाकर उन्हें अपने पक्ष में करने की तथाकथित राजनीति इस बार असरकारक नहीं होगी। क्योंकि गुजरात का आदिवासी समाज बार-बार ठगे जाने के लिए तैयार नहीं है। इस प्रांत की लगभग 23 प्रतिशत आबादी आदिवासियों की हैं। देश के अन्य हिस्सों की तरह गुजरात के आदिवासी दोयम दर्जे के नागरिक जैसा जीवन-यापन करने को विवश हैं। यूं भले ही गुजरात समृद्ध राज्य है, मगर आदिवासी अब भी समाज की मुख्य धारा से कटे नजर आते हैं। इसका फायदा उठाकर मध्यप्रदेश से सटे नक्सली उन्हें अपने से जोड़ लेते हैं। महंगाई के चलते आज आदिवासी दैनिक उपयोग की वस्तुएँ भी नहीं खरीद पा रहे हैं। वे कुपोषण के शिकार हो रहे हैं। अगर भिलीस्तान आंदोलन को नहीं रोका गया तो गुजरात का आदिवासी समाज खण्ड-खण्ड हो जाएगा। इसके लिए तथाकथित हिन्दू विरोधी लोग भी सक्रिय हैं। इन आदिवासी क्षेत्रों में जबरन धर्मान्तरण की घटनाएं भी गंभीर चिंता का विषय है। यही ताकतें आदिवासियों को हिन्दू मानने से भी नकार रही है और इसके लिए तरह-तरह के षडयंत्र किये जा रहे हैं।
ऐसे में आदिवासियों का रुख मुख्यमंत्री विजय रूपाणी व भाजपा अध्यक्ष जीतू वाघानी के लिए तो चुनौती है ही, मोदी के लिए भी चिंता का विषय बना हुआ है। मोदी हालात से अच्छी तरह से वाकिफ हैं, इस कारण वे एक दर्जन बार गुजरात की यात्रा कर चुके हैं। मोदी ने आदिवासी कॉर्निवल में आदिवासी उत्थान और उन्नयन की चर्चाएं की, मगर धरातल तक राहत पहुंचने में वक्त लग सकता है। ऐसे में तेजी से बढ़ता आदिवासी समुदाय को विखण्डित करने का हिंसक दौर आगामी विधानसभा चुनावों का मुख्य मुद्दा बन सकता है और एक समाज और संस्कृति को बचाने की मुहिम इन विधानसभा चुनावों की जीत का आधार बन सकती है।
-तेजवानी गिरधर
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बुधवार, जून 14, 2017

बडे पैमाने पर तोडफ़ोड़ उलटी भी पड़ सकती है भाजपा को

विधानसभा चुनावों को लेकर इन दिनों भाजपा की जो तोडफ़ोड़ की नीति है, उसी के तहत इस बार राजस्थान में भी बड़े पैमाने पर कांग्रेस में सेंध मारने की योजना है। उस पर प्रारंभिक काम भी शुरू हो गया है, जिसके चुनाव से छह माह पहले तेजी पकडऩे की संभावना है। मगर जैसा कि यहां का राजनीतिक माहौल है, यह नीति भाजपा को उलटी भी पड़ सकती है।
वस्तुत: यह बात भाजपा हाईकमान अच्छी तरह से जानता है कि भले ही मोदी के नाम का असर अपना काम करेगा, मगर राजस्थान में भाजपा का परफोरमेंस कुछ खास अच्छा न होने और एंटी इन्कंबेंसी फैक्टर की वजह से मौजूदा सीटों से ग्राफ गिर कर सौ के अंदर भी ठहर सकता है। जनता भाजपा को बिलकुल पलटी खिला देगी ऐसा भी नहीं दिखता, मगर हाईकमान चाहता है कि जीत किसी भी स्थिति में सुनिश्चित होनी ही चाहिए। भले ही हाईप क्रिएट करने के लिए लक्ष्य 180 का बनाया गया है, मगर अंदरखाने पता है कि स्पष्ट बहुमत के लिए भी पूरी मेहनत करनी होगी। इसी के तहत इस बार एक बड़ा प्रयोग ये किया जाना है कि काफी बड़ी तादात में मौजूदा विधायकों के टिकट काटे जाएंगे। एंटी इन्कंबेंसी से निपटने के लिए इसके अलावा कोई चारा भी नहीं है। दूसरा ये कि भाजपा हाईकमान का कांग्रेस में बड़े पैमाने पर तोडफ़ोड़ का मानस है। इस पर काम शुरू भी हो गया है। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सचिन पायलट को न्यौता दिए जाने की अफवाह भी इसी कड़ी का हिस्सा है। जानकारी के अनुसार भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह की नजर दूसरी और तीसरी पंक्ति के कांग्रेस नेताओं पर भी है। सुविज्ञ सूत्रों के अनुसार एक पूर्व विधायक व जिला प्रभारी से तो शाह की मीटिंग भी हो चुकी है। इसी प्रकार दूसरी पंक्ति के अन्य नेताओं व टिकट के दावेदारों की भी पूरी निगरानी की जा रही है। ऐन चुनाव के वक्त उनमें से सशक्त दावेदारों को टिकट का लालच भी दिया जाएगा। अनुमान है कि चुनाव से छह माह पहले काफी अफरातफरी फैलाई जा सकती है। समझा जाता है कि कांग्रेस के भीतर भी इसका आभास है। वे दावेदार, जो कि खुद को टिकट मिलने की संभावना कुछ कम समझ रहे हैं, वे या तो भाजपा से न्यौते के इंतजार में रहेंगे या अभी से भाजपा के मीडिएटरों से तार जोड़े हुए हैं।
कुल जमा बात ये है कि भाजपा की यह नीति उलटी भी पड़ सकती है। वे मौजूदा विधायक, जिनका कि टिकट कटेगा, वे बगावत या भीतरघात कर सकते हैं। दूसरा ये कि कांग्रेस से तोड़ कर लाए गए नेताओं को भाजपा का कार्यकर्ता कितना स्वीकार करेगा, अभी कुछ कहा नहीं जा सकता। असल में अन्य राज्यों की तुलना में राजस्थान का राजनीतिक सिनोरियो अलग किस्म का हैं। यहां दलबदल हुए तो हैं, मगर आम तौर पर दलबदल चलन में नहीं है। कांग्रेस व भाजपा के बीच ऐसी गहरी सीमा रेखा है कि दलबदल को अच्छा नहीं माना जाता। कार्यकर्ता परंपरागत तौर पर या भावनात्मक रूप से अपनी-अपनी पार्टी से जुड़े हुए हैं। एक मात्र यही वजह है कि यहां तीसरी ताकत खड़ी नहीं हो पाई और भाजपा व कांग्रेस ही वजूद में हैं। मौजूदा विधायक का टिकट कटने पर कदाचित कार्यकर्ता उतना रिएक्ट न करे और भाजपा के ही नए नेता का साथ दे दें, मगर कांग्रेस से लाए नेता को टिकट देने पर वह निष्ठा से काम करेगा ही, इसको लेकर संदेह है। भावनात्मक रूप से वह उसका साथ देने से कतरा सकता है। शायद यह स्थिति भाजपा के बड़े नेताओं से छिपी हुई नहीं है, मगर चुनाव जीतने की जिद में ज्यादा उठापटक की गई तो हो सकता है कि भाजपा खता भी खा जाए।
-तेजवानी गिरधर
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बुधवार, जून 07, 2017

मोदी के तीन साल : आम आदमी को तो कुछ नहीं मिला

पिछली 26 मई को नरेन्द्र मोदी सरकार के तीन साल पूरे हो गए। इस अवसर पर मोदी फैस्ट के जरिए उल्लेखनीय सफलताओं का दावा किया जा रहा है। कदाचित आंकड़ों की भाषा में वह सच हो, मगर धरातल की सच्चाई ये है कि आम आदमी की जिंदगी में राहत के तनिक भी लक्षण नजर नहीं आ रहे।
अकेले न खाऊंगा, न खाने दूंगा के जुमले की बात करें तो भले ही प्रत्यक्षत: कोई बड़ा घोटाला उजागर नहीं हुआ हो, मगर समीक्षकों का मानना है कि घोटाले तो हुए हैं, मगर बाहर नहीं आने दिए गए। नोटबंदी की ही बात करें तो वह अपने आप में एक घोटाला है। पूरा देश जानता है कि उसमें किस कदर लूट मची। न केवल बैंक वालों ने कमीशन खा कर नोट बदले, अपितु दलालों की भी पौ बारह हो गई। इस तथ्य को कोई भी नहीं नकार सकता। केंद्रीय सूचना आयोग के आयुक्त श्रीधर आचार्यलु ने नोटबंदी पर कड़ी टिप्पणी करते हुए कहा कि सूचना को रोके रखने से अर्थव्यवस्था को लेकर लोगों में शंकाएं पैदा हों रही हैं। ज्ञातव्य है कि प्रधानमंत्री कार्यालय, रिजर्व बैंक और वित्त मंत्रालय नोटबंदी के पीछे के कारणों संबंधी जानकारी मांगने वाली सभी आरटीआई याचिकाओं को हाल में खारिज कर चुके हैं। सीधी सट्ट बात है कि आप कोई जानकारी बाहर ही नहीं आने देंगे तो पता ही कैसे चलेगा कि घोटाला हुआ है या नहीं।
नोटबंदी जैसे देश को बर्बाद कर देने वाले कदम को भी सरकार ने ऐसे प्रस्तुत किया मानो उससे देश का बहुत भला हुआ हो। जहां लोगों का एक बड़ा हिस्सा सरकार द्वारा बिछाए गए विकास के दावों के मायाजाल में फंसा हुआ है, वहीं जमीनी स्तर पर हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं। न तो महंगाई कम हुई है, न रोजगार बढ़ा है और ना ही आम आदमी की स्थिति में कोई सुधार आया है। स्वास्थ्य सेवाओं की गुणवत्ता में गिरावट आई है और किसानों की आत्महत्या की घटनाएं बढ़ी हैं।
जहां तक न खाने देने का सवाल है, हर कोई जानता है कि स्थिति जस की तस है। प्रशासनिक तंत्र अब भी भ्रष्टाचार में उसी तरह आकंठ डूबा हुआ है, जैसा पहले था। किसी भी महकमे पर नजर डाल लें, कहीं भी सुविधा शुल्क की व्यवस्था में कोई बदलाव नहीं आया है। हर कोई जानता है कि हर जगह रिश्वतखोरी वैसी की वैसी है, जैसे पहले थी। इस तथ्य को साबित करने की भी जरूरत नहीं है, क्योंकि यह स्वयंसिद्ध है। न तो रिश्वतखोरों के मन में कोई डर उत्पन्न हुआ है और न ही आम आदमी को किसी प्रकार की राहत मिली है।
दूसरी उल्लेखनीय बात ये है कि पाकिस्तान के साथ तो संबंध पहले से ज्यादा बिगड़े हैं। कश्मीर की हालत भी सुधरने की बजाय दिन प्रतिदिन बिगड़ती जा रही है। केवल झूठी वाहवाही और बड़ी-बड़ी डींगे हांकने का माहौल है। जो मोदी विपक्ष में रहते पाकिस्तान को उसी की भाषा में जवाब देने की बात करते थे, वही आज चुप बैठे हैं। सबक सिखाना तो दूर पाकिस्तान का हौसला और बढ़ गया है। अफसोस कि आत्ममुग्ध सरकार सर्जिकल स्ट्राइक का ढिंढोरा पीट रही है। कश्मीर के संबंध में सरकार की नीति का नतीजा यह हुआ है कि लड़के सड़कों पर निकल कर पत्थर फेंक रहे हैं। कश्मीर के लोगों से संवाद स्थापित करने में सरकार की विफलता के कारण, घाटी में हालात खराब होते जा रहे हैं।
मोदी के कार्यकाल की तीसरी उल्लेखनीय बात ये है कि भले ही वे आज भी एक आइकन के तौर पर देखे जाते हैं, मगर इस दौर में सत्ता का प्रधानमंत्री के हाथों में केन्द्रीयकरण हुआ है। मोदी के सामने वरिष्ठ से वरिष्ठ मंत्री की भी कुछ कहने तक की हिम्मत नहीं होती और ऐसा लगता है कि कैबिनेट की बजाए इस देश पर केवल एक व्यक्ति शासन कर रहा है।
चुनाव प्रचार के दौरान जो सबसे बड़ा वादा मोदी ने किया था, वह पूरी तरह से झूठा साबित हुआ। विदेशों में जमा काला धन वापस लाकर हर भारतीय के बैंक खाते में 15 लाख रुपए जमा करने का भाजपा का वायदा, सरकार के साथ-साथ जनता भी भूल चली है।
सामाजिक समरसता की स्थिति ये है कि पवित्र गाय को राजनीति की बिसात का मोहरा बना दिया गया है। गाय के नाम पर कई लोगों की पीट-पीटकर हत्या की जा चुकी है। सरकार जिस तरह से गोरक्षा के मामले में आक्रामक रुख अपना रही है, उसके चलते, गोरक्षक गुंडों की हिम्मत बढ़ गई है और वे खुलेआम मवेशियों के व्यापारियों और अन्य के साथ गुंडागर्दी कर रहे हैं।
कुल मिला कर देश को मोदी के नाम पर भले ही ऐसा चुंबकीय व्यक्ति मिला हुआ है, जो भाजपा को बढ़त दिलाए हुए है, मगर धरातल पर आम आदमी को कुछ भी नहीं मिला है। सार्वजनिक रूप से भले ही भाजपाई इस तथ्य को स्वीकार न करें, मगर कानाफूसी में वे भी स्वीकार करते हैं कि जिस परिवर्तन के नाम पर भाजपा सत्ता में आई, वैसा कोई परिवर्तन कहीं पर भी नजर नहीं आ रहा।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
8094767000

शनिवार, जून 03, 2017

जोशी के आरसीए अध्यक्ष बनने के बड़े राजनीतिक मायने

बेशक क्रिकेट एसोसिएशन के चुनाव में भी राजनीति का बड़ा दखल होता है, मगर उससे राजनीति की दिशा तय होती हो, ऐसा नहीं है। हां, इतना जरूर है कि क्रिकेट की राजनीति इशारा जरूर करती है कि राजनीति का तापमान कैसा है? आरसीए के चुनाव में भी कुछ ऐसा ही हुआ।
इसमें कोई दोराय नहीं कि प्रदेश कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष सी पी जोशी राजनीति के बड़े चतुर खिलाड़ी हैं, मगर उन्हें आरसीए अध्यक्ष बनने की जो कामयाबी हाथ लगी, उसमें कहीं न कहीं भाजपा के अंदरूनी अंतरविरोध ने अपनी भूमिका अदा की। पिछले दिनों जब इस चुनाव के लिए वोटिंग हो चुकी तो इशारे यही थे कि सी पी जोशी का पलड़ा भारी है, मगर समीक्षकों की नजर इस बात पर थी कि केन्द्र में सत्तारूढ़ भाजपा की रुचि कैसी है? माना यही जा रहा था कि चूंकि भाजपा यह नहीं चाहती कि राजस्थान क्रिकेट की राजनीति पर आईपीएल के पूर्व चेयरमैन ललित मोदी हावी रहें, इस कारण मोदी के पुत्र रुचि मोदी को सत्तारूढ़ दल का साथ मिला होने पर संदेह था। फिर भी चूंकि सारा गेम भाजपा के अंदरखाने चल रहा था, इस कारण समीक्षक यह जानते हुए भी कि जोशी ही जीतेंगे, उनके जीतने पर सवालिया निशान छोड़ रहे थे।
चुनावी गणित कैसा था, इसका अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि समीक्षक यह भाषा बोल रहे थे- जो रुझान मिल रहे हैं, उनके अनुसार जीत कांग्रेस के दिग्गज नेता सीपी जोशी की होगी, लेकिन यह तभी संभव है, जब उनके प्रतिद्वंद्वी और आईपीएल के पूर्व चेयरमैन ललित मोदी के बेटे रुचिर को सरकार का सहयोग नहीं मिला होगा। राजस्थान में ललित मोदी किसके करीबी हैं, यह किसी से छिपा नहीं है। यदि केन्द्रीय भाजपा की रुचि रुचिर में नहीं थी, इसका सीधा सा अर्थ है कि वह ललित मोदी के बहाने मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे को मजबूत होते नहीं देखना चाहती। इसी कारण इस चुनाव से जुड़ा सरकारी तंत्र असंमस में था। उसने रुचिर का पूरा साथ नहीं दिया और जोशी जीत गए।
यह तो हुई भाजपा की बात। अब अगर इस परिणाम के कांग्रेस में असर पर नजर डालें तो इतना तो कहा ही जा सकता है कि केन्द्र व राज्य में भाजपा की सत्ता होने के बाद भी अगर एक पूर्व प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष आरसीए का अध्यक्ष बनता है तो इसका प्रभाव कांग्रेस कार्यकर्ता के मनोबल पर भी पड़ता है। वह दिखाई भी दे रहा है। यह भी तय है कि इससे पूर्वोत्तर के दस राज्यों में कांग्रेस का प्रभार संभालने के कारण राजस्थान की राजनीति से कुछ कटे हुए जोशी फिर ताकतवर हुए हैं। वे इस बहाने राजस्थान में अपनी जड़ों को फिर से सींचेंगे। स्वाभाविक रूप से इसका असर कांग्रेस की अंदरुनी राजनीति पर भी पड़ेगा। निश्चित रूप से कांग्रेस के प्रदेश प्रभारी अविनाश पांडे की भी इस चुनाव पर नजर रही होगी। उन्हें अब कांग्रेस हाईकमान के निर्देशों के अनुरूप नए सिरे से माथापच्ची करनी होगी। हालांकि जोशी इस जीत के आधार पर कोई बड़ा उलटफेर करने की स्थिति में नहीं होंगे, मगर इतना जरूर है कि आगामी विधानसभा चुनाव को देखते हुए उनके पक्के समर्थकों का उम्मीदें कुछ बढ़ जाएंगी। और अगर राजस्थान से ध्यान हटा कर गुजरात की जिम्मेदारी निभा रहे पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के समर्थकों का भी साथ मिला तो वे नया समीकरण बनाने की कोशिश करेंगे।
-तेजवानी गिरधर
7742067000