देश की राजनीति व तंत्र के प्रति व्याप्त नैराशय के बीच नि:स्वार्थ जनआंदोलन के प्रणेता और प्रकाश पुंज अन्ना हजारे एक दूसरे गांधी के रूप में उभर कर आए थे और यही लग रहा था कि देश को दूसरी आजादी के सूत्रधार वे ही होंगे, मगर आज जब कि देश में परिवर्तन की चाह के बीच आम चुनाव हो रहे हैं तो वे यकायक राष्ट्रीय क्षितिज से गायब हो गए हैं। हर किसी को आश्चर्य है कि एक साल पहले तक जो शख्स सर्वाधिक प्रासंगिक था, वह आज अचानक अप्रासंगिक कैसे हो गया? इसमें दो ही कारण समझ में आते हैं। या तो आंदोलन को सिरे तक पहुंचाने की सूझबूझ के अभाव या अपनी टीम को जोड़ कर रख पाने की अक्षमता ने उनका यह हश्र किया है या फिर चुनावी धूमधड़ाके में चाहे-अनचाहे सांप्रदायिकता व जातिवाद ने मौलिक यक्ष प्रश्रों को पीछे छोड़ दिया है। हालांकि चाह तो अब भी परिवर्तन की ही है, मगर ये परिवर्तन सत्ता परिवर्तन के साथ व्यवस्था परिवर्तन का आगाज भी करेगा, इसमें तनिक संदेह है। वजह साफ है कि व्यवस्था परिवर्तन की चाह जगाने वाले अन्ना हजारे राष्ट्रीय पटल से गायब हैं। आज जबकि उनकी सर्वाधिक जरूरत है तो वे कहीं नजर नहीं आ रहे।
आपको याद होगा कि अन्ना के आंदोलन ने देश में निराशा के वातावरण में उम्मीद की किरण पैदा की थी। आजादी के बाद पहली बार किसी जनआंदोलन के चलते संसद और सरकार को घुटने टेकने पड़े थे। ऐसा इसलिए संभव हो पाया कि क्योंकि इसके साथ वह युवा वर्ग शिद्दत के साथ शामिल हो गया था, जिसे खुद के साथ अपने देश की चिंता थी। उस युवा जोश ने साबित कर दिया था कि अगर सच्चा और विश्वास के योग्य नेतृत्व हो तो वह देश की कायापलट करने के लिए सबकुछ करने को तैयार है। मगर दुर्भाग्य से ऐसा हो नहीं पाया। इसके दो प्रमुख कारण रहे। एक तो स्वयं अन्ना का भोलापन, जिसे राजनीतिक चालों की अनुभवहीनता कहा जा सकता है, और दूसरा बार-बार यू टर्न लेने की मजबूरी।
शुरू में यह नजर आया कि एक दूसरे के पर्याय भ्रष्टाचार व काला धन के खिलाफ बाबा रामदेव और अन्ना हजारे का जोड़ कामयाब होगा, मगर पर्दे के पीछे के भिन्न उद्देश्यों ने जल्द ही दोनों को अलग कर दिया। बाबा रामदेव अन्ना हजारे को आगे रख कर भी पूरे आंदोलन को हथिया लेना चाहते थे, मगर अन्ना आंदोलन के वास्तविक सूत्रधार अरविंद केजरीवाल को ये बर्दाश्त नहीं हुआ। सरकार भी बड़े ही युक्तिपूर्ण तरीके से दोनों के आंदोलनों को कुचलने में कामयाब हो गई। जैसे ही केजरीवाल को ये लगा कि सारी मेहनत पर पानी फिरने जा रहा है या फिर उनका सुनियोजित प्लान चौपट होने को है, उन्होंने आखिरी विकल्प के रूप में खुद ही राजनीति में प्रवेश करने का ऐलान कर दिया। ऐसे में अन्ना हजारे ठगे से रह गए। वे समझ ही नहीं पा रहे थे कि उन्हीं के आंदोलन के गर्भ से पैदा हुई आम आदमी पार्टी को समर्थन दें या अलग-थलग हो कर बैठ जाएं। इस अनिश्चय की स्थिति में वे अपने मानस पुत्र को न खोने की चाह में कभी अरविंद को अशीर्वाद देते तो कभी उनसे कोई वास्ता न होने की बात कह कर अपने व्यक्तित्व को बचाए रखने की जुगत करते। अंतत: उन्हें यही लगा कि चतुराई की कमी के कारण उनका उपयोग कर लिया गया है और आगे भी होता रहेगा, तो उन्होंने हाशिये पर ही जाना उचित समझा। समझौतावादी मानसिकता में उन्होंने सरकार लोकपाल समर्थन कर दिया। जब केजरीवाल ने उनको उलाहना दिया कि इस सरकारी लोकपाल से चूहा भी नहीं पकड़ा जा सकेगा तो अन्ना ने दावा किया कि इससे शेर को भी पकड़ा जा सकता है। अन्ना के इस यूटर्न ने उनकी बनी बनाई छवि को खराब कर दिया। उन पर साफ तौर पर आरोप लगा कि वे यूपीए सरकार से मिल गये हैं। बदले हालत यहां तक पहुंच गए कि वे दिल्ली में अरविंद केजरीवाल के मुख्यमंत्री पद के शपथ ग्रहण समारोह में भी नहीं गए। वे किरण बेदी व पूर्व सेनाध्यक्ष वी के सिंह के शिकंजे में आ चुके थे, मगर अन्ना के साथ अपना भविष्य न देख वे भी उनका साथ छोड़कर भाजपा में चले गये। आज हालत ये है कि करोड़ों दिलों में अपनी जगह बना चुके अन्ना मैदान में मैदान में अकेले ही खड़े हैं। इससे यह साफ तौर साबित होता है कि उनको जो भी मिला उनका उपयोग करने के लिए। यहां तक कि पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के साथ भी उनका यही अनुभव रहा। यह स्पष्ट है कि ममता का आभा मंडल केवल पश्चिम बंगाल तक सीमित है और अन्ना का साथ लेकर वे राष्ट्रीय पटल पर आना चाहती थीं। दूसरी ओर अन्ना कदाचित केजरीवाल को नीचा दिखाने की गरज से ममता के प्रस्ताव पर दिल्ली में साझा रैली करने को तैयार हो गए। मगर बाद में उन्हें अक्ल आई कि ममता का दिल्ली में कोई प्रभाव नहीं है और वे तो उपयोग मात्र करना चाहती हैं तो ऐन वक्त पर यू टर्न ले लिया। इससे उनकी रही सही साख भी चौपट हो गई। कहां तो अन्ना को ये गुमान था कि वे जिस भी प्रत्याशी के साथ खड़े होंगे, उसकी चुनावी वैतरणी पर हो जाएगी, कहां हालत ये है कि आज अन्ना का कोई नामलेवा नहीं है। इस पूरे घटनाक्रम से यह निष्कर्ष निकलता है कि अनशन करके आंदोलन खड़ा करने और राजनीतिक सूझबूझ का इस्तेमाल करना अलग-अलग बातें हैं। निष्पत्ति ये है कि अन्ना ने भविष्य में किसी आंदोलन के लिए अपने आपको बचा रखा है, मगर लगता नहीं कि उनका जादू दुबारा चल पाएगा।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
आपको याद होगा कि अन्ना के आंदोलन ने देश में निराशा के वातावरण में उम्मीद की किरण पैदा की थी। आजादी के बाद पहली बार किसी जनआंदोलन के चलते संसद और सरकार को घुटने टेकने पड़े थे। ऐसा इसलिए संभव हो पाया कि क्योंकि इसके साथ वह युवा वर्ग शिद्दत के साथ शामिल हो गया था, जिसे खुद के साथ अपने देश की चिंता थी। उस युवा जोश ने साबित कर दिया था कि अगर सच्चा और विश्वास के योग्य नेतृत्व हो तो वह देश की कायापलट करने के लिए सबकुछ करने को तैयार है। मगर दुर्भाग्य से ऐसा हो नहीं पाया। इसके दो प्रमुख कारण रहे। एक तो स्वयं अन्ना का भोलापन, जिसे राजनीतिक चालों की अनुभवहीनता कहा जा सकता है, और दूसरा बार-बार यू टर्न लेने की मजबूरी।
शुरू में यह नजर आया कि एक दूसरे के पर्याय भ्रष्टाचार व काला धन के खिलाफ बाबा रामदेव और अन्ना हजारे का जोड़ कामयाब होगा, मगर पर्दे के पीछे के भिन्न उद्देश्यों ने जल्द ही दोनों को अलग कर दिया। बाबा रामदेव अन्ना हजारे को आगे रख कर भी पूरे आंदोलन को हथिया लेना चाहते थे, मगर अन्ना आंदोलन के वास्तविक सूत्रधार अरविंद केजरीवाल को ये बर्दाश्त नहीं हुआ। सरकार भी बड़े ही युक्तिपूर्ण तरीके से दोनों के आंदोलनों को कुचलने में कामयाब हो गई। जैसे ही केजरीवाल को ये लगा कि सारी मेहनत पर पानी फिरने जा रहा है या फिर उनका सुनियोजित प्लान चौपट होने को है, उन्होंने आखिरी विकल्प के रूप में खुद ही राजनीति में प्रवेश करने का ऐलान कर दिया। ऐसे में अन्ना हजारे ठगे से रह गए। वे समझ ही नहीं पा रहे थे कि उन्हीं के आंदोलन के गर्भ से पैदा हुई आम आदमी पार्टी को समर्थन दें या अलग-थलग हो कर बैठ जाएं। इस अनिश्चय की स्थिति में वे अपने मानस पुत्र को न खोने की चाह में कभी अरविंद को अशीर्वाद देते तो कभी उनसे कोई वास्ता न होने की बात कह कर अपने व्यक्तित्व को बचाए रखने की जुगत करते। अंतत: उन्हें यही लगा कि चतुराई की कमी के कारण उनका उपयोग कर लिया गया है और आगे भी होता रहेगा, तो उन्होंने हाशिये पर ही जाना उचित समझा। समझौतावादी मानसिकता में उन्होंने सरकार लोकपाल समर्थन कर दिया। जब केजरीवाल ने उनको उलाहना दिया कि इस सरकारी लोकपाल से चूहा भी नहीं पकड़ा जा सकेगा तो अन्ना ने दावा किया कि इससे शेर को भी पकड़ा जा सकता है। अन्ना के इस यूटर्न ने उनकी बनी बनाई छवि को खराब कर दिया। उन पर साफ तौर पर आरोप लगा कि वे यूपीए सरकार से मिल गये हैं। बदले हालत यहां तक पहुंच गए कि वे दिल्ली में अरविंद केजरीवाल के मुख्यमंत्री पद के शपथ ग्रहण समारोह में भी नहीं गए। वे किरण बेदी व पूर्व सेनाध्यक्ष वी के सिंह के शिकंजे में आ चुके थे, मगर अन्ना के साथ अपना भविष्य न देख वे भी उनका साथ छोड़कर भाजपा में चले गये। आज हालत ये है कि करोड़ों दिलों में अपनी जगह बना चुके अन्ना मैदान में मैदान में अकेले ही खड़े हैं। इससे यह साफ तौर साबित होता है कि उनको जो भी मिला उनका उपयोग करने के लिए। यहां तक कि पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के साथ भी उनका यही अनुभव रहा। यह स्पष्ट है कि ममता का आभा मंडल केवल पश्चिम बंगाल तक सीमित है और अन्ना का साथ लेकर वे राष्ट्रीय पटल पर आना चाहती थीं। दूसरी ओर अन्ना कदाचित केजरीवाल को नीचा दिखाने की गरज से ममता के प्रस्ताव पर दिल्ली में साझा रैली करने को तैयार हो गए। मगर बाद में उन्हें अक्ल आई कि ममता का दिल्ली में कोई प्रभाव नहीं है और वे तो उपयोग मात्र करना चाहती हैं तो ऐन वक्त पर यू टर्न ले लिया। इससे उनकी रही सही साख भी चौपट हो गई। कहां तो अन्ना को ये गुमान था कि वे जिस भी प्रत्याशी के साथ खड़े होंगे, उसकी चुनावी वैतरणी पर हो जाएगी, कहां हालत ये है कि आज अन्ना का कोई नामलेवा नहीं है। इस पूरे घटनाक्रम से यह निष्कर्ष निकलता है कि अनशन करके आंदोलन खड़ा करने और राजनीतिक सूझबूझ का इस्तेमाल करना अलग-अलग बातें हैं। निष्पत्ति ये है कि अन्ना ने भविष्य में किसी आंदोलन के लिए अपने आपको बचा रखा है, मगर लगता नहीं कि उनका जादू दुबारा चल पाएगा।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें