बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष सुश्री मायावती ने एफडीआई के मामले में राज्यसभा में सरकार के पक्ष में मतदान करके एक तीर से कई शिकार कर लिए। हालांकि इस मामले में भाजपा की करारी हार हुई और कांग्रेस की तिकड़मी जीत, मगर मायावती ने जो जीत हासिल की है, उसके गहरे राजनीतिक मायने हैं।
बेशक मायावती पर भाजपा नेता सुषमा स्वराज ने दोहरी भूमिका का जो सवाल उठाया, उसका सीधा सपाट जवाब मायावती के पास नहीं है, मगर पलट कर उन्होंने जो कटाक्ष किए, उससे भाजपा की बोलती बंद हो गई। उनका साफ मतलब था कि वे कब क्या करेंगी, कुछ नहीं कहा जा सकता और अपनी पार्टी के हित के लिये वे जो कुछ उचित समझेंगी, करेंगी। ऐसा नहीं कि मायावती ने ऐसा पहली बार किया है, इससे पहले भी इसी तरह की चालें चल चुकी हैं। ये वही मायावती हैं, जिन्होंने सत्ता की खातिर कथित सांप्रदायिक पार्टी भाजपा से हाथ मिला कर उत्तरप्रदेश में समझौते की सरकार ढ़ाई साल चलाई, पूरा मजा लिया और जैसे ही भाजपा का नंबर आया, समझौता तोड़ दिया। ऐसा प्रतीत होता है कि मायावतीवाद यही है कि साम, दाम, दंड, भेद के जरिए येन केन प्रकारेण दलित को सत्ता में लाया जाए। उसमें फिर कोई भी आदर्श आड़े नहीं आता। असल में यह उन सैकड़ों वर्षों का प्रतिकार है, जिनमें सवर्ण वर्ग ने दलितों का सारे आदर्श और मानवता ताक पर रख कर दमन किया। इसी प्रतिकार की जद में उन्होंने अपने धुर विरोधी मुलायम सिंह को भी नहीं छोड़ा। उन्होंने कांग्रेस को जो समर्थन दिया, उसके पीछे एक कारण ये भी है कि वे दूसरे पलड़े में बैठ कर मुलायम का वजन कम करना चाहती हैं। ज्ञातव्य है कि उत्तर प्रदेश की सत्ता से माया को बेदखल करने वाले मुलायम लगातार कोशिश कर रहे हैं कि लोकसभा चुनाव जल्दी हो जाएं। विधानसभा चुनावों में जो अप्रत्याशित बहुमत एसपी को मिला था वह लोकसभा में भी मिले। ज्यादा से ज्यादा सीटें जीतकर वह दिल्ली में ताकत बढ़ाना चाहते हैं ताकि दिल्ली पर राज करने का सपना पूरा कर सकें। इसके लिए उन्होंने तैयारी भी कर ली है। मगर मायावती चाहती हैं कि केन्द्र सरकार स्थिर बनी रहे और कुछ समय और निकाले, ताकि विधानसभा चुनावों के समय जो माहौल एसपी के पक्ष में बना था, वह धीरे-धीरे कम हो जाए। जो फायदा एसपी को अभी मिल सकता है वह 2014 में नहीं मिलेगा। इसके अतिरिक्त वे मुलायम की बार्गेनिंग पावर को भी कम करना चाहती हैं और सरकार को स्पष्ट समर्थन देकर यह संदेश दे दिया है कि सरकार का आंकड़ा पूरा है और समय से पहले चुनाव की कोई संभावना नहीं है। यह भी साफ हो चुका है कि मुलायम केंद्र का साथ छोड़ दें तो भी कोई फर्क नहीं पड़ेगा। माया का समर्थन उसके लिए काफी होगा।
कुल मिला कर मायावती की कार्यशैली की चाहे जितनी आलोचना की जाए, मगर राजनीतिक हथकंडों में उनका कोई सानी नहीं है। यूं कुछ इसी प्रकार की फितरत मुलायम भी रखते हैं। जब मीडिया ने उनसे पूछा कि आप संसद में एफडीआई का विरोध करते हैं ओर उसे लागू करने के लिए अपरोक्ष रूप से कांग्रेस को संबल प्रदान करते हैं, इस पर वे बोले कि ये तो राजनीति है, हम कोई साधु-संन्यासी थोड़े ही हैं। यानि कि भले ही भाजपा लोकतंत्र और मर्यादा की लाख दुहाई दे, मगर जातिवाद के जरिए राजनीति पर हावी मायावती व मुलायम वही करेंगे, जो कि उन्हें करना है।
-तेजवानी गिरधर
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें