किसी समय में भाजपा हाईकमान से भिड़ जाने वाली प्रदेश की मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे की पकड़ क्या अब कमजोर पड़ती जा रही है? पिछले कुछ समय की घटनाओं से तो यही आभास होता है। वे समझौते दर समझौते कर रही हैं। ऐसे में सवाल ये भी उठता है कि ये परिवर्तन आया कैसे और ये भी कि उनको परेशानी में डालने व चुनौती देने वालों को किस का सपोर्ट है?
जरा पीछे मुड़ कर देखिए। जब राज्य में भाजपा पराजित हुई तो हार की जिम्मेदारी लेने के तहत उनको हाईकमान ने नेता प्रतिपक्ष का पद छोडऩे के निर्देश दिए, जिसे उन्होंने मानने से साफ इंकार कर दिया। बिफर कर उन्होंने न केवल पार्टी की नींव रखने में अहम भूमिका निभाने वाली अपनी मां राजमाता विजयाराजे सिंधिया की याद दिलाई, अपितु विधायकों को लामबंद कर हाई कमान को लगभग चुनौती दे दी। बाकायदा हस्ताक्षर अभियान चलाया। बाद में बमुश्किल मानीं तो ऐसी कि लंबे समय तक यह पद खाली ही पड़ा रहा। जब चुनाव नजदीक आए तो हाईकमान को उनको विकल्प के अभाव में फिर से प्रदेश की कमान सौंपनी पड़ी। प्रदेश पर अपनी पकड़ को उन्होंने बंपर जीत दर्ज करवा कर साबित भी कर दिया। यह दीगर बात है कि इसका श्रेय मोदी लहर को भी दिया गया। वे कितनी प्रभावशाली नेता रही हैं, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि राजस्थान का एक ही सिंह कहलाने वाले पूर्व मुख्यमंत्री व पूर्व उपराष्ट्रपति भैरोंसिंह शेखावत को पूरी तरह से नकार दिया। वसुंधरा का इतना खौफ था कि पार्टी के कार्यकर्ता व नेता शेखावत के नजदीक तक फटकने से कतराने लगे थे।
खैर, ताजा हालात पर नजर डालें तो पार्टी में ही रह कर लगातार पर बगावती सुर अलापने वाले घनश्याम तिवाड़ी बेलगाम हो चुके हैं, मगर वसुंधरा चुप हैं। वसुंधरा राजे की हां में हां मिला कर चलने वाले प्रदेश भाजपा अध्यक्ष अशोक परनामी भी हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं। स्पष्ट है कि वसुंधरा में उनके खिलाफ कार्यवाही करने की आत्मशक्ति नहीं है। पार्टी की ब्राह्मण लॉबी के बगावत कर देने का खतरा बना हुआ है। बीकानेर के दिग्गज राजपूत नेता देवी सिंह भाटी ने भी समय पर अपने वजूद का अहसास कराया है। हाल ही उन्होंने सक्रिय राजनीति से अलग होकर आमजन के साथ आंदोलन शुरू करने की घोषणा की है। उनका कहना है कि कंपनी राज की तरह चल रही वर्तमान प्रजातांत्रिक व्यवस्था से मैं संतुष्ट नहीं हूं। भविष्य में किसी तरह का चुनाव नहीं लडूंगा, न ही किसी तरह के राजनीतिक दल का गठन करूंगा। मैं सात बार एमएलए रहा, बेटा सांसद रहा और कुछ नहीं चाहिए। जब ये पूछा गया कि पार्टी में आपके पास दायित्व रहा है, फिर भी आंदोलन करने जा रहे हैं, इस पर वे कहते हैं कि प्रदेश कार्यकारिणी में दायित्व था, लेकिन वहां सिर्फ मूकदर्शक बनकर रहना पड़ता था। जैसे पिछली बार भूपेंद्र यादव को राज्यसभा के चुनाव के दौरान मैंने पूछ लिया- ये कौन है? तो नेतृत्व की मुझ पर भौंहें तन गईं। वैसे अभी स्वदेशी जागरण मंच से जुड़ा हूं। परदे के पीछे काम नहीं करूंगा। समझा जा सकता है कि वे वसुंधरा के लिए कितना बड़ा सिरदर्द हैं।
एक और उदाहरण देखिए। कभी उनकी ही लॉबी में माने जाने वाले श्रीचंद कृपलानी को जब उन्होंने यूआईटी चेयरमैन बनाने के आदेश दे दिए, तो उन्होंने वह पद लेने से साफ इंकार कर दिया। वे इस बात से नाराज थे कि उन्हें उनके कद के हिसाब से मंत्री क्यों नहीं बनाया गया। काफी जद्दोजहद के आखिरकार मंत्रीमंडल विस्तार में उन्हें केबिनेट मंत्री बनाना पड़ा। मजेदार बात देखिए कि जिसे मात्र यूआईटी के अध्यक्ष के योग्य माना गया, वे राज्यभर के सभी स्थानीय निकायों का मंत्री बन कर माने। हालांकि इसके पीछे का गणित कुछ और लगता है। वो ये कि वे सिंधी कोटे के राज्य मंत्री प्रो. वासुदेव देवनानी को हटाना चाहती थीं, मगर संघ का इतना दबाव था कि उनका कुछ नहीं बिगाड़ पाईं। ऐसे में देवनानी की टक्कर में दूसरा सिंधी नेता खड़ा करने के लिए कृपलानी को मंत्री पद दे कर उपकृत किया। दूसरे सिंधी विधायक को राजी किया तो तीसरे सिंधी विधायक ज्ञानदेव आहूजा पसर गए। उन्होंने मंत्री न बनाए जाने से नाराज हो कर विधानसभा की सभी समितियों से इस्तीफा दे दिया है।
कुल मिला कर लगता है कि शेरनी की उपमा से अलंकृत वसुंधरा का प्रभामंडल कुछ फीका होता जा रहा है। बेशक इस प्रकार के बगावती तेवर उभरने के पीछे कुछ तो राज है। अनुमान है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी व संघ लॉबी उनको अंडर प्रेशर रख रही है।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
8094767000
जरा पीछे मुड़ कर देखिए। जब राज्य में भाजपा पराजित हुई तो हार की जिम्मेदारी लेने के तहत उनको हाईकमान ने नेता प्रतिपक्ष का पद छोडऩे के निर्देश दिए, जिसे उन्होंने मानने से साफ इंकार कर दिया। बिफर कर उन्होंने न केवल पार्टी की नींव रखने में अहम भूमिका निभाने वाली अपनी मां राजमाता विजयाराजे सिंधिया की याद दिलाई, अपितु विधायकों को लामबंद कर हाई कमान को लगभग चुनौती दे दी। बाकायदा हस्ताक्षर अभियान चलाया। बाद में बमुश्किल मानीं तो ऐसी कि लंबे समय तक यह पद खाली ही पड़ा रहा। जब चुनाव नजदीक आए तो हाईकमान को उनको विकल्प के अभाव में फिर से प्रदेश की कमान सौंपनी पड़ी। प्रदेश पर अपनी पकड़ को उन्होंने बंपर जीत दर्ज करवा कर साबित भी कर दिया। यह दीगर बात है कि इसका श्रेय मोदी लहर को भी दिया गया। वे कितनी प्रभावशाली नेता रही हैं, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि राजस्थान का एक ही सिंह कहलाने वाले पूर्व मुख्यमंत्री व पूर्व उपराष्ट्रपति भैरोंसिंह शेखावत को पूरी तरह से नकार दिया। वसुंधरा का इतना खौफ था कि पार्टी के कार्यकर्ता व नेता शेखावत के नजदीक तक फटकने से कतराने लगे थे।
खैर, ताजा हालात पर नजर डालें तो पार्टी में ही रह कर लगातार पर बगावती सुर अलापने वाले घनश्याम तिवाड़ी बेलगाम हो चुके हैं, मगर वसुंधरा चुप हैं। वसुंधरा राजे की हां में हां मिला कर चलने वाले प्रदेश भाजपा अध्यक्ष अशोक परनामी भी हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं। स्पष्ट है कि वसुंधरा में उनके खिलाफ कार्यवाही करने की आत्मशक्ति नहीं है। पार्टी की ब्राह्मण लॉबी के बगावत कर देने का खतरा बना हुआ है। बीकानेर के दिग्गज राजपूत नेता देवी सिंह भाटी ने भी समय पर अपने वजूद का अहसास कराया है। हाल ही उन्होंने सक्रिय राजनीति से अलग होकर आमजन के साथ आंदोलन शुरू करने की घोषणा की है। उनका कहना है कि कंपनी राज की तरह चल रही वर्तमान प्रजातांत्रिक व्यवस्था से मैं संतुष्ट नहीं हूं। भविष्य में किसी तरह का चुनाव नहीं लडूंगा, न ही किसी तरह के राजनीतिक दल का गठन करूंगा। मैं सात बार एमएलए रहा, बेटा सांसद रहा और कुछ नहीं चाहिए। जब ये पूछा गया कि पार्टी में आपके पास दायित्व रहा है, फिर भी आंदोलन करने जा रहे हैं, इस पर वे कहते हैं कि प्रदेश कार्यकारिणी में दायित्व था, लेकिन वहां सिर्फ मूकदर्शक बनकर रहना पड़ता था। जैसे पिछली बार भूपेंद्र यादव को राज्यसभा के चुनाव के दौरान मैंने पूछ लिया- ये कौन है? तो नेतृत्व की मुझ पर भौंहें तन गईं। वैसे अभी स्वदेशी जागरण मंच से जुड़ा हूं। परदे के पीछे काम नहीं करूंगा। समझा जा सकता है कि वे वसुंधरा के लिए कितना बड़ा सिरदर्द हैं।
एक और उदाहरण देखिए। कभी उनकी ही लॉबी में माने जाने वाले श्रीचंद कृपलानी को जब उन्होंने यूआईटी चेयरमैन बनाने के आदेश दे दिए, तो उन्होंने वह पद लेने से साफ इंकार कर दिया। वे इस बात से नाराज थे कि उन्हें उनके कद के हिसाब से मंत्री क्यों नहीं बनाया गया। काफी जद्दोजहद के आखिरकार मंत्रीमंडल विस्तार में उन्हें केबिनेट मंत्री बनाना पड़ा। मजेदार बात देखिए कि जिसे मात्र यूआईटी के अध्यक्ष के योग्य माना गया, वे राज्यभर के सभी स्थानीय निकायों का मंत्री बन कर माने। हालांकि इसके पीछे का गणित कुछ और लगता है। वो ये कि वे सिंधी कोटे के राज्य मंत्री प्रो. वासुदेव देवनानी को हटाना चाहती थीं, मगर संघ का इतना दबाव था कि उनका कुछ नहीं बिगाड़ पाईं। ऐसे में देवनानी की टक्कर में दूसरा सिंधी नेता खड़ा करने के लिए कृपलानी को मंत्री पद दे कर उपकृत किया। दूसरे सिंधी विधायक को राजी किया तो तीसरे सिंधी विधायक ज्ञानदेव आहूजा पसर गए। उन्होंने मंत्री न बनाए जाने से नाराज हो कर विधानसभा की सभी समितियों से इस्तीफा दे दिया है।
कुल मिला कर लगता है कि शेरनी की उपमा से अलंकृत वसुंधरा का प्रभामंडल कुछ फीका होता जा रहा है। बेशक इस प्रकार के बगावती तेवर उभरने के पीछे कुछ तो राज है। अनुमान है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी व संघ लॉबी उनको अंडर प्रेशर रख रही है।
-तेजवानी गिरधर
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