इसमें कोई दो राय नहीं कि उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में भाजपा को प्रचंड बहुमत मिला, जो कि दिल्ली व बिहार की हार के बाद फिर से मोदी कथित लहर का प्रमाण है, मगर इसका असल फायदा देश को हुआ है। एक तो ये कि क्षेत्रीय दलों सपा व बसपा को करारा झटका लगा है, और दूसरा ये कि केवल जातीय राजनीति करके भारतीय लोकतंत्र में छा जाने वालों का गणित छिन्न-भिन्न हो गया।
विषय के विस्तार से पहले आते हैं, भाजपा की जीत पर। चूंकि यहां प्रचार की पूरी कमान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने ही संभाल रखी थी, वे ही स्टार कैंपेनर थे, इस कारण भाजपा की जीत का पूरा श्रेय मोदी के खाते में ही माना जाएगा। इसे मोदी लहर की संज्ञा दी जाती है, मगर तथ्यों का बारीकी से विश्लेषण करें तो इस लहर के भीतर भी कई तरह की लेयर हैं।
असल में उत्तर प्रदेश की जनता सपा व बसपा के पिछले बीस साल के गुंडा राज से त्रस्त थी। दोनों को दो-दो बार आजमाने के बाद ऊब कर परिवर्तन चाहती थी। दूसरा अहम कारण है, हिंदू वोटों का धु्रवीकरण। हिंदू-मुस्लिम के बीच खाई पैदा की गई। भाजपा ने एक भी मुसलमान को टिकट नहीं दिया। स्वाभाविक रूप से यह हिंदुओं को लामबंद करने का संदेश था। चुनाव के आखिरी दौर में कसाब, श्मशान-कब्रिस्तान, सैफुल्लाह के अतिरिक्त राम-मंदिर का जिस तरह प्रयोग किया गया, वह सिर्फ और सिर्फ हिंदुओं को एकजुट करने के काम आया। रहा सवाल मुस्लिमों का तो वे सपा-कांग्रेस व बसपा में बंट गए। उसमें भी तीन तलाक के मुद्दे ने मुस्लिम महिला वोटों को भाजपा की ओर आकर्षित किया। रही सही कसर यादव कुनबे में हुई सरे आम जंग ने पूरी कर दी। अखिलेश को उम्मीद थी लोग उनके काम को ख्याल में रखेंगे, मगर वह सब पारिवारिक कलह में धुल गया।
भाजपा की जीत का एक फंडा ये भी है कि मोदी ने बातें तो आदर्शवाद की बहुत कीं, मगर जीतने के लिए जातिवाद और वंशवाद के आधार पर टिकट देते समय आंखें मूंद लीं।
बात मायावती की। उनका खास फोकस मुस्लिम मतदाताओं पर था। इसलिए मायावती ने चुनावों से पहले बाहुबली और आपराधिक छवि के मुख्तार अंसारी तक को अपनी पार्टी में शामिल कराया। मायावती ने इन चुनावों में 97 मुस्लिम उम्मीदवारों को प्रदेश में टिकट दिया था। लेकिन इससे उनकी वह सोशल इंजीनियरिंग बिगड़ गई, जिसके दम पर वे एक बार सत्ता पर काबिज हो गई थीं।
कांग्रेस की चर्चा का कोई अर्थ इसलिए नहीं है, क्योंकि वह तो अनुसूचित जाति, ओबीसी व मुस्लिम वोट बैंक को खो कर पहले ही बेहद कमजोर हो चुकी थी। तभी तो वहां सपा व बसपा जैसे क्षेत्रीय व जाति आधारित दल उभरे। इन्होंने न केवल उत्तरप्रदेश में दादागिरी की, अपितु केन्द्र के कामकाज में भी खूब टांग अड़ाई। कांग्रेस ने तो अखिलेश के साथ रह कर जिंदा रहने की कोशिश मात्र की, मगर जब अखिलेश ही नहीं तैर पाए तो कांग्रेस को डूबने से कैसे बचाया जा सकता था। शायद कांग्रेस पार्टी को इसका अंदाजा पहले ही हो गया था, इसलिए सोनिया गांधी भी चुनाव प्रचार से दूर रहीं। कांग्रेस के लिए तुरुप का पत्ता माने जानी वाली प्रियंका गांधी भी एक-दो कार्यक्रमों को छोड़कर प्रदेश में ज्यादा सक्रिय नहीं रहीं।
इस चुनाव में नोटबंदी की भी खूब चर्चा रही। आज भले ही नाकाम नोटबंदी पर जनता की मुहर लगने की बात कही जा रही हो, मगर यह मोदी की कलाकारी ही कही जाएगी कि आम आदमी दर दर की ठोकरें खाने के बावजूद इससे खुश था कि धनपतियों की तिजोरियां तो खाली हो गईं।
इन सबके बाद भी अगर इस जीत को मोदी लहर की संज्ञा दी जाती है, तो कदाचित यह कुछ त्रुटिपूर्ण होगा। मूलत: यह एंटी एस्टेब्लिशमेंट फैक्टर था। अगर ये मोदी लहर थी तो वह पंजाब में क्यों नहीं चली? पंजाब कोई यूरोप का प्रांत तो है नहीं। पंजाब में भी एंटी एस्टेब्लिशमेंट फैक्टर ने ही कांग्रेस को जीत दिलवा दी। अगर ये मोदी लहर थी तो मणिपुर, गोवा में उत्तर प्रदेश जैसी प्रचंड क्यों नहीं थी? हां, इतना जरूर है कि मणिपुर में भाजपा का प्रदर्शन पूर्वोत्तर के राज्यों में भी कांग्रेस को चुनौती देता हुई नजर आ रहा है। उत्तराखंड की बात करें तो वहां भी स्थानीय समीकरणों ने भूमिका निभाई। उत्तराखंड में कांग्रेस की हरीश रावत सरकार के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर के साथ-साथ कांग्रेस पार्टी की आपसी कलह ने काम किया। उत्तराखंड में कांग्रेस के ज्यादातर बड़े नेता भाजपा में शामिल हो चुके थे। हरीश रावत कांग्रेस में अकेले पड़ गए थे। इसका पूरा-पूरा फायदा उत्तराखंड में भाजपा ने उठाया।
इन सब तथ्यों का निहितार्थ मोदी लहर को नकारना नहीं है। मोदी की लोकप्रियता आज भी कायम है, जैसी लोकसभा चुनावों के वक्त थी। ये तो दिल्ली और बिहार में भाजपा की करारी से मोदी ब्रांड को जो नुकसान हो गया था, वह मजबूती के साथ खड़ा रहे, इस कारण सारे समीकरणों को गड्ड मड्ड कर मोदी लहर बरकरार होने का प्रोजेक्शन मात्र है। मगर साथ ही पार्टी हित में विचार की बजाय व्यक्तिवाद की पूजा करना कितना देश हित में है, इस पर भी तनिक विचार कर लेना चाहिए।
लब्बोलुआब, यदि मोदी लहर को मान भी लिया जाए तो भी उत्तरप्रदेश का चुनाव परिणाम देशहित में है। जो वोट बैंक जातिवाद में फंस कर क्षेत्रीय दलों की प्राणवायु बना हुआ था, वह मुख्य धारा में आया है। यह एक शुभ संकेत है। कम से कम जातीय राजनीति कर क्षेत्र विशेष के हित साधक बने दलों की देश की राष्ट्रीय राजनीति में दखलंदाजी तो कम हुई। वरना यह सर्वविदित है कि सपा-बसपा जैसे दलों ने किस प्रकार केन्द्र की सरकारों को नचाया है। जैसे ईमानदार मनमोहन सिंह को द्रमुक ने बेईमानी के कटघरे में खड़ा कर दिया, वैसे ही अटल बिहारी वाजपेयी को ममता, माया व जयललिता ने आसानी से काम नहीं करने दिया। उचित तो ये रहेगा कि क्षेत्रीय दलों से लोकसभा चुनाव लडऩे का अधिकार छीन लेना चाहिए, भले अपने-अपने राज्यों में सत्ता चला कर क्षेत्रीय हित साधते रहें।
तेजवानी गिरधर
7742067000
8094767000
विषय के विस्तार से पहले आते हैं, भाजपा की जीत पर। चूंकि यहां प्रचार की पूरी कमान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने ही संभाल रखी थी, वे ही स्टार कैंपेनर थे, इस कारण भाजपा की जीत का पूरा श्रेय मोदी के खाते में ही माना जाएगा। इसे मोदी लहर की संज्ञा दी जाती है, मगर तथ्यों का बारीकी से विश्लेषण करें तो इस लहर के भीतर भी कई तरह की लेयर हैं।
असल में उत्तर प्रदेश की जनता सपा व बसपा के पिछले बीस साल के गुंडा राज से त्रस्त थी। दोनों को दो-दो बार आजमाने के बाद ऊब कर परिवर्तन चाहती थी। दूसरा अहम कारण है, हिंदू वोटों का धु्रवीकरण। हिंदू-मुस्लिम के बीच खाई पैदा की गई। भाजपा ने एक भी मुसलमान को टिकट नहीं दिया। स्वाभाविक रूप से यह हिंदुओं को लामबंद करने का संदेश था। चुनाव के आखिरी दौर में कसाब, श्मशान-कब्रिस्तान, सैफुल्लाह के अतिरिक्त राम-मंदिर का जिस तरह प्रयोग किया गया, वह सिर्फ और सिर्फ हिंदुओं को एकजुट करने के काम आया। रहा सवाल मुस्लिमों का तो वे सपा-कांग्रेस व बसपा में बंट गए। उसमें भी तीन तलाक के मुद्दे ने मुस्लिम महिला वोटों को भाजपा की ओर आकर्षित किया। रही सही कसर यादव कुनबे में हुई सरे आम जंग ने पूरी कर दी। अखिलेश को उम्मीद थी लोग उनके काम को ख्याल में रखेंगे, मगर वह सब पारिवारिक कलह में धुल गया।
भाजपा की जीत का एक फंडा ये भी है कि मोदी ने बातें तो आदर्शवाद की बहुत कीं, मगर जीतने के लिए जातिवाद और वंशवाद के आधार पर टिकट देते समय आंखें मूंद लीं।
बात मायावती की। उनका खास फोकस मुस्लिम मतदाताओं पर था। इसलिए मायावती ने चुनावों से पहले बाहुबली और आपराधिक छवि के मुख्तार अंसारी तक को अपनी पार्टी में शामिल कराया। मायावती ने इन चुनावों में 97 मुस्लिम उम्मीदवारों को प्रदेश में टिकट दिया था। लेकिन इससे उनकी वह सोशल इंजीनियरिंग बिगड़ गई, जिसके दम पर वे एक बार सत्ता पर काबिज हो गई थीं।
कांग्रेस की चर्चा का कोई अर्थ इसलिए नहीं है, क्योंकि वह तो अनुसूचित जाति, ओबीसी व मुस्लिम वोट बैंक को खो कर पहले ही बेहद कमजोर हो चुकी थी। तभी तो वहां सपा व बसपा जैसे क्षेत्रीय व जाति आधारित दल उभरे। इन्होंने न केवल उत्तरप्रदेश में दादागिरी की, अपितु केन्द्र के कामकाज में भी खूब टांग अड़ाई। कांग्रेस ने तो अखिलेश के साथ रह कर जिंदा रहने की कोशिश मात्र की, मगर जब अखिलेश ही नहीं तैर पाए तो कांग्रेस को डूबने से कैसे बचाया जा सकता था। शायद कांग्रेस पार्टी को इसका अंदाजा पहले ही हो गया था, इसलिए सोनिया गांधी भी चुनाव प्रचार से दूर रहीं। कांग्रेस के लिए तुरुप का पत्ता माने जानी वाली प्रियंका गांधी भी एक-दो कार्यक्रमों को छोड़कर प्रदेश में ज्यादा सक्रिय नहीं रहीं।
इस चुनाव में नोटबंदी की भी खूब चर्चा रही। आज भले ही नाकाम नोटबंदी पर जनता की मुहर लगने की बात कही जा रही हो, मगर यह मोदी की कलाकारी ही कही जाएगी कि आम आदमी दर दर की ठोकरें खाने के बावजूद इससे खुश था कि धनपतियों की तिजोरियां तो खाली हो गईं।
इन सबके बाद भी अगर इस जीत को मोदी लहर की संज्ञा दी जाती है, तो कदाचित यह कुछ त्रुटिपूर्ण होगा। मूलत: यह एंटी एस्टेब्लिशमेंट फैक्टर था। अगर ये मोदी लहर थी तो वह पंजाब में क्यों नहीं चली? पंजाब कोई यूरोप का प्रांत तो है नहीं। पंजाब में भी एंटी एस्टेब्लिशमेंट फैक्टर ने ही कांग्रेस को जीत दिलवा दी। अगर ये मोदी लहर थी तो मणिपुर, गोवा में उत्तर प्रदेश जैसी प्रचंड क्यों नहीं थी? हां, इतना जरूर है कि मणिपुर में भाजपा का प्रदर्शन पूर्वोत्तर के राज्यों में भी कांग्रेस को चुनौती देता हुई नजर आ रहा है। उत्तराखंड की बात करें तो वहां भी स्थानीय समीकरणों ने भूमिका निभाई। उत्तराखंड में कांग्रेस की हरीश रावत सरकार के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर के साथ-साथ कांग्रेस पार्टी की आपसी कलह ने काम किया। उत्तराखंड में कांग्रेस के ज्यादातर बड़े नेता भाजपा में शामिल हो चुके थे। हरीश रावत कांग्रेस में अकेले पड़ गए थे। इसका पूरा-पूरा फायदा उत्तराखंड में भाजपा ने उठाया।
इन सब तथ्यों का निहितार्थ मोदी लहर को नकारना नहीं है। मोदी की लोकप्रियता आज भी कायम है, जैसी लोकसभा चुनावों के वक्त थी। ये तो दिल्ली और बिहार में भाजपा की करारी से मोदी ब्रांड को जो नुकसान हो गया था, वह मजबूती के साथ खड़ा रहे, इस कारण सारे समीकरणों को गड्ड मड्ड कर मोदी लहर बरकरार होने का प्रोजेक्शन मात्र है। मगर साथ ही पार्टी हित में विचार की बजाय व्यक्तिवाद की पूजा करना कितना देश हित में है, इस पर भी तनिक विचार कर लेना चाहिए।
लब्बोलुआब, यदि मोदी लहर को मान भी लिया जाए तो भी उत्तरप्रदेश का चुनाव परिणाम देशहित में है। जो वोट बैंक जातिवाद में फंस कर क्षेत्रीय दलों की प्राणवायु बना हुआ था, वह मुख्य धारा में आया है। यह एक शुभ संकेत है। कम से कम जातीय राजनीति कर क्षेत्र विशेष के हित साधक बने दलों की देश की राष्ट्रीय राजनीति में दखलंदाजी तो कम हुई। वरना यह सर्वविदित है कि सपा-बसपा जैसे दलों ने किस प्रकार केन्द्र की सरकारों को नचाया है। जैसे ईमानदार मनमोहन सिंह को द्रमुक ने बेईमानी के कटघरे में खड़ा कर दिया, वैसे ही अटल बिहारी वाजपेयी को ममता, माया व जयललिता ने आसानी से काम नहीं करने दिया। उचित तो ये रहेगा कि क्षेत्रीय दलों से लोकसभा चुनाव लडऩे का अधिकार छीन लेना चाहिए, भले अपने-अपने राज्यों में सत्ता चला कर क्षेत्रीय हित साधते रहें।
तेजवानी गिरधर
7742067000
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