भाजपा नेता सुब्रह्मण्यम स्वामी सही कह रहे हैं या पूर्व विदेश मंत्री नटवर सिंह, कुछ पता नहीं लग रहा। स्वामी का कहना है कि राष्ट्रपति ने सोनिया को प्रधानमंत्री बनाने में कानूनी अड़चन की बात कही थी और अगर वे बन भी जातीं तो मामला कोर्ट में ले जाया जा सकता था। इस कारण सोनिया को कदम पीछे खींचने पड़े। मगर नटवर सिंह ने अगले महीने आने वाली अपनी किताब वन लाइफ इज नॉट एनफ में जो कुछ अहम खुलासे किए हैं, उसमें कहा गया है कि 2004 में सोनिया गांधी के पीएम नहीं बनने की सबसे बड़ी वजह राहुल गांधी थे। राहुल गांधी को डर था अगर उनकी मां सोनिया, दादी इंदिरा गांधी और पिता राजीव गांधी की तरह पीएम बनीं, तो उनकी भी हत्या कर दी जाएगी। यही वजह थी कि राहुल गांधी ने बेटा होने की दुहाई देते हुए सोनिया को पीएम नहीं बनने दिया। राहुल गांधी ने अपनी मां सोनिया गांधी को सोचने के लिए 24 घंटे का समय दिया था। हालांकि राहुल बेटे के तौर पर अपना निर्णय पहले ही सुना चुके थे। आखिरकार सोनिया गांधी को भी राहुल की यह अपील माननी पड़ी। इन खुलासों का जिक्र उन्होंने न्यूज चैनल हेडलाइंस टुडे को दिए इंटरव्यू में किया है।
संभव है स्वामी की बात सही हो, मगर आज तक उसका ठीक से खुलासा कानूनी नजरिये के पहलुओं से नहीं हो पाया है। ये आज भी बहस का विषय है। मगर नटवर सिंह की बात में दम नजर आता है। ये वही नटवर सिंह हैं जो कभी गांधी-नेहरू परिवार के बेहद करीबी थे और अब कांग्रेस से निष्कासित। कांग्रेस से अलग हुए नेता का ये कहना कुछ गले उतरता है। चाहते तो वे भी स्वामी की तरह का तर्क दे सकते थे क्योंकि सोनिया व राहुल से उनकी अब नाइत्तफाकी है। खुद नटवर सिंह का दावा है कि वह किसी पुरानी कटुता की वजह से किताब नहीं लिख रहे हैं, बल्कि उनकी किताब तथ्यों पर आधारित है।
नटवर सिंह की बातों को अगर उस वक्त के हालात की रोशनी से देखें तो यकीन होता है कि वे शायद सही ही कह रहे हैं। उस वक्त सत्ता से वंचित हो रही भाजपा के नेताओं को बड़ा मलाल था कि विदेश में जन्मी एक महिला उन पर कैसे राज कर सकती है। एक तो वे महिला हैं, दूसरा विदेशी। उस वक्त पूरे देश में ऐसा माहौल बनाया गया था कि लोगों को सोनिया के प्रधानमंत्री बनने पर ऐतराज हो। उनके जज्बात जगाए गए कि तुम एक विदेशी महिला के राज को कैसे स्वीकार कर सकते हो। इसमें बाकायदा देशभक्ति का पुट भी डाला गया था। यहां तक कि भारतीय पुरुषों की मर्दानगी तब को चुनौती तक देकर दबाव बनाया जा रहा था कि सोनिया किसी भी सूरत प्रधानमंत्री नहीं बननी चाहिए। चंद शब्दों में कहा जाए तो सोनिया के प्रति नफरत का माहौल बनाने की भरपूर कोशिश की गई थी। माहौल बना भी था। ऐसे माहौल में मर्दानगी की चुनौती झेला हुआ कोई भी सिरफिरा सोनिया को मारने की साजिश रच सकता था। किसी भी भारतीय के प्रधानमंत्री होने पर उसकी सुरक्षा को लेकर जितनी सतर्कता नहीं चाहिए, उससे कहीं गुना अधिक एक विदेशी महिला के प्रधानमंत्री होने पर बरतने की नौबत आ सकती थी। यहां तक देशभर में हिंसा तक भड़कने का खतरा था। गृहयुद्ध भी हो सकता था। कदाचित उस आशंका की भयावहता का सोनिया और राहुल को आभास रहा होगा। राहुल के अपनी दादी व पिता की हत्या और सोनिया के अपनी सास व पति की हत्या देखने की वजह से ये ख्याल स्वाभाविक ही है। भले ही सोनिया प्रधानमंत्री बन जातीं, मगर यदि केवल उनके विदेशी होने के मुद्दे को लेकर देश में बवाल होता तो वह उनके लिए बेहद शर्मनाक होता। वह इतिहास का काला अध्याय बन जाता। यदि इस अर्थ में सोनिया का त्याग देखा जाए तो उसमें कुछ गलत भी नहीं है कि उनके त्याग से देश हिंसा से बच गया। हालांकि सोनिया के भविष्य में आने वाले उस मन्तव्य का इंतजार करना चाहिए, जो उन्होंने नटवर के बयान के बाद आया है कि वे एक किताब लिखेंगी, जिसमें सब कुछ सामने आ जाएगा।
संभव है कि तब सोनिया व राहुल ने सोचा होगा कि चाहे किसी को प्रधानमंत्री बना दिया जाए, सरकार की कमान तो उनके ही हाथों में रहने वाली है और उनके प्रधानमंत्री बनने न बनने से कोई फर्क नहीं पडऩे वाला था, सो पद त्यागने का विचार आया होगा। यहां कहने की जरूरत नहीं है कि यह मुद्दा कई बार उठा कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह तो कठपुतली मात्र हैं और सरकार सोनिया के इशारे पर ही चलती है। सत्ता के दो केन्द्र थे, उसमें ज्यादा ताकतवर सोनिया का था। ज्ञातव्य है कि कभी मनमोहन सिंह के मीडिया सलाहकार रहने वाले संजय बारू ने अपनी किताब द ऐक्सिडेंटल प्राइम मिनिस्टर, द मेकिंग ऐंड अनमेंकिंग ऑफ मनमोहन सिंह में खुलासा किया था सोनिया ही असल में सरकार चला रही थीं। नटवर सिंह भी ये कह रहे हैं कि सोनिया गांधी की पहुंच सरकारी फाइलों तक थी।
बहरहाल, चाहे बेटे की जिद के कारण या हिंसा के डर से सोनिया ने प्रधानमंत्री बनने का विचार त्यागा हो, मगर इस सिलसिले में एक बात कहने की इच्छा होती है कि भले ही भाजपा इत्यादि दलों को सोनिया के प्रधानमंत्री न बनने पर सुकून मिला हो, मगर यह भी हकीकत है कि पूरे दस साल सोनिया ने ही सरकार चलाई, चाहे अप्रत्यक्ष रूप से। नटवर सिंह ने तो इससे भी एक कदम आगे कह दिया कि जब वे पार्टी में थे तो सोनिया गांधी का कांग्रेस पर पूरा नियंत्रण था। सोनिया गांधी ने कभी इंटेलेक्चुअल होने का दावा नहीं किया, लेकिन उनके शब्द ही पार्टी के लिए कानून थे। नटवर सिंह ने कहा कि कई मायनों में कांग्रेस पर सोनिया का नियंत्रण इंदिरा गांधी से भी ज्यादा था और वह इंदिरा से भी ज्यादा ताकतवर नजर आती थीं।
-तेजवानी गिरधर
संभव है स्वामी की बात सही हो, मगर आज तक उसका ठीक से खुलासा कानूनी नजरिये के पहलुओं से नहीं हो पाया है। ये आज भी बहस का विषय है। मगर नटवर सिंह की बात में दम नजर आता है। ये वही नटवर सिंह हैं जो कभी गांधी-नेहरू परिवार के बेहद करीबी थे और अब कांग्रेस से निष्कासित। कांग्रेस से अलग हुए नेता का ये कहना कुछ गले उतरता है। चाहते तो वे भी स्वामी की तरह का तर्क दे सकते थे क्योंकि सोनिया व राहुल से उनकी अब नाइत्तफाकी है। खुद नटवर सिंह का दावा है कि वह किसी पुरानी कटुता की वजह से किताब नहीं लिख रहे हैं, बल्कि उनकी किताब तथ्यों पर आधारित है।
नटवर सिंह की बातों को अगर उस वक्त के हालात की रोशनी से देखें तो यकीन होता है कि वे शायद सही ही कह रहे हैं। उस वक्त सत्ता से वंचित हो रही भाजपा के नेताओं को बड़ा मलाल था कि विदेश में जन्मी एक महिला उन पर कैसे राज कर सकती है। एक तो वे महिला हैं, दूसरा विदेशी। उस वक्त पूरे देश में ऐसा माहौल बनाया गया था कि लोगों को सोनिया के प्रधानमंत्री बनने पर ऐतराज हो। उनके जज्बात जगाए गए कि तुम एक विदेशी महिला के राज को कैसे स्वीकार कर सकते हो। इसमें बाकायदा देशभक्ति का पुट भी डाला गया था। यहां तक कि भारतीय पुरुषों की मर्दानगी तब को चुनौती तक देकर दबाव बनाया जा रहा था कि सोनिया किसी भी सूरत प्रधानमंत्री नहीं बननी चाहिए। चंद शब्दों में कहा जाए तो सोनिया के प्रति नफरत का माहौल बनाने की भरपूर कोशिश की गई थी। माहौल बना भी था। ऐसे माहौल में मर्दानगी की चुनौती झेला हुआ कोई भी सिरफिरा सोनिया को मारने की साजिश रच सकता था। किसी भी भारतीय के प्रधानमंत्री होने पर उसकी सुरक्षा को लेकर जितनी सतर्कता नहीं चाहिए, उससे कहीं गुना अधिक एक विदेशी महिला के प्रधानमंत्री होने पर बरतने की नौबत आ सकती थी। यहां तक देशभर में हिंसा तक भड़कने का खतरा था। गृहयुद्ध भी हो सकता था। कदाचित उस आशंका की भयावहता का सोनिया और राहुल को आभास रहा होगा। राहुल के अपनी दादी व पिता की हत्या और सोनिया के अपनी सास व पति की हत्या देखने की वजह से ये ख्याल स्वाभाविक ही है। भले ही सोनिया प्रधानमंत्री बन जातीं, मगर यदि केवल उनके विदेशी होने के मुद्दे को लेकर देश में बवाल होता तो वह उनके लिए बेहद शर्मनाक होता। वह इतिहास का काला अध्याय बन जाता। यदि इस अर्थ में सोनिया का त्याग देखा जाए तो उसमें कुछ गलत भी नहीं है कि उनके त्याग से देश हिंसा से बच गया। हालांकि सोनिया के भविष्य में आने वाले उस मन्तव्य का इंतजार करना चाहिए, जो उन्होंने नटवर के बयान के बाद आया है कि वे एक किताब लिखेंगी, जिसमें सब कुछ सामने आ जाएगा।
संभव है कि तब सोनिया व राहुल ने सोचा होगा कि चाहे किसी को प्रधानमंत्री बना दिया जाए, सरकार की कमान तो उनके ही हाथों में रहने वाली है और उनके प्रधानमंत्री बनने न बनने से कोई फर्क नहीं पडऩे वाला था, सो पद त्यागने का विचार आया होगा। यहां कहने की जरूरत नहीं है कि यह मुद्दा कई बार उठा कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह तो कठपुतली मात्र हैं और सरकार सोनिया के इशारे पर ही चलती है। सत्ता के दो केन्द्र थे, उसमें ज्यादा ताकतवर सोनिया का था। ज्ञातव्य है कि कभी मनमोहन सिंह के मीडिया सलाहकार रहने वाले संजय बारू ने अपनी किताब द ऐक्सिडेंटल प्राइम मिनिस्टर, द मेकिंग ऐंड अनमेंकिंग ऑफ मनमोहन सिंह में खुलासा किया था सोनिया ही असल में सरकार चला रही थीं। नटवर सिंह भी ये कह रहे हैं कि सोनिया गांधी की पहुंच सरकारी फाइलों तक थी।
बहरहाल, चाहे बेटे की जिद के कारण या हिंसा के डर से सोनिया ने प्रधानमंत्री बनने का विचार त्यागा हो, मगर इस सिलसिले में एक बात कहने की इच्छा होती है कि भले ही भाजपा इत्यादि दलों को सोनिया के प्रधानमंत्री न बनने पर सुकून मिला हो, मगर यह भी हकीकत है कि पूरे दस साल सोनिया ने ही सरकार चलाई, चाहे अप्रत्यक्ष रूप से। नटवर सिंह ने तो इससे भी एक कदम आगे कह दिया कि जब वे पार्टी में थे तो सोनिया गांधी का कांग्रेस पर पूरा नियंत्रण था। सोनिया गांधी ने कभी इंटेलेक्चुअल होने का दावा नहीं किया, लेकिन उनके शब्द ही पार्टी के लिए कानून थे। नटवर सिंह ने कहा कि कई मायनों में कांग्रेस पर सोनिया का नियंत्रण इंदिरा गांधी से भी ज्यादा था और वह इंदिरा से भी ज्यादा ताकतवर नजर आती थीं।
-तेजवानी गिरधर
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