आखिरकार राज्य की वसुंधरा राजे सरकार ने राजपूतों की मांग मान ही ली। अब सरकार एनकाउंटर में मारे गए आनंदपाल के मामले की सीबीआई जांच कराने को तैयार हो गई है। अन्य सभी मांगों पर भी सहमति दे दी है। सवाल उठता है कि अगर ये मांगें माननी ही थीं, तो काहे तो आनंदपाल के पार्थिव शरीर की दुर्गति होने दी गई? काहे को इतना लंबा आंदोलन होने दिया गया? काहे को सांवराद में मुठभेड़ और हिंसा की नौबत पैदा होने दी गई? काहे को गृह मंत्री गुलाब चंद कटारिया के उस बयान की किरकिरी करवाई, जिसमें उन्होंने साफ कहा था कि हम तो सीबीआई की जांच नहीं करवाएंगे, चाहें तो इसके लिए हाईकोर्ट से आदेश करवा दें?
साफ दिखाई दे रहा है कि इस मामले से निपटने में वसुंधरा राजे के सलाहकार आरंभ से ही गलत दिशा में चल रहे थे। उन्हें अंदाजा ही नहीं था कि पूरा राजपूत समाज इस प्रकार एकजुट हो जाएगा। वे तो यही मान कर चल रहे थे कि राजपूत नेताओं के बीच किसी न किसी तरह से दोफाड़ कर दी जाएगी और आंदोलन टांय टांय फिस्स हो जाएगा। राजपूत नेताओं में मतभेद के प्रयास भी हुए, मगर आम राजपूत इतना उग्र हो गया था कि किसी भी नेता की हिम्मत नहीं हुई कि वह मुख्य धारा से हट सके। सरकार यह सोच कर चल रही थी कि आंदोलन को लंबा करवा कर उसे विफल करवा दिया जाएगा, मगर वह रणनीति भी कामयाब नहीं हो पाई। यह ठीक है कि सांवराद में हुई हिंसा के बाद लागू कफ्र्यू के बीच आनंदपाल के शव का अंतिम संस्कार करवाने में सरकार सफल हो गई, मगर वह भी उलटा पड़ गया। सरकार को यह लगा कि अंतिम संस्कार के बाद आंदोलन की हवा निकल जाएगी, मगर वह अनुमान भी गलत निकला। राजपूतों को यह कहने का मौका मिल गया कि सरकार ने अंत्येष्टि के लिए दमन का सहारा लिया। सोशल मीडिया पर आम राजपूत का गुस्सा फूटने लगा। हालत ये हो गई राजपूत भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के जयपुर दौरे के दौरान बड़ा जमावड़ा करने को आमादा हो गए। सरकार जानती थी कि लाख कोशिशों के बाद भी वह राजपूतों को जयपुर में एकत्रित न होने देने में कामयाब नहीं हो पाएगी। और अगर रोकने के लिए पुलिस का सख्त रवैया अख्तियार किया जाता तो राजपूत अपनी अस्मिता को लेकर और उग्र हो जाता। इसका परिणाम ये होता कि भाजपा का यह परंपरागत वोट बैंक पूरी तरह से छिन्न-भिन्न हो जाता। आखिरकार सरकार को अपना स्टैंड बदल कर यू टर्न लेना पड़ा। इसमें गौर करने वाली बात ये है कि आरंभ से वसुंधरा राजे ने चुप्पी साध रखी थी। काफी दिन तक तो गृहमंत्री कटारिया भी मुखर नहीं हुए। और जब सामने आए तो ऐसे कि मानो उनसे मजबूत राजनेता कोई है ही नहीं। वे साफ तौर पर बोले कि वे अपनी पुलिस का मनोबल नहीं गिरा सकते। सीबीआई जांच की मांग किसी भी सूरत में नहीं मानी जाएगी। राजपूत चाहें तो इसके लिए हाईकोर्ट चले जाएं। उन्होंने ऐसा अहसास कराया, मानो उनके पास राजपूतों को कंट्रोल करने की कोई युक्ति हाथ आ गई है। मगर दो दिन बाद ही उनकी किरकिरी हो गई। उनकी फजीहत तो आनंदपाल के लंबे समय तक न पकड़े जाने के कारण भी होती रही और अब उसकी मृत्यु के बाद भी घुटने टेकने को मजबूर हुए हैं।
आनदंपाल की गिरफ्तारी न हो पाने से लेकर आंदोलन से निपटने तक में पुलिस की नाकामी तो अपनी जगह है ही, सरकार इसके राजनीतिक पहलु को सुलझाने में भी विफल हो गई। कुल मिला कर अब यह साफ हो गया है कि सरकार ने अपना वोट बैंक खत्म हो जाने के डर से सीबीआई की जांच की मांग मानी है।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
साफ दिखाई दे रहा है कि इस मामले से निपटने में वसुंधरा राजे के सलाहकार आरंभ से ही गलत दिशा में चल रहे थे। उन्हें अंदाजा ही नहीं था कि पूरा राजपूत समाज इस प्रकार एकजुट हो जाएगा। वे तो यही मान कर चल रहे थे कि राजपूत नेताओं के बीच किसी न किसी तरह से दोफाड़ कर दी जाएगी और आंदोलन टांय टांय फिस्स हो जाएगा। राजपूत नेताओं में मतभेद के प्रयास भी हुए, मगर आम राजपूत इतना उग्र हो गया था कि किसी भी नेता की हिम्मत नहीं हुई कि वह मुख्य धारा से हट सके। सरकार यह सोच कर चल रही थी कि आंदोलन को लंबा करवा कर उसे विफल करवा दिया जाएगा, मगर वह रणनीति भी कामयाब नहीं हो पाई। यह ठीक है कि सांवराद में हुई हिंसा के बाद लागू कफ्र्यू के बीच आनंदपाल के शव का अंतिम संस्कार करवाने में सरकार सफल हो गई, मगर वह भी उलटा पड़ गया। सरकार को यह लगा कि अंतिम संस्कार के बाद आंदोलन की हवा निकल जाएगी, मगर वह अनुमान भी गलत निकला। राजपूतों को यह कहने का मौका मिल गया कि सरकार ने अंत्येष्टि के लिए दमन का सहारा लिया। सोशल मीडिया पर आम राजपूत का गुस्सा फूटने लगा। हालत ये हो गई राजपूत भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के जयपुर दौरे के दौरान बड़ा जमावड़ा करने को आमादा हो गए। सरकार जानती थी कि लाख कोशिशों के बाद भी वह राजपूतों को जयपुर में एकत्रित न होने देने में कामयाब नहीं हो पाएगी। और अगर रोकने के लिए पुलिस का सख्त रवैया अख्तियार किया जाता तो राजपूत अपनी अस्मिता को लेकर और उग्र हो जाता। इसका परिणाम ये होता कि भाजपा का यह परंपरागत वोट बैंक पूरी तरह से छिन्न-भिन्न हो जाता। आखिरकार सरकार को अपना स्टैंड बदल कर यू टर्न लेना पड़ा। इसमें गौर करने वाली बात ये है कि आरंभ से वसुंधरा राजे ने चुप्पी साध रखी थी। काफी दिन तक तो गृहमंत्री कटारिया भी मुखर नहीं हुए। और जब सामने आए तो ऐसे कि मानो उनसे मजबूत राजनेता कोई है ही नहीं। वे साफ तौर पर बोले कि वे अपनी पुलिस का मनोबल नहीं गिरा सकते। सीबीआई जांच की मांग किसी भी सूरत में नहीं मानी जाएगी। राजपूत चाहें तो इसके लिए हाईकोर्ट चले जाएं। उन्होंने ऐसा अहसास कराया, मानो उनके पास राजपूतों को कंट्रोल करने की कोई युक्ति हाथ आ गई है। मगर दो दिन बाद ही उनकी किरकिरी हो गई। उनकी फजीहत तो आनंदपाल के लंबे समय तक न पकड़े जाने के कारण भी होती रही और अब उसकी मृत्यु के बाद भी घुटने टेकने को मजबूर हुए हैं।
आनदंपाल की गिरफ्तारी न हो पाने से लेकर आंदोलन से निपटने तक में पुलिस की नाकामी तो अपनी जगह है ही, सरकार इसके राजनीतिक पहलु को सुलझाने में भी विफल हो गई। कुल मिला कर अब यह साफ हो गया है कि सरकार ने अपना वोट बैंक खत्म हो जाने के डर से सीबीआई की जांच की मांग मानी है।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
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