बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने एक बार फिर यह स्थापित कर दिया है कि राजनीति अब सिद्धांत विहीन होती जा रही है। सत्ता की खातिर कुछ भी किया जा सकता है। कैसी विडंबना है कि सांप्रदायिकता के नाम पर जिन को पानी पी-पी कर कोसा और सत्ता भी हासिल की, उन्हीं से हाथ मिला लिया। हालांकि उन्होंने लालू से नाता तोड़ कर ये संदेश देने की कोशिश की है कि वे भ्रष्टाचार के साथ कोई समझौता नहीं कर सकते, मगर सांप्रदायिकता के जिस मुद्दे को लेकर भाजपा से पुराना नाता तोड़ा, आज उसी से गलबहियां कर रहे हैं, तो यह भी तो संदेश जा रहा है कि सत्ता की खातिर आप जमीर व जनभावना को भी ताक पर रख सकते हैं। केवल इतना ही क्यों, जब आपने भाजपा का साथ छोड़ कर लालू का हाथ पकड़ा था, तब भी चारा घोटाले में उन्हें सजा सुनाई जा चुकी थी, मगर चूंकि आपको जीत का जातीय समीकरण समझ आ गया था, इस कारण उस वक्त भ्रष्टाचार के साथ समझौता करने में जरा भी देर नहीं की। यानि की आपका मकसद केवल सत्ता हासिल करना है, जब जो अनुकूल लगे, उसके साथ। न आपको सांप्रदायिकता से परहेज है और न ही भ्रष्टाचार से।
और सबसे बड़ा सवाल ये कि जिस जनता का वोट आपने सांप्रदायिकता के खिलाफ बोल कर हासिल किया, उसके प्रति भी आपकी कोई जिम्मेदारी बनती है या नहीं। इन सबसे अफसोसनाक पहलु ये है कि जो नरेन्द्र मोदी लोकतंत्र का भारी समर्थन पा चुके हैं, वे लोकतांत्रिक मूल्यों की पुनस्र्थापना करने की बजाय लोकतांत्रिक अनैतिकता को खुले आम बढ़ावा दे रहे हैं।
यह ठीक है कि तेजस्वी यादव पर कानूनी शिकंजा कसने के बाद उनके पास लालू यादव के साथ रहना मुश्किल हो रहा था, ऐसे में इस्तीफा दे कर उन्होंने भ्रष्टाचार के खिलाफ एक अच्छा संदेश दिया, मगर उनकी अंतरआत्मा की आवाज व नैतिकता तभी स्थापित हो सकती थी, जबकि वे विपक्ष में बैठने को राजी हो जाते। यदि आपने सत्ता और केवल सत्ता को ही ख्याल में रखा है, तो भ्रष्टाचार और सिद्धांत परिवर्तन में क्या अंतर है? एक आर्थिक भ्रष्टाचार है तो दूसरा नैतिक भ्रष्टाचार। यदि आप अपना जमीर बेच रहे हैं तो आप भी भ्रष्टाचारी हैं।
हां, इतना जरूर है कि उन्होंने अपने आपको एक चतुर राजनीतिज्ञ साबित कर दिया है। वो ऐसे कि यदि अचानक इस्तीफा दे कर सत्ता के गणित को नहीं बदलते तो खुद उनकी ही पार्टी में सेंध पडऩे वाली थी। तेजस्वी यादव के समर्थक जेडीयू विधायक उनके खिलाफ कुछ भी सुनने को तैयार नहीं थे। जेडीयू में ऐसे विधायकों की संख्या करीब डेढ़ दर्जन बतायी जा रही है। इनमें से ज्यादातर यादव और मुस्लिम विधायक हैं। इसके अतिरिक्त उनके खुद के विधायक भी तेजस्वी के साथ जाने को तैयार थे। यानि कि तेजस्वी को हटाने की हिम्मत तो उनकी थी ही नहीं। जैसे ही वे उन्हें हटाते तेजस्वी सहानुभूति का फायदा उठाते और सारा गणित उलटा पड़ जाता।
खैर, अब जबकि नीतीश की कथित सुशासन बाबू की छवि और लालू के जातीय गणित की संयुक्त ढ़ाल तोड़ कर भाजपा ने बिहार में सेंध लगा दी है, वहां नई कुश्ती शुरू होगी। फिलहाल भले ही नीतीश ने कुर्सी बचा ली हो, मगर अगले चुनाव में उनको अपना खुद का जनाधार कायम रखना मुश्किल होगा। और अगर भाजपा कोई बहुत बड़ा ख्वाब देख रही है तो फिलहाल तो ये हवाई किला ही होगा, क्योंकि उसके पास मोदी लहर के अलावा कोई और बड़ा वजूद नहीं है, जो कि अगले चुनाव तक कितनी बाकी रहती है, कुछ नहीं कहा जा सकता।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
और सबसे बड़ा सवाल ये कि जिस जनता का वोट आपने सांप्रदायिकता के खिलाफ बोल कर हासिल किया, उसके प्रति भी आपकी कोई जिम्मेदारी बनती है या नहीं। इन सबसे अफसोसनाक पहलु ये है कि जो नरेन्द्र मोदी लोकतंत्र का भारी समर्थन पा चुके हैं, वे लोकतांत्रिक मूल्यों की पुनस्र्थापना करने की बजाय लोकतांत्रिक अनैतिकता को खुले आम बढ़ावा दे रहे हैं।
यह ठीक है कि तेजस्वी यादव पर कानूनी शिकंजा कसने के बाद उनके पास लालू यादव के साथ रहना मुश्किल हो रहा था, ऐसे में इस्तीफा दे कर उन्होंने भ्रष्टाचार के खिलाफ एक अच्छा संदेश दिया, मगर उनकी अंतरआत्मा की आवाज व नैतिकता तभी स्थापित हो सकती थी, जबकि वे विपक्ष में बैठने को राजी हो जाते। यदि आपने सत्ता और केवल सत्ता को ही ख्याल में रखा है, तो भ्रष्टाचार और सिद्धांत परिवर्तन में क्या अंतर है? एक आर्थिक भ्रष्टाचार है तो दूसरा नैतिक भ्रष्टाचार। यदि आप अपना जमीर बेच रहे हैं तो आप भी भ्रष्टाचारी हैं।
हां, इतना जरूर है कि उन्होंने अपने आपको एक चतुर राजनीतिज्ञ साबित कर दिया है। वो ऐसे कि यदि अचानक इस्तीफा दे कर सत्ता के गणित को नहीं बदलते तो खुद उनकी ही पार्टी में सेंध पडऩे वाली थी। तेजस्वी यादव के समर्थक जेडीयू विधायक उनके खिलाफ कुछ भी सुनने को तैयार नहीं थे। जेडीयू में ऐसे विधायकों की संख्या करीब डेढ़ दर्जन बतायी जा रही है। इनमें से ज्यादातर यादव और मुस्लिम विधायक हैं। इसके अतिरिक्त उनके खुद के विधायक भी तेजस्वी के साथ जाने को तैयार थे। यानि कि तेजस्वी को हटाने की हिम्मत तो उनकी थी ही नहीं। जैसे ही वे उन्हें हटाते तेजस्वी सहानुभूति का फायदा उठाते और सारा गणित उलटा पड़ जाता।
खैर, अब जबकि नीतीश की कथित सुशासन बाबू की छवि और लालू के जातीय गणित की संयुक्त ढ़ाल तोड़ कर भाजपा ने बिहार में सेंध लगा दी है, वहां नई कुश्ती शुरू होगी। फिलहाल भले ही नीतीश ने कुर्सी बचा ली हो, मगर अगले चुनाव में उनको अपना खुद का जनाधार कायम रखना मुश्किल होगा। और अगर भाजपा कोई बहुत बड़ा ख्वाब देख रही है तो फिलहाल तो ये हवाई किला ही होगा, क्योंकि उसके पास मोदी लहर के अलावा कोई और बड़ा वजूद नहीं है, जो कि अगले चुनाव तक कितनी बाकी रहती है, कुछ नहीं कहा जा सकता।
-तेजवानी गिरधर
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