यद्यपि नरेंद्र मोदी ने अपने बलबूते पर गुजरात में भाजपा की हैट्रिक बनाने का कीर्तिमान स्थापित कर अपना कद बढ़ा लिया है, मगर इसे उनकी राष्ट्रीय छवि कायम हो जाने का अर्थ निकालना एक अर्धसत्य है। भले ही गुजरात में मुस्लिम बहुल इलाकों में भाजपा की जीत होने को इस अर्थ में भुनाने की कोशिश की जा रही हो कि मुस्लिमों में भी उनकी स्वीकार्यता बढ़ी है, मगर धरातल का सच ये है कि गुजरात में उनके मुख्यमंत्रित्व काल में हुआ नरसंहार उनका कभी पीछा नहीं छोड़ेगा।
असल में भाजपा इन दिनों नेतृत्व के संकट से गुजर रही है। उसमें प्रधानमंत्री पद के एकाधिक दावेदार हैं। भाजपा कार्यकर्ताओं को उनमें से सर्वाधिक दमदार चेहरा मोदी का ही नजर आता है, जो कि है भी। एक तो वे तगड़े जनाधार वाले नेता हैं, दूसरा अपनी बात को दमदार तरीके से कहने का उनमें माद्दा है। उनमें झलकती अटल बिहारी वाजपेयी जैसी भाषा शैली श्रोताओं को सहज ही आकर्षित करती है। इसके अतिरिक्त विकास पुरुष के रूप में उनका सफल प्रोजेक्शन यह संकेत देता है कि वे देश के लिए भी रोल मॉडल हो सकते हैं। इन सभी कारणों के चलते पूरे हिंदीभाषी राज्यों के कार्यकर्ताओं में वे एक सर्वाधिक सशक्त रूप में उभर कर आए हैं। आज भाजपा का छोटा से छोटा कार्यकर्ता भी उनमें प्रधानमंत्री होने का सपना साकार होते हुए देख रहा है। इसी कड़ी में मोदी के शपथ ग्रहण समारोह में मौजूद विभिन्न पार्टियों के दिग्गज नेताओं को देख कर मीडिया को भी लगा कि बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और उनकी पार्टी जेडीयू को छोड का पूरा एनडीए मोदी के साथ है और उसे मोदी के भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री पद की दावेदारी किए जाने पर ऐतराज नहीं करेगा। मगर धरातल का सच कुछ और है। एक तो प्रधानमंत्री पद के अन्य दावेदार उन्हें आगे नहीं आने देंगे। दूसरा बात जब एनडीए तक आएगी, तब नीतीश कुमार तो अलग होंगे ही अन्य दलों को भी असहजता हो सकती है। शपथ ग्रहण समारोह में औपचरिक रूप से उपस्थित होने और खुल कर समर्थन करने में काफी अंतर है। उड़ीसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक की बात करें तो वे कहने भर को मोदी के विरोध में नहीं हैं, मगर मोदी के साथ खड़े होने से पहले नफा-नुकसान आकलन कर लेना चाहेंगे। इसी प्रकार यूपीए अलग हुई बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी भी मुस्लिम वोटों के जनाधार को खोने का जोखिम नहीं उठा सकतीं। ऐसे में यह कल्पना एक आधा सच ही है कि मोदी गुजरात की तरह राष्ट्रीय स्तर पर भी स्वीकार्य होंगे।
इस बीच चर्चा ये है कि गुजरात में जिस मंत्र की बदोलत वे जीते हैं, उसे आजमाने के लिए मोदी को इलेक्शन कैंपेन कमेटी का प्रभारी नियुक्त किया जा सकता है, मगर इसे प्रधानमंत्री पद का दावेदार होने के रूप में लेना एक भ्रम मात्र है।
बेशक मोदी का पक्ष लेने वाले लोगों का कहना है कि गुजरात की सत्ता में हैट्रिक लगाना अपने आप में ही किसी करिश्मे से कम नहीं है, मोदी ने ऐसा करके राष्ट्रीय राजनीति में मजबूती के साथ कदम रख दिया है और भाजपा की द्वितीय पीढ़ी में मोदी ही ऐसे एकमात्र नेता हैं जिनमें अपनी पार्टी के अलावा गठबंधन के सहयोगी दलों को भी नेतृत्व प्रदान करने की क्षमता है, मगर इस सच को भी इंकार नहीं किया जा सकता कि मोदी की स्वीकार्यता अलबत्ता भाजपा तक ही हो सकती है लेकिन सहयोगी दलों में उनके खिलाफ काफी रोष का माहौल है। गुजरात दंगों के दाग से मोदी का मुक्त होना नितांत असंभव है और उन पर सांप्रदायिकता के आरोप पुख्ता तौर पर लगाए जा सकते हैं।
लब्बोलुआब मोदी भाजपा में भले ही दमदार ढंग़ से उभर आए हों, मगर भावी प्रधानमंत्री के रूप में मोदी के नाम को स्वीकार किया जाना बेहद मुश्किल होगा।
राहुल बनाम मोदी में कितना सच?
मोदी की गुजरात में जीत से पहले ही यह जुमला आम हो गया था कि आगामी लोकसभा चुनाव इन दोनों के बीच होगा। यहां तक कि विदेशी पत्रिकाओं का भी यही आकलन है कि टक्कर तो इन दोनों के बीच ही होगी। इस सिलसिले में दोनों की विभिन्न पहलुओं से तुलना करन से कदाचित कुछ निष्कर्ष निकल कर आए।
जहां तक राहुल का सवाल है उपाध्यक्ष घोषित किए जाने के बाद वे जो चाहेंगे कांग्रेस में वही होगा। उन्हें पार्टी में कोई चुनौती देने वाला नहीं है। इसके विपरीत मोदी से यह उम्मीद करना कि जो वे चाहेंगे वहीं होगा, बेमानी होगा। पार्टी के कई नेता ही उनके पक्ष में नहीं हैं। इसके अतिरिक्त राहुल अपनी युवा टीम के सहयोग से जहां युवा मतदाताओं को आकर्षित कर सकते हैं, वहीं मोदी का कट्टरवादी चेहरा हिंदूवादी वोटों को आसानी से अपनी ओर खींच सकता है। एक ओर जहां यूपीए में राहुल की स्वीकार्यता को लेकर कोई दिक्कत नहीं नजर आती, वहीं मोदी के मामले में एनडीए के घटक आपत्ति कर सकते हैं। इसी प्रकार धरातल पर जहां राहुल के साथ गांधी-नेहरू खानदान का वर्षों पुराना जनाधार है, वहीं चाहे विकास के नाम से चाहे हिंदुत्व के नाम से, एक बड़ा वर्ग उनके साथ है। व्यक्तित्व की बात करे तो राहुल मोदी के सामने काफी फीके पड़ते हैं। राहुल न तो राष्ट्रीय मुद्दों पर खुल कर बोलते हैं और न ही कुशल वक्ता, जबकि मोदी आक्रामक तेवर वाले नेता हैं। शब्दों के चयन से लेकर वेशभूषा और बोलने के स्टाइल से ही वह खुद को दबंग नेता के रूप में साबित कर चुके हैं। ऐसे में देखने वाली बात ये होगी कि क्या भाजपा कांग्रेस की ओर घोषित प्रधानमंत्री पद के दावेदार राहुल के सामने मोदी को दंगल में उतारती है या नहीं?
-तेजवानी गिरधर