सारे राजनीतिज्ञों को पानी-पानी पी कर कोसने वाले, पूरे राजनीतिक तंत्र को भ्रष्ट बताने वाले और मौजूदा सरकार को काले अंग्रेजों की सरकार बताने वाले गांधीवादी नेता अन्ना हजारे की अक्ल ठिकाने आ ही गई। वे समझ गए हैं कि यदि उन्हें अपनी पसंद का लोकपाल बिल पास करवाना है तो लोकतंत्र में एक ही रास्ता है कि राजनीतिकों का सहयोग लिया जाए। जंतर-मंतर पर अनशन करने से माहौल जरूर बनाया जा सकता है, लेकिन कानून जंतर-मंतर पर नहीं, बल्कि संसद में ही बनाया जा सकेगा। कल जब ये कहा जा रहा था कि कानून तो लोकतांत्रिक तरीके से चुने हुए जनप्रतिनिधि ही बनाएंगे, खुद को जनता का असली प्रतिनिधि बताने वाले महज पांच लोग नहीं, तो उन्हें बड़ा बुरा लगता था, मगर अब उन्हें समझ में आ गया है कि अनशन और आंदोलन करके माहौल और दबाव तो बनाया जा सकता है, वह उचित भी है, मगर कानून तो वे ही बनाने का अधिकार रखते हैं, जिन्हें वे बड़े ही नफरत के भाव से देखते हैं। इस कारण अब वे उन्हीं राजनीतिज्ञों के देवरे ढोक रहे हैं, जिन्हें वे सिरे से खारिज कर चुके थे। आपको याद होगा कि अपने-आपको पाक साफ साबित करने के लिए उन्हें समर्थन देने को आए राजनेताओं को उनके समर्थकों ने धक्के देकर बाहर निकाल दिया था। मगर आज हालत ये हो गई है कि समर्थन हासिल करने के लिए राजनेताओं से अपाइंटमेंट लेकर उनको समझा रहे हैं कि उनका लोकपाल बिल कैसे बेहतर है?
इतना ही नहीं, जनता के इस सबसे बड़े हमदर्द की हालत देखिए कि कल तक वे जनता को मालिक और चुने हुए प्रतिनिधियों को जनता का नौकर करार दे रहे थे, आज उन्हीं नौकरों की दहलीज पर मालिकों के सरदार सिर झुका रहे हैं। तभी तो कहते है कि राजनीति इतनी कुत्ती चीज है कि आदमी जिसका मुंह भी देखना पसंद करता, उसी का पिछवाड़ा देखना पड़ जाता है। ये कहावत भी सार्थक होती दिखाई दे रही है कि वक्त पडऩे पर गधे को भी बाप बनाना पड़ता है।
आइये, अब तस्वीर का एक और रुख देख लें। जाहिर सी बात है कि विपक्षी नेताओं से मिलने के पीछे अन्ना का मकसद ये है कि यदि उनका सहयोग मिल गया संसद में उनकी आवाज और बुलंदी के साथ उठेगी। मगर अन्ना जी गलतफहमी में हैं। माना कि सरकार को अस्थिर करने के लिए, कांग्रेस के खिलाफ माहौल बनाने के लिए विपक्षी नेता अन्ना को चने के झाड़ पर चढ़ा रहे हैं, मगर जब बात सांसदों को लोकपाल के दायरे में लाने की आएगी तो भला कौन अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारेगा। यह तो गनीमत है कि अन्ना जी जिस मुहिम को चला रहे हैं, उसकी वजह से उनकी जनता में इज्जत है, वरना वे ही राजनीतिज्ञ बदले में उनको भी दुत्कार कर भगा सकते थे कि पहले सभी को गाली देते थे, अब हमारे पास क्यों आए हो?
जरा अन्ना की भाषा और शैली पर भी चर्चा कर लें। सभी सियासी लोगों को भ्रष्ट बताने वाले अन्ना हजारे खुद को ऐसे समझ रहे हैं कि वे तो जमीन से दो फीट ऊपर हैं। माना कि सरकार के मंत्री समूह से लोकपाल बिल के मसौदे पर मतभेद है, मगर इसका अर्थ ये भी नहीं कि आप चाहे जिसे जिस तरह से दुत्कार दें। खुद को गांधीवादी मानने वाले और मौजूदा दौर का महात्मा गांधी बताए जाने पर फूल कर कुप्पा होने वाले अन्ना हजारे को क्या ये ख्याल है कि गांधीजी कभी घटिया भाषा का इस्तेमाल नहीं करते थे। उनके सत्य-आग्रह में भाषा का संयम भी था। यदि कभी संयम खोया भी होगा तो उनकी मुहिम अंग्रेजों के खिलाफ थी, इस कारण उसे जायज ठहराया जाता सकता है। मगर अन्ना ने तो मौजूदा सरकार को काले अंग्रेजों की ही सरकार बता दिया। ऐसा कह के उन्होंने अनजाने में पूरी जनता को काले अंग्रेज करार दे दिया है। जब ये सरकार हमारी है और हमने ही बनाई है तो इसका मतलब ये हुआ कि हम सब भी काले अंग्रेज हैं। मौजूदा सरकार कोई ब्रिटेन से नहीं आई है, हमने ही लोकतांत्रिक तरीके से चुनी है। हम पर थोपी हुई नहीं है। कल हमें पसंद नहीं आएगी तो हम दूसरों को मौका दे देंगे। पहले भी दे ही चुके हैं। सरकार से मतभेद तो हो सकता है, मगर उसके चलते उसे अंगे्रज करार देना साबित करता है कि अन्ना दंभ में आ कर भाषा का संयम भी खो बैठे हैं। असल बात तो ये है कि वे दूसरी आजादी के नाम पर जाने-अनजाने देश में अराजकता का माहौल बना रहे हैं।
वे पहले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को ईमानदार बता कर इज्जत दे रहे थे, मगर अब जब बात नहीं बनी तो उन्हें ही सोनिया की कठपुतली करार दे रहे हैं। हालांकि यह सर्वविदित है कि सरकार का रिमोट कंट्रोल सत्तारुढ़ संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की अध्यक्ष सोनिया गांधी के हाथ में है, उसमें ऐतराज भी क्या है, फिर गठबंधन का अध्यक्ष होने का मतलब ही क्या है, मगर अन्ना को अब जा कर समझ में आया है। तभी तो कह रहे हैं कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह तो सीधे और ईमानदार आदमी हैं लेकिन रिमोट कंट्रोल (सोनिया गांधी) समस्याएं पैदा कर रहा है। कल उन्हें आरएसएस का मुखौटा बताए जाने पर सोनिया से ही उम्मीद कर रहे थे कि वह कांग्रेसियों को ऐसा कहने से रोकें और आज उसी सोनिया से नाउम्मीद हो गए।
बहरहाल, मुद्दा ये है कि उन्हें अपना ड्राफ्ट किया हुआ लोकपाल बिल ज्यादा अच्छा लगता है, और हो भी सकता है कि वही अच्छा हो, मगर उसे तय तो संसद ही करेगी। कम से कम अन्ना एंड कंपनी तो नहीं। यदि संसद नहीं मानती तो उसका कोई चारा नहीं है। ऐसे में यदि वे 16 अगस्त से फिर अनशन करते हैं तो वह संसद के खिलाफ कहलाएगा। सरकार की ओर से तो इशारा भी कर दिया गया है। उनके अनशन के हश्र पर ही टिप्पणियां आने लगी हैं। खैर, आगे-आगे देखिए होता है क्या?
आखिर में एक बात और। जब भी इस प्रकार अन्ना अथवा बाबा के बारे में तर्कपूर्ण आलोचना की जाती है तो उनके समर्थकों को बहुत मिर्ची लगती है। उन्हें लगता है कि लिखने वाला या तो कांग्रेसी है या फिर भ्रष्टाचार का समर्थक या फिर देशद्रोही। जिस मीडिया के सहारे आज देश में हलचल पैदा करने की स्थिति में आए हैं, उसी मीडिया को वे बिका हुआ कहने से भी नहीं चूकते। ऐसा प्रतीता होता कि अब केवल अन्ना व बाबा के समर्थक ही देशभक्त रह गए हैं। उनसे वैचारिक नाइत्तफाक रखने वालों को देश से कोई लेना-देना नहीं है।
-तेजवानी गिरधर, अजमेर
इतना ही नहीं, जनता के इस सबसे बड़े हमदर्द की हालत देखिए कि कल तक वे जनता को मालिक और चुने हुए प्रतिनिधियों को जनता का नौकर करार दे रहे थे, आज उन्हीं नौकरों की दहलीज पर मालिकों के सरदार सिर झुका रहे हैं। तभी तो कहते है कि राजनीति इतनी कुत्ती चीज है कि आदमी जिसका मुंह भी देखना पसंद करता, उसी का पिछवाड़ा देखना पड़ जाता है। ये कहावत भी सार्थक होती दिखाई दे रही है कि वक्त पडऩे पर गधे को भी बाप बनाना पड़ता है।
आइये, अब तस्वीर का एक और रुख देख लें। जाहिर सी बात है कि विपक्षी नेताओं से मिलने के पीछे अन्ना का मकसद ये है कि यदि उनका सहयोग मिल गया संसद में उनकी आवाज और बुलंदी के साथ उठेगी। मगर अन्ना जी गलतफहमी में हैं। माना कि सरकार को अस्थिर करने के लिए, कांग्रेस के खिलाफ माहौल बनाने के लिए विपक्षी नेता अन्ना को चने के झाड़ पर चढ़ा रहे हैं, मगर जब बात सांसदों को लोकपाल के दायरे में लाने की आएगी तो भला कौन अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारेगा। यह तो गनीमत है कि अन्ना जी जिस मुहिम को चला रहे हैं, उसकी वजह से उनकी जनता में इज्जत है, वरना वे ही राजनीतिज्ञ बदले में उनको भी दुत्कार कर भगा सकते थे कि पहले सभी को गाली देते थे, अब हमारे पास क्यों आए हो?
जरा अन्ना की भाषा और शैली पर भी चर्चा कर लें। सभी सियासी लोगों को भ्रष्ट बताने वाले अन्ना हजारे खुद को ऐसे समझ रहे हैं कि वे तो जमीन से दो फीट ऊपर हैं। माना कि सरकार के मंत्री समूह से लोकपाल बिल के मसौदे पर मतभेद है, मगर इसका अर्थ ये भी नहीं कि आप चाहे जिसे जिस तरह से दुत्कार दें। खुद को गांधीवादी मानने वाले और मौजूदा दौर का महात्मा गांधी बताए जाने पर फूल कर कुप्पा होने वाले अन्ना हजारे को क्या ये ख्याल है कि गांधीजी कभी घटिया भाषा का इस्तेमाल नहीं करते थे। उनके सत्य-आग्रह में भाषा का संयम भी था। यदि कभी संयम खोया भी होगा तो उनकी मुहिम अंग्रेजों के खिलाफ थी, इस कारण उसे जायज ठहराया जाता सकता है। मगर अन्ना ने तो मौजूदा सरकार को काले अंग्रेजों की ही सरकार बता दिया। ऐसा कह के उन्होंने अनजाने में पूरी जनता को काले अंग्रेज करार दे दिया है। जब ये सरकार हमारी है और हमने ही बनाई है तो इसका मतलब ये हुआ कि हम सब भी काले अंग्रेज हैं। मौजूदा सरकार कोई ब्रिटेन से नहीं आई है, हमने ही लोकतांत्रिक तरीके से चुनी है। हम पर थोपी हुई नहीं है। कल हमें पसंद नहीं आएगी तो हम दूसरों को मौका दे देंगे। पहले भी दे ही चुके हैं। सरकार से मतभेद तो हो सकता है, मगर उसके चलते उसे अंगे्रज करार देना साबित करता है कि अन्ना दंभ में आ कर भाषा का संयम भी खो बैठे हैं। असल बात तो ये है कि वे दूसरी आजादी के नाम पर जाने-अनजाने देश में अराजकता का माहौल बना रहे हैं।
वे पहले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को ईमानदार बता कर इज्जत दे रहे थे, मगर अब जब बात नहीं बनी तो उन्हें ही सोनिया की कठपुतली करार दे रहे हैं। हालांकि यह सर्वविदित है कि सरकार का रिमोट कंट्रोल सत्तारुढ़ संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की अध्यक्ष सोनिया गांधी के हाथ में है, उसमें ऐतराज भी क्या है, फिर गठबंधन का अध्यक्ष होने का मतलब ही क्या है, मगर अन्ना को अब जा कर समझ में आया है। तभी तो कह रहे हैं कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह तो सीधे और ईमानदार आदमी हैं लेकिन रिमोट कंट्रोल (सोनिया गांधी) समस्याएं पैदा कर रहा है। कल उन्हें आरएसएस का मुखौटा बताए जाने पर सोनिया से ही उम्मीद कर रहे थे कि वह कांग्रेसियों को ऐसा कहने से रोकें और आज उसी सोनिया से नाउम्मीद हो गए।
बहरहाल, मुद्दा ये है कि उन्हें अपना ड्राफ्ट किया हुआ लोकपाल बिल ज्यादा अच्छा लगता है, और हो भी सकता है कि वही अच्छा हो, मगर उसे तय तो संसद ही करेगी। कम से कम अन्ना एंड कंपनी तो नहीं। यदि संसद नहीं मानती तो उसका कोई चारा नहीं है। ऐसे में यदि वे 16 अगस्त से फिर अनशन करते हैं तो वह संसद के खिलाफ कहलाएगा। सरकार की ओर से तो इशारा भी कर दिया गया है। उनके अनशन के हश्र पर ही टिप्पणियां आने लगी हैं। खैर, आगे-आगे देखिए होता है क्या?
आखिर में एक बात और। जब भी इस प्रकार अन्ना अथवा बाबा के बारे में तर्कपूर्ण आलोचना की जाती है तो उनके समर्थकों को बहुत मिर्ची लगती है। उन्हें लगता है कि लिखने वाला या तो कांग्रेसी है या फिर भ्रष्टाचार का समर्थक या फिर देशद्रोही। जिस मीडिया के सहारे आज देश में हलचल पैदा करने की स्थिति में आए हैं, उसी मीडिया को वे बिका हुआ कहने से भी नहीं चूकते। ऐसा प्रतीता होता कि अब केवल अन्ना व बाबा के समर्थक ही देशभक्त रह गए हैं। उनसे वैचारिक नाइत्तफाक रखने वालों को देश से कोई लेना-देना नहीं है।
-तेजवानी गिरधर, अजमेर
chashmaa badlo jantaa kee socho
जवाब देंहटाएंजब भी इस प्रकार अन्ना अथवा बाबा के बारे में तर्कपूर्ण आलोचना की जाती है तो उनके समर्थकों को बहुत मिर्ची लगती है। उन्हें लगता है कि लिखने वाला या तो कांग्रेसी है या फिर भ्रष्टाचार का समर्थक या फिर देशद्रोही। जिस मीडिया के सहारे आज देश में हलचल पैदा करने की स्थिति में आए हैं, उसी मीडिया को वे बिका हुआ कहने से भी नहीं चूकते। ऐसा प्रतीता होता कि अब केवल अन्ना व बाबा के समर्थक ही देशभक्त रह गए हैं। उनसे वैचारिक नाइत्तफाक रखने वालों को देश से कोई लेना-देना नहीं है।
जवाब देंहटाएंआपके विचारों को तर्क पूवर्क होने के साथ ही सच्चाई करीब लाते हैं. आपके लेख के अंतिम पैराग्राफ ने बहुत प्रभावित किया है.
shailendra srinath-badhiya,vicharottejak,chhoti tippni fir bhi/anna ke kale angej kahne ko sanket me le girdhar ji na ki shabdik roop me.angrejo ke shasan ko aam logo ki chinta nahi thi na inko hai,ve bhi lutate the, bahar bhejte the,ye bhi lut rahe hain aur bahar(aam jan se)bhej rahe hain/ vaise hi doosari aazadi;angrejo jaisi hi hamre apne logon ki chuni hui(jaisa ki aap ka kahna hai) shoshankari,arazak,ajababdeh aur kahna na hoga rog-grasta beemar vyavstha se aazadi.na ki (kale) angrejo se.jahan tak arajakta ka mahaul banane ki baat hai aaj ke mahaul se arajak bhi kuchh hoga yeh aap jaise prabuddha patrakar hi mahshus kar sakte hain anna jaison ki kahan itni kshamta. aur media se hi samarthan aur usi media ko bika hua kahna, shartiya ashobhaniya hai/par duryog se is baazarvadi vyavstha me girdhar ji, nahi pura to aanshik roop se sab to bikau hai fir media ke bika hua kah dene me itani hay tauba kyon/ subhidhaon ki (sarkari ya gair sarkari)chahat bhi aadmi ko bikau hi banati hai/ meri tippani chot pahuchane ke liye nahi lekin agar ....to kshamaprarthi hun/aur anna ke logon ko mirchi.... to logon ko jagruk karna patrakar dharm hai na ki mirchi lagana/
जवाब देंहटाएंbahut sahi kaha aapne.....
जवाब देंहटाएंआपने सिर्फ भड़ास निकाली है...लोगो को उत्तेजित कर रहे हैं,क्योकि सच आपको भी पता है,आपकी हालत खिसियानी बिल्ली खम्भा नोचे जैसी है...लेकिन आपकी ये उलटी गंध नही फैला पाएगी...और उलटो देशभक्त भला ही होगा देश का..!
जवाब देंहटाएंबेनामी महाशय आप तो कायर हैं, जो बिना नाम के टिप्पणी कर रहे हैं, सच कडवा होता है, जो अपको बर्दाश्त नहीं हुआ शायद, भडास तो आपकी कहलाएगी, जो छिप कर वार कर रहे हैं
जवाब देंहटाएंआपने कहा- मौजूदा सरकार कोई ब्रिटेन से नहीं आई है, हमने ही लोकतांत्रिक तरीके से चुनी है। हम पर थोपी हुई नहीं है।
जवाब देंहटाएंमेरा प्रश्न- क्या आपके या मेरे पास यह अधिकार है कि हम सभी चुनावी उम्मीदवारों को नकार सकें? नहीं ना. हमें चंद भ्रष्ट लोगों में से ही किसी एक को चुनना पड़ता है. अन्ना जब लोकपाल में इसे शामिल करने की बात कह रहे हैं तो सरकार को आपत्ति क्यों है? क्या यह प्रावधान देश की जनता को नहीं मिलना चाहिए?
आपने कहा- वे पहले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को ईमानदार बता कर इज्जत दे रहे थे?
मेरा प्रश्न- जिस यूपीए सरकार में इतने घोटाले सामने आ रहे हैं, क्या उनका मुखिया उन चीजों के बारे में नहीं जानता? वे ईमानदार थे, लेकिन अब ऐसा नहीं लगता. वे कहते हैं- हम भी विपक्ष के बहुत से राज जानते हैं. अरे भई, अगर आप जानते हैं तो बताओ. छिपाकर क्यों रखा है? क्या आप विपक्ष को ब्लैकमेल करने के लिए इन शब्दों का इस्तेमाल कर रहे हैं? कृपया ईमानदारी की परिभाषा बताएं?
आपने कहा- बहरहाल, मुद्दा ये है कि उन्हें अपना ड्राफ्ट किया हुआ लोकपाल बिल ज्यादा अच्छा लगता है, और हो भी सकता है कि वही अच्छा हो, मगर उसे तय तो संसद ही करेगी।
मेरा प्रश्न- आप संसद को बड़ा मानते हैं या सांसदों को? यह लड़ाई संसद नहीं बल्कि सांसद लड़ रहे हैं? संसदीय समितियों के सुझाव क्यों नहीं माने जाते? अगर संसद की बात की जाए तो उसमें सभी सांसद शामिल होने चाहिए, न कि सिर्फ सत्तारूढ़ दल के. इस बारे में आप क्या कहना चाहेंगे?
आपके जवाबों का इंतजार रहेगा.
कृपया ई मेल से भी रिप्लाई कर दें.
Aaap jaise logo se swamy se toh koi virodh hota nahi hai aur yadi koi aadami apni baat lok tantrik tarike se bol raha hai toh aap jaise log usi ke peeche padh jate hai. Akhir Anna Hazere ji kya galat baat kah rahe hai. aap he batye
जवाब देंहटाएंसिंह साहब क्या आपको जानकारी है कि किसी को भी वोट न दे कर वोट कास्ट करने का अधिकार अब भी मौजूद है। इस कम शिक्षित देश में उसका इस्तेमाल ही कौन कर रहा है? हालत ये है कि कई लोग तो वोट ही नहीं देते, उन्हें वोट देने के लिए प्रेरित किये जाने की जरूरत है अथवा आवश्यक करने की जरूरत है।
जवाब देंहटाएंआप जो सांसद व संसद के मसले पर कह रहे हैं, यह एक शब्द जाल मात्र है। असल में अन्ना सारे सांसदों को चोर बता कर पूरे लोकतांत्रिक सिस्टम और संसदीय व्यवस्था को नकार देना चाहते हैं। साफ है कि उन्होंने जो मार्ग चुना है वह अराजकता पैदा करने वाला होगा। वे केवल सरकार के खिलाफ ही नहीं बल्कि सारे नेताओं को चोर बता कर नफरत पैदा कर रहे हैं। आपको जानकारी होगी कि अन्ना को बाहर से समर्थन करने वाली भाजपा और उसके नेता आडवाणी ने उनके वक्तव्य की कड़ी आलोचना की थी।
सीधी सी बात है कि अन्ना पूरे देश को नई आजादी के नाम पर अराजकता के मुंह में धकेलना चाहते हैं। वे खुद को गांधीवादी बता कर अनशन कर रहे हैं और अपने समर्थकों को देशभर में हंगामा करने का आव्हान कर रहे हैं। उनके समर्थक अनाप-शनाप बकवास कर रहे हैं। वे कभी भी हिंसक हो सकते हैं। आप क्या चाहते हैं कि देश को दूसरी आजादी के नाम पर हिंसा में धकेल दिया जाए।