तीसरी आंख

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बुधवार, जनवरी 23, 2013

कल्याण सिंह को थूक कर फिर चाट लिया भाजपा ने


भाजपा ने उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह को एक बार फिर थूक कर चाट लिया है। उनकी वापसी बड़े जोर-शोर से हुई है, तभी तो लखनऊ में आयोजित रैली में बीजेपी के अध्यक्ष नितिन गडकरी और राजनाथ सिंह भी शामिल हुए।
ज्ञातव्य है कि कल्याण सिंह की भाजपा में वापसी तीसरी बार हुई है। बेशक 1990 के दशक में कल्याण सिंह का खासा दबदबा था। भाजपा भी काफी मजबूती से उभरी, मगर नेताओं की आपसी खींचतान के चक्कर में कल्याण बाहर हो गए और उसका फायदा समाजवादी पार्टी व बहुजन समाज पार्टी ने उठाया, क्योंकि पिछड़े वर्ग के लोधी वोटों में उन्होंने सेंध मार ली। अब हालत ये है कि लोधी वोट पार्टी से काफी दूर जा चुके हैं। हालत ये है कि कल्याण सिंह की जगह लोधी वोटों को खींचने के लिए पिछले विधानसभा चुनाव में फायर ब्रांड नेता उमा भारती को कमान सौंपी गई, मगर वे भी कुछ नहीं कर पाईं। कहने की जरूरत नहीं है कि ये उमा भारती भी थूक कर चाटी हुई नेता हैं। अब जब कि कल्याण सिंह को फिर से गले लगाया गया है, यह सोचने का विषय है कि क्या अब भी वे कारगर हो सकते हैं? क्या अब भी उनकी लोधी वोटों पर उतनी ही पकड़ है, जितनी पहले हुआ करती थी? यह सवाल इसलिए वाजिब है क्योंकि कल्याण सिंह अपनी अलग पार्टी बनाने के बाद खारिज किए जा चुके हैं।
आइये, जरा समझें कि कल्याण सिंह का सियासी सफर कैसा रहा है।  कल्याण सिंह दो बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रह चुके हैं। उन्होंने साल 1962 में राजनीतिक चिंतक पंडित दीनदयाल उपाध्याय के विचारों से प्रेरित होकर राजनीति में प्रवेश किया। वे 1967, 1969, 1974, 1977, 1985, 1989, 1991, 1993, 1996 और 2002 में यानी दस बार विधायक चुने गए। बीजेपी में रहते हुए वो दो बार 1991 और 1997 में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने। बीजेपी से नाराज होकर कल्याण सिंह ने 1999 में अपने 77वें जन्मदिन पर राष्ट्रीय क्रांति पार्टी नाम से एक नई पार्टी बनाई। साल 2002 का विधानसभा चुनाव बीजेपी और कल्याण ने अलग-अलग लड़ा था। यही वह चुनाव था जहां से उत्तर प्रदेश में बीजेपी का ग्राफ गिरना शुरू हुआ। बीजेपी की सीटों की संख्या 177 से गिरकर 88 हो गई। प्रदेश की 403 सीटों में से 72 सीटों पर कल्याण सिंह की राष्ट्रीय क्रांति पार्टी ने दावेदारी ठोकी थी और इन्हीं सीटों पर बीजेपी को सबसे अधिक नुकसान पहुंचा। नतीजा कल्याण की घर वापसी की कोशिशें शुरू हुईं और 2004 में कल्याण बीजेपी में शामिल हो गए। इसके बाद 2007 में विधानसभा चुनाव में कल्याण की मौजूदगी के बावजूद बीजेपी की हालत में कोई सुधार नहीं हुआ। कल्याण के नेतृत्व में बीजेपी को सिर्फ 51 सीटें हासिल हुईं। 2009 में कल्याण का बीजेपी से फिर मोहभंग हुआ और उन्होंने मुलायम सिंह से दोस्ती कर ली। अपने बेटे राजवीर सिंह को उन्होंने सपा का राष्ट्रीय पदाधिकारी भी बनवा दिया, लेकिन ये दोस्ती भी ज्यादा नहीं टिकी। 2012 में कल्याण ने अपनी एक और पार्टी जन क्रांति पार्टी बना ली। लेकिन यूपी विधानसभा चुनाव 2012 में उनकी पार्टी के हाथ कुछ नहीं लगा। उधर, बीजेपी भी महज 47 सीटों पर सिमट गई।
राजनीतिक जानकारों के मुताबिक कल्याण और बीजेपी की इसी मजबूरी ने इन्हें दोबारा दोस्त बनाया है। कल्याण सियासत की दुनिया में गुमनाम हो चले थे। बीजेपी भी लाख कोशिशों के बावजूद यूपी में तीसरे नंबर पर सरक गई है। ऐसे में उसे यूपी में एक ऐसे चेहरे की जरूरत थी जो लोकसभा चुनाव में पार्टी का नेतृत्व कर सके। उधर कल्याण सिंह के पास भी विकल्प नहीं था। उनकी पार्टी यूपी में अपना आधार नहीं बना सकी। ऐसे में कल्याण सिंह और बीजेपी दोनों को एक-दूसरे की जरूरत है। खास बात ये है कि कल्याण की बीजेपी में वापसी को लेकर फायर ब्रांड नेता उमा भारती काफी सक्रिय रहीं। दोनों नेताओं की जुगलबंदी बीजेपी को यूपी में पुरानी स्थिति में ना सही, एक सम्मानजनक स्थिति में भी ला सकी तो पार्टी का मकसद हल हो जाएगा।
असल में भाजपा जानती है कि उसे अगर लोकसभा चुनाव में सशक्त रूप से उभरना है तो उत्तर प्रदेश पर ध्यान देना ही होगा। हाल ही हुए विधानसभा चुनाव में जरूर कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी कुछ कर नहीं पाए, क्योंकि वोटों का धु्रवीकरण बसपा से सपा की ओर हो गया, मगर अब जब राहुल ने ही कांग्रेस की कमान संभाल ली है तो जाहिर सी बात वे उत्तरप्रदेश पर जरूर ध्यान देंगे और वह कारगर भी हो सकता है। उन्हीं का मुकाबला करने के लिए भाजपा ने खारिज किए जा चुके कल्याण सिंह को गले लगाया है। समझा जाता है कि कांग्रेस व भाजपा की इस नई गतिविधि का कुछ तो असर होगा ही क्योंकि विधानसभा चुनाव के फैक्टर अलग होते हैं, जबकि लोकसभा चुनाव के अलग। लोकसभा चुनाव में मतदाता की सोच राष्ट्रीय हो जाती है। ऐसे में यह देखने वाली बात होगी कि दोनों दल मतदाताओं के अपनी-अपनी ओर कितना खींच पाते हैं।
-तेजवानी गिरधर

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