बताया जा रहा है कि कांग्रेस बलात्कारी को नपुंसक बनाने की सजा देने पर विचार कर रही है। आंदोलनकारियों का एक वर्ग भी यही मांग कर रहा है क्योंकि उसे लगता है कि फांसी की सजा से बेहतर है कि बलात्कारी को तिल-तिल कर मारा जाए। बात ठीक भी लगती है। मगर सवाल ये है कि क्या अधिकतम वर्ष तक की सजा के साथ कैदी को नपुंसक बनाने से अन्य कामुक लोग बलात्कार करने से बाज आएंगे?
असल में जो भी कामांध व्यक्ति बलात्कार करता है, उसे यह तो ख्याल होता ही है कि अगर वह पकड़ा गया तो उसे सजा होगी, मगर वह काम में अंधा होता है तो उसे यह ख्याल में नहीं रहता। जैसे हत्या का आतुर को पता होता है कि उस पर धारा 302 लगेगी, फिर भी हत्या कर डालता है, क्योंकि उस पर हत्या करने का जुनून सवार हो जाता है। तो यदि अगर हम यह सोचते हैं कि बलात्कारी को नपुंसक बनाए जाने की सजा के कारण बलात्कार कम हो जाएंगे, तो यह हमारी भूल ही होगी। रहा सवाल हमारी तरफ से बलात्कारी को कड़ी से कड़ी सजा देने की भावना तो उसकी जरूर पूर्ति हो जाएगी। हमें जरूर इस बात की संतुष्टि हो जाएगी कि हमने बलात्कारी से बदला ले लिया। रहा सवाल उसे नपुंसक बनाने की बात तो जेल में बंद कैदी नपुंसक या उसका पौरुष कायम रहे, उसे कोई फर्क नहीं पड़ता। वैसे भी वह कैद में रह कर कुछ नहीं कर सकता। ऐसे में कड़ी से कड़ी सजा या तो फांसी हो सकती है या फिर मृत्युपर्यंत कैद में रखना।
वैसे इस बारे में विधि विशेषज्ञों का कहना है कि रासायनिक बधियाकरण का उद्देश्य बलात्कार के दोषी के मन में जीवनभर के लिए यह विचार बैठाना होता है कि उसने जो किया वह गलत किया। जीव विज्ञानी मानते हैं कि रासायनिक बधियाकरण फांसी की सजा या आजीवन कारावास से भी खतरनाक सजा है, क्योंकि यह दोषी को मानसिक रूप से परेशान कर देता है। रासायनिक रूप से बधिया किए गए लोग हर पल अपने अपराध के अहसास के साथ जीते हैं। मगर जानकारी ये है कि यह सजा वहां तो कारगर है, जहां अपराध के दोबारा होने की संभावना अधिक होती है, वहीं इस तरीके का इस्तेमाल किया जाता है। जिन लोगों का रासायनिक बधियाकरण किया गया उन्होंने अपने जीवन में दोबारा कभी ऐसा अपराध नहीं किया या यों कह लें कि कर ही नहीं पाए। इसमें भी एक पेच बताया जा रहा है। वो यह कि नामर्द बनाने के लिए पुरुषों को एंटी-एंड्रोजन या फिर गर्भ निरोधक दिया जाता है। इसके लिए साइप्रोटेरोन या डेपा प्रोवेरा नाम की दवा दी जाती है। इस दवा से पुरुष नपुंसक तो नहीं होता, मगर उसकी सैक्स क्षमता और इच्छा कम हो जाती है। इन दवाइयों का असर तीन माह में ही खत्म भी हो जाता है। अर्थात नामर्द बनाए रखने के लिए हर तीन माह में यह दवा देना जरूरी होगा। इस दवा को हर तीन महीने बाद देना राज्य सरकारों की जिम्मेदारी हो जाएगी। जैसा कि जेलों में आलम है, राज्य सरकारें इस मामले में कितनी मुस्तैद रहेंगी, कुछ कहा नहीं जा सकता। और अगर नियमित रूप से दवा दी भी गई तो माना कि कैदी की सैक्स क्षमता कम हो जाएगी, मगर इससे फर्क क्या पड़ता है, क्योंकि कैद में रहते हुए उसकी सैक्स की इच्छा पूर्ति का साधन उपलब्ध होता ही नहीं है। हां, हम मांग करने वालों के दिलों को जरूर ठंडक मिलेगी कि हमने बलात्कारी से बदला ले लिया। बाकी ऐसा होने की उम्मीद कम ही है कि बलात्कार को आतुर वहशी इस प्रकार की सजा के भय से बलात्कार करने का विचार त्याग देगा। वैसे, सच तो ये है कि आंदोलनकारियों का एक वर्ग यह चाहता है कि बलात्कारी का लिंग ही काट दिया जाए, मगर ऐसी सजा का प्रावधान करने से पहले सरकार को हजार बार सोचना होगा।
-तेजवानी गिरधर
असल में जो भी कामांध व्यक्ति बलात्कार करता है, उसे यह तो ख्याल होता ही है कि अगर वह पकड़ा गया तो उसे सजा होगी, मगर वह काम में अंधा होता है तो उसे यह ख्याल में नहीं रहता। जैसे हत्या का आतुर को पता होता है कि उस पर धारा 302 लगेगी, फिर भी हत्या कर डालता है, क्योंकि उस पर हत्या करने का जुनून सवार हो जाता है। तो यदि अगर हम यह सोचते हैं कि बलात्कारी को नपुंसक बनाए जाने की सजा के कारण बलात्कार कम हो जाएंगे, तो यह हमारी भूल ही होगी। रहा सवाल हमारी तरफ से बलात्कारी को कड़ी से कड़ी सजा देने की भावना तो उसकी जरूर पूर्ति हो जाएगी। हमें जरूर इस बात की संतुष्टि हो जाएगी कि हमने बलात्कारी से बदला ले लिया। रहा सवाल उसे नपुंसक बनाने की बात तो जेल में बंद कैदी नपुंसक या उसका पौरुष कायम रहे, उसे कोई फर्क नहीं पड़ता। वैसे भी वह कैद में रह कर कुछ नहीं कर सकता। ऐसे में कड़ी से कड़ी सजा या तो फांसी हो सकती है या फिर मृत्युपर्यंत कैद में रखना।
वैसे इस बारे में विधि विशेषज्ञों का कहना है कि रासायनिक बधियाकरण का उद्देश्य बलात्कार के दोषी के मन में जीवनभर के लिए यह विचार बैठाना होता है कि उसने जो किया वह गलत किया। जीव विज्ञानी मानते हैं कि रासायनिक बधियाकरण फांसी की सजा या आजीवन कारावास से भी खतरनाक सजा है, क्योंकि यह दोषी को मानसिक रूप से परेशान कर देता है। रासायनिक रूप से बधिया किए गए लोग हर पल अपने अपराध के अहसास के साथ जीते हैं। मगर जानकारी ये है कि यह सजा वहां तो कारगर है, जहां अपराध के दोबारा होने की संभावना अधिक होती है, वहीं इस तरीके का इस्तेमाल किया जाता है। जिन लोगों का रासायनिक बधियाकरण किया गया उन्होंने अपने जीवन में दोबारा कभी ऐसा अपराध नहीं किया या यों कह लें कि कर ही नहीं पाए। इसमें भी एक पेच बताया जा रहा है। वो यह कि नामर्द बनाने के लिए पुरुषों को एंटी-एंड्रोजन या फिर गर्भ निरोधक दिया जाता है। इसके लिए साइप्रोटेरोन या डेपा प्रोवेरा नाम की दवा दी जाती है। इस दवा से पुरुष नपुंसक तो नहीं होता, मगर उसकी सैक्स क्षमता और इच्छा कम हो जाती है। इन दवाइयों का असर तीन माह में ही खत्म भी हो जाता है। अर्थात नामर्द बनाए रखने के लिए हर तीन माह में यह दवा देना जरूरी होगा। इस दवा को हर तीन महीने बाद देना राज्य सरकारों की जिम्मेदारी हो जाएगी। जैसा कि जेलों में आलम है, राज्य सरकारें इस मामले में कितनी मुस्तैद रहेंगी, कुछ कहा नहीं जा सकता। और अगर नियमित रूप से दवा दी भी गई तो माना कि कैदी की सैक्स क्षमता कम हो जाएगी, मगर इससे फर्क क्या पड़ता है, क्योंकि कैद में रहते हुए उसकी सैक्स की इच्छा पूर्ति का साधन उपलब्ध होता ही नहीं है। हां, हम मांग करने वालों के दिलों को जरूर ठंडक मिलेगी कि हमने बलात्कारी से बदला ले लिया। बाकी ऐसा होने की उम्मीद कम ही है कि बलात्कार को आतुर वहशी इस प्रकार की सजा के भय से बलात्कार करने का विचार त्याग देगा। वैसे, सच तो ये है कि आंदोलनकारियों का एक वर्ग यह चाहता है कि बलात्कारी का लिंग ही काट दिया जाए, मगर ऐसी सजा का प्रावधान करने से पहले सरकार को हजार बार सोचना होगा।
-तेजवानी गिरधर
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