तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

शुक्रवार, दिसंबर 20, 2013

राज्यमंत्री कैसे स्वीकार कर लिया अरुण चतुर्वेदी ने?

राजस्थान की सत्ता पर काबिज भाजपा के मंत्रीमंडल में पूर्व अध्यक्ष व मौजूदा उपाध्यक्ष अरुण चतुर्वेदी ने एक बार फिर राज्य मंत्री का पद स्वीकार कर सभी को चौंकाया है। इससे पूर्व उनके प्रदेश भाजपा अध्यक्ष वसुंधरा राजे की कार्यकारिणी में उपाध्यक्ष का पद स्वीकार करने पर भी सभी को अचरज हुआ था। पार्टी कार्यकर्ताओं व नेताओं को समझ में ही नहीं आ रहा है कि एक ही किस्म की गलती उन्होंने दुबारा कैसे की? क्या उन्हें अपने पूर्व पद की मर्यादा व गौरव का जरा भी भान नहीं रहा? अपनी पहले ही प्रतिष्ठा का जरा भी ख्याल नहीं किया? क्या वे इतने पदलोलुप हैं कि अध्यक्ष के बाद उपाध्यक्ष बनने और अब मात्र राज्य मंत्री बनने को उतारू थे? ये सारे सवाल भाजपाइयों के जेहन में रह-रह कर उभर रहे हैं।
स्वाभाविक सी बात है कि जो खुद अध्यक्ष पद पर रहा हो, वह राज्य मंत्री पद के लिए राजी होगा तो ये सवाल पैदा होंगे? जब वे पूर्व में उपाध्यक्ष बने थे तो अपुन ने लिखा था कि शायद वे अध्यक्ष पद के लायक थे ही नहीं। गलती से उन्हें अध्यक्ष बना दिया गया, जिसे उन्होंने संघ के दबाव में ढ़ोया, तब उन्होंने व्यक्तिगत रूप से फोन पर जानकारी दी थी कि वे तो पार्टी के एक सिपाही हैं, पार्टी हाईकमान उन्हें जो भी जिम्मेदारी देता है, वह उनको शिरोधार्य है। कदाचित इस बार भी कुछ ऐसा ही हुआ है। 
वैसे आपको बता दें कि पूर्व में उन्हें अध्यक्ष बनाया ही नेता प्रतिपक्ष श्रीमती वसुंधरा को चैक एंड बैलेंस के लिए था, मगर उसमें वे कत्तई कामयाब नहीं हो पाए। वे कहने भर को पार्टी के अध्यक्ष थे, मगर प्रदेश में वसुंधरा की ही तूती बोलती रही। वह भी तब जब कि अधिकतर समय वसुंधरा ने जयपुर से बाहर ही बिताया। चाहे दिल्ली रहीं या लंदन में, पार्टी नेताओं का रिमोट वसुंधरा के हाथ में ही रहा। अधिसंख्य विधायक वसुंधरा के कब्जे में ही रहे। यहां तक कि संगठन के पदाधिकारी भी वसुंधरा से खौफ खाते रहे। परिणाम ये हुआ कि वसुंधरा ने जिस विधायक दल के पद से बमुश्किल इस्तीफा दिया, वह एक साल तक खाली ही रहा। आखिरकार अनुनय-विनय करने पर ही फिर से वसुंधरा ने पद ग्रहण करने को राजी हुई।
कुल मिला कर चतुर्वेदी का राज्य मंत्री बनना स्वीकार करना पार्टी कार्यकर्ताओं गले नहीं उतर रहा, चतुर्वेदी भले ही संतुष्ट हों और उनके पास से तर्क हो कि वे तो पार्टी के सिपाही हैं, पार्टी हाईकमान जहां चाहे उपयोग करे। उनकी इज्जत सिर्फ यह कह बची मानी जा सकती है कि उन्हें स्वतंत्र प्रभार दिया गया है। बहरहाल, जो कुछ भी हो मगर इससे देश की इस दूसरी सबसे बड़ी व पहली सबसे बड़ी कैडर बेस पार्टी में सत्ता की तुलना में संगठन की अहमियत कम होने पर तो सवाल उठते ही हैं।
-तेजवानी गिरधर

शुक्रवार, नवंबर 15, 2013

वाट्स एप व फेसबुक पर आचार संहिता क्यों नहीं?






एक ओर चुनाव आयोग इस बार पेड न्यूज को लेकर कुछ ज्यादा ही सख्त है और इस कारण विभिन्न दलों के प्रत्याशी और प्रिंट व इलैक्ट्रॉनिक मीडिया फूंक फूंक कर कदम रख रहे हैं, वहीं वाट्स एप व फेसबुक पर प्रत्याशियों के विज्ञापन धड़ल्ले से चल रहे हैं, जिन पर आयोग का कोई जोर नजर नहीं आता।
आपको याद होगा कि जैसे ही आयोग ने विज्ञापनों पर खर्च की गई राशि को प्रत्याशी के चुनाव प्रचार खर्च में जोडऩे पर सख्ती दिखाई तो उन्होंने बीच का रास्ता निकाल लिया। मोटी रकम देने वाले प्रत्याशियों का प्रचार करने के लिए न्यूज आइटम दिए जाने लगे, जो कि थे तो प्रत्याशी विशेष का विज्ञापन, मगर न्यूज की शक्ल में। जैसे ही इस घालमेल पर आयोग ने प्रसंज्ञान लिया तो ऐसी पेड न्यूज पर भी सख्ती बरती जाने लगी। बड़े-बड़े समाचार पत्र समूहों व इलैक्ट्रॉनिक मीडिया ने भी पेड न्यूज न छापने की कसमें खाईं। प्रत्याशियों को भी विज्ञापन न देने का बहाना मिल गया। यह बात दीगर है कि बावजूद इसके संपादकों व संवाददाताओं को गुपचुप खुश करने की चर्चा आम है।
खैर, बात चल रही थी विज्ञापनों की। अखबारों व इलैक्ट्रॉनिक मीडिया पर भले ही प्रत्याशियों के विज्ञापन नजर नहीं आ रहे, मगर वाट्स एप व फेसबुक पर विज्ञापनों और उनके दौरों की खबरों व फोटो की भरमार है। बानगी के तौर पर चंद प्रत्याशियों के ऐसे विज्ञापन यहां दिए जा रहे हैं। सवाल उठता है कि क्या आयोग का इस न्यू सोशल मीडिया पर कोई जोर नहीं है? जोर की छोडिय़े, वहां पर तो एक-दूसरे की छीछालेदर धड़ल्ले से की जा रही है। पिछले दिनों अजमेर उत्तर के कांग्रेस प्रत्याशी डॉ. श्रीगोपाल बाहेती का पक्ष लेते हुए जब एक समाज विशेष पर किसी शरारती ने हमला किया तो अखबार संयमित रहे, मगर वाट्स एप पर वह परचा छाया रहा। अब भी छाया हुआ है। यहां तक कि उस पर बहुत ही घटिया टिप्पणियां भड़ास निकालने की जरिया बनी हुई हैं। सवाल ये उठता है कि एक ओर तो प्रशासन ने मार्केट में लगे वे परचे हटवाए और मुकदमा भी दर्ज किया, मगर वाट्स एप के जरिए चलाए जा रहे शब्द बाणों पर उसकी नजर क्यों नहीं है? ऐसा प्रतीत होता है कि इस बारे में आयोग की कोई स्पष्ट नीति नहीं है। यही वजह है कि इस न्यू सोशल मीडिया का जम कर उपयोग किया जा रहा है।
-तेजवानी गिरधर
7742067000

सोमवार, अक्टूबर 21, 2013

नरेन्द्र मोदी की हवा है या ये केवल हौवा है?

पिछले कुछ माह से जिस प्रकार भाजपा ने गुजरात के मुख्यमंत्री को देश के भावी प्रधानमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट किया है और सोशल मीडिया पर जिस तरह से धुंआधार अभियान चलाया जा रहा है, उससे यह तो तय है कि मुद्दा आधारित राजनीति करने वाली भाजपा उनकी हवा चला कर अपनी नैया पर लगाना चाहती है, मगर क्या वाकई उनकी हवा चल पड़ी है या वे केवल हौवा मात्र हैं, इस पर सवाल उठने लगे हैं।
जहां तक खुद भाजपा का सवाल है, उसे तो मोदी हवा क्या कांग्रेस और गांधी परिवार के खिलाफ आंधी ही नजर आ रही है। हर भाजपाई सिर्फ यही सोच कर खुशफहमी में जी रहा है कि इस बार मोदी उनको वैतरणी पार लगा देंगे। इसके लिए सोशल मीडिया पर बाकायदा योजनाबद्ध तरीके से प्रोफेशनल अनेकानेक तरीके से मोदी को राजनीति का नया भगवान स्थापित कर रहे हैं। मोदी के विकास का मॉडल भी धरातल पर उतना वास्तविक नहीं है, जितना की मीडिया और सोशल नेटवर्किंग साइट्स ने खड़ा किया है। इसका बाद में खुलासा भी हुआ। पता लगा कि ट्विटर पर उनकी जितनी फेन्स फॉलोइंग है, उसमें तकरीबन आधे फाल्स हैं। फेसबुक पर ही देख लीजिए। मोदी को प्रधानमंत्री पद का दावेदार बताने वाली पोस्ट बाकायदा योजनाबद्ध तरीके से डाली जाती रही हैं। गौर से देखें तो साफ नजर आता है कि इसके लिए कोई प्रोफेशनल्स बैठाए गए हैं, जिनका कि काम पूरे दिन केवल मोदी को ही प्रोजेक्ट करना है। बाकी कसर भेड़चाल ने पूरी कर दी। हां, इतना जरूर है कि चूंकि भाजपा के पास कोई दमदार चेहरा नहीं है, इस कारण मोदी की थोड़ी सी भी चमक भाजपा कार्यकर्ताओं को कुछ ज्यादा की चमकदार नजर आने लगती है। शाइनिंग इंडिया व लोह पुरुष लाल कृष्ण आडवाणी का बूम फेल हो जाने के बाद यूं भी भाजपाइयों को किसी नए आइकन की जरूरत थी, जिसे कि मोदी के जरिए पूरा करने की कोशिश की जा रही है।
सच तो ये है कि हॉट इश्यू को और अधिक हॉट करने को आतुर इलैक्ट्रानिक मीडिया भी जम कर मजे ले रहा है। भले ही निचले स्तर पर भाजपा के कार्यकर्ता को मोदी में ही पार्टी के तारणहार के दर्शन हो रहे हों, मगर सच ये है कि उन्हें भाजपा नेतृत्व ने जितना प्रोजेक्ट नहीं किया, उससे कहीं गुना अधिक मीडिया ने शोर मचाया है। यह कहना तो उचित नहीं होगा कि वह सोची-समझी चाल के तहत मोदी का साथ दे रहा है, मगर इतना तय है कि उसकी बाजारवादी प्रवृत्ति और टीआरपी बढ़ाने की मुहिम के चलते मोदी एक बम का रूप लेते नजर आ रहे हैं। इस बम में कितना दम है, यह तो आगे आने वाला वक्त ही बताएगा, मगर इसे समझना होगा कि क्या वाकई इस तरह के प्रोजेक्शन इससे पहले धरातल पर खरे उतरे हैं या नहीं। आपको याद होगा कि यह वही मीडिया है, जिसने अन्ना हजारे और बाबा रामदेव में हवा भर कर आसमान की ऊंचाइयों पर पहुंचा दिया था, मगर जल्द ही हवा निकल गई और वे धरातल पर आ गिरे। दिलचस्प बात ये है कि इन दोनों को अवतार बनाने वाले इसी मीडिया ने ही बाद में उनके कपड़े भी उतारने शुरू कर दिए। इससे इलैक्ट्रोनिक मीडिया की फितरत साफ समझ में आती है।
हालांकि ना-नुकर करते-करते अब भाजपा ने औपचारिक रूप से मोदी को प्रधानमंत्री पद के लिए अपना दावेदार घोषित कर दिया है, इससे पहले का सच ये है कि प्रधानमंत्री पद के दावेदारों ने कभी अपनी ओर से यह नहीं कहा कि मोदी भी दावेदार हैं। वे कहने भी क्यों लगे। मीडिया ने ही उनके मुंह में जबरन मोदी का नाम ठूंसा। मीडिया ही सवाल खड़े करता था कि क्या मोदी प्रधानमंत्री पद के दावेदार हैं तो भाजपा नेताओं को मजबूरी में यह कहना ही पड़ता था कि हां, वे प्रधानमंत्री पद के योग्य हैं। इक्का-दुक्का को छोड़ कर अधिसंख्य भाजपा नेताओं ने कभी ये नहीं कहा कि मोदी ही प्रधानमंत्री पद के दावेदार हो सकते हैं। वे यही कहते रहे कि भाजपा में मोदी सहित एकाधिक योग्य दावेदार हो सकते हैं। और इसी को मीडिया ने यह कह कर प्रचारित किया कि मोदी प्रबल दावेदार हैं।
मोदी को भाजपा का आइकन बनाने में मीडिया की कितनी बड़ी भूमिका है, इसका अंदाजा आप इसी बात ये लगा सकते हैं कि हाल ही एक टीवी चैनल पर लाइव बहस में एक वरिष्ठ पत्रकार ने मोदी को अपरिहार्य आंधी कह कर इतनी सुंदर और अलंकार युक्त व्याख्या की, जितनी कि पैनल डिस्कशन में मौजूद भाजपा नेता भी नहीं कर पाए। आखिर एंकर को कहना पड़ा कि आपने तो भाजपाइयों को ही पीछ़े छोड़ दिया। इतना शानदार प्रोजेक्शन तो भाजपाई भी नहीं कर पाए।
कुल मिला कर आज हालत ये हो गई है कि मोदी भाजपा नेतृत्व और संघ के लिए अपरिहार्य हो चुके हैं। व्यक्ति गौण व विचारधारा अहम के सिद्धांत वाली पार्टी तक में एक व्यक्ति इतना हावी हो गया है, उसके अलावा कोई और दावेदार नजर ही नहीं आता। संघ के दबाव में फिर से हार्ड कोर हिंदूवाद की ओर लौटती भाजपा को भी उनमें अपना भविष्य नजर आने लगा है। कांग्रेस को भी मोदी की हवा चलती हुई दिखाई देती है, भले ही वह हवाबाजी का प्रतिफल हो।
यदि इस पर गौर करें कि कहीं यह हवा हौवा मात्र तो नहीं है तो इसमें तनिक सच्चाई नजर आती है। अर्थात जितनी हवा है, उससे कहीं गुना अधिक हौवा है। इसका सबूत देते हैं ये तथ्य। आपको याद होगा कि पिछले दिनों कुछ बड़े मीडिया हाउसेस ने सर्वे कराया, जिसमें कांग्रेस और भाजपा को मिलने वाली लोकसभा सीटों में सिर्फ 15 से 20 सीट का फासला है। कांग्रेस के मुकाबले भाजपा को महज 20 ज्यादा! ये उन लोगों के मुंह पर तमाचा है, जो पूरे देश में मोदी की लहर बहने का दावा करते हैं। तमाम सर्वे बता रहे हैं कि देश की दो बड़ी पार्टियां कांग्रेस और बीजेपी 150 सीट भी नहीं ले पाएंगी। यानी कुल 543 सीटों में से भाजपा 150 (लगभग एक चौथाई) का आंकडा भी ना छू पाए तो ये किस लहर और किस लोकप्रियता के दावे की बात हो रही है? सर्वे के मुताबिक देश का महज 25 प्रतिशत जनमानस मोदी की भाजपा को वोट दिखाई देता दे रहा है, और मीडिया इसे पूरे देश की सोच घोषित करता रहा है।
-तेजवानी गिरधर
7742067000

शुक्रवार, अक्टूबर 11, 2013

राजस्थान में भाजपा की जीत नहीं अब सुनिश्चित

कोई छह माह पहले तक कायम यह धारणा अब कमजोर होने लगी है कि इस बार राजस्थान की सत्ता पर भाजपा काबिज होने ही जा रही है। बेशक पूरे चार साल तक राज्य से बाहर रही प्रदेश भाजपा अध्यक्ष श्रीमती वसुंधरा राजे ने सुराज संकल्प यात्रा निकाल कर पार्टी को सक्रिय किया है, मगर इसी बीच मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने कई जनकल्याणकारी योजनाओं की झड़ी लगा कर माहौल बदल दिया है। अब मुकाबला कांटे का माना जा रहा है, जो कि पहले पूरी तरह से भाजपा के पक्ष में माना जा रहा था।
असल में आज से छह माह पहले तक जनता को ऐसा लग रहा था कि भाजपा बढ़त की स्थिति में हैं और आगामी सरकार भाजपा की ही बनेगी। भाजपाइयों को भी पूरा यकीन था कि अब वे सत्ता का काबिज होने ही जा रहे हैं। वस्तुत: इसकी एक वजह ये भी थी कि भ्रष्टाचार और महंगाई के कारण देशभर में यह माहौल बना कि कांग्रेस तो गई रसातल में। उसका प्रतिबिंब राजस्थान में भी दिखाई देने लगा। भाजपाई भी अति उत्साहित थे कि अब तो हम आ ही रहे हैं। रहा सवाल राज्य सरकार के कामकाज का तो वह था तो अच्छा, मगर उसका प्रोजेक्शन कमजोर था। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को भी उम्मीद थी कि उन्होंने पिछले चार साल में जो जनहितकारी काम किए हैं, उसकी वजह से जनता उनके साथ रहेगी, मगर सर्वे से यह सामने आया कि आम जन तक कांग्रेस सरकार के कामकाज का प्रचार ठीक से नहीं हुआ है। इस पर खुद गहलोत ने कांग्रेस संदेश यात्रा निकालने का जिम्मा उठाया। इसी दौरान विभिन्न योजनाओं के कारण स्वाभाविक रूप से विभिन्न वर्गों को मिल रहे आर्थिक लाभ से माहौल बदला है। हालांकि इससे चिढ़ कर वसुंधरा ने यह आरोप लगाना शुरू किया कि सरकार खजाना लुटा रही है, मगर उनके पास इसका कोई जवाब नहीं है कि यह खजाना आखिरकार गरीब जनता के लिए ही तो उपयोग में आ रहा है। कुछ मिला कर अब माहौल साफ होने लगा है कि कांग्रेस सरकार से जनता उतनी नाखुश नहीं है, जितना की प्रचार किया गया था। अब तो मीडिया के सर्वे भी कहने लगे हैं कि राजस्थान में कांग्रेस व भाजपा टक्कर में हैं।
पिछले कुछ माह में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की ओर से की गई मशक्कत के बाद बदले माहौल से कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी को अब जा कर उम्मीद जागी है कि इस बार राजस्थान में फिर से कांग्रेस की सरकार बनाई जा सकती है, इसी कारण उन्होंने यहां पर विशेष ध्यान देना शुरू कर दिया है। इसी सिलसिले में उनके निर्देशन में बनी चुनाव अभियान समिति और घोषणा पत्र समिति को पूरी तरह से संतुलित बनाया गया। डेमेज कंट्रोल में कुछ कामयाबी भी हासिल हुई है, इसका एक संकेत देखिए कि जेल में बंद पूर्व जलदाय मंत्री महिपाल मदेरणा की पुत्री दिव्या मदेरणा तक का सुर बदल गया है, जो कि अब तक सरकार को लगातार घेरती रही थीं।
उधर वसुंधरा राजे ने टिकट दावेदारों के बलबूते सुराज यात्रा में शक्ति प्रदर्शन तो कर लिया, मगर अब ये ही टिकट दावेदार उनके लिए सिरदर्द साबित होने वाले हैं और वे उनकी जीत की गणित को भी गड़बड़ा सकते हैं। टिकट दावेदारों ने वसुंधरा में चाहे भीड़ जुटाना हो या अखबारों में लाखों रुपए के विज्ञापन देने की बात हो, सारी ताकत लगा और उसके बदले अब वे भी टिकट की उम्मीद तो रखते ही हैं, यह अलग बात है कि वसुंधरा ने यह स्पष्ट कर दिया कि योग्य उम्मीदवारों को टिकट मिलेगा मगर हर दावेदार अपने योग्य मानते हुए अपनी टिकट पक्की मान रहा है। हर सीट पर दावेदारों की लंबी लिस्ट है। भाजपा में पहली बार टिकट को लेकर दिखा माहौल भाजपा के लिए खतरे का संकेत दे रहा है। यदि भाजपा ने 2009 की तरह टिकट बंटवारे में पैराशूट उम्मीदवारों को उतारा तो जीत की उम्मीद पर पानी फिर सकता है।
जहां तक सुराज संकल्प यात्रा के दौरान कांग्रेस सरकार पर हमले का सवाल है, भले ही वसुंधरा ने मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को अब तक का सबसे भ्रष्ट मुख्यमंत्री बताया हो, मगर धरातल पर वे इसे साबित करने में नाकाम रही हैं। उनके अधिसंख्य आरोप नुक्ताचीनी टाइप और रूटीन के हैं। कम से कम इतने तो दमदार नहीं कि सरकार की चूलें हिल जाएं। यानि उनका आम जन पर कोई गहरा असर नहीं है। उनके आरोपों की धार तो तेज रही, मगर उसकी मार उतनी नजर नहीं आई। जुमले उनके तगड़े थे, मगर वे केवल भाषणों में ही सुहावने नजर आए, धरातल पर उसकी गंभीरता कम रही। खुद भाजपाई भी मानने लगे हैं कि इस बार वसुंधरा की यात्रा पहले जैसी कामयाब नहीं रही है। कारण स्पष्ट है। वे खुद अपनी पार्टी में दोफाड़ का कारण बनी रहीं। चार साल तक राज्य से गायब रह कर चुनावी साल में यकायक सक्रिय होने के कांग्रेस के आरोप का आज तक कोई सटीक जवाब नहीं दे पाई हैं।
अगर मोदी फैक्टर की बात करें तो वह अपना असर जरूर दिखाएगा, मगर धरातल की सच्चाई वैसी नहीं जैसी दिखाई देती है। आपको याद होगा कि हाल में कुछ बड़े मीडिया हाउसेस ने सर्वे कराया। सर्वे के मुताबिक कांग्रेस और भाजपा को मिलने वाली (लोकसभा) सीटों में सिर्फ 15 से 20 सीट का फासला है। भाजपा को महज 20 ज़्यादा। ये उन लोगों के मुंह पर तमाचा है, जो पूरे देश में मोदी की लहर बहने का दावा करते हैं। तमाम सर्वे बता रहे हैं कि देश की दो बड़ी पार्टियां (कांग्रेस और बीजेपी) 150 सीट भी नहीं ला पाएंगी। साथ ही गैर कांग्रेसी-गैर भाजपाई कुनबा 200 के आंकड़े को भी बमुश्किल छू पायेगा। यानी कुल 543 सीटों में से भाजपा 150 (लगभग एक चौथाई) का आंकडा भी ना छू पाए तो ये किस लहर और किस लोकप्रियता के दावे की बात हो रही है?
सीएनएन, आईबीएन सीएनडीएस के लोकसभा चुनाव के लिए किए सर्वे के मुताबिक राजस्थान में कांग्रेस के तीन प्रतिशत वोट घटने वाले है, जबकि 2009 के चुनाव में कांग्रेस को 47 प्रतिशत वोट मिले थे। इस तरह आगामी चुनाव में कांग्रेस को 44 प्रतिशत वोट मिल पाएंगे। वहीं भाजपा का सात प्रतिशत मतों का इजाफा होने से 37 प्रतिशत से बढ़कर कांग्रेस के बराबर रहेगी। इससे यह संकेत मिलते है कि मौटे तौर पर विधानसभा चुनाव में भाजपा व कांग्रेस में कड़ी टक्कर होने वाली है। इसमें साइलेंट फैक्टर ये है कि इस प्रकार के सर्वे आमतौर पर शहरी होते हैं, जहां भाजपा का प्रभाव अधिक है, जबकि गांवों में आज भी कांग्रेस की पकड़ ज्यादा है।
ऐसे में अगर ये कहा जाए कि भाजपा की जीत सुनिश्चित नहीं तो, कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। हालांकि इन सबके बावजूद चुनाव परिणाम इस मुख्य फैक्टर पर निर्भर करेंगे कि दोनों दलों में से कौन ज्यादा सही उम्मीदवारों को टिकट बांटता है।
-तेजवानी गिरधर, 7742067000
tejwanig@gmail.com

गुरुवार, अगस्त 15, 2013

तिवाड़ी भी हुए वसुंधरा शरणम गच्छामी

घोषणा पत्र बनाने के लिए अजमेर में हुई संभागीय बैठक में भाषण देते तिवाडी
राजस्थान में भाजपाई बेड़े की खेवनहार प्रदेश भाजपा अध्यक्ष श्रीमती वसुंधरा राजे के आगे प्रदेश के सारे दिग्गज भाजपा नेताओं के शरणम गच्छामी होने के बाद भी इकलौते वरिष्ठ नेता घनश्याम तिवाड़ी अलग सुर अलाप रहे थे। एक ओर तो वसुंधरा राजे सुराज संकल्प यात्रा में व्यस्त थीं, दूसरी ओर उन्होंने अपनी ओर से देव दर्शन यात्रा का नाटक शुरू कर दिया। बाबा रामदेव का सहयोग मिलने पर तो यह संदेश गया कि संभव है वे अपनी अलग पार्टी बना लेंगे। मगर जैसे ही बाबा रामदेव खुल कर नरेन्द्र मोदी और भाजपा की पैरवी करने लगे तो उन्हें भारी झटका  लगा। उनकी अक्ल ठिकाने आ गई कि इस वक्त भाजपा के विपरीत चलना अपने पैरों को कुल्हाड़ी मारने के समान होगा। सो वे भी पलटी खा गए। 
हाल ही वे भाजपा घोषणा पत्र के लिए सुझाव की संभागीय बैठक में भाग लेने अजमेर आए। उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा कि प्रदेश और देश में परिवर्तन अवश्यम्भावी होगा और भा.ज.पा. सुराज देने के लिये कृत संकल्प है। 
अपुन ने तो पहले ही इस कॉलम में लिख दिया कि तिवाड़ी भी अन्य दिग्गजों की तरह प्रदेश भाजपा अध्यक्ष श्रीमती वसुंधरा राजे की शरण में आ जाएंगे। वरिष्ठ नेता रामदास अग्रवाल व अन्य वरिष्ठ नेताओं की समझाइश के बाद वसुंधरा व तिवाड़ी के बीच कायम दूरियां कम हुईं। बर्फ पिघलने के संकेत पिछले दिनों जयपुर में भाजपा के धरने पर उनकी मौजूदगी से भी मिल गए थे। अब तो वे घोषणा पत्र बनवाने में भी जुट गए हैं। 
ज्ञातव्य है कि वे वसुंधरा को मुख्यमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट किए जाने के वे शुरू से ही खिलाफ थे। तिवाड़ी की खुली असहमति तब भी उभर कर आई, जब दिल्ली में सुलह वाले दिन ही वे तुरंत वहां से निजी काम के लिए चले गए। इसके बाद वसुंधरा के राजस्थान आगमन पर स्वागत करने भी नहीं गए। श्रीमती वसुंधरा के पद भार संभालने वाले दिन सहित कटारिया के नेता प्रतिपक्ष चुने जाने पर मौजूद तो रहे, मगर कटे-कटे से। कटारिया के स्वागत समारोह में उन्हें बार-बार मंच पर बुलाया गया लेकिन वे अपनी जगह से नहीं हिले और हाथ का इशारा कर इनकार कर दिया।
ज्ञातव्य है कि उन्होंने उप नेता का पद स्वीकार करने से इंकार कर दिया था और कहा था कि मैं राजनीति में जरूर हूं, लेकिन स्वाभिमान से समझौता करना अपनी शान के खिलाफ समझता हूं। मैं उपनेता का पद स्वीकार नहीं करूंगा। उनके इस बयान पर खासा भी खासी चर्चा हुई कि देव दर्शन में सबसे पहले जाकर भगवान के यहां अर्जी लगाऊंगा कि हे भगवान, हिंदुस्तान की राजनीति में जितने भी भ्रष्ट नेता हैं उनकी जमानत जब्त करा दे, यह प्रार्थना पत्र दूंगा। भगवान को ही नहीं उनके दर्शन करने आने वाले भक्तों से भी कहूंगा कि राजस्थान को बचाओ। वसुंधरा का नाम लिए बिना उन पर हमला करते हुए जब वे बोले कि राजस्थान को चरागाह समझ रखा है। वसुंधरा और पार्टी हाईकमान की बेरुखी को वे कुछ इन शब्दों में बयान कर गए-लोग कहते हैं कि घनश्यामजी देव दर्शन यात्रा क्यों कर रहे हैं? घनश्यामजी किसके पास जाएं? सबने कानों में रुई भर रखी है। न कोई दिल्ली में सुनता है, न यहां। सारी दुनिया बोलती है, उस बात को भी नहीं सुनते।
उन्हें उम्मीद थी कि आखिरकार संघ पृष्ठभूमि के पुराने नेताओं का उन्हें सहयोग मिलेगा, मगर हुआ ये कि धीरे-धीरे सभी वसुंधरा शरणम गच्छामी होते गए। रामदास अग्रवाल, कैलाश मेघवाल और ओम माथुर जैसे दिग्गज धराशायी हुए तो तिवाड़ी अकेले पड़ गए। उन्हें साफ दिखाई देने लगा कि यदि वे हाशिये पर ही बैठे रहे तो उनका पूरा राजनीतिक केरियर की चौपट हो जाएगा। ऐसे में रामदास अग्रवाल की समझाइश से उनका दिमाग ठिकाने आ गया है।
-तेजवानी गिरधर

मंगलवार, अगस्त 06, 2013

राजस्थान में चंद माह में सुधरे माहौल से जागी राहुल की उम्मीद

पिछले कुछ माह में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की ओर से की गई मशक्कत के बाद बदले माहौल से कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी को अब जा कर उम्मीद जागी है कि इस बार राजस्थान में फिर से कांग्रेस की सरकार बनाई जा सकती है, इसी कारण उन्होंने यहां पर विशेष ध्यान देना शुरू कर दिया है। इसी सिलसिले में उनके निर्देशन में बनी चुनाव अभियान समिति और घोषणा पत्र समिति को पूरी तरह से संतुलित बनाया गया और उसके बाद प्रदेश के सभी बड़े नेताओं की बैठक भी ली। इस बैठक में उनका सारा जोर इसी बात पर था कि राजस्थान में कांग्रेस की जीत सुनिश्चित है, मगर उसके लिए सभी कांग्रेस नेताओं को एकजुट होना होगा। हालांकि सच्चाई यह भी है कि ऊपर भले ही वे गुटबाजी पर कुछ अंकुश लगाने में कामयाब हो जाएं, मगर निचले स्तर यदि खींचतान जारी रही तो परिणाम सुखद नहीं आ पाएंगे।
असल में आज से छह माह पहले तक जनता को ऐसा लग रहा था कि भाजपा बढ़त की स्थिति में हैं और आगामी सरकार भाजपा की ही बनेगी। भाजपाइयों को भी पूरा यकीन था कि अब वे सत्ता का काबिज होने ही जा रहे हैं। वस्तुत: इसकी एक वजह ये भी थी कि भ्रष्टाचार और महंगाई के कारण देशभर में यह माहौल बना कि कांग्रेस तो गई रसातल में। उसका प्रतिबिंब राजस्थान में भी दिखाई देने लगा। भाजपाई भी अति उत्साहित थी कि अब तो हम आ ही रहे हैं। रहा सवाल राज्य सरकार के कामकाज का तो वह था तो ठीकठाक, मगर उसका प्रोजेक्शन कमजोर था। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को भी उम्मीद थी कि उन्होंने पिछले चार साल में जो जनहितकारी काम किए हैं, उसकी वजह से जनता उनके साथ रहेगी, मगर सर्वे से यह सामने आया कि आम जन तक कांग्रेस सरकार के कामकाज का प्रचार ठीक से नहीं हुआ है। इस पर खुद गहलोत ने कांग्रेस संदेश यात्रा निकालने का जिम्मा उठाया। प्रदेशभर के दौरे पर निकले गहलोत ने जनता को बताया कि सरकार ने उनके लिए कांग्रेस घोषणा पत्र के अनुरूप कितने काम किए हैं। साथ ही कुछ और लोकलुभावन योजनाओं पर भी अमल शुरू कर दिया। हालाकि इसी दौरान प्रदेश भाजपा अध्यक्ष श्रीमती वसुंधरा राजे भी सुराज संकल्प यात्रा ले कर निकलीं, मगर वे जिस तरह से गहलोत पर निजी व झूठे आरोप लगाने लगी तो जनता में यह धारणा बनती गई कि पूरे चार साल राज्य से बाहर रहने के बाद अब वे फिर से सत्ता में आने के लिए ही ऐसे आरोप लगा रही हैं। उनके आरोपों की धार तो तेज रही, मगर उसकी मार उतनी नजर नहीं आई। जुमले उनके तगड़े थे, मगर वे केवल भाषणों में ही सुहावने नजर आए, धरातल पर उसकी गंभीरता कम रही। खुद भाजपाई भी मानने लगे हैं कि इस बार वसुंधरा की यात्रा पहले जैसी कामयाब नहीं रही है। एक और उल्लेखनीय पहलू ये रहा कि पिछले छह में जब सरकार के कार्यक्रमों की क्रियान्विति के परिणाम सामने आने लगे तो जनता को समझ में आ गया कि सरकार उनके लिए गंभीरता से उनके लिए काम कर रही है। स्वाभाविक रूप से विभिन्न वर्गों को मिल रहे आर्थिक लाभ से माहौल बदला है। हालांकि इससे चिढ़ कर वसुंधरा ने यह आरोप लगाना शुरू किया कि सरकार खजाना लुटा रही है, मगर उनके पास इसका कोई जवाब नहीं है कि यह खजाना आखिरकार गरीब जनता के लिए ही तो उपयोग में आ रहा है। कुछ मिला कर अब माहौल साफ होने लगा है कि कांग्रेस सरकार से जनता उतनी नाखुश नहीं है, जितना की प्रचार किया गया था। अब तो मीडिया के सर्वे भी कहने लगे हैं कि राजस्थान में कांग्रेस व भाजपा टक्कर में हैं। यानि कि कुछ माह में कांग्रेस ने अपने ग्राफ में कुछ सुधार किया है। भाजपा को भी समझ में आ गया है कि उनके बहकावे में जनता नहीं आ रही है। अब वह कुछ नए हथकंडे खेलने पर विचार कर रही है, जिनकी कल्पना करना कम से कम कांग्रेस के बस की तो बात नहीं।
बहरहाल, राहुल गांधी को यह फीडबैक मिल चुका है कि सरकार का परफोरमेंस तो ठीक है और राज्य में माहौल भी प्रतिकूल नहीं है, मगर गुटबाजी जारी रही तो सरकार का लौटना मुश्किल होगा। इस कारण वे अब सारा जोर गुटबाजी समाप्त करने और सभी गुटों को संतुष्ट करने में जुट गए हैं। हाल ही घोषित चुनाव संचालन समिति और घोषणा पत्र समिति में जिस प्रकार मुख्य धारा से हट कर चल रहे नेताओं को शामिल गया है, उनको भी शामिल किए जाने से यह संदेश गया है कि राहुल किसी भी सूरत में केवल गुटबाजी के कारण सरकार गंवाना नहीं चाहते। डेमेज कंट्रोल में कुछ कामयाबी भी हासिल हुई है, इसका एक संकेत देखिए कि जेल में बंद पूर्व जलदाय मंत्री महिपाल मदेरणा की पुत्री दिव्या मदेरणा तक का सुर बदल गया है, जो कि अब तक सरकार को लगातार घेरती रही थीं। समझा जाता है कि आने वाले दिनों में गुटबाजी समाप्त करने के कुछ और कदम सामने आ सकते हैं।
-तेजवानी गिरधर
7742067000

गुरुवार, जुलाई 25, 2013

क्या फिर वसुंधरा की गोदी में बैठेंगे सिंघवी?

जनता दल यू के राष्ट्रीय महासचिव चंद्रराज सिंघवी के बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पर स्वार्थी होने का आरोप लगाते हुए पार्टी पद से इस्तीफा देने के साथ ही यह सवाल खड़ा हो गया है कि खुरापाती स्वभाव के चलते वे अब क्या करेंगे? उनके लिए सबसे मुफीद चुनावी मौसम में किस दल में जाएंगे? इससे भी बड़ा सवाल ये है कि उन्हें अब पचाएगा कौन?
सबको मालूम है कि सिंघवी पुराने कांग्रेसी चावल हैं। कांग्रेस की पोल पट्टी के विशेषज्ञ। राजनीति के शातिर खिलाड़ी। जमीन पर पकड़ हो न हो, जोड़तोड़ में माहिर हैं। उसी के दम पर राजनीति करते हैं। उनका उपयोग कितना सकारात्मक करेंगे, इससे कहीं अधिक कितना सामने वाले की बारह बजाएंगे, इसमें है। कांगे्रस में तो पहले से ही शातिरों की भरमार है। जब वहां दाल न गलती दिखी और वसुंधरा के उगते सूरज को सलाम कर दिया। वसुंधरा को भी ऐसे ही खुरापाती की जरूरत थी, जो कांगे्रस की लंका भेद सके। उन्होंने सिंघवी को खूब तवज्जो दी। सिंघवी की चवन्नी भी अठन्नी में चलने लगी। चाहे जिस को चूरण बांटने लगे। केडर बेस पार्टी के नेता व कार्यकर्ता भला ऐसे आयातित तत्व को कैसे बर्दाश्त कर सकते थे। विशेष रूप से संघ लॉबी को तो वे फूटी आंख नहीं सुहाते थे। आखिरकार उन्हें बाहर का रास्ता देखना पड़ा। राजनीति ही जिनका दाना-पानी हो, वे भला उसके बिना जिंदा कैसे रह सकते थे। दोनों बड़े राजनीतिक दलों से नाइत्तफाकी के बाद गैर कांग्रेस गैर भाजपा की राजनीति करने लगे। इधर-उधर घूम कर आखिर जदयू में जा कर टिके। जिस जदयू का राजस्थान में नामलेवा नहीं, उसे तो ऐसे नेता की जरूरत थी, सो वहां बड़ा सम्मान मिला। यकायक राष्ट्रीय क्षितिज पर आ गए। चूंकि वसुंधरा से उनका पुराना नाता था, इस कारण जदयू हाईकमान को भी लगता था कि वे राजस्थान में भाजपा से तालमेल में काम आएंगे। हालांकि यूं तो वे किरोड़ी लाल मीणा के साथ मिल कर तीसरे मार्चे की बिसात बिछाने लगे हुए थे, मगर उम्मीद कुछ ज्यादा नहीं थी। पिछले विधानसभा चुनावों में भी सिंघवी ने तीन पार्टियों का गठबंधन बनाया था, लेकिन उनके उम्मीदवार जमानत भी नहीं बचा पाए। जहां तक जदयू का सवाल है, उसके पास अभी कुशलगढ़ विधायक फतेह सिंह एकमात्र विधायक हैं। हालांकि जेडीयू और भाजपा ने आपसी तालमेल के साथ पिछला चुनाव लड़ा था,मगर इस बार गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को मुद्दा बना कर जदयू ने भाजपा से नाता तोड़ दिया तो अब यहां भी सिंघवी की उपयोगिता समाप्त हो गई। ऐसे में पार्टी अध्यक्ष शरद यादव ने उनके बड़बोलेपन को बहाना बना कर पद से हटा दिया। अब उनके लिए जदयू में रहना बेमानी हो गया है। ऐसे में हर किसी की निगाह है कि अब वे कहां जाएंगे। कांग्रेस के खिलाफ इतना विष वमन कर चुके हैं कि वहां जा नहीं सकते। कांग्रेस भी ऐसे नेता को लेकर अपने यहां गंदगी नहीं करना चाहेगी। वैसे भी बदले समीकरणों में भाजपा से दूरी बनाने के बाद नीतीश की कांग्रेस से कुछ नजदीकी दिखाई देती है। जब से हटे ही नीतीश पर हमला बोल कर हैं तो वहां जाने की कोई संभावना नहीं है।
रहा सवाल वसुंधरा का तो वे चूंकि येन-केन-प्रकारेन सत्ता पर काबिज होना चाहती हैं, सो संभव है वे उन्हें फिर से पपोलने लगें। जाहिर तौर पर न सही, गुप्त रूप से तो वे उनका काम कर ही सकते हैं। तीसरे मोर्चे की कवायद के चलते संभव है दिखाई तो किरोड़ी लाल मीणा के साथ दें, मगर ज्यादा संभावना इसी बात की है कि वे वसुंधरा से गुप्त समझौता कर लेंगे। जानते हैं कि गर उनकी सत्ता आई तो मलाई खाने को मिल सकती है।
-तेजवानी गिरधर
7742067000

बुधवार, जुलाई 24, 2013

कटारिया का मुद्दा तो निकला भाजपा के हाथ से

राजस्थान में विपक्ष के नेता गुलाबचंद कटारिया को सोहराबुद्दीन एनकाउंटर मामले में जमानत मिलने से भाजपा का वह ख्वाब टूट गया है, जिसके आधार पर वह प्रदेशभर में आंदोलन का मूड बना रही थी।
असल में प्रदेश भाजपा अध्यक्ष श्रीमती वसुंधरा जानती थीं कि उनकी सुराज संकल्प यात्रा के दौरान मुख्यमंत्री अशोक गहलोत व कांग्रेस को घेरने की उनकी कोशिशें दम तोड़ रही हैं। हालांकि वे रोजाना नए-नए आरोप जड़ती जा रही हैं और गहलोत को भ्रष्ट साबित करने की नाकाम कोशिश कर रहीं है, मगर  गहलोत की व्यक्तिगत छवि बेदाग होने के कारण सारे वार खाली जा रहे हैं। वे समझ रही हैं कि वे सरकार की जनोपयोगी योजनाओं के सामने ऐसे आरोपों से चुनावी माहौल नहीं बना पा रही हैं। उलटे उन पर कांग्रेस का एक ही वार काफी भारी पड़ रहा था कि पूरे चार साल तो वे गायब रहीं और चुनाव आते ही आरोपों की झड़ी लगा रही हैं। चार साल गायब रहने का उनके पास कोई जवाब था भी नहीं।  ऐसे में वह किसी ऐसे मौके की तलाश कर रही थी, जिससे राजस्थान की जनता को उद्वेलित किया जा सके। यूं भी भाजपा की चुनावी रणनीति मुद्दे को उछालने की रहती है, ऐसे में उन्हें कोई ऐसा मौका चाहिए था। संयोग से सीबीआई ने उसे वह मौका दे दिया। सीबीआई ने कटारिया को एनकाउंटर का आरोपी बनाया और ऐसे में उन पर गिरफ्तारी की तलवार लटक गई। वसुंधरा ये सोचने लगीं कि जैसे ही कटारिया को गिरफ्तार किया जाएगा, वे पूरे प्रदेश में कांगे्रेस के दमन चक्र को मुद्दा बना कर आंदोलन छेड़ देंगी, जिससे भाजपा कार्यकर्ता तो लामबंद व वार्म अप होगा ही, जनता की भावनाएं भी भड़काई जा सकेंगी। और इसी कारण बार-बार कहती रहीं कि सरकार कटारिया को झूठा फंसा रही है, सरकार उन्हें भी किसी झूठे मामले में उलझाने की कोशिश कर सकती है, मगर वे किसी से डरने वाली नहीं हैं। असल में वे कटारिया की गिरफ्तारी होने पर किए जाने वाले आंदोलन की पृष्ठभूमि बना रही थीं, मगर उनकी सोच धरी की धरी रह गई, जब कटारिया का जमानत मंजूर हो गई। अब वसुंधरा के पास जनता को उद्वेलित करने का फिलहाल कोई मौका नहीं है। ऐसे में संभव है भाजपा नरेन्द्र मोदी ब्रांड पैंतरा खेल सकती है। इसका इशारा कांग्रेसी नेता कर भी चुके हैं।
जहां तक कटारिया के मुकदमे का सवाल है, उनको जमानत मिलते ही ये सवाल उठने लगे हैं कि यह कैसे हो गया। इस बारे में जयपुर के एक पत्रकार निरंजन परिहार ने तो बाकायदा प्रायोजित न्यूज आइटम बना कर खुलासा करने की कोशिश की है। उनका कहना है कि कटारिया को फांसने के मामले में सीबीआई बगलें झांक रही है और सबूतों के मामले में सीबीआई झूठी साबित हो रही है।
मुंबई की विशेष अदालत में चल रहे इस केस में कटारिया को आरोपी बना कर उनके खिलाफ चार्जशीट भी पेश कर दी, लेकिन अब अपने लगाए आरोपों को वह साबित नहीं कर पा रही है। ऐसा लग रहा है कि अपनी जलाई गुई आग में सीबीआई खुद झुलस रही है। इसके पीछे तर्क ये दिया है कि सीबीआई की कहानी झूठी है। वे कहते हैं कि कुख्यात अपराधी सोहराबुद्दीन की मौत के मामले में कटारिया के खिलाफ लगाए गए आरोप में सिर्फ एक बात कही गई है कि 27 दिसम्बर, 2005 से 30 दिसम्बर, 2005 तक आईपीएस ऑफिसर डीजी वणजारा उदयपुर के सर्किट हाउस में रुके थे। उसी दौरान राजस्थान के तत्कालीन गृहमंत्री कटारिया का भी स्टाफ भी वहीं पर रुका हुआ था। जिन तारीखों की घटनाओं का हवाला देकर सीबीआई ने कटारिया को फांसने की चार्जशीट तैयार की है, उन दिनों वे मुंबई में भारतीय जनता पार्टी के राष्ठ्रीय अधिवेशन में भाग लेने के लिए मुंबई आए हुए थे। खुद निरंजन परिहार के साथ वे सहारा समय टेलीविजन चैनल के स्टूडिय़ो में भी एक लाइव कार्यक्रम में उपस्थित थे, जिसकी प्रसारण की तारीख को सीबीआई झुठला नहीं सकती।
सिद्धराज लोढ़ा के समाचार पत्र शताब्दी गौरव, गोविंद पुरोहित के जागरूक टाइम्स, सुरेश गोयल के प्रात:काल सहित मुंबई के विभिन्न समाचार पत्रों में उन तारीखों के दौरान कटारिया के मुंबई के विभिन्न कार्यक्रमों की खबरें और तस्वीरें भी छपी हैं, सीबीआई उन्हें गलत साबित नहीं कर सकती। उन्हीं दिनों मुंबई में माथुर भी बीजेपी अधिवेशन में मौजूद थे। सीबीआई द्वारा बताए जा रहे दिनों में दोनों नेताओं के उदयपुर में नहीं होने की बात साबित हो चुकी है। यहां तक कि दोनों नेताओं के मुंबई आने-जाने के टिकट और कटारिया के गोवा यात्रा के सबूत भी मौजूद हैं।
उनकी इन बातों में कितनी सच्चाई है ये तो कोर्ट में होने वाली कार्यवाही से पता लगेगी, मगर केवल इन तारीखों के आधार पर ही सीबीआई ने बेवकूफी की होगी, ये समझ से परे हैं। जरूर उसके पास कोई आधार होगा। भले ही कटारिया को जमानत मिलने से परिहार को ये न्यूज आइटम बनाने का मौका मिला गया, मगर वसुंधरा वे मौका तो नहीं मिल पाया, जिसको वे भुनाने की कोशिश में थीं।
-तेजवानी गिरधर
7742067000

शनिवार, जुलाई 20, 2013

अन्ना और मीडिया में से कौन सच्चा, कौन झूठा?

जन लोकपाल के लिए आंदोलन छेडऩे वाले समाजसेवी अन्ना हजारे एक बार फिर अपने बयान को लेकर विवाद में आ गए हैं। पहले उनके हवाले से छपा कि वे नरेंद्र मोदी को सांप्रदायिक नहीं मानते, दूसरे दिन जैसे ही इस खबर ने मीडिया में सुर्खियां पाईं तो वे पलटी खा गए और बोले कि उन्होंने कभी सांप्रदायिकता पर मोदी को क्लीन चिट नहीं दी। उन्होंने कहा कि मीडिया ने उनके बयान को गलत रूप में छापा।
ज्ञातव्य है कि मध्यप्रदेश में जनतंत्र यात्रा के आखिरी दिन गत बुधवार को इंदौर पहुंचे अन्ना ने गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी पर सांप्रदायिक विचारधारा के नेता होने के सियासी आरोपों पर कहा कि मोदी के सांप्रदायिक नेता होने का अब तक कोई सबूत मेरे सामने नहीं आया है। बाद में बयान बदल कर कहा कि मैं कैसे कह सकता हूं कि मोदी सांप्रदायिक नहीं हैं? वे सांप्रदायिक हैं। उन्होंने कभी गोधरा कांड की निंदा नहीं की।
असल में विवाद हुआ ही इस कारण कि जब अन्ना से पूछा गया कि क्या आप मोदी को सांप्रदायिक मानते हैं, तो उन्होंने सीधा जवाब देने की बजाय चालाकी से कह दिया कि मोदी के सांप्रदायिक नेता होने का अब तक कोई सबूत मेरे सामने नहीं आया है। यही चालाकी उलटी पड़ गई। उनका यह कहना कि सबूत नहीं है, अर्थात बिना सबूत के वे मोदी को सांप्रदायिक कैसे कह दें। उन्होंने सीधे-सीधे मोदी को सांप्रदायिक करार देने अथवा न देने की बजाय यह जवाब दिया। कदाचित वे सीधे-सीधे यह कह देते कि वे मोदी को सांप्रदायिक मानते हैं, तो प्रतिप्रश्न उठ सकता था कि आपके पास क्या सबूत है, लिहाजा घुमा कर जवाब दिया। उसी का परिणाम निकला कि मीडिया ने उसे इस रूप में लिया कि अन्ना मोदी को सांप्रदायिक नहीं मानते। स्पष्ट है कि कोई भी अतिरिक्त चतुराई बरतते हुए मीडिया के सवाल का जवाब घुमा कर देगा, तो फिर मीडिया उसका अपने हिसाब से ही अर्थ निकालेगा। इसे मीडिया की त्रुटि माना जा सकता है, मगर यदि जवाब हां या ना में होता तो मीडिया को उसका इंटरपिटेशन करने का मौका ही नहीं मिलता। हालांकि मीडिया को भी पूरी तरह से निर्दोष नहीं माना जा सकता। कई बार वह भी अपनी ओर से घुमा-फिरा कर सामने वाले के मुंह में जबरन शब्द ठूंसता नजर आता है, ऐसे में शब्दों का कमतर जानकार उलझ जाता है। इसका परिणाम ये निकलता है कि कई बार राजनेताओं को यह कह पल्लू झाडऩे का मौका मिल जाता है कि उन्होंने ऐसा तो नहीं कहा था, मीडिया ने उसका गलत अर्थ निकाला है।
वैसे अन्ना के साथ ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। वे कई बार अस्पष्ट जवाब देते हैं, नतीजतन उसके गलत अर्थ निकलते ही हैं। कई बार तो ऐसा भी होता है कि हिंदी भाषा की जानकारी कुछ कम होने के कारण वे कहना क्या चाहते हैं और कह कुछ और जाते हैं। कई बार जानबूझ कर मीडिया को घुमाते हैं। उनके प्रमुख सहयोगी रहे अरविंद केजरीवाल और उनकी पार्टी आम आदमी पार्टी को समर्थन देने अथवा न देने के मामले में भी वे कई बार पलटी खा चुके हैं। कभी कहते हैं कि उनके अच्छे प्रत्याशियों को समर्थन देंगे तो कभी कहते हैं समर्थन देने का सवाल ही नहीं उठता। इंदौर में भी उन्होंने ये कहा कि अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी भी एक सियासी दल है। लिहाजा मैं इस पार्टी का भी समर्थन नहीं कर सकता। इसके पीछे तर्क ये दिया कि भारतीय संविधान उम्मीदवारों को समूह में चुनाव लडऩे की इजाजत नहीं देता। जनता को संविधान की मूल भावना के मुताबिक निर्वाचन की पार्टी आधारित व्यवस्था को खत्म करके खुद अपने उम्मीदवार खड़े करना चाहिए। केजरीवाल के बारे उनसे अनगिनत बार सवाल किए जा चुके हैं, मगर बेहद रोचक बात ये है कि मीडिया और पूरा देश आज तक नहीं समझ पाया है कि वे क्या चाहते हैं और क्या करने वाले हैं? अब इसे भले ही समझने वालों की नासमझी कहा जाए, मगर यह साफ है कि अन्ना के जवाबों में कुछ न कुछ गोलमाल है। इसी कारण कई बार तो यह आभास होने लगता है कि देश जितना उन्हें समझदार समझता है, उतने वे हैं नहीं। मीडिया भी मजे लेता प्रतीत होता है। वह उन्हें राजनीतिक व सामाजिक विषयों का विशेषज्ञ मान कर ऐसे-ऐसे सवाल करता है, जिसके बारे में न तो उनको जानकारी है और न ही समझ। और इसी कारण अर्थ के अनर्थ होते हैं। बीच में तो जब उनकी लोकप्रियता का ग्राफ आसमान की ऊंचाइयां छू रहा था, तब तो मीडिया वाले देश की हर छोटी-मोटी समस्या के जवाब मांगने पहुंच जाते थे। ऐसे में कई बार ऊटपटांग जवाब सामने आते थे। और फिर पूरा मीडिया उनके पोस्टमार्टम में जुट जाता था। विशेष रूप से इलैक्ट्रॉनिक मीडिया, जिसे हर वक्त चटपटे मसाले की जरूरत होती है। वह चटपटा इस कारण भी हो जाता था कि शब्दों के सामान्य जानकार के बयानों के बाल की खाल शब्दों के खिलाड़ी निकालते थे। ताजा विवाद भी शब्दों का ही हेरफेर है।
लब्बोलुआब, अन्ना एक ऐसे आदर्शवादी हैं, जिनकी बातें लगती तो बड़ी सुहावनी हैं, मगर न तो वैसी परिस्थितियां हैं और न ही व्यवस्था। और बात रही व्यवस्था बदलने की तो यह महज कपड़े बदलने जितना आसान भी नहीं है। इसी कारण अन्ना के आदर्शवाद ने कई बार मुंह की खाई है। जनलोकपाल के लिए हुए बड़े आंदोलन में तो उनकी अक्ल ही ठिकाने पर आ गई। एक ओर वे सारे राजनीतिज्ञों को पानी-पानी पी कर कोसते रहे, पूरे राजनीतिक तंत्र को भ्रष्ट बताते रहे, मगर बाद में समझ में आया कि यदि उन्हें अपनी पसंद का लोकपाल बिल पास करवाना है तो लोकतंत्र में एक ही रास्ता है कि राजनीतिकों का सहयोग लिया जाए। जब ये कहा जा रहा था कि कानून तो लोकतांत्रिक तरीके से चुने हुए जनप्रतिनिधि ही बनाएंगे, खुद को जनता का असली प्रतिनिधि बताने वाले महज पांच लोग नहीं, तो उन्हें बड़ा बुरा लगता था, मगर बाद में उन्हें समझ में आ गया कि अनशन और आंदोलन करके माहौल और दबाव तो बनाया जा सकता है, वह उचित भी है, मगर कानून तो वे ही बनाने का अधिकार रखते हैं, जिन्हें वे बड़े ही नफरत के भाव से देखते हैं। इस कारण वे उन्हीं राजनीतिज्ञों के देवरे ढोक रहे थे, जिन्हें वे सिरे से खारिज कर चुके थे। आपको याद होगा कि अपने-आपको पाक साफ साबित करने के लिए उन्हें समर्थन देने को आए राजनेताओं को उनके समर्थकों ने धक्के देकर बाहर निकाल दिया था, मगर बाद में हालत ये हो गई है कि समर्थन हासिल करने के लिए राजनेताओं से अपाइंटमेंट लेकर उनको समझा रहे थे कि उनका लोकपाल बिल कैसे बेहतर है? पहले जनता जनार्दन को संसद से भी ऊपर बता रहे थे, बाद में समझ में आ गया कि कानून जनता की भीड़ नहीं, बल्कि संसद में ही बनाया जाएगा। यहां भी शब्दों का ही खेल था। यह बात ठीक है किसी भी लोकतांत्रिक देश में लोक ही सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। चुनाव के दौरान वही तय करता है कि किसे सत्ता सौंपी जाए। मगर संसद के गठन के बाद संसद ही कानून बनाने वाली सर्वोच्च संस्था होती है। उसे सर्वोच्च होने अधिकार भले ही जनता देती हो, मगर जैसी कि लोकतांत्रिक प्रक्रिया है, उसमें संसद व सरकार को ही देश को गवर्न करने का अधिकार है। जनता का अपना कोई संस्थागत रूप नहीं है। अन्ना ऐसी ही जनता के अनिर्वाचित प्रतिनिधि हैं, जिनका निर्वाचित प्रतिनिधियों से टकराव होता ही रहेगा।
-तेजवानी गिरधर
7742067000

शुक्रवार, जुलाई 19, 2013

भाजपा वाजपेयी के नाम को भी भुनाएगी

पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और उनके दौर व नीतियों को लगभग भुला चुकी भाजपा भले ही अब गुजरात में मुख्यमंत्री की अगुवाई में हिंदूवादी एजेंडे पर चलने को कृतसंकल्प है, लेकिन अब भी उसे वाजपेयी की उपयोगिता नजर आती है। वह उनके नाम को भी भुनाने के चक्कर में है। कदाचित यही वजह है भाजपा की प्रचार समिति के प्रमुख नरेन्द्र मोदी की अगुवाई में गठित बहुप्रतिक्षित इलेक्शन कमेटी में पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह, लालकृष्ण आडवाणी, सुषमा स्वराज और डॉ. मुरली मनोहर जोशी के साथ अटल बिहारी वाजपेयी को भी शामिल किया गया है। इसी तरह कुल बीस समितियों की समीक्षा का काम भी मोदी के नेतृत्व में पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह, लालकृष्ण आडवाणी और अटल बिहारी वाजपेयी करेंगे। कैसी विचित्र बात है कि अटल बिहारी वाजपेयी का स्वास्थ्य बेहद खराब है और पिछले कुछ महीनों से घर से तो क्या कमरे से बाहर नहीं निकले हैं। लेकिन पार्टी ने उनके नाम को मोदी की समिति में बनाकर रखा है। साफ है कि वह उनके नाम का इस्तेमाल चुनाव के दौरान भी करना चाहती है। यानि कि भाजपा को जितनी उपयोगिता हिंदूवादी वोटों को खींचने केलिए मोदी की लगती है, उतनी उपयोगिता उसे अल्पसंख्यकों को रिझाने के लिए सर्वमान्य नेता वाजपेयी की भी नजर आती है। ऐसा प्रतीत होता है भाजपा का रिमोट कंट्रोल राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ मोदी को आगे करने के बाद लगातार हो रहे विवाद और वोटों के धु्रवीकरण की संभावना को देखते हुए मोदी को फ्रीहैंड देने में झिझक रही है और साथ ही अटल-आडवाणी युग की छाया को साथ रखते हुए वाजपेयी को भी आइकन बनाना चाहता है। उसके इस अंतर्विरोध का चुनाव परिणाम पर क्या असर होगा, ये तो पता नहीं, मगर भाजपा कार्यकर्ता जरूर दिग्भ्रमित हो सकता है।
-तेजवानी गिरधर

मंगलवार, जुलाई 16, 2013

बाबा रामदेव बना रहे हैं कुछ टिकटों के लिए दबाव

कभी अपनी सेना बनाने की घोषणा कर आलोचना होने पर पीछे हटने और बाद में अपनी राजनीतिक पार्टी बनाने के संकेत लगातार देने वाले बाबा रामदेव ने हालांकि ऐसा तो कुछ नहीं किया, मगर अब भाजपा को खुला समर्थन देने की एवज में राजस्थान में अपने कुछ चहेतों को विधानसभा चुनाव की टिकटें देने के लिए दबाव बना रहे हैं। सूत्रों के अनुसार हाल ही उनकी प्रदेश भाजपा अध्यक्ष श्रीमती वसुंधरा राजे से हुई मुलाकात में भी इस पर चर्चा हुई है।
जानकारी के अनुसार पिछले कुछ समय से भाजपा की मुख्य धारा से कुछ अलग चल रहे वरिष्ठ नेता घनश्याम तिवाड़ी को उनका वरदहस्त है। इसीलिए तिवाड़ी को राजी करने के लिए वसुंधरा ने उनसे मध्यस्थता करने  का आग्रह किया था। इसकी पुष्टि इस बात से होती है कि बाबा रामदेव से जब पूछा गया कि उनकी वसुंधरा से मुलाकात का सबब क्या है तो उन्होंने कहा कि इसके लिए राजे ने कई बार आमंत्रण दिया था। हालांकि उन्होंने मुलाकात को औपचारिक बताया, मगर मुलाकात कितनी औपचारिक थी, इसका खुलासा इसी बात से हो जाता है कि उन्होंने साफ कहा कि वसुंधरा और तिवाड़ी को मिल कर प्रदेश में सुशासन की तैयारी करनी चाहिए। उन्होंने स्वीकार किया कि वे दोनों के बीच तालमेल बैठाने की कोशिश कर रहे हैं। वसुंधरा को वे किस कदर समर्थन दे रहे हैं, इसका अंदाजा उनके इस कथन से हो जाता है कि इस प्रदेश को वसुंधरा राजे जैसे ओजस्वी, साहसी और पराक्रमी मुख्यमंत्री की आवश्यकता है। जानकारी के अनुसार वे वसुंधरा के लिए प्रचार करने की एवज में अपनी पसंद के कुछ नेताओं को टिकट दिलवाना चाहते हैं। हाल ही में हुई मुलाकात में इसी पर चर्चा हुई बताई। यह स्वाभाविक भी है। बेशक कांग्रेस उनकी दुश्मन नंबर वन है, सो देशभर में उसकी खिलाफत अपने एजेंडे के तहत कर रहे हैं, मगर भाजपा के लिए अपने चेहरे का इस्तेमाल करने के प्रतिफल के रूप में वे कुछ हासिल भी करना चाहते हैं।
आने वाले चुनाव में वे किस प्रकार सक्रिय होंगे, इसका भान उनके इस कथन से हो जाता है कि देश में सत्ता परिवर्तन के लिए वन बूथ इलेवन यूथ जरूरी है। अर्थात वे चुनाव में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से अपनी टीम भी उपलब्ध करवाने जा रहे हैं। राजस्थान में कांग्रेस के खिलाफ माहौल बनाने की उनकी योजना का खुलासा उनके इस कथन से हो गया कि जिस तरह से देश में प्रधानमंत्री चुप है, वहीं राजस्थान में सीएम चार साल में नहीं दिखे। इन्हें भी कोई और ही संचालित कर रहा है। प्रदेश में कुशासन है, जिसके चलते आम जनता आहत है। प्रदेश में केन्द्र की तरह राज और कोई ही चला रहा है, सीएम तो डमी मात्र है।
ज्ञातव्य है कि योग गुरू के रूप में प्रतिष्ठा हासिल करने के बाद उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा इतनी बलवती हो गई थी कि उन्होंने सीधे दिल्ली पर ही धावा बोल दिया था। वहां मुंह की खाने के बाद से इतने बिफरे हुए हैं कि हर वक्त कांग्रेस के खिलाफ आग उगलते रहते हैं। कई बार तो उनकी शब्दावली राजनेताओं से भी घटिया हो जाती है। कांग्रेस और विशेष रूप से नेहरू-गांधी खानदान की छीछालेदर करना उनका एक सूत्रीय अभियान है।  हाल ही जयपुर आए तब भी उनका यही कहना था कि नेहरू खानदान ने हिन्दुस्तान को अपनी जागीर समझ रखा है। भाजपा के लिए उनका अभियान चुनावी दृष्टि से मुफीद रहेगा, लिहाजा इसकी एवज में कुछ टिकटें उनके चरणों में समर्पित की जाती हैं, तो उसमें कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
-तेजवानी गिरधर

बुधवार, जुलाई 03, 2013

सोमैया ने खोल दी भाजपा के एजेंडे की पोल

अजमेर में भाजपा की बैठक में मौजूद किरीट सोमैया
एक ओर जहां भाजपा गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का दावेदार घोषित करने से लगातार बच रही है, वहीं भाजपा के राजस्थान प्रदेश के सह-प्रभारी एवं पूर्व सांसद किरीट सोमैया ने अजमेर प्रवास के दौरान पत्ते खोल दिए कि मोदी ही देश के अगले प्रधानमंत्री होंगे। पता नहीं उन्होंने ऐसा जानबूझ कर कहा, अथवा गलती से मुंह से निकल गया। कह तो वे यह रहे थे कि आने वाले चुनावों में राजस्थान में वसुंधरा राजे की सरकार बनेगी, मगर साथ ही यह भी कह दिया कि केन्द्र में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा सरकार बनाएगी।
ज्ञातव्य है कि हाल ही जब भाजपा ने मोदी को प्रचार अभियान समिति का अध्यक्ष बनाया तो बिहार के मुख्यमंत्री नीतिश कुमार ने अपनी पार्टी जदयू को यही सोच कर अलग कर लिया कि भाजपा भले ही अभी मोदी को प्रधानमंत्री पद का दावेदार घोषित नहीं कर रही है, मगर करेगी वही। इस पर भाजपा ने बिहार की जनता की हमदर्दी जीतने के लिए गठबंधन तोडऩे का जिम्मेदार नीतिश को ठहरा दिया। साथ ही यह भी कहा कि हमने तो मोदी को केवल प्रचार अभियान समिति का अध्यक्ष बनाया है। नीतिश को तो गठबंधन तोडऩा है, इस कारण बहाना तलाश रहे थे। भाजपा के सारे प्रवक्ता चिल्ला-चिल्ला कर कह रहे हैं कि भाजपा ने अभी प्रधानमंत्री पद के दावेदार की घोषणा नहीं की है। अव्वल तो भाजपा ने अभी इस पर विचार ही नहीं किया है। हालांकि भाजपा की इस दोमुंही बात की असलियत सभी जानते हैं। वह लाख मना करे, मगर सब को पता है कि भाजपा क्या करने वाली है। जनता को तो तब से पता है, जब से मोदी के गुजराज का तीसरी बार मुख्यमंत्री बनने पर उन्हें दूल्हा बना कर घूम रही है। भाजपा इस प्रकार का दोमुंहापन संघ के मामले में वर्षों से स्थापित है। वह बार-बार कहती रही है कि संघ का भाजपा के संगठनात्मक मामलों में कोई दखल नहीं है, जबकि असलियत क्या है, ये सब जानते हैं। इसकी पोल भी पिछले दिनों तब खुल गई, जब आडवाणी को इस्तीफा वापस लेने के लिए मनाने की खातिर संघ प्रमुख मोहन भागवत को हस्तक्षेप करना पड़ा और इसकी पुष्टि खुद राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने कर दी।
खैर, ताजा मामले में भले ही पूरी भाजपा मोदी का पत्ता खोलने को तैयार नहीं है, मगर किरीट सोमैया ने तो पत्ता खोल ही दिया है। अब ये आप पर है कि आप भाजपा के बड़े नेताओं पर यकीन करते हैं या फिर सोमैया पर। हां, इतना तय है कि अगर आप भाजपा के किसी बड़े नेता से बात करेंगे तो वह यही कह कर पल्लू झाडऩे की कोशिश करेगा कि वह सोमैया की निजी राय या मोदी के प्रति श्रद्धा हो सकती है।
-तेजवानी गिरधर

बुधवार, जून 19, 2013

तिवाड़ी भी आएंगे वसुंधरा की शरण में?

इन दिनों राजस्थान में इस बात की जोरदार चर्चा है कि भाजपा के वरिष्ठ नेता घनश्याम तिवाड़ी भी अन्य दिग्गजों की तरह प्रदेश भाजपा अध्यक्ष श्रीमती वसुंधरा राजे की शरण में आ जाएंगे। बताया जाता है कि वरिष्ठ नेता रामदास अग्रवाल व अन्य वरिष्ठ नेताओं की समझाइश के बाद वसुंधरा व तिवाड़ी के बीच कायम दूरियां कम हो गई हैं। इस आशय के संकेतों की पुष्टि पिछले दिनों जयपुर में भाजपा के धरने पर तिवाड़ी की मौजूदगी से भी हो गई। बताया जाता है कि वे अब जल्द ही वसुंधरा के नेतृत्व में चल रही सुराज संकल्प यात्रा में शामिल होंगे।
ज्ञातव्य है कि वे वसुंधरा को मुख्यमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट किए जाने के वे शुरू से ही खिलाफ थे। तिवाड़ी की खुली असहमति तब भी उभर कर आई, जब दिल्ली में सुलह वाले दिन ही वे तुरंत वहां से निजी काम के लिए चले गए। इसके बाद वसुंधरा के राजस्थान आगमन पर स्वागत करने भी नहीं गए। श्रीमती वसुंधरा के पद भार संभालने वाले दिन सहित कटारिया के नेता प्रतिपक्ष चुने जाने पर मौजूद तो रहे, मगर कटे-कटे से। कटारिया के स्वागत समारोह में उन्हें बार-बार मंच पर बुलाया गया लेकिन वे अपनी जगह से नहीं हिले और हाथ का इशारा कर इनकार कर दिया। बताते हैं कि इससे पहले तिवाड़ी बैठक में ही नहीं आ रहे थे, लेकिन कटारिया और भूपेंद्र यादव उन्हें घर मनाने गए। इसके बाद ही तिवाड़ी यहां आने के लिए राजी हुए।
ज्ञातव्य है कि उन्होंने उप नेता का पद स्वीकार करने से इंकार कर दिया था और कहा था कि मैं राजनीति में जरूर हूं, लेकिन स्वाभिमान से समझौता करना अपनी शान के खिलाफ समझता हूं। मैं उपनेता का पद स्वीकार नहीं करूंगा। शुचिता और सिद्धांतों की राजनीति करने वाली मौजूदा भाजपा पर टिप्पणी करते हुए उन्होंने कहा कि कोई कहे दाल में काला है, मैं तो कहता हूं इस राजनीति में तो पूरी दाल ही काली है। किसी भी पार्टी में जाकर देख लीजिए। जो बेईमान, चापलूस, भ्रष्ट हैं वो ऊपर हैं, जो कार्यकर्ता हैं वो नीचे हैं। जातिवाद का जहर फैलाया जा रहा है। यह सब क्यों किया जा रहा है? उनके इस बयान पर खासा भी खासी चर्चा हुई कि देव दर्शन में सबसे पहले जाकर भगवान के यहां अर्जी लगाऊंगा कि हे भगवान, हिंदुस्तान की राजनीति में जितने भी भ्रष्ट नेता हैं उनकी जमानत जब्त करा दे, यह प्रार्थना पत्र दूंगा। भगवान को ही नहीं उनके दर्शन करने आने वाले भक्तों से भी कहूंगा कि राजस्थान को बचाओ। राजस्थान को चारागाह समझ रखा है।
बुरी तरह से रूठे भाजपा नेता घनश्याम तिवाड़ी ने देव दर्शन यात्रा की शुरुआत के दौरान जिस प्रकार नाम लिए बिना अपनी ही पार्टी के कई नेताओं पर निशाना साधा, उससे साफ था कि वे नई प्रदेश अध्यक्ष श्रीमती वसुंधरा राजे से तो पीडि़त थे ही, वसुंधरा के खिलाफ बिगुल बजाने वालों के साथ छोड़ जाने से भी दुखी थे। वसुंधरा का नाम लिए बिना उन पर हमला करते हुए जब वे बोले कि राजस्थान को चरागाह समझ रखा है, तो उनका इशारा साफ था कि उन जैसे अनेक स्थानीय नेता तो बर्फ में लगे पड़े हैं और बाहर से आर्इं वसुंधरा उनकी छाती पर मूंग दल रही हैं। वसुंधरा और पार्टी हाईकमान की बेरुखी को वे कुछ इन शब्दों में बयान कर गए-लोग कहते हैं कि घनश्यामजी देव दर्शन यात्रा क्यों कर रहे हैं? घनश्यामजी किसके पास जाएं? सबने कानों में रुई भर रखी है। न कोई दिल्ली में सुनता है, न यहां। सारी दुनिया बोलती है, उस बात को भी नहीं सुनते।
वसुंधरा राजे खिलाफ मुहिम चलाने वाले साथियों पर निशाना साधते हुए वे बोले थे कि जिन लोगों ने गंगा जल हाथ में लेकर न्याय के लिए संघर्ष करने की बात कही थी, वे भी छोटे से पद के लिए छोड़ कर चले गए। उनका सीधा-सीधा इशारा वसुंधरा राजे की कार्यकारिणी में उपाध्यक्ष बने अरुण चतुर्वेदी व औंकार सिंह लखावत और नेता प्रतिपक्ष बने गुलाब चंद कटारिया की ओर था। इसकी पुष्टि उनके इस बयान से होती है कि मेरे पास भी बहुत प्रलोभन आए हैं, पारिवारिक रूप से भी आए हैं, अरे यार क्यों लड़ते हो, आपके बेटे को भी एक टिकट दे देंगे। आप राष्ट्रीय में बन जाओ, उसे प्रदेश में बना दो। हमारी पारिवारिक लड़ाई नहीं है, हजारों कार्यकर्ताओं की लड़ाई है, जो सत्य के लिए लड़ रहे हैं। वे कार्यकर्ताओं की हमदर्दी भुनाने के लिए यह भी बोले कि जो बेईमान, चापलूस, भ्रष्ट हैं वो ऊपर हैं, जो कार्यकर्ता हैं वो नीचे हैं।
उन्हें उम्मीद थी कि आखिरकार संघ पृष्ठभूमि के पुराने नेताओं का उन्हें सहयोग मिलेगा, मगर हुआ ये कि धीरे-धीरे सभी वसुंधरा शरणम गच्छामी होते गए। रामदास अग्रवाल, कैलाश मेघवाल और ओम माथुर जैसे दिग्गज धराशायी हुए तो तिवाड़ी अकेले पड़ गए। उन्हें साफ दिखाई देने लगा कि यदि वे हाशिये पर ही बैठे रहे तो उनका पूरा राजनीतिक केरियर की चौपट हो जाएगा। चर्चा तो यहां तक होने लगी कि अगर वे पार्टी छोड़ते हैं तो उनकी परंपरागत सीट सांगानेर पर किसी और को खड़ा किया जाएगा।
हाल ही गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को राष्ट्रीय स्तर पर प्रचार की जिम्मा दिए जाने के बाद वसुंधरा और मजबूत हो गईं। अब उन्हें किसी भी स्तर पर चुनौती देने की सारी संभावनाएं समाप्त हो गई हैं। ऐसे में रामदास अग्रवाल की समझाइश से उनका दिमाग ठिकाने आ गया है। संभावना ये है कि अब वे किसी भी दिन सुराज संकल्प यात्रा में शामिल हो कर वापस मुख्य धारा में आ सकते हैं।
-तेजवानी गिरधर

शुक्रवार, मई 31, 2013

भाजपा ने उगला जेठमलानी को, अब वे आग उगलेंगे

भारतीय जनता पार्टी के लिए गले की हड्डी बने राज्यसभा सदस्य व वरिष्ठ वकील राम जेठमलानी को आखिर उगल दिया, मगर अब खतरा ये है कि वे भाजपा के खिलाफ आग उगलेंगे। इसका इशारा वे कर भी चुके हैं।
असल में भाजपा जेठमलानी को एक लंबे अरसे से झेल रही थी। संभवत: मात्र इसलिए कि उनके पास एक तो पार्टी के बहुतेरे राज हैं और दूसरा ये कि अपनी स्वच्छंद प्रवृति के कारण कभी भी बड़ा संकट पैदा कर सकते थे। संकट पैदा कर ही रहे थे। नितिन गडकरी की अध्यक्ष पद की कुर्सी जाने में उनकी भी अहम भूमिका थी, जो उनके विरुद्ध अभियान सा छेड़े हुए थे। इतना ही वे चोरी और सीनाजोरी की तर्ज पर आए दिन धमकी भी देते रहे कि है दम तो उन्हें पार्टी से निकाल कर तो दिखाओ। आखिरी नौटंकी उन्होंने पिछले दिनों तब की, जब वे निलंबित होने के बावजूद कार्यसमिति की बैठक में पहुंच गए। उन्होंने जम कर हंगामा भी किया, जिससे एकबारगी मारपीट की नौबत आ गई। उन्होंने आरोप लगाया कि पार्टी ने भ्रष्टाचार के मुद्दे को सही तरीके से नहीं उठाया। यहां तक कि पार्टी की कांग्रेस से मिलीभगत का गंभीर आरोप भी जड़ दिया। पार्टी अनुशासन को ताक पर रख कर उन्होंने नेतृत्व को चेतावनी भी दे दी कि उनका निलंबन वापस लिया जाए या उन्हें पार्टी से निकाल दिया जाए। अपने आप को केडर बेस पार्टी बताने वाले राजनीतिक दल में कोई इस हद तक चला जाए और फिर भी उसके खिलाफ कार्यवाही करने पर विचार करना पड़े या संकोच हो रहा हो तो ये सवाल उठाए जाने लगे कि आखिर जेठमलानी में ऐसी क्या खास बात है कि पार्टी हाईकमान की घिग्घी बंधी हुई है? ऐसे में आखिरकार पार्टी के पास कोई चारा ही नहीं रहा। हालांकि पार्टी जिस कदम से लगातार बचना चाहती थी, वही से उठा कर उन्हें पार्टी से बाहर करना पड़ा। पार्टी अच्छी तरह से समझती है कि बाहर होने के बाद वे काफी दुखदायी होंगे, मगर उससे ज्यादा कष्टप्रद तो वे पार्टी के अंदर रह कर बने हुए थे। अपने आपको सर्वाधिक अनुशासित पार्टी बताने वाली भाजपा का अनुशासन तार-तार किए दे रहे थे। उन्हीं की आड़ ले कर और नेता भी अनुशासन की सीमा रेखा पार करने लगे थे। ऐसे में पार्टी हाईकमान ने यह सोच कर एक मछली सारे तालाब को गंदा कर रही है, बेहतर यही है कि उसे ही बाहर निकाल दिया जाए।
ज्ञातव्य है कि वे लंबे अरसे से पार्टी नेताओं का मुंह नोंच रहे थे। उन्होंने न केवल पूर्व पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी से इस्तीफा देने की मांग की, अपितु सीबीआई के निदेशक की नियुक्ति पर पार्टी के रुख की खुली आलोचना की। तब भी यही धमकी दी थी कि है किसी में हिम्मत कि उनके खिलाफ कार्यवाही कर सके। उनकी इस प्रकार की हिमाकत पर उन्हें निलंबित किया गया। इसके बाद उनका रुख कुछ नरम पडऩे पर निलंबन समाप्त करने का भी विचार बना, मगर जब पानी सिर से ही गुजरने लगा तो पार्टी को उनसे पिंड छुड़वाना ही पड़ा।
आपको याद होगा कि ये वही जेठमलानी हैं, जिनको भारी अंतर्विरोध के बावजूद राज्यसभा चुनाव के दौरान पूर्व मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे  न केवल पार्टी प्रत्याशी बनवा कर आईं, बल्कि विधायकों पर अपनी पकड़ के दम पर वे उन्हें जितवाने में भी कामयाब हो गईं। तभी इस बात की पुष्टि हो गई थी कि जेठमलानी के हाथ में जरूर भाजपा के बड़े नेताओं की कमजोर नस है। भाजपा के कुछ नेता उनके हाथ की कठपुतली हैं। उनके पास पार्टी का कोई ऐसा राज है, जिसे यदि उन्होंने उजागर कर दिया तो भारी उथल-पुथल हो सकती है।
यहां यह बताना प्रासंगिक होगा कि ये वही जेठमलानी हैं, जिन्होंने भाजपाइयों के आदर्श वीर सावरकर की तुलना पाकिस्तान के संस्थापक जिन्ना से की थी। इतना ही नहीं उन्होंने जिन्ना को इंच-इंच धर्मनिरपेक्ष तक करार दे दिया था। पार्टी के अनुशासन में वे कभी नहीं बंधे। पार्टी की मनाही के बाद भी उन्होंने इंदिरा गांधी के हत्यारों का केस लड़ा। इतना ही नहीं उन्होंने संसद पर हमला करने वाले अफजल गुरु को फांसी नहीं देने की वकालत की, जबकि भाजपा अफजल को फांसी देने के लिए आंदोलन चला रही है। वे भाजपा के खिलाफ किस सीमा तक चले गए, इसका सबसे बड़ा उदाहरण ये रहा कि वे पार्टी के शीर्ष नेता अटल बिहारी वाजपेयी के खिलाफ ही चुनाव मैदान में उतर गए।
बहरहाल, अब जब कि पार्टी ने मन कड़ा करते हुए सख्त कदम उठा लिया है, ये खतरा लगातार बना ही हुआ है कि वे कोई न कोई षड्यंत्र रचेंगे, मगर समझा जाता है कि पार्टी उसके लिए तैयार है।
-तेजवानी गिरधर

शुक्रवार, मई 24, 2013

फैसले के अतिरिक्त टिप्पणियां करना कितना उचित?

supreme courtइन दिनों एक जुमला बड़ा चर्चित है। वो है कि सीबीआई पिंजरे में कैद तोता है, जो केवल सरकार की भाषा बोलता है। असल में यह देश के सर्वोच्च न्यायालय की ओर से की गई टिप्पणी है, जिसका प्रतिपक्षी नेता जम कर इस्तेमाल कर रहे हैं। इस पर सैकड़ों कार्टून बन चुके हैं। हाल ही यूपीए टू सरकार के चार साल पूरे होने पर देश की राजधानी दिल्ली में भारतीय जनता युवा मोर्चा की ओर से जो रैली निकाली गई, उसमें तो बाकायदा तोते के एक पुतले को शामिल किया गया, जिस पर बड़े-बड़े अक्षरों में सीबीआई लिखा हुआ था।
बेशक न्यायालय की टिप्पणी विपक्ष को अनुकूल तो सरकार को प्रतिकूल पड़ती है, मगर निष्पक्ष रूप से विचार किया जाए तो सवाल ये उठता है कि क्या सुप्रीम कोर्ट के पास कानून के तहत फैसले सुनाने के अधिकार के साथ इस प्रकार की तीखी टिप्पणी करने का भी अधिकार है, जिसने एक संवैधानिक संस्था को इतना बदनाम कर दिया है, जिससे उसे कभी छुटकारा नहीं मिल पाएगा। यह एक नजीर जैसी हो गई है।
हालांकि यह सही है कि जिस मामले में यह टिप्पणी की गई है, उसमें सीबीआई ने सरकार के इशारे पर काम किया, इस कारण टिप्पणी ठीक ही प्रतीत होती है, मगर वह वाकई सरकार का गुलाम तोता ही होती तो सच-सच क्यों बोलती। उसने जो हल्फनामा पेश किया, उसमें भी सरकार की ओर से कही गई भाषा ही बोलती।
इसमें कोई दो राय नहीं कि सीबीआई का कई बार दुरुपयोग होता है, या उसको पूरी तरह से स्वतंत्र होना ही चाहिए, उसके कामकाज में सरकारी दखल नहीं होना चाहिए, मगर टिप्पणी से निकल रहे अर्थ की तरह उसका दुरुपयोग ही होता है या दुरुपयोग के लिए ही उसका वजूद है अथवा वह पूरी तरह से सरकार के कहने पर ही चल रही है, यह कहना उचित नहीं होगा। अगर ऐसा ही होता तो वह केवल प्रतिपक्ष के नेताओं पर ही कार्यवाही करती, सरकारी मंत्रियों को शिकंजे में कैसे लेती? इसे यह तर्क दे कर काटा जा सकता है कि सरकार अपनी सुविधा के अनुसार उसका उपयोग करती है और बहुत राजनीतिक जरूरत होने पर अपने मंत्रियों को भी लपेट देती है, मगर यह बात आसानी से गले नहीं उतरती कि मात्र कोर्ट की टिप्पणी की वजह से ही सरकार ने अपने मंत्री शहीद कर दिए।
वस्तुत: न्यायालय ने यह टिप्पणी करके सीबीआई के अस्तित्व पर ही एक प्रश्रचिन्ह खड़ा कर दिया है। चूंकि सर्वोच्च न्यायालय सबसे बड़ी कानूनी संवैधानिक संस्था है, इस कारण वह किसी के भी बारे में कुछ भी टिप्पणी कर सकती है, इसको लेकर बहस छिड़ी हुई है। इसकी पहल की कांग्रेस के बड़बोले महासचिव दिग्विजय सिंह ने। हालांकि न्यायालय की अवमानना के डर से वे कुछ संभल कर बोले, मगर जन चर्चा में इस प्रकार की टिप्पणी को उचित नहीं माना जा रहा।
वैसे यह पहला मौका नहीं है कि न्यायपालिका की ओर से इस प्रकार की टिप्पणी आई है। इससे पूर्व भी वह ऐसी व्याख्या कर देती है, जिसमें शब्दों को उचित चयन न होने का आभास होता रहा है। विशेष रूप से पुलिस तो सदैव नीचे से लेकर ऊपर तक जलील की जाती रही है। माना कि पुलिस अधिकारी विशेष अगर गलत करता है तो उस पर टिप्पणी की जा सकती है, मगर वही टिप्पणी अगर पूरे पुलिस तंत्र पर चस्पा हो जाती है तो कहीं न कहीं अन्याय होता प्रतीत होता है।
आम धारणा है कि लोकतंत्र में न्यायपालिका सर्वोच्च है, मगर सच ये है कि विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका, तीनों एक दूसरे के पूरक तो होते ही हैं, नियंत्रक भी होते हैं। तीनों के पास अपने-अपने अधिकार हैं तो अपनी-अपनी सीमाएं भी। ऐसे ये कहना कि इन तीनों में न्यायपालिका सर्वोच्च है, गलत होगा। जहां विधायिका कानून बनाती है तो न्यायपालिका उसी कानून के तहत न्याय करती है। स्पष्ट सीमा रेखाओं के बाद भी दोनों के बीच कई बार टकराव होते देखा गया है। प्रधानमंत्रियों तक को न्यायपालिका को अपनी सीमा में रहने का आग्रह करना पड़ा है। इसकी वजह ये है कि न्यायपालिका की टिप्पणियों की वजह से कई बार विधायिका को बड़ी बदनामी झेलनी पड़ती है। कई बार तो ऐसा आभास होता है कि न्यायपालिका इस प्रकार की टिप्पणियां करके अपने आपको सर्वोच्च जताना चाहती है। वह यह भी प्रदर्शित करती प्रतीत होती है कि चूंकि विधायिका ठीक से काम नहीं कर रही इस कारण उसे कठोर होना पड़ रहा है। मगर सवाल ये है कि अगर न्यायपालिका के उच्च पदों पर बैठे व्यक्ति विशेष अगर अतिक्रमण करें और एक आदत की तरह फैसले के अतिरिक्त टिप्पणियां भी करे तो उसकी देखरेख कौन करेगा? अर्थात अगर कोई न्यायाधीश अलिखित रूप से कोई अवांछित टिप्पणी कर दे तो प्रभावित किस के पास अपील करे? कदाचित पूर्व में न्यायाधीश इस प्रकार की टिप्पणियां करते रहे होंगे, मगर आज जब कि मीडिया अत्यधिक गतिमान हो गया है तो फैसले की बजाय इस प्रकार की टिप्पणयां प्रमुखता से उभर कर आती हैं। और नतीजा ये होता है कि जिन न्यायाधीशों का उल्लेख करते हुए सम्मानीय शब्द का संबोधन करना होता है, उनके बड़बोले होने का आभास होता है।
आखिर में एक महत्वपूर्ण बात। अगर उच्चतम न्यायालय की ताजा टिप्पणी पर चर्चा करना अथवा उसके प्रतिकूल राय जाहिर करना उसकी अवमानना है तो उस टिप्पणी का विपक्षी दलों का अपने पक्ष में राजनीतिक इस्तेमाल या इंटरपिटेशन करना क्या है? क्या संदर्भ विशेष में न्यायालय की टिप्पणी करने के अधिकार की तरह अन्य किसी को भी उस टिप्पणी का हवाला देकर हमले करने का अधिकार है?
इस सिलसिले में हाल ही हुआ एक प्रकरण आपकी नजर है। बीते दिनों जब राजस्थान की राज्यपाल मारग्रेट अल्वा ने एक समारोह में कहा कि अधिकारी योजनाएं तो खूब बनाते हैं, मगर उनका क्रियान्वयन ठीक से नहीं होता, तो उनके बयान का प्रदेश भाजपा अध्यक्ष श्रीमती वसुंधरा राजे ने इस्तेमाल करते हुए सरकार पर हमला करना शुरू कर दिया। इस पर अल्वा को आखिर कहना पड़ा कि उनके बयान का राजनीतिक इस्तेमाल करना ठीक नहीं है और कम से कम राजनीतिक छींटाकशी में उन्हें तो मुक्त ही रखें।
-तेजवानी गिरधर

सोमवार, मई 20, 2013

कटारिया के फंसने से भाजपा की जान सांसत में


सोहराबुद्दीन फर्जी मुठभेड़ मामले में सीबीआई ने भले ही राजस्थान के पूर्व गृहमंत्री गुलाबचंद कटारिया को आरोपी बना कर अपनी अब तक की कार्यवाही को आगे बढ़ाया हो, मगर इसके राजनीतिक निहितार्थ ये ही हैं कि इससे मुख्यमंत्री बनने का सपना देख रहीं प्रदेश भाजपा अध्यक्ष श्रीमती वसुंधरा राजे को बड़ा झटका लगा है। भले ही भाजपा कटारिया के फंसने को राजनीतिक दुश्मनी करार दे, मगर सच वह भी जानती है कि ऐन चुनाव से पहले उनका एक महत्वपूर्ण विकिट गिर गया है। वसुंधरा के साथ कंधे से कंधा मिला कर चल रहे कटारिया के उलझने की वजह से उनकी कथित रूप से बड़ी तेजी व उत्साह के साल चल रही सुराज संकल्प यात्रा में भी विघ्न आएगा ही। संभव है कटारिया की गिरफ्तारी होने पर उन्हें नया नेता प्रतिपक्ष चुनना पड़े और उसके साथ वसुंधरा की कैसी पटेगी कुछ कहा नहीं जा सकता। वैसे वसुंधरा मन ही मन इस बात से खुश जरूर हो रही होंगी कि उनको सबसे ज्यादा परेशान करने वाले कटारिया मुसीबत में हैं, मगर पार्टी के नाते उनके लिए एक बड़ा सकंट हो गया है। वसुंधरा के लिए अभी इसका मतलब उतना नहीं है कि उनका कोई प्रतिद्वंद्वी कमजोर हो, बल्कि इसका है कि वे किसी भी प्रकार सत्ता में आ जाएं, प्रतिद्वंद्वियों से तो तालमेल बैठा ही लेंगे।
ज्ञातव्य है कि वर्ष 2005 में गुजरात पुलिस ने मुठभेड़ में सोहराबुद्दीन को मार गिराने का दावा किया था। इस मुठभेड़ को सोहराबुद्दीन के परिवार जनों ने फर्जी मुठभेड़ बताया। इसके बाद सोहराबुद्दीन का साथी तुलसी प्रजापति भी पुलिस मुठभेड़ में मारा गया। इस मामले में उदयपुर के पूर्व एसपी दिनेश एमएन सहित चार पुलिस अफसर जेल में हैं। कुछ समय पहले ही सीबीआई ने गुलाबचंद कटारिया को गांधी नगर बुला कर उनसे लंबी पूछताछ की थी। बाद में चूंकि इस मामले की कार्यवाही धीरे चल रही थी, इस कारण लोग इसे लगभग भूल चुके थे, मगर राजनीति के जानकार समझ रहे थे कि कटारिया की मामले में संलिप्तता के कुछ सूत्र पकड़ में आते ही उन्हें लपेट दिया जाएगा। आखिर वही हुआ।
मसले का एक पहुल ये भी है कि हालांकि कटारिया वसुंधरा से समझौता करके उनके साथ सुराज संकल्प यात्रा में सहयोग कर रहे हैं, मगर जितनी जद्दोजहद के बाद कटारिया व संघ लॉबी समझौते के राजी हुई है, उसकी वजह से पड़ी खटास कम से कम कार्यकर्ताओं में देखी ही जाती है। उदयपुर संभाग में अब भी कार्यकर्ता कटारिया व विधायक किरण माहेश्वरी खेमे में बंटे हुए हैं। स्वाभाविक है ताजा घटनाक्रम से किरण माहेश्वरी लॉबी भी उत्साहित हो कर हावी होने की कोशिश करेगी।
हां, एक बात जरूर है कि ताजा चुनावी माहौल में आरोप-प्रत्यारोप के दौर में कटारिया प्रकरण से गरमी और बढ़ेगी और भाजपा को यह कहने का मौका मिल जाएगा कि कांग्रेस हार की आशंका से बौखलाहट के चलते बदले की भावना से सीबीआई का दुरुपयोग करवा रही है। भले ही सीबीआई स्वतंत्र रूप से काम कर रही हो, मगर संभव है चुनावी माहौल में इस नए मोड़ पर भाजपा को जनता की संदेवना का लाभ मिल जाए।
-तेजवानी गिरधर

भाजपा अमित शाह के जरिए यूपी में खेलेगी हिंदू कार्ड


गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के खासमखास और प्रखर हिंदूवादी चेहरे गुजरात के पूर्व गृह मंत्री अमित शाह को उत्तर प्रदेश का प्रभारी बनाए जाने के साथ यह स्पष्ट हो गया है कि इस बार भाजपा वहां हिंदूवादी कार्ड खेलेगी। कहने की जरूरत नहीं है कि शाह वहां मोदी के ही दूत बन कर काम करेंगे, जिसका सीधा-सीधा मतलब ये है कि इस बार वहां हिंदू वोटों को लामबंद करने की कोशिश की जाएगी। भाजपा के लिए इससे बड़ा आखिरी विकल्प हो भी नहीं सकता था।
यूं उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के दौरान भाजपा ने वहां फायर ब्रांड हिंदूवादी नेता व मध्यप्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती को तैनात किया था, मगर तब उसका उसका मूल मकसद जातिवाद में बुरी तरह से जकड़े उत्तरप्रदेश में लोधी वोटों में सेंध मारी जाए, मगर वे कामयाब नहीं हो पाईं। पूर्व भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी के इस फैसले की पार्टी में आलोचना भी हुई, मगर संघ के दबाव  में मामला दफन कर दिया गया।
समझा जाता है कि इस बारे में भाजपा अध्यक्ष राजनाथ की सोच है कि जिस तरह मोदी एक बड़े नेता के रूप में उभरे हैं और हिंदुओं के अतिरिक्त मुस्लिमों पर भी उन्होंने अपनी पकड़ साबित की है, उनकी छत्रछाया में काम करने वाले अमित शाह वहां के समीकरणों को भाजपा के पक्ष में ला सकते हैं। वे मोदी फैक्टर को आजमाने की पृष्ठभूमि भी तैयार करेंगे। उल्लेखनीय है कि उत्तरप्रदेश में भाजपा की जाजम बिछाने के लिए मोदी को वहां से चुनाव लड़ाने के कयास लगाए जाते रहे हैं। हालांकि यह भी एक प्रयोग मात्र है, मगर इसके कामयाब होने की संभावना काफी नजर आती है। वैसे भी भाजपा में उत्तरप्रदेश पृष्ठभूमि के दमदार नेता वहां खारिज हो चुके हैं, ऐसे में अमित शाह वाला प्रयोग कदाचित कामयाब हो सकता है। ज्ञातव्य है कि  भाजपा आलाकमान से नाराजगी के चलते पिछले विधानसभा चुनाव में मोदी प्रचार के लिए भी यूपी नहीं गए थे। इसके पक्ष में एक तर्क ये भी दिया जाता था कि मोदी के वहां जाने से मुस्लिम वोटों का धु्रवीकरण हो सकता है, जो भाजपा के लिए नुकसानदेह होता। लेकिन अब स्थितियां बदली हैं और मोदी का जादू वहां चल सकता है। और इसका फायदा भाजपा को लोकसभा चुनाव में हो सकता है।
-तेजवानी गिरधर

गुरुवार, मई 16, 2013

वसुंधरा ने कहां किया राज्यपाल की मर्यादा का हनन?


प्रदेश की कांग्रेस सरकार पर एक प्रतिकूल टिप्पणी करने को जैसे ही पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने लपका, राज्यपाल मारग्रेट अल्वा को मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की मौजूदगी में कहना पड़ गया कि राजस्थान में इस समय राजनीतिक यात्राएं निकल रही हैं, इनमें भाजपा और कांग्रेस दोनों ओर से क्रॉस फायर हो रहे हैं, लेकिन इसमें मुझे नहीं घसीटा जाए। मुझे लेकर किसी तरह की टिप्पणियां नहीं होनी चाहिए।
बेशक राज्यपाल का पद गरिमामय होता है और उन पर टिप्पणी करना राजनीतिक मर्यादा के विपरीत है, मगर वसुंधरा ने तो मात्र उनकी टिप्पणी का ही उल्लेख किया था, जो कि सरकार के खिलाफ पड़ती थी। ज्ञातव्य है कि राज्यपाल ने गत दिवस सीआईआई और इंडियन ग्रीन बिल्डिंग कौंसिल के ग्रीन बिल्डिंग एंड रिन्युएबल एनर्जी सेमिनार में कहा कि अधिकारी योजनाएं तो खूब बनाते हैं, घोषणाएं भी बहुत होती हैं, लेकिन क्रियान्विति नहीं होती। यही आरोप तो वसुंधरा पिछले एक माह से अपनी सुराज संकल्प यात्रा के दौरान लगा रही हैं। मीडिया भी यही कहता रहा है कि गहलोत सरकार के पास गिनाने को तो बहुत जनोपयोगी व लोककल्याणकारी योजनाएं हैं, मगर न तो ठीक से उनकी क्रियान्विति हो पा रही हैं और न ही उनकी उचित मॉनीटरिंग होती है। इस सिलसिले में नि:शुल्क दवा योजना को प्रमुख रूप से गिनाया जाता है, जिस पर न तो प्रशासनिक तंत्र ने ठीक से अमल किया है और न ही आम आदमी को पूरा लाभ मिल पा रहा है। चिकित्सकीय स्टाफ द्वारा मुफ्त दवाई घर ले जाने अथवा बाजार में बिकने के अनेक मामले सामने आ चुके हैं। जैसे ही योजनाओं के क्रियान्वयन की खामी को लेकर राज्यपाल ने भी बयान दिया तो वसुंधरा ने उसे तुरंत लपक कर कह दिया कि अब तो राज्यपाल भी वही कह रही हैं, जो कि हम कह रहे थे। इसमें मर्यादा के हनन जैसा तो कुछ है नहीं। मगर चूंकि राज्यपाल के बयान से भाजपा के आरोप की पुष्टि हो रही थी, इस कारण मुख्यमंत्री अशोक गहलोत से जवाब देते नहीं बन रहा। सो अब कह रहे हैं कि राज्यपाल को मुद्दा बनाना दुर्भाग्यपूर्ण है। गहलोत का कहना है कि राज्यपाल ने पहले भी सरकारों के प्रति नाराजगी जाहिर की। पूर्व राज्यपाल मदनलाल खुराना ने तो भूख से मौतों को लेकर क्या कुछ नहीं कहा। वे खुद दौरा करने गए थे। तब तो प्रदेश में हमारी सरकार नहीं थी। हम राज्यपाल को राजनीतिक मुद्दा बनाएं, उन्हें लेकर टिप्पणियां करें, यह उनकी गरिमा के अनुकूल नहीं है। माना कि गहलोत ठीक कह रहे हैं, मगर इससे योजनाओं की क्रियान्विति ठीक से नहीं होने के आरोप से तो कत्तई मुक्त नहीं हो पाएंगे।
बहरहाल, गहलोत को घिरा देख कर राज्यपाल को भी लगा कि उनका सामान्य तौर पर दिए गए बयान ने राजनीतिक रंग ले लिया है तो उन्हें यह कहने को मजबूर होना पड़ा कि वर्तमान सरकार से मेरी कोई नाराजगी नहीं है। ऐसा भी नहीं है कि वे सरकार के कामकाज से नाखुश हैं। जो भी मुद्दे अथवा समस्याएं उनके सामने आती हैं, उनके बारे में वे अपने सुझाव सरकार को समय-समय पर भेजती रहती हैं। सरकार उन पर अमल भी करती है।
अपुन ने पहले ही लिख दिया था कि संभव है वसुंधरा के हमले के बाद मारेग्रेट अल्वा को ख्याल आया हो कि चुनावी साल में उन्होंने क्या कह दिया और वह सच निकल गया। राज्यपाल व मुख्यमंत्री, दोनों को सफाई देनी पड़ गई। अपना तो अब भी मानना है कि इन सफाइयों व मर्यादाओं के पाठ से गहलोत इस आरोप से तो मुक्ति नहीं पा सकेंगे कि अफसरशाही हावी है और वे अपने मन के मुताबिक अच्छी योजनाओं को ठीक से अमल करवा पाने में नाकामयाब रहे हैं।
-तेजवानी गिरधर

सोमवार, मई 13, 2013

भाजपा के गले की हड्डी हैं राम जेठमलानी?


भाजपा के निलंबित सांसद वरिष्ठ वकील राम जेठमलानी पार्टी के लिए गले ही हड्डी बन गए प्रतीत होते हैं, जो न उगलते बनती है, न निगलते बनती है। हाल ही वे न केवल बिना बुलाए ही पार्टी संसदीय दल की बैठक में पहुंच गए, अपितु उन्होंने हंगामा भी किया, जिससे एकबारगी मारपीट की नौबत आ गई। उन्होंने आरोप लगाया कि पार्टी ने भ्रष्टाचार के मुद्दे को सही तरीके से नहीं उठाया। यहां तक कि पार्टी की कांग्रेस से मिलीभगत का गंभीर आरोप भी जड़ दिया। पार्टी अनुशासन को ताक पर रख कर उन्होंने नेतृत्व को चेतावनी भी दे दी कि उनका निलंबन वापस लिया जाए या उन्हें पार्टी से निकाल दिया जाए। अपने आप को केडर बेस पार्टी बताने वाले राजनीतिक दल में कोई इस हद तक चला जाए और फिर भी उसके खिलाफ कार्यवाही करने पर विचार करना पड़े या संकोच हो रहा हो तो यह सवाल उठना लाजिमी ही है कि आखिर जेठमलानी में ऐसी क्या खास बात है कि पार्टी हाईकमान की घिग्घी बंधी हुई है?
पार्टी के नेता उनसे कितने घबराए हुए हैं, इसका अंदाजा इसी बात से लग जाता है कि एक तो निलंबन के बाद भी उन्हें बैठक में आने से नहीं रोका गया? इतना ही नहीं उन्हें बोलने का मौका भी दिया गया। यदि इसके लिए पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र की दुहाई दी जाती है और यह कह कर आंखें मूंदी जाती हैं कि उन्हें भी अपना पक्ष रखने का अवसर दिया गया, तो इस सवाल का जवाब क्या है कि पार्टी के वजूद को ही चुनौती देने के बाद भी उनके खिलाफ कार्यवाही करने में संकोच क्यों हो रहा है?
ज्ञातव्य है कि जनवरी में पार्टी के खिलाफ बयानबाजी करने पर उन्हें निलंबित कर दिया था, इस कारण उन्हें संसदीय दल की बैठक में नहीं बुलाया गया था। बावजूद इसके बाद भी वे बैठक में शामिल हो गए।
यह पहला मौका नहीं है कि वे पार्टी नेताओं का मुंह नोंच रहे हैं, इससे पहले भी जब उन्होंने पूर्व पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी से इस्तीफा देने को कहा और सीबीआई के निदेशक की नियुक्ति पर पार्टी के रुख की खुली आलोचना की थी, तब भी यही धमकी दी थी कि है किसी में हिम्मत कि उनके खिलाफ कार्यवाही कर सके। गडकरी के पूर्ती उद्योग समूह में निवेश की अनियमितताओं के आरोपों पर जेठमलानी ने सार्वजनिक रूप से यह कहा था कि पाक साफ साबित होने तक उन्हें अध्यक्ष पद से इस्तीफा देना चाहिए। वह पार्टी के लिए बड़ा कठिन समय था, जब अरविंद केजरीवाल की ओर से भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी पर सीधे हमले किए जा रहे थे और पूरी भाजपा उनके बचाव में आ खड़ी हुई थी। ऐसे बुरे वक्त में उनका यह कहना कि वे भाजपा अध्यक्ष रहते हुए गडकरी द्वारा लिए गए गलत फैसलों के सबूत पेश करेंगे, तो यह पूरी पार्टी को कितना नागवार गुजरा होगा।
उनकी इस प्रकार की हिमाकत पर उन्हें निलंबित किया गया, मगर बाद में जानकारी मिली कि वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी और गडकरी से मुलाकात में उन्होंने भाजपा की विचारधारा में अपनी पक्की आस्था होने की बात कही तो यह संकेत मिले कि उनका निलंबन समाप्त कर दिया जाएगा। भाजपा प्रवक्ता शाहनवाज हुसैन ने भी निलंबन समाप्त करने की उम्मीद जताई थी, मगर मामला लटका रहा। जब पार्टी ने इसे लंबा खींचने की कोशिश की तो उन्होंने एक बार फिर पार्टी को चुनौती दे दी है।
आपको याद होगा कि ये वही जेठमलानी हैं, जिनको भारी अंतर्विरोध के बावजूद राज्यसभा चुनाव के दौरान पूर्व मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे  न केवल पार्टी प्रत्याशी बनवा कर आईं, बल्कि विधायकों पर अपनी पकड़ के दम पर वे उन्हें जितवाने में भी कामयाब हो गईं। तभी इस बात की पुष्टि हो गई थी कि जेठमलानी के हाथ में जरूर भाजपा के बड़े नेताओं की कमजोर नस है। भाजपा के कुछ नेता उनके हाथ की कठपुतली हैं। उनके पास पार्टी का कोई ऐसा राज है, जिसे यदि उन्होंने उजागर कर दिया तो भारी उथल-पुथल हो सकती है। स्पष्ट है कि वे भाजपा नेताओं को ब्लैकमेल कर पार्टी में बने हुए हैं।
यहां यह बताना प्रासंगिक होगा कि ये वही जेठमलानी हैं, जिन्होंने भाजपाइयों के आदर्श वीर सावरकर की तुलना पाकिस्तान के संस्थापक जिन्ना से की थी। इतना ही नहीं उन्होंने जिन्ना को इंच-इंच धर्मनिरपेक्ष तक करार दे दिया था। पार्टी के अनुशासन में वे कभी नहीं बंधे। पार्टी की मनाही के बाद भी उन्होंने इंदिरा गांधी के हत्यारों का केस लड़ा। इतना ही नहीं उन्होंने संसद पर हमला करने वाले अफजल गुरु को फांसी नहीं देने की वकालत की, जबकि भाजपा अफजल को फांसी देने के लिए आंदोलन चला रही है। वे भाजपा के खिलाफ किस सीमा तक चले गए, इसका सबसे बड़ा उदाहरण ये रहा कि वे पार्टी के शीर्ष नेता अटल बिहारी वाजपेयी के खिलाफ ही चुनाव मैदान में उतर गए।
कुल मिला का यह स्पष्ट है कि अपने आप को बड़ी आदर्शवादी, साफ-सुथरी और अनुशासन में सिरमौर मानने वाली भाजपा को जेठमलानी ब्लैकमेल कर रहे हैं।
-तेजवानी गिरधर

सोमवार, मई 06, 2013

सरबजीत को शहीद का दर्जा देने पर उठ रहे सवाल?


पाकिस्तान की कोट लखपत जेल में अन्य कैदियों के हमले में मारे गए भारतीय कैदी सरबजीत, जो कि आज पूरे भारत की संवेदना के केन्द्र हो गए हैं, को पंजाब की सरकार की ओर से शहीद दर्जा दे कर पूरे राजकीय सम्मान के साथ अंतिम संस्कार किए जाने पर सवाल उठ रहे हैं। उन्हें जिस तरह से निर्ममता पूर्वक मारा गया, उससे हर भारतीय में मन में पाकिस्तान के खिलाफ गुस्सा उफन रहा है, मगर सरबजीत की बहन दरबीर कौर की मांग तो तुरंत स्वीकार कर जिस प्रकार पंजाब की विधानसभा ने शहीद का दर्जा देने का प्रस्ताव पारित किया, उसमें कई लोगों को राजनीति की बू आती है।
हालांकि इस वक्त पूरे देश में जिस तरह का माहौल है, उसमें किसी भी राजनीतिक दल में इस बात का साहस नहीं कि वह इस मुद्दे की बारिकी में जा कर सवाल खड़े करे, न ही प्रिंट और इलैक्ट्रॉनिक मीडिया की हिम्मत है कि वह इस पर चूं भी बोल जाए, मगर सोशल मीडिया में कहीं-कहीं से ये आवाज आने लगी है कि सरबजीत को शहीद का दर्जा किस आधार पर दिया गया? क्या इसे सरबजीत के परिवार के प्रति उपजी संवेदना को तुष्ट मात्र करने और इसके जरिए वोट पक्के करने के लिए की राजनीतिक कवायद करार नहीं दिया जाना चाहिए?
मौजूदा माहौल में, जबकि पूरे देश में सरबजीत के प्रति अपार श्रद्धा उमड़ रही है, ऐसा सवाल करना अनुचित प्रतीत होता है और कदाचित कुछ लोगों की भावनाओं को आहत भी कर सकता है, मगर उनकी इस बात में दम तो है। सवाल उठता है कि आखिर किसी को शहीद का दर्जा दिए जाने के कोई मापदंड नहीं हैं? क्या गलती से पाकिस्तान चले जाने पर जासूसी करने के आरोप पकड़े गए व्यक्ति की हत्या और सीमा पर दुश्मन से लड़ते हुए अथवा देश में आतंकियों से जूझते हुए मरे सैनिक या सिपाही की मौत में कोई फर्क नहीं है? बेशक उसे एक हिंदुस्तानी होने की वजह से ही पाकिस्तान की कुत्सित हरकत का शिकार होना पड़ा,  जिसकी ओर सरबजीत की बहन ने भी इशारा किया है, और इसी आधार पर उसे शहीद का दर्जा दिए जाने की मांग कर डाली, मगर सवाल ये है कि क्या वह देश के लिए मारा गया? भारत देश का होने की वजह से मारे जाने और भारत की अस्मिता के लिए प्राण उत्सर्ग करने वाले में क्या कोई फर्क नहीं होना चाहिए? यदि इस प्रकार हम पाकिस्तान में मारे जाने वाले भारतीयों को शहीद का दर्जा देने लगे तो क्या हम उन सभी भारतीयों को भी शहीद का दर्जा देंगे, जो पाकिस्तान की जेलों में बंद हैं और उनकी निर्मम हरकतों से मौत का शिकार होंगे? क्या उन्हें भी हम इसी प्रकार विशेष आर्थिक पैकेज देने को तैयार हैं?
मामला कुल जमा ये लगता है कि चूंकि सरबजीत की बहन दलबीर कौर अपने भाई की रिहाई को मुद्दा बनाने में कामयाब हो गई, इस कारण सरबजती की हत्या की गई तो सरबजीत हीरो बन गए। करोड़ों लोगों की भावनाएं उनसे जुड़ गईं। सरकार की नाकामी स्थापित हो गई, कारण वह विपक्ष के निशाने पर आ गई। वरना अन्य सैकड़ों निर्दोष भारतीय भी पाकिस्तान की जेलों में बंद हैं, मगर चूंकि उनके परिवार में दलबीर कौर जैसी तेज-तर्रार महिला नहीं है, उनके पास मुद्दा बनाने को पैसा नहीं है या मुद्दा बना कर समाज से चंदा लेने की चतुराई नहीं है, इस कारण वे गुमनामी की जिंदगी जीते हुए रिहाई या मौत का इंतजार कर रहे हैं। यानि को ऐसे मसले को मुद्दा बनाने में कामयाब हो जाए, उसके आगे राजनीतिज्ञ स्वार्थ की खातिर नतमस्तक हो जाएंगे, बाकी के परिवार वालों के आंसू पौंछने वाला कोई पैदा नहीं होगा। दलबीर कौर मुद्दा बनाने में कितनी माहिर निकलीं, इसका अंदाजा इसी बात से लग जाता है कि सरबजीत के गांव भिक्खीविंड में हिंदी बोलने व समझने वाले लोग इतने ही होंगे कि उंगलियों पर गिने जा सकते हैं, फिर भी यहां के बच्चों के हाथों में हिंदी में लिखे बैनर थमा कर हिंदी में नारे लगवाते कई चैनलों पर दिखाए गए।
इस मुद्दे का एक पहलु ये भी है कि कदाचित सरबजीत वाकई भारत के लिए जासूसी करने को पाकिस्तान गए थे, तो फिर इसे स्वीकार किया जाना चाहिए। यदि ऐसा स्पष्ट रूप से न कह पाना सरकार की अंतरराष्ट्रीय मजबूरी है तो भी क्या सरबजीत की रिहाई के लिए वैसे ही प्रयास नहीं किए जाने चाहिए थे, जैसे कि मुफ्ती मोहम्मद सईद की साहिबजादी की रिहाई के लिए किए गए थे?
इस सिलसिले में नवभारत टाइम्स के ब्लॉगर सैक्शन में रजनीश कुमार ने लिखा है कि सरबजीत के परिवार वालों के अनुसार सरबजीत शराब के नशे में सरहद पार हो गया था, तो पाकिस्तान का कहना है कि उसका कराची विस्फोट में हाथ है और इसमें वहां की अदालत ने उसे फांसी की सजा सुनाई थी। परिवार की बात भी हम मानकर चलें तो शराब पीकर सरहद पार करने वाला शहीद कैसे हो सकता है? क्या ऐसा नहीं होना चाहिए कि जिन सबूतों के आधार पर पाकिस्तान सरबजीत को आतंकवादी कह रहा था उसकी छानबीन भारत सरकार को करनी चाहिए थी? चुनावी राजनीति में सत्ता पाने के लिए शहीद का तमगा ऐसे बांटना उन शहीदों का अपमान है, जो सच में देश के लिए मर मिटे।
उन्होंने पंजाब सरकार की नजर में शहीद की परिभाषा पर सवाल उठाते हुए कहा है कि पंजाब की अकाली सरकार के लिए पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के हत्यारे भी शहीद हैं। अकाली का समर्थन हासिल गुरुद्वारा प्रबंधक कमिटी के कैलेंडर में ऐसे कई लोग शामिल हैं जिन्हें शहीद का दर्जा दिया गया है। सिखों की सबसे बड़ी रिप्रेजेंटेटिव बॉडी शिरोमणि गरुद्वारा प्रबंधक कमिटी के नानकशाही कैलेंडर में कुछ तारीखों को ऐतिहासिक दर्जा दिया गया है। इसमें पूर्व प्रधानमंत्री के हत्यारे सतवंत सिंह और बेअंत सिंह की डेथ ऐनिवर्सरी भी शामिल है। यकीन मानिए आज के वक्त में वे सारे मरने वाले शहीद हैं, जिनसे यहां की सियासी पार्टियों को सत्ता पाने में मदद मिलती है, जैसे तमिलनाडु की सियासी पार्टियों के लिए प्रभाकरण कभी आंतकी नहीं रहा।
इस बारे में फेसबुक पर एक सज्जन विनय शर्मा ने लिखा है कि इसमें कोई शक नहीं कि सरबजीत भारतीय नागरिक था और वह पाकिस्तान में साजिशन मारा गया, मगर क्या यह जानना हमारा हक नहीं कि ऐसा उसने क्या किया था कि उसे शहीद का दर्जा दिया गया?
हालांकि इस सवाल का जवाब कोई नहीं देगा, मगर इस वजह से यह सवाल सदैव कायम रहेगा, चुप्पी से सवाल समाप्त नहीं जाएगा।
-तेजवानी गिरधर

शनिवार, मई 04, 2013

सीबीआई यकायक इतनी ईमानदार कैसे हो गई?


देश के रेल मंत्री पवन कुमार बंसल के भानजे विजय सिंगला को सीबीआई द्वारा रिश्वत लेते हुए गिरफ्तार किए जाने के साथ ही यह सवाल उठ खड़ा हुआ है कि सीबीआई यकायक इतनी ईमानदार कैसे हो गई? जिस सीबीआई को विपक्ष कांग्रेस ब्यूरो ऑफ इन्वेस्टीगेशन की उपमा देती रही है, उसने रेल मंत्रालय जैसे महत्वपूर्ण महकमे के मंत्री के भानजे कैसे हाथ डाल दिया, जबकि इससे पहले से आरोपों से घिरी सरकार पर और दबाव बनता? हालांकि भाजपा ने परंपरा का निर्वाह करते हुए बंसल के इस्तीफे की मांग की है और कांग्रेस ने भी पुराने रवैये को ही दोहराते हुए इस्तीफा लेने से इंकार कर दिया, मगर इससे अनेक सवाल मुंह बाये खड़े हो गए हैं।
इस वाकये एक पक्ष तो ये है कि भ्रष्टाचार के आरोपों से चारों ओर से घिरी कांग्रेसी नीत सरकार ने संभव है यह जताने की कोशिश की हो कि विपक्ष का यह आरोप पूरी तरह से निराधार है कि सीबीआई उसके इशारे पर काम करती है। वह स्वतंत्र और निष्पक्ष है। कांग्रेस प्रवक्ता राशिद अल्वी ने तो बाकायदा यही कहा कि देखिए सीबीआई कितनी स्वतंत्र है कि उसने मंत्री के रिश्तेदार को भी दोषी मान कर गिरफ्तार कर लिया। गिनाने को उनका तर्क जरूर दमदार है, लेकिन इस पर यकायक यकीन होता नहीं है। कांग्रेस की ओर से रेलमंत्री का यह कह कर बचाव करने से सवालिया उठता है कि सीबीआई की जांच में अभी तक रेलमंत्री की संलिप्तता पुष्टि नहीं हुई है। खुद रेल मंत्री भी मामले की जांच करने को कह रहे हैं, इससे बड़ी क्या बात होगी। अपने भानजे की गिरफ्तारी के बाद रेलमंत्री पवन बंसल ने भी कहा कि उनका उनके भानजे के साथ कोई कारोबारी रिश्ता नहीं रहा है। उन्होंने कहा कि चंडीगढ़ में उनकी बहन के फर्म में छापा मारा गया है, उससे उनका कोई लेना-देना नहीं है। कुछ सूत्र ये भी कहते हैं कि बंसल पर आज तक कोई दाग नहीं है। उनकी छवि साफ-सुथरी है। यही इसे सही मानें और यदि बंसल की बात को भी ठीक मानें तो सवाल ये उठता है कि आखिर रेलवे बोर्ड के सदस्य (स्टाफ) नियुक्त हुए महेश कुमार ने किस बिना पर रिश्वत दी? क्या रिश्वत के पेटे उनकी नए पद नियुक्ति में बंसल कोई हाथ नहीं है? जब रिश्वत ले कर ही नियुक्ति हुई तो आखिर नियुक्ति किस प्रकार हुई? रिश्वत की राशि का हिस्सा किसके पास पहुंचा? भले ही बंसल ये कहें कि उनका भानजे से कोई लेना-देना नहीं है, मगर उसने उन्हीं के नाम पर तो यह गोरखधंधा अंजाम दिया। ऐसे में क्या बंसल की कोई नैतिक जिम्मेदारी नहीं बनती? क्या वे भूतपूर्व रेल मंत्री लाल बहादुर शास्त्री की तरह ईमानदारी का परिचय नहीं दे सकते थे, जिन्होंने एक रेल दुर्घटना की नैतिक जिम्मेदारी अपने ऊपर लेते हुए पद छोड़ दिया था? बताया जाता है कि कांग्रेस के मैनेजरों की राय यह रही कि इस प्रकार इस्तीफा देने यह संदेश जाता है कि वाकई मंत्री दोषी थे, इस कारण इस्तीफा न दिलवाने का विचार बनाया गया।
इस वाकये का दूसरा पक्ष ये भी है कि क्या कोलगेट मामले में सुप्रीम कोर्ट की फटकार के बाद सीबीआई चीफ वाकई में निडर हो गए हैं और राजनीतिक आकाओं से आदेश नहीं ले रहे? या फिर केन्द्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को दिखाने के लिए ऐसा करवाया ताकि वह उसके इस दबाव से मुक्त हो सके कि वे सीबीआई का दुरुपयोग करती है?
कुछ सूत्र बताते हैं कि अंदर की कहानी कुछ और है। इस वाकये से ये जताने की कोशिश की जा रही है कि सीबाईआई निष्पक्ष है, मगर यह कांगे्रस के आंतरिक झगड़े का परिणाम है। बताया जा रहा है कि प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह के विश्वसनीय कानून मंत्री अश्वनी कुमार के साथ बंसल की नाइत्तफाकी का ही नतीजा है कि उन्हें हल्का सा झटका दिया गया है। बताते हैं कि कोलगेट मामले में सुप्रीम कोर्ट की फटकार के बाद जब भाजपा ने अश्वनी कुमार पर इस्तीफे का दबाव बनाया तो कांग्रेस का एक गुट भी हमलावर हो गया और उसमें बंसल अग्रणी थे। इसी कारण बंसल को सीमा में रहने का इशारा देने के लिए इस प्रकार की कार्यवाही की गई। यदि यह सच है तो इसका मतलब भी यही है कि सीबीआई सरकार के इशारे पर ही काम करती है। सहयोगी दलों बसपा व सपा पर शिकंजा कसने के लिए, चाहे अपने मंत्रियों को हद में रखने के लिए, उसका उपयोग किया ही जाता है।
इस प्रकरण का एक दिलचस्प पहलु ये भी है कि बंसल के इस्तीफे पर एनडीए के दो प्रमुख घटक दल भाजपा और जनता दल यूनाइटेड में ही मतभेद हो गया है। भाजपा जहां बंसल का इस्तीफा मांग रही है तो जेडीयू अध्यक्ष शरद यादव ने कहा कि रेलमंत्री के इस्तीफे की कोई आवश्यकता नहीं है। भांजे ने रिश्वत ली तो बंसल की क्या गलती है? है न चौंकाने वाला बयान? खैर, राजनीति में न जाने क्या-क्या होता है, क्यों-क्यों होता है, पता लगाना ही मुश्किल हो जाता है।
-तेजवानी गिरधर

गुरुवार, मई 02, 2013

सरबजीत की बहन एक ही रात में कैसे बदल गई?


पाकिस्तान की कोट लखपत जेल में साथी कैदियों के हमले के बाद अस्पताल में दम तोड़ चुके भारतीय नागरिक सरबजीत के लिए एक ओर जहां पूरा देश संवेदना से भर गया है, लोगों में पाकिस्तान की घिनौनी हरकत व भारत सरकार की नाकामी पर गुस्सा है और कहीं न कहीं इसे भारत सरकार की लापरवाही अथवा कूटनीतिक पराजय मान रहा है, वहीं सरबजीत की बहन दलबीर कौर के एक ही रात में बदले सुर से सब भौंचक्क हैं।
पाकिस्तान से लौटने पर वाघा बॉर्डर पर शेरनी की तरह दहाड़ते हुए दलबीर कौर ने कहा था कि भारत सरकार के लिए शर्म की बात है कि वह अपने एक नागरिक को नहीं बचा सकी। भारत ने पाकिस्तान के कई कैदी छोड़े लेकिन अपने सरबजीत को नहीं बचा सके। उन्होंने आरोप लगाया था कि भारत सरकार ने उनके परिवार को धोखा दिया है। उन्होंने यह धमकी भी दी थी कि अगर सरबजीत को कुछ हुआ तो वह देश में ऐसे हालात पैदा कर देंगी कि मनमोहन सिंह कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं रहेंगे। एक ओर जहां उनके इस बयान को उनके अपने भाई के प्रति अगाघ प्रेम की वजह से भावावेश में आ जाना माना जा रहा था, वहीं कुछ को लग रहा था कि वे किसी के इशारे पर मनमोहन सिंह को सीधी चुनौती दे रही हैं। कुछ ऐसे भी हो सकते हैं जिनको उम्मीद रही हो कि दलबीर कौर को सरकार के खिलाफ काम में लिया जाएगा। जो कुछ भी हो, लेकिन उनका गुस्सा जायज था। मगर जैसे ही सरबजीत की मौत की खबर आई, राहुल गांधी ने सरबजीत के परिवार से मुलाकाम की, दलजीत कौर का सुर बदल गया है।
उन्होंने कहा कि उनका भाई देश के लिए शहीद हुआ है। देश के सभी हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई और सभी राजनीतिक दलों को एक हो जाना चाहिए। उन्होंने सब से मिलकर पाकिस्तान पर हमला करने की जरूरत बताई। दलबीर ने कहा कि पहले मुशर्रफ ने वाजपेयी की पीठ पर छुरा मारा, अब जरदारी ने मनमोहन की पीठ पर छुरा मारा है। यह मौका है जब देशवासियों को सब कुछ भूल कर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के हाथ मजबूत करने चाहिए और गृह मंत्री शिंदे का साथ देना चाहिए।
स्वाभाविक सी बात है कि उनके इस बदले हुए रवैये पर आश्चर्य होता है। आखिर ऐसी क्या वजह रही कि एक दिन पहले सरकार से सीधी टक्कर लेने की चेतावनी देने वाली सरबजीत की बहन पलट गई। संदेह होता है कि वे अब किसी दबाव में बोल रही हैं। जाहिर तौर पर यह सरकार का ही दबाव होगा, जिसके तहत सरबजीत के परिवार के एक सदस्य को सरकारी नौकरी और कुछ आर्थिक मदद करने की पेशकश की गई होगी। दलबीर कौर के इस रवैये की सोशल मीडिया पर आलोचना हो रही है। बानगी के बतौर कोलाकाता के एक व्यक्ति किरण प्रांतिक की ट्वीट देखिए:-
सरबजीत की बहन दलबीर को मनमोहन-शिंदे सरकार ने खरीद लिया. अब वे इस नपुंसक सरकार के हाथ मजबूत करने के लिए भाषण दे रहीं!! सरबजीत की हत्या पे आज पूरा देश दुखी और क्रोधित है. गुस्सा फूटा पड़ रहा...बेहद अफसोस कि उनका परिवार ही आज इस नपुंसक सरकार से घूस खा गया!! ऐसे घूसखोर परिवार में सरबजीत का जन्म! जो घूस खाकर उस नपुंसक सरकार को बचाने लग गया, जिसने सरबजीत को बचाने के लिए कभी कड़े कदम उठाये ही नहीं!
बहरहाल, इन महाशय की प्रतिक्रिया चुभने वाली जरूर है, मगर यह भी सच है कि सरकारें इसी प्रकार लालच दे कर गुस्साए लोगों के मुंह बंद करती हैं और सरबजीत की बहन भी उसके परिवार के भविष्य के लिए झुक गई, क्योंकि अब सरबजीत तो कभी लौट कर नहीं आने वाला।
-तेजवानी गिरधर