एक ओर चुनाव आयोग इस बार पेड न्यूज को लेकर कुछ ज्यादा ही सख्त है और इस कारण विभिन्न दलों के प्रत्याशी और प्रिंट व इलैक्ट्रॉनिक मीडिया फूंक फूंक कर कदम रख रहे हैं, वहीं वाट्स एप व फेसबुक पर प्रत्याशियों के विज्ञापन धड़ल्ले से चल रहे हैं, जिन पर आयोग का कोई जोर नजर नहीं आता।
आपको याद होगा कि जैसे ही आयोग ने विज्ञापनों पर खर्च की गई राशि को प्रत्याशी के चुनाव प्रचार खर्च में जोडऩे पर सख्ती दिखाई तो उन्होंने बीच का रास्ता निकाल लिया। मोटी रकम देने वाले प्रत्याशियों का प्रचार करने के लिए न्यूज आइटम दिए जाने लगे, जो कि थे तो प्रत्याशी विशेष का विज्ञापन, मगर न्यूज की शक्ल में। जैसे ही इस घालमेल पर आयोग ने प्रसंज्ञान लिया तो ऐसी पेड न्यूज पर भी सख्ती बरती जाने लगी। बड़े-बड़े समाचार पत्र समूहों व इलैक्ट्रॉनिक मीडिया ने भी पेड न्यूज न छापने की कसमें खाईं। प्रत्याशियों को भी विज्ञापन न देने का बहाना मिल गया। यह बात दीगर है कि बावजूद इसके संपादकों व संवाददाताओं को गुपचुप खुश करने की चर्चा आम है।
खैर, बात चल रही थी विज्ञापनों की। अखबारों व इलैक्ट्रॉनिक मीडिया पर भले ही प्रत्याशियों के विज्ञापन नजर नहीं आ रहे, मगर वाट्स एप व फेसबुक पर विज्ञापनों और उनके दौरों की खबरों व फोटो की भरमार है। बानगी के तौर पर चंद प्रत्याशियों के ऐसे विज्ञापन यहां दिए जा रहे हैं। सवाल उठता है कि क्या आयोग का इस न्यू सोशल मीडिया पर कोई जोर नहीं है? जोर की छोडिय़े, वहां पर तो एक-दूसरे की छीछालेदर धड़ल्ले से की जा रही है। पिछले दिनों अजमेर उत्तर के कांग्रेस प्रत्याशी डॉ. श्रीगोपाल बाहेती का पक्ष लेते हुए जब एक समाज विशेष पर किसी शरारती ने हमला किया तो अखबार संयमित रहे, मगर वाट्स एप पर वह परचा छाया रहा। अब भी छाया हुआ है। यहां तक कि उस पर बहुत ही घटिया टिप्पणियां भड़ास निकालने की जरिया बनी हुई हैं। सवाल ये उठता है कि एक ओर तो प्रशासन ने मार्केट में लगे वे परचे हटवाए और मुकदमा भी दर्ज किया, मगर वाट्स एप के जरिए चलाए जा रहे शब्द बाणों पर उसकी नजर क्यों नहीं है? ऐसा प्रतीत होता है कि इस बारे में आयोग की कोई स्पष्ट नीति नहीं है। यही वजह है कि इस न्यू सोशल मीडिया का जम कर उपयोग किया जा रहा है।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
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