तीसरी आंख
सोमवार, दिसंबर 30, 2024
नासा का स्पेसक्राफ्ट चला हनुमान जी की राह पर
शुक्रवार, दिसंबर 27, 2024
गणेश चतुर्थी के दिन चांद को देखने पर लगता है झूठा आरोप
यह एक बेहद रोचक मिथ है कि भाद्रपद शुक्ल पक्ष की चतुर्थी अर्थात गणेश चतुर्थी के दिन चांद देखने पर आप पर झूठा आरोप लग जाता है। अर्थात जो अपराध आपने किया ही नहीं, वह आप पर मढ़ दिया जाता है। पुराणों के अनुसार ऐसा भगवान श्रीकृष्ण के साथ भी हो चुका है। एक प्रसंग में तो उन पर स्यमंतक मणि की चोरी झूठा आरोप लगा था।
सवाल उठता है कि आखिर गणेश चतुर्थी का चांद देखने पर झूठा आरोप लगता क्यों है? इस बारे में कथा है कि एक बार गणेश जी के लंबे पेट और हाथी के मुख को देख कर चंद्रमा को हंसी आ गई। गणेश जी इससे नाराज को गए और चंद्रमा से कहा कि तुम्हें अपने रूप का अहंकार हो गया है, अतरू अब तुम्हारा क्षय हो जाए। जो भी तुम्हें देखेगा, उसे झूठा कलंक लगेगा। गणेश जी के शाप से चन्द्रमा दुरूखी हो गए। उन्हें दुखी देख कर देवताओं ने राय दी कि गणेश जी की विधिवत पूजा करो। उनके प्रसन्न होने से शाप से मुक्ति मिल सकती है। चंद्रमा ने ऐसा ही किया। इस पर गणेश जी प्रसन्न तो हुए, मगर कहा कि शाप पूरी तरह समाप्त नहीं हो सकता। ताकि अपनी गलती चन्द्रमा को हमेशा याद रहे। तब से गणेश चतुर्थी के दिन जो भी चांद देखता है, उसे भगवान गणेश के प्रकोप का सामना करना पड़ता है। यदि भूल से चंद्र दर्शन हो जाये तो उसके निवारण के लिए श्रीमद्भागवत के 10 वें स्कंध के 56-57 वें अध्याय में उल्लेखित स्यमंतक मणि की चोरी कि कथा का श्रवण करना लाभकारक है। जिससे चंद्रमा के दर्शन से होने वाले मिथ्या कलंक का ज्यादा खतरा नहीं होगा।
https://www.youtube.com/watch?v=iaxBOFKtZKo
गुरुवार, दिसंबर 26, 2024
क्या अंतर्ध्यान होना संभव है?
इस बारे में उपलब्ध जानकारी के अनुसार वैज्ञानिक नैनो किरणों पर काम कर रहे हैं। इस सिलसिले में एक लबादा बनाने की कोशिश की जा रही है, जिसे पहनने के बाद उस पर नैनो किरणें डालने पर दिखाई देना बंद हो जाता है। कुछ वैज्ञानिक इस पर भी काम कर रहे हैं कि विशेष तापमान व दबाव यदि मनुष्य के आसपास क्रियेट किया जाए तो वह अदृश्य हो सकता है।
जानकारी के अनुसार एक उपकरण बनाया जा चुका है, जिसके भीतर रखी वस्तु एक दिशा से तो दिखाई देती है, मगर दूसरी दिशा से नहीं दिखाई देती। एक उपकरण, जिसका नाम फोटोनिक क्रिस्टल बताया गया है, वह वस्तुओं को दिखाई देने में बाधक बनता है, अर्थात अदृश्य कर देता है। प्रसंगवश एक शब्द ख्याल में आता है- मृग मरीचिका। कहते हैं न कि रेगिस्तान में तेज धूप में किरणों की तरंगों में दूर से हिरण को ऐसा आभास होता है कि वहां समुद्र है या पानी है, जबकि वास्तव में ऐसा होता नहीं है। अर्थात हिरण को दृष्टि भ्रम होता है। हो सकता है कि कल इसी प्रकार का दृष्टि भ्रम बना कर आदमी को अदृश्य किया जा सके।
बताते हैं कि हिमालयों की पहाडिय़ों में एक जड़ी पाई जाती है, जिसे मुंह में रखने पर आदमी दिखाई देना बंद हो जाता है। मगर इसके भी प्रमाणिक उदाहरण हमारे संज्ञान में नहीं हैं। इसी प्रकार जनश्रुति है कि एक पक्षी विशेष का पंख अपने पास रखने वाला व्यक्ति दूसरों को दिखाई नहीं देता, मगर इसके भी पुख्ता सबूत नहीं मिले हैं।
इसी से संबधित एक जानकारी ये भी है कि देवी देवता सशरीर प्रकट हो सकते हैं, जो कि पंचमहाभूत से बना है, मगर अन्य आत्माएं वायु अथवा प्रकाष के रूप में विचरण करती हैं और उसका आभास भी करवा सकती हैं। आपने सुना होगा कि अनेक लोगों को उनके दिवंगत गुरू याद करने पर गंध के रूप में अपनी उपस्थिति का आभास कराते हैं। इसी प्रकार भूत छाया के रूप में दिखाई देते हैं। मेरे एक मित्र का यकीन है कि रात कि समय उनके स्वर्गीय पिताश्री एक पक्षी की आवाज से अपनी उपस्थिति का आभास करवाते हैं।
वस्तुओं के गायब हो जाने के किस्से भी आम हैं। आप के साथ भी ऐसा हो चुका होगा। जैसे किसी स्थान विशेष पर रखी वस्तु आप लेने जाते हैं तो वह वहां नहीं मिलती। आपको अचरज होता है कि वह कहां गायब हो गई। कुछ समय बाद जब फिर देखते हैं तो वह वहीं मिल जाती है। ऐसा प्रतीत होता है कि वह कुछ समय के लिए गायब हो जाती है। ऐसा भ्रम की वजह से भी हो सकता है।
आपने ऐसे मदारियों को भी करतब दिखाते हुए देखा होगा कि वे गुलाब जामुन या कोई मिठाई मांगने पर हवा में हाथ धुमा कर वह वस्तु पेश कर देते हैं। हालांकि यह ऐसे जादू के रूप में माना जाता है, जिसके पीछे कोई तकनीक काम करती है, जबकि आम मान्यता है कि मदारी कुछ समय के लिए मांगी गई वस्तु किसी दुकान या ठेले से मंगवाते हैं और कुछ समय बाद वह वस्तु वापस वहीं पहुंच जाती है, जहां से मंगाई गई है।
गायब हो जाने के संबंध में कुछ रहस्यमयी किस्से जानकारी में आए हैं। बताते हैं कि एक महिला क्रिस्टीन जांसटन और उनके पति एलन जांसटन 1975 की गर्मियों में उत्तरी ध्रुव की यात्रा पर गए थे। वहां एलन अचानक गायब हो गए। बाद में पुलिस तेज घ्रांण शक्ति वाले कुत्ते ले कर खोजने गई तो जिस स्थान से एलन गायब हुए थे, वहां पर आ कर कुत्ते रुक गए।
एक किस्सा ये भी है। अमेरिका के टेनेसी स्थित गैलेटिन के निवासी डेविड लांग 23 सितम्बर, 1808 को दोपहर में घर से बाहर निकले। उनकी मुलाकात उनके एक न्यायाधीश मित्र आगस्टस पीक से हुई। शिष्टाचार के बाद जैसे ही डेविड लांग आगे बढ़ा तो वह अचानक गायब हो गया।
इसी प्रकार पूरी बस्ती ही गायब होने का भी किस्सा है। घटना अगस्त 1930 की बताई जाती है। कनाडा के चर्चिल थाने के पास अंजिकुनी नामक एस्किमो की बस्ती थी। एक दिन अचानक पूरी बस्ती के लोग न जाने कहां गायब हो गए।
इसी प्रकार 1885 में वियतनाम में सैनिकों की छह सौ सैनिकों की एक टुकड़ी ने सेगॉन शहर की ओर कूच किया। कोई एक मील दूर जाने पर वह पूरी टुकड़ी गायब हो गई। आज तक उस रहस्य से पर्दा नहीं उठ पाया है। अनुमान यही लगाया गया कि धरती से इतर कोई और ग्रह है, जहां के प्राणी लोगों को पकड़ कर ले जाते हैं।
कुल जमा बात ये है कि पौराणिक काल में जिस विधा से अथवा जिस शक्ति से देवी-देवता अंतर्ध्यान हो जाते थे, वह भले ही इस युग में संभव न हो, मगर उम्मीद की जा रही है कि विज्ञान किसी दिन गायब होने की कोई न कोई तकनीक खोज ही लेगा।
https://www.youtube.com/watch?v=Slwq-zTLVEM
बुधवार, दिसंबर 25, 2024
क्या आत्मा की गंध होती है?
इसी प्रकार का अनुभव मैने अपनी माताश्री के निधन पर किया। निधन के बाद तीन दिन तक मैने साफ महसूस किया कि जिस कमरे में वे सोती थीं, वहां गुलाब की महक बिखरी हुई थी। मैं चकित था। विष्वास ही नहीं हो रहा था। अच्छी तरह से पता किया कि किसी ने कोई परफ्यूम तो नहीं लगा रखा। या अगरबत्ती तो नहीं जलाई हुई है। पाया कि ऐसा कुछ भी नहीं था। खुषबू स्वतः ही आ रही थी। मैं समझ गया कि वे गंध के जरिए अपनी उपस्थिति दर्षा रही हैं।
ऐसी मान्यता भी है कि सुगंध देवी देवताओं, जिन्न आदि का भोजन है। इसी कारण हम पूजा के दौरान खुषबूदार अगरबत्ती जलाते हैं, ताकि वे प्रसन्न हो।
उल्लेखनीय है कि भूत-प्रेत और लोक कथाओं में मृतात्मा की उपस्थिति को सड़ी-गली चीजों की गंध या अचानक आई किसी अप्राकृतिक सुगंध से जोड़ा जाता है।
जो लोग ध्यान, पूजा या किसी विशेष साधना में लीन होते हैं, वे कभी-कभी कुछ खास गंधों को अनुभव करते हैं, जिसे वे किसी आत्मा या देवता का संकेत मानते हैं। वैसे उनके साथ गंध का जुड़ाव वैज्ञानिक रूप से सिद्ध नहीं है। इस बारे में वैज्ञानिक दृश्टि कोण है कि कुछ मामलों में मनोवैज्ञानिक या भावनात्मक अनुभव के कारण गंध महसूस हो सकती है, जिसे साइकोसेंसरी अनुभव कहा जाता है। इसी प्रकार यादों और भावनाओं के कारण मस्तिष्क कभी-कभी गंधों को महसूस कर सकता है, भले ही वह वास्तव में वहां न हो। ज्ञातव्य है कि गंध, स्वाद, ध्वनि और दृष्य हमारी स्मृति में संग्रहित रहते हैं।
कुल मिला कर मृतात्मा की गंध का अनुभव मुख्यतः विश्वास और भावनाओं पर निर्भर करता है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से इसे प्रमाणित करना मुश्किल है। प्रसंगवष बता दें कि हर प्राणी की भिन्न भिन्न गंध होती है, यह वैज्ञानिक रूप से सिद्ध है।
सोमवार, दिसंबर 23, 2024
चोरी होना भी दान का एक रूप है?
असल में दान प्रकृति की आदान-प्रदान, लेन-देन, क्रिया-प्रतिक्रिया की व्यवस्था का ही रूप प्रतीत होता है। जैसे कोई वस्तु किसी स्थान से कहीं और जाएगी तो वह जो अंतराल उत्पन्न हुआ है, उसे प्रकृति किसी न किसी रूप में भर देती है। दान का सिद्धांत इसी व्यवस्था का आधार है। जब भी हम किसी को कोई वस्तु दान में देते हैं तो बाद में पलट कर वापस मिलती है। कब और कैसे, पता नहीं। प्रकृति की अपनी व्यवस्था है, जिसे समझना व जानना संभव नहीं है। कर्म का सिद्धांत भी तो ऐसा ही है। हम अच्छा कर्म करते हैं तो बाद में उसका फल भी अच्छा मिलता है। बुरे कर्म का बुरा फल। इसी सूत्र से जुड़ी एक उक्ति आपने सुनी होगी कि बोये पेड़ बबूल का, आम कहां से होय।
दान के कई प्रकार हैं। अन्नदान, वस्त्रदान, विद्यादान, अभयदान और धनदान। इसी क्रम में रक्तदान, किडनी दान, मृत्योपरांत नेत्रदान व संपूर्ण शरीर का दान आदि आते हैं। शास्त्रों में कहा गया है कि दान करने से पुण्य की प्राप्ति होती है। इतना ही नहीं दान की प्रवृत्ति से सांसारिक आसक्ति यानी मोह माया से छुटकारा मिलता है। हवन-यज्ञ में अग्नि देवता को विभिन्न वस्तुओं की आहुति देने का भी अपना विधान है।
ज्योतिष के अनुसार दान करने से ग्रहों की पीड़ा से भी मुक्ति पाना आसान हो जाता है। अलग-अलग वस्तुओं के दान से अलग-अलग समस्याएं दूर होती हैं। ज्योतिष में तो इस पर पूरा विधान बना हुआ है कि अमुक वस्तु के दान को कब करने से क्या फल मिलता है। यहां तक बताया गया है कि उसी स्तर के कपड़ों का दान करें, जिस स्तर के कपड़े आप पहनते हैं। फटे-पुराने वस्त्रों का दान कभी न करें। ये भी बताया गया है कि मृत्यु आसान हो, इसके लिए दान किया जाता है। यही कारण है कि हमारे यहां मृत्यु शैया पर पड़े व्यक्ति के हाथों से दान करवाया जाता है, ताकि उसकी सद्गति हो। हमारे यहां मकर संक्रांति जैसी तिथियों पर दान करने की परंपरा है। और तो और अपनी बेटी का विवाह करने को कन्यादान कहा गया है, जिसका बड़ा महत्व बताया गया है। कहते हैं कि कन्यादान न करने से मुक्ति नहीं मिलती। इसी कारण जिन के बेटी नहीं होती, वे किसी अन्य की कन्या की शादी करवा का पुण्य कमाते हैं। हिंदुओं में कई लोग ऐसे हैं, जिनकी मान्यता है कि अपनी कमाई का दसवां हिस्सा दान करना चाहिए। इससे विभिन्न प्रकार के कष्टों से मुक्ति मिलती है।
इस्लाम में भी दान की बड़ी महिमा बताई गई है। हैसियतमंद मुसलमान को जकात देना जरूरी है। आमदनी से पूरे साल में जो बचत होती है, उसका 2.5 फीसदी हिस्सा किसी गरीब या जरूरतमंद को दिया जाता है, जिसे जकात कहते हैं। ईद से पहले यानी रमजान में जकात अदा करने की परंपरा है। यह जकात खासकर गरीबों, विधवा महिलाओं, अनाथ बच्चों या किसी बीमार व कमजोर व्यक्ति को दी जाती है। जकात और फितरे में बड़ा फर्क ये है कि जकात देना रोजे रखने और नमाज पढऩे जैसा ही जरूरी होता है, बल्कि फितरा देना इस्लाम के तहत जरूरी नहीं है। फितरे की कोई सीमा नहीं होती। इंसान अपनी हैसियत के हिसाब से कितना भी फितरा दे सकता है।
कई लोग संस्थागत दान की बजाय जांच-परख कर पात्र व्यक्ति को दान देने को अधिक उचित मानते हैं। यही वजह है कि अनेक लोग परंपरागत व आदतन भिखारी को दान देने की बजाय उसी को दान देना अधिक उपयुक्त मानते हैं जो कि वाकई जरूरतमंद हो। जरूरतमंद को सहायता करने से वह सच्चे दिल से दुआ करता है। कई लोग भिखारी को खाना तो खिलवा देते हैं, मगर धन नहीं देते। उनकी मान्यता है कि पेशे से भिखारी व्यक्ति उसका उपयोग नशे के लिए कर सकता है, जिससे पुण्य की बजाय उलटे पाप लगेगा। लोगों की इस प्रवृत्ति को भिखारी भी जान गए हैं, इस कारण वे खाने या दवाई के नाम पर पैसा मांगते हैं। सिद्धांत के पक्के लोग किसी भिखारी को पैसे देने की बजाय खुद भोजन व दवाई दिलवाते हैं।
https://www.youtube.com/watch?v=mmerjdAIKzs
रविवार, दिसंबर 22, 2024
पृथ्वीराज चौहान को अश्वत्थामा ने दी थी शब्दभेदी बाण की विद्या?
ज्ञातव्य है कि अश्वत्थामा के बारे में मान्यता है कि वे काल, क्रोध, यम व भगवान शंकर के सम्मिलित अंशावतार थे और आठ चिरंजीवियों में से एक हैं। वे गुरु द्रोणाचार्य के पुत्र थे। द्वापर युग में जब कौरव व पांडवों में युद्ध हुआ था, तब उन्होंने कौरवों का साथ दिया था। अश्वत्थामा अत्यंत शूरवीर एवं प्रचंड क्रोधी स्वभाव के योद्धा थे। धार्मिक ग्रंथों के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण ने अश्वत्थामा को चिरकाल तक पृथ्वी पर भटकते रहने का श्राप दिया था। वे आज भी पृथ्वी पर अपनी मुक्ति के लिए भटक रहे हैं। यह भी मान्यता है कि मध्यप्रदेश के बुरहानपुर शहर से 20 किलोमीटर दूर असीरगढ़ के किले में भगवान शिव का एक प्राचीन मंदिर है। बताते हैं कि अश्वत्थामा प्रतिदिन इस मंदिर में भगवान शिव की पूजा करने आते हैं। अश्वत्थामा को अन्य कई स्थानों पर भी देखे जाने के किस्से हैं।
बताते हैं कि 1192 में पृथ्वीराज चौहान मुहम्मद गौरी से युद्ध में हार गए तो वे जंगल की ओर निकल पड़े। वे एक शिव मंदिर में प्रतिदिन आराधना करने जाते थे। वह शिव मंदिर क्या असीरगढ़ किले का ही मंदिर था, इस बारे में कोई उल्लेख नहीं है। एक बार उन्होंने पाया कि अलसुबह उनसे पहले कोई पूजा-अर्चना कर गया। इस पर उन्होंने इस रहस्य का पता लगाने के लिए भगवान शिव की आराधना की तो उन्हें एक बुजुर्ग ने दर्शन दिए। उसके सिर पर गहरा घाव था। पृथ्वीराज चौहान अच्छे वैद्य भी थे। उन्होंने उस व्यक्ति का घाव ठीक करने का प्रस्ताव रखा। वे मान गए। इलाज शुरू हुआ। जब एक हफ्ते के बाद भी कोई फायदा नहीं हुआ तो पृथ्वीराज चौहान चौंके। उन्होंने अपने अनुमान के आधार पर उस व्यक्ति से पूछा कि क्या वे अश्वत्थामा हैं, इस पर उस व्यक्ति ने हां में जवाब दिया। पृथ्वीराज चौहान अभिभूत हो गए और उनसे वरदान मांगा। अश्वत्थामा ने उन्हें शब्दभेदी बाण का वरदान दिया। साथ ही तीन शब्द भेदी तीर दिए, जो अचूक थे। ज्ञातव्य है कि महाभारत कथा में स्पष्ट अंकित है कि भगवान श्रीकृष्ण ने अश्वत्थामा के सिर पर लगी मणि को युक्तिपूर्वक हटवाया था और उसकी वजह से उनके सिर पर गहरा घाव हो गया था।
जहां तक पृथ्वीराज चौहान के शब्दभेदी बाण का उपयोग करने का सवाल है, तो उसका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार हैरू-
सन् 1192 में मोहम्मद गौरी ने तराइन के दूसरे युद्ध में उनको हरा दिया, तो वे जंगल में चले गए, बाद में मगर गुप्तचरों की सूचना के आधार पर गौरी ने उन्हें कैद कर लिया। कहीं यह उल्लेख है कि उन्हें अजयमेरू दुर्ग में रखा गया तो कहीं ये हवाला है कि गौरी उन्हें सीधे गौर (गजनी) ले गया। स्थानीय दुर्ग अथवा गौर में गौरी ने गर्म सलाखों से उनके दोनों नेत्रों जला दिया। पृथ्वीराज चौहान के बचपन के मित्र व राज कवि चंद वरदायी फकीर की वेशभूषा में पीछा करते हुए गौर पहुंच गए। चंद वरदायी ने सुल्तान मोहम्मद गौरी से संपर्क स्थापित किया व निवेदन किया कि आंखों के फूट जाने के बावजूद पृथ्वीराज चौहान शब्दभेदी बाण से अचूक निशाना लगाना जानते हैं, जिस अजूबे को सुल्तान को देखना चाहिए। गौरी ऐसी कला देखने को राजी हो गया। एक ऊंचे मंच पर बैठ कर मोहम्मद गौरी ने पृथ्वीराज चौहान को तीरंदाजी से लक्ष्य पर संधान करने का आदेश दिया। जैसे ही गौरी के सैनिक ने घंटा बजाया, कवि चंद वरदायी ने यह दोहा पढ़ारू-
चार बांस चौबीस गज, अंगुल अष्ट प्रमाण,
ता ऊपर सुल्तान है, मत चूके चौहान।
पृथ्वीराज चौहान ने मंच पर गौरी के बैठने की स्थिति का आकलन करके बाण चला दिया, जो सीधा गौरी को लगा और उसके उसी वक्त प्राण निकल गए। इसके बाद गौरी के सैनिकों के हाथों अपमानजनक मृत्यु से बचने के लिए कवि चंद वरदायी ने अपनी कटार पृथ्वीराज चौहान के पेट में भौंक दी और उसके तुरंत बाद वही कटार अपने पेट में भौंक कर इहलीला समाप्त कर ली।
प्रसंगवश यह जानना उचित रहेगा कि शब्दभेदी बाण चलाना तो बहुत से यौद्धाओं ने सीखा था, परंतु उसमें पारंगत चार या पांच ही थे। ज्ञातव्य है कि भगवान राम के पिताश्री महाराजा दशरथ के जिस बाण से मातृ-पितृ भक्त श्रवण कुमार की मृत्यु हुई, वह शब्द भेदीबाण था। श्रवण कुमार माता-पिता को एक तालाब के पास छोड़ पानी भरने गए तो पानी की कलकल की आवाज से आखेट को निकले महाराजा दशरथ को यह भ्रम हुआ कि कोई हिरण पानी पी रहा है और उन्होंने शब्दभेदी बाण चला दिया था। इस पर श्रवण कुमार के माता-पिता ने दशरथ को श्राप दिया कि वे भी अपने अंतिम समय में पुत्र का वियोग सहन करेंगे, और दोनों ने प्राण त्याग दिए।
इसी प्रकार महाराज पांडु भी शब्दभेदी बाण की विद्या जानते थे। एक दिन राजा पांडु अपनी दोनों पत्नियों कुन्ती एवं माद्री के साथ तपस्या के लिए ऋषि कण्व के आश्रम में रहने गए। एक दिन माद्री के हठ करने पर पाण्डु आखेट करने गए। कहीं ये उल्लेख है कि सिंह की गर्जना सुन कर उन्होंने शब्दभेदी बाण चलाया तो कहीं ये जिक्र है कि उन्हें एक मृग की छाया दिखाई दी, जिस पर उन्होंने शब्दभेदी बाण चला दिया। बाण लगते ही ऋषि कण्व प्रकट हो गए, जो अपनी पत्नी के साथ सहवास कर रहे थे। उन्होंने पांडु को श्राप दिया कि जब भी वे अपनी पत्नी के साथ सहवास करेंगे तो उनकी मृत्यु हो जाएगी। एक दिन माद्री एक झरने के किनारे नहा रही थी, उनको इस रूप में देख कर पांडु विचलित हो गए और माद्री के साथ सहवास करने लगे। ऐसा करते ही कण्व ऋषि के श्राप की वजह से उनकी वहीं मृत्यु हो गई। उनके वियोग में माद्री ने भी वहीं प्राण त्याग दिए।
इसी प्रकार महाभारत के महत्वपूर्ण पात्र कर्ण, जिन्होंने दुर्याेधन की मित्रता के चलते कौरवों का साथ दिया था, उनको भी शब्दभेदी बाण की विद्या हासिल थी। एक कथा के अनुसार उन्होंने एक बार केवल आवाज के आधार पर गाय के बछड़े को मार दिया था। इसी प्रकार द्रौणाचार्य को अपना गुरू मान कर तीरंदाजी सीखने वाले एकलव्य के बारे में भी एक कथा है कि उन्होंने शब्दभेदी बाण से एक कुत्ते को मार डाला था। जानकारी ये भी है कि शब्दभेदी बाण की विद्या भीम ने अर्जुन को दी थी।
विशेष बात ये है कि अन्य यौद्धाओं ने तो शब्द की ध्वनि के आधार पर शब्द भेदी बाण चलाया, जबकि पृथ्वीराज चौहान ने शब्दों को सुन कर उनके अर्थ के आधार पर अनुमान लगा कर शब्द भेदी बाण चलाया, जो कदाचित कहीं अधिक कठिन था।
https://www.youtube.com/watch?v=Foa3VxzkJDk&t=68s
शनिवार, दिसंबर 21, 2024
सोये हुए व्यक्ति के चरण स्पर्श क्यों नहीं किए जाते?
विभिन्न जानकारों से इस बारे में चर्चा करने पर जो तथ्य सामने आए, वे आपसे साझा किए जा रहे हैं।
अव्वल तो अगर सोये हुए किसी व्यक्ति के चरण स्पर्श करेंगे तो उसका प्रयोजन पूरा ही नहीं होगा। आप आशीर्वाद या सम्मान की खातिर किसी के चरण स्पर्श करते हैं, मगर यदि वह सोया हुआ है तो उसे पता ही नहीं लगेगा कि आप उसके चरण स्पर्श कर रहे हैं। अर्थात वह आशीर्वाद देने की स्थिति में ही नहीं है और न ही उसको ये पता लगेगा कि आप उसके प्रति सम्मान का इजहार कर रहे हैं।
वैसे इसका मूल कारण दूसरा बताया जाता है। हालांकि सोते समय सांस चल रही होती है और आदमी जिंदा होता है, मगर सोना भी एक प्रकार की मृत्यु मानी गई है। अगर कोई आदमी गहरी नींद में हो तो उसकी ज्ञानेन्द्रियां-कर्मेन्द्रियां भी सुप्त हो जाती हैं। चूंकि उसकी आंखें बंद हैं, इस कारण दिखाई नहीं देता है, उसका मुख बंद है, इस कारण उसका स्वर यंत्र व जीभ की स्वाद तंत्रिका सुप्त होती है, उसे सुनाई भी नहीं देता। स्पर्श का भी अनुभव नहीं होता। यानि कि वह लगभग मृतक समान है। ज्ञातव्य है कि हमारे यहां मृतक के शव के चरण स्पर्श करने कर चलन है। जिस मान्यता की हम चर्चा कर रहे हैं, उसे इसी से जोड़ कर देखा जाता है। अर्थात हम यदि सोये हुए किसी व्यक्ति के चरण स्पर्श कर रहे हैं, इसका मतलब ये कि हम मृत व्यक्ति के चरण छू रहे हैं। इसे अपशकुन माना जाता है। हालांकि ऐसा नहीं है कि हमारे चरण स्पर्श करने से वह मर ही जाएगा, मगर यह कृत्य उसी के तुल्य माना जाता है।
लेटे हुए व्यक्ति के चरण स्पर्श नहीं करने के पीछे तर्क ये है कि ऐसा करने से चरण स्पर्श करने वाले के प्रति उपेक्षा का भाव महसूस होता है। यह सामान्य शिष्टाचार के विपरीत है। वाकई यह कितनी अभद्रता है कि कोई आपके प्रति सम्मान दर्शा रहा है और हम उसके सम्मान को स्वीकार करने के लिए उठ कर बैठ तक नहीं सकते।
स्थितियों अथवा दृश्य के प्रति हम कितने सतर्क हैं, इसको लेकर एक आलेख में पहले भी चर्चा कर चुके हैं। इन उदाहरणों से उसे समझ सकते हैं। आपने देखा होगा कि हमारे यहां भोजन परोसते समय पहले जल पेश किया जाता है। उसके बाद भोजन की थाली। या फिर आगे-पीछे। अज्ञानतावश कोई यदि भोजन की थाली एक हाथ में व दूसरे हाथ में पानी का गिलास ले कर आए या पानी का गिलास भोजन की थाली में लाए तो इसे अपशगुन माना जाता है। ज्ञातव्य है कि हमारे यहां मान्यता है कि श्राद्ध के दौरान ऐसा मृतक के लिए किया जाता है। यदि हम जिंदा व्यक्ति के साथ ऐसा कर रहे हैं, तो इसका अर्थ ये हुआ कि हम मृतक के साथ ऐसा कर रहे हैं। इसी प्रकार अगर कोई मकान की चौखट पर बैठे तो उसे वहां न बैठने को कहा जाता है, क्यों कि मान्यता ये है कि चौखट पर बैठने से दरिद्रता आती है। इसके विपरीत तथ्य है कि जो दरिद्र हो जाता है, जिसके पास खाने को भी नहीं होता, वह चौखट पर आ कर बैठता है। ऐसे ही अनेक और उदाहरण हो सकते हैं। यथा दुकान बंद करने को दुकान मंगल करना कहते हैं। दीया बुझाने को दीया बढ़ाना कहते हैं। किसी अपने को अपशब्द कहने की जरूरत पड़ जाए तो उसका विलोमार्थ उपयोग में लेते हैं। जैसे यदि कोई लापरवाही करते हुए कुछ नुकसान कर दे तो यकायक मुंह से ये निकलता है कि अंधा है क्या, मगर सिंधी में कहते हैं कि सजा है क्या अर्थात आंख से पूरा दिखता है क्या?
कुल जमा बात ये है कि हमारी संस्कृति में नकारात्मकता को भी सकारात्मक दृष्टि से देखते हैं।
https://www.youtube.com/watch?v=54z11Vs4Xg4&t=4s
गुरुवार, दिसंबर 19, 2024
अदृश्य शक्तियां किसी के सपने में आ सकती हैं?
हमें किसी मीटिंग में जाना था, इस कारण हड्डी का टुकड़ा रास्ते में एक मकान की खिड़की पर रख दिया। मीटिंग से लौटने पर हड्डी का वह टुकड़ा मैने ले लिया और घर आ गया। घर में मैने उसे अपनी किताबों के पीछे छुपा कर रख दिया। कुछ दिन बात श्री तिवाड़ी बदहवास से मेरे पास आए और एक अजीब सी बात बताई। उन्होंने बताया कि उनके एक मित्र जनाब अजीज खान, जो कि उनके क्लास फैलो हैं, को एक सपना आया है। सपने में उन्होंने चिता से राख लाने की घटना को क्रमवार देखा है। उन्होंने बताया कि वह चिता किसी साध्वी की थी।
उन्होंने चौंकाने वाली बात ये भी बताई कि साध्वी की आत्मा ने मेरे किताबों पीछे छुपी हड्डी गायब कर दी है। मैं हतप्रभ रह गया कि उस घटना का सपना किसी थर्ड पर्सन को कैसे आया? दूसरा ये कि हड्डी का टुकड़ा कैसे गायब हो सकता है, जिसे कि मैने एक दिन पहले ही सुरक्षित देखा है? मैने तुरंत जा कर देखा। वाकई हड्डी का टुकड़ा गायब था। श्री तिवाड़ी ने बताया कि जब उन्होंने चिता से हड्डी का टुकड़ा उठाया था, तब उनको किसी अज्ञात शक्ति ने झन्नाटेदार थप्पड़ मारा था, मगर मारे डर के उन्होंने इसका जिक्र नहीं किया था। उन्होंने ये भी बताया कि जिस दिन की यह घटना है, उसी दिन से हर शाम के वक्त उनके हाथों से मांस जलने की बदबू आती है और वे खाना नहीं खा पाते।
इस पूरी घटना में मैं इस बात से चकित नहीं हुआ कि उस शक्ति ने हड्डी का टुकड़ा गायब कर दिया, लेकिन इस बात से अचंभित था कि एक थर्ड पर्सन को घटना का हूबहू सपना कैसे आया? श्री तिवाड़ी ने सवाल किया कि जनाब अजीज से न तो उन्होंने हमारी मित्रता और न ही घटना का कभी जिक्र कभी किया, फिर भी उनको पूरा सपना कैसे आयाड्ढ? मैं निरुत्तर था। इससे यह तो प्रमाणित होता ही है कि अदृश्य शक्तियां किसी घटना का सपना किसी को दिखा सकती हैं।
https://www.youtube.com/watch?v=-3QSW6V3eT4
मंगलवार, दिसंबर 17, 2024
क्या फ्रिज में आटे का लोया रखने पर उसे भूत खाने को आते हैं?
शास्त्रों का हवाला देते हुए कहा जाता है कि आटे के ये पिंड भूतों-प्रेतों को निमंत्रण देते हैं। ये उन अतृप्त आत्माओं को आकर्षित करते हैं, जिनके पिंड दान नहीं किए गए हैं । इस आटे पर उनकी नकारात्मक ऊर्जा का वास हो जाता है। इस आटे को खाने से पूरे परिवार पर इसका असर पड़ता है। प्रसंगवश बता दें कि इस तथ्य को इस बात से जोड़ा जाता है कि हिंदुओं में पूर्वजों एवं मृत आत्माओं को संतुष्ट करने के लिए पिंड दान की विधि बताई गई है। पिंडदान के लिए आटे का लोया, जिसे पिंड कहते हैं, बनाया जाता है।
इसी संदर्भ में कहा जाता है कि आटे का लोया गोल होता है, वही मृतात्माओं को आमंत्रित करता है। यदि उस पर कुछ अंकित कर दिया जाए तो प्रेतात्माएं उस ओर आकर्षित नहीं होतीं। इस कारण कई महिलाएं आटे का लोया बनाने के बाद उस पर अंगुलियों के निशान अंकित कर देती हैं। यह निशान इस बात का प्रतीक होता है कि रखा हुआ पिंड पूर्वजों के लिए नहीं, बल्कि आम इंसानों के लिए है। जानकारी में ऐसा भी है कि महिलाएं आटा गूंथने के बाद उस पर अगुलियों के निशान बना कर उसमें पानी भर देती हैं। कुछ देर ऐसा करके रख देने से रोटियां मुलायम बनती हैं।
सवाल ये है कि सच क्या है? क्या वाकई भूत-प्रेत की धारणा के पीछे कोई वैज्ञानिक आधार है? या यूं ही प्रचलित मान्यता?
जहां तक वैज्ञानिक तथ्य का सवाल है, ऐसा बताया जाता है कि आटा पानी के संपर्क में आने के बाद उसमें कई रासायनिक बदलाव आते हैं। ज्यादा समय तक रखने पर वे नुकसानदायक हो जाते हैं। अगर उसे फ्रिज में रख दिया जाए तो हानिकारक किरणों पर भी प्रभाव पड़ता है। उस आटे से बनी रोटी खाने से कई तरह की बीमारियां होने का खतरा रहता है।
दूसरी ओर जो लोग भूत-प्रेत का अस्तित्व ही नहीं मानते, वे उनके आकर्षित होने को सिरे से नकार देते हैं। जो भूत-प्रेत का अस्तित्व मानते भी हैं, तो उनका मानना है कि आटा गूंथ कर फ्रिज में रखने से भले ही बीमारी का खतरा हो, मगर उसका भूत-प्रेत के आकर्षण से कोई भी सम्बन्ध नहीं है। किसी भी भौतिक वस्तु का सेवन करने के लिए इन्द्रियों की आवश्यकता होती है। बिना इन्द्रियों के भौतिक वस्तुओं का सेवन नहीं किया जाता सकता। मृत्यु के बाद मनुष्य का सूक्ष्म शरीर, जिसे अक्सर भूत-प्रेत समझ लिया जाता है, केवल महसूस कर सकता है, भोग करने के लिए उसे इन्द्रियों की आवश्यकता होती है, जो कि उसके पास नहीं होतीं।
असल में दिक्कत ये है कि आटे के लोये को खाने के लिए भूत-प्रेतों के आने जैसे सवालों का सवाल है, उसका प्रचार करने वाले उसे शास्त्रोक्त तो बता देते हैं, मगर कभी जिक्र नहीं करते कि किस शास्त्र में ऐसा लिखा हुआ है। वे इस बात का भी जिक्र नहीं करते कि अमुक ऋषि ने इतने हजार लोगों पर प्रयोग करके यह तथ्य सिद्ध किया है। इसी कारण ऐसी बातें अंध विश्वास की श्रेणी में गिनी जाती हैं। बावजूद इसके भय के कारण कई उसे मान भी लेते हैं कि मानने में हर्ज ही क्या है? दिलचस्प बात ये है कि पिंड को खाने के लिए मृतात्माओं के आने वाली बात को जानते हुए भी अधिसंख्य महिलाएं व्यस्त जिंदगी में समय को बचाने के लिए अथवा आलस्य के कारण आटे का लोया बना कर फ्रिज में रखती हैं।
हो सकता है कि भूत-प्रेत वाली बातें सच हों, मगर ऐसी बातें करने वालों को बाकायदा उस शास्त्र का हवाला देना चाहिए, अन्यथा लोग उसे अंध विश्वास ही करार देंगे। उनका मकसद भले ही संस्कृति को बचाना हो, मगर उनके बिना आधार के, केवल शास्त्र शब्द का हवाला देते हुए ऐसी बातें करने से उलटा संस्कृति का नुकसान ही होने वाला है। वे संस्कृति का बचाव नहीं, बल्कि उसका नुकसान कर रहे हैं।
https://www.youtube.com/watch?v=oISPhoRYOL0&t=2s
सोमवार, दिसंबर 16, 2024
क्या है नजर लगने का वैज्ञानिक आधार?
बुरी नजर व नकारात्मक शक्तियां असर न करें, इसके लिए मकान व दुकान के बाहर शनिवार को नीबू-मिर्ची टांगने की भी परंपरा हैं। इसका वैज्ञानिक आधार क्या है, पता नहीं, मगर वास्तुविद बताते हैं कि नीबू-मिर्ची नकारात्मक ऊर्जा को मकान व दुकान में प्रवेश करने से रोकते हैं और खुद जज्ब कर लेते हैं। इसके लिए शनिवार को उपयुक्त वार माना जाता है। दूसरे शनिवार को पहले से बंधे नीबू-मिर्ची को हटा कर सड़क पर फैंक दिया जाता है। टोटकों के जानकार बताते हैं कि शनिवार को उनके ऊपर से नहीं गुजरना चाहिए, अन्यथा उनमें मौजूद नकारात्मक शक्तियां हमें प्रभावित कर सकती हैं।
नजर लगने पर उतारने के लिए कई तरह के उपाय भी प्रचलन में हैं। बताते हैं कि अगर आपको ऐसा प्रतीत हो कि अमुक व्यक्ति की आपको नजर लग सकती है तो उसका झूठा पानी पी लो, उसका असर खत्म हो जाएगा। खैर, किसी और की क्या, मान्यता तो ये भी है कि खुद हम पर ही हमारी नजर लग जाती है। यही वजह है कि आम तौर हमारे साथ कुछ अच्छा होने के बारे में बताते वक्त हम कहते हैं कि भगवान की कृपा है। हालांकि ऐसा कहने से यही प्रतीत होता है कि हम भगवान का शुक्र अदा कर रहे होते हैं, मगर साथ ही इसका निहितार्थ ये भी है कि नजर न लग जाए। किसी की तारीफ करते वक्त थुथकार करने की भी परंपरा है। इसी कड़ी में कई पढ़े-लिखे लोग टच वुड शब्द का इस्तेमाल करते हुए आस-पास रखी लकड़ी की वस्तु को छूते हैं। टच वुड अर्थात लकड़ी को छूना। यह शब्द पाश्चात्य संस्कृति से आया है। अर्थात पाश्चात्य संस्कृति के लोग भले ही नजर लगने की हमारी मान्यता को दकियानूसी करार दें, मगर वे भी मानते तो हैं ही।
टच वुड शब्द का प्रयोग कब से हो रहा है, इस विषय में कोई तथ्यात्मक जानकारी नहीं है। बताया जाता है कि इसका प्रयोग ईसा पूर्व से चला आ रहा है। टच वुड कहते हुए लकड़ी को छूने से होता क्या है, इस बारे में भी कोई पुख्ता वैज्ञानिक प्रमाण मौजूद नहीं है, लेकिन आम धारणा है कि वृक्षों पर आत्माओं का निवास होता है। उनकी नजर आपकी खुशियों को नहीं लगे, इसलिए कोई अच्छी बात कहते वक्त लकड़ी छूते हैं, ताकि आत्माएं खुशियों में रुकावट न डालें। एक जानकारी ये भी है कि टच वुड बोलने के वक्त पवित्र माने जाने वाले चंदन, रुद्राक्ष, तुलसी आदि का स्पर्श करना अधिक शुभ फलदायी है। मुझे लगता है कि कुछ अच्छा बोलते वक्त सकारात्मक शक्तियों के साथ नकारात्मक शक्तियां भी प्रवाहित होती हैं और पेड को छूने से वह नकारात्मक एनर्जी को हजम कर जमीन को भेज देता है। चूंकि हर जगह पेड संभव नहीं है, इस कारण उसकी अनुपस्थिति में लकडी को छूने का चलन हो गया होगा।
https://www.youtube.com/watch?v=xlB2LpNo2NI
रविवार, दिसंबर 15, 2024
क्या उम्र बढ़ाई जा सकती है?
किसी व्यक्ति विशेष की उम्र बढ़ाई जा सकती है या नहीं, यह अलग विषय है, मगर यह सच है कि आयुर्वेद सहित जितने भी विज्ञान हैं, वे सार्वजनिक रूप से इस प्रयास में जुटे हैं कि निरोगी रहते हुए उम्र को बढ़ाया जाए। औसत आयु बढ़ी भी है। शिशु मृत्यु दर घटाई जा सकी है। विज्ञान मानता है कि आदमी 14 मैच्योरिटी पीरियड्स तक जी सकता है। एक मैच्योरिटी पीरियड में तकरीबन 20 से 25 साल माने जाते हैं। अर्थात आदमी अधिकतम 350 साल जी सकता है। यह एक बेहद आदर्श स्थिति है। हालांकि हमारी वैदिक परंपरा के अनुसार आदमी की उम्र एक सौ साल मानी जाती है, बावजूद इसके ऐसे अनेक लोग हैं जो एक सौ साल से भी तीस-पैंतीस साल अधिक जीये। आज भी हम सुनते हैं कि अमुख शहर में अमुक व्यक्ति एक सौ पच्चीस साल में उम्र में मरा। यानि शतायु की अवधारणा औसत आयु के रूप में की गई है। यही वजह है कि शतायु होने की दुआ की जाती है।
अब बात करते हैं इस पर कि क्या हम अपनी आयु को बढ़ा सकते हैं? यह एक मौलिक तथ्य है कि अमूमन आदमी की मौत किसी बीमारी की वजह से होती है। या फिर बूढ़े होने के कारण शरीर के विभिन्न अंगों के शिथिल होने पर आदमी अंततरू मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। यदि स्वास्थ्य बरकरार रखा जा सके या बुढ़ापे को रोका जा सके तो और अधिक जीया जा सकता है।
विज्ञान मानता है कि उम्र बढऩे के साथ सेंससेंट सेल बढ़ते हैं। यदि इनको शरीर से हटाया जा सके तो आयु को बढ़ाया जा सकता है। केवल इतना ही काफी नहीं है। उसके लिए यह भी जरूरी है कि विशेष प्रकार का प्रोटीन, जो स्वस्थ सेल में होता है. वह शरीर में बढ़ाया जाए।
धरातल कर सच ये है कि लगभग पचास साल के बाद अमूमन ब्लड प्रेशर, डायबिटीज, कैंसर जैसी बीमारियां घेरने लगती हैं। हार्ट अटैक व ब्रेन हैमरेज के कारण अचानक मौत हो जाती है। इन बीमारियां से बचने के लिए आदर्श जीवन पद्धति अपनाने की सीख दी जाती है। शुद्ध जलवायु पर जोर दिया जाता है। शुद्ध जल का पान करने की सलाह दी जाती है, क्योंकि लगभग 70 प्रतिशत रोग जल की अशुद्धता से ही होते हैं। इसी शुद्ध वायु की भी महिमा है। वायु प्रदूषण से बचने को कहा जाता है। प्राणायाम करने को कहा जाता है। अच्छी नींद भी स्वस्थ रहने के लिए आवश्यक मानी जाती है। अच्छे स्वास्थ्य के लिए ध्यान की भी महिमा बताई गई है।
ध्यान की बात आई तो एक बहुत महत्वपूर्ण बात याद आ गई। आपने सुना होगा कि अमुक ऋषि डेढ़ सौ साल जीये। तीन सौ साल तक जीने की भी किंवदंतियां है। वह कैसे संभव हो सका? जानकारों का मानना है कि भले ही हमारी तथाकथित निर्धारित उम्र वर्षों में गिनी जाती हो, मगर सच ये है कि जन्म के समय ही यह तय हो जाता है कि अमुक व्यक्ति का शरीर कितनी सांसें लेकर मृत्यु को प्राप्त होगा। अर्थात सांस लेने व छोडऩे की अवधि को बढ़ा कर भी उम्र बढ़ाई जा सकती है। जैसे मान लो हम एक मिनट में दस बार सांस लेते हैं, लेकिन यदि एक मिनट में एक ही बार सांस लें तो हमने नौ सांसें बचा लीं। यानि हमारी उम्र नौ सांस बढ़ गई। प्राणायाम में सांस को बाहर या भीतर रोका जाता है। इन दोनों प्रक्रियाओं के पृथक-पृथक लाभ हैं, मगर दोनों में ही एक लाभ ये भी होता है कि सांसों का बचाव हो जाता है व उतनी ही उम्र बढ़ जाती है। हमारे ऋषि-मुनियों-योगियों ने प्राणायाम से ही अपनी उम्र बढ़ाई है। आपको पता होगा कि कछुए व व्हेल मछली की उम्र बहुत अधिक होती है, उसका कारण ये है कि उनकी श्वांस लेने और छोडऩे की गति आदमी से बहुत कम है। वृक्षों में पीपल व बड़ के साथ भी ऐसा ही है। उनकी सांस की गति काफी धीमी है, इसी कारण उनकी उम्र अधिक होती है।
कुल जमा निष्कर्ष ये निकलता है कि प्रकृति हमारी उम्र की गणना दिनों या वर्षों में नहीं करती, बल्कि वह उसका निर्धारण सांसों की गिनती से करती है। योगी बताते हैं कि जब भी हम सांस को रोकते हैं तो उस अवधि में समय स्थिर हो जाता है। रुक जाता है। अर्थात भौतिक उपायों के अतिरिक्त यदि हम नियमित प्राणायाम करें तो अपनी उम्र को बढ़ा सकते हैं।
https://www.youtube.com/watch?v=5E3f8BFnNN0&t=1s
शुक्रवार, दिसंबर 13, 2024
पिज्जा खाने से रुकी किरपा आ जाती है
इस मुद्दे का गहराई से अध्ययन करने से मैने पाया कि निर्मल बाबा जिस प्राकृतिक सिद्धांत के आधार पर उपाय बताते हैं, वह पद्यति कारगर होनी चाहिए। उन्हें कैसे पता लगता है कि अमुक सवाली के मन में क्या है और कौन सी वस्तु उसने कितने दिन से नहीं खाई है, अथवा उसका कौन सा संकल्प या इच्छा पूरी नहीं हुई है, उसके पीछे जरूर कोई गड़बड़झाला होने की संभावना मानी जा सकती है। वे अंतर्यामी हैं या नहीं, इस पर भी सवाल उठाए जा सकते हैं, मगर वे जिस प्राकृतिक सिद्धांत के आधार पर उपाय करते हैं, वह मुझे तो तार्किक लगती है।
ऐसा प्रतीत होता है कि जब भी हमारे मन में कोई इच्छा जागृत होती है अथवा कोई संकल्प निर्मित होता है, वह हमारे भीतर एक प्रकार की ग्रंथी का निर्माण करता है। जैसे ही वह इच्छा अथवा संकल्प पूरा होता है, ग्रंथी का विसर्जन हो जाता है। पूरा न होने पर वह ग्रंथी विकृतियां उत्पन्न करती है। अतृप्त इच्छा का कितना महत्व है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि कई बार आत्मा इसी कारण भटकती रहती है, क्योंकि उसकी कोई इच्छा विशेष पूरी नहीं हो पाती। यही वजह है कि हमारे यहां मृत्यु होने से ठीक पहले प्राणी की अंतिम इच्छा पूछी जाती है। उसकी वजह भी यही है कि उसकी आखिरी ख्वाहिश पूरी कर दी जाए, ताकि मृत्योपरांत उसकी आत्मा भटके नहीं।
अतृप्त इच्छाएं पूरी न होने पर उसका प्रभाव वस्तुओं पर भी पड़ता है, ऐसी हमारे यहां मान्यता है। आपको ऐसे कई लोग मिल जाएंगे, जो कि बाजार में सजा कर रखी गई मिठाई अथवा अन्य खाद्य पदार्थ का सेवन करने से बचते हैं। उसके पीछे धारणा ये है कि सजा कर रखी गई वस्तु पर अनेक लोगों की दृष्टि पड़ती है। ऐसे लोगों की नजर भी पड़ती है, जो कि उसे खाना तो चाहते हैं, मगर उनकी खरीदने की हैसियत नहीं होती अथवा किसी और कारण से खरीद नहीं पाते। ऐसे में वस्तु में अतृप्त इच्छा का दृष्टि दोष उत्पन्न हो जाता है। उस वस्तु को खाने पर हमको दोष लगता है।
हमारी संस्कृति में तो यह तक मान्यता है कि भोजन सदैव एकांत में करना चाहिए। ऐसा इसलिए कि भोजन करते समय अन्य की दृष्टि उस पर पडऩे से दोष उत्पन्न हो जाता है। आपने देखा होगा कि अनेक दुकानदार पीठ करके भोजन करते हैं, ताकि उस पर किसी ग्राहक की नजर नहीं पड़े। आपने देखा होगा कि यदि हमारे भोजन पर किसी अन्य की नजर पड जाए तो हम उसका कुछ अंष उसे खिला देते हैं, ताकि दोष न लगे।
अपूर्ण संकल्प जीवन में कठिनाइयां उत्पन्न करते हैं, ऐसी भी मान्यता है। एक प्रकरण आपसे साझा करता हूं। एक बार मेरी माताजी मामाजी के घर घूमने गई। वहां उनकी परिचित महिला से मुलाकात हो गई। वह स्नान करके शुद्ध हो कर उनके पास आ कर बैठी थी। जैसे ही उनके वस्त्र का मेरी माताजी के वस्त्र से स्पर्श हुआ, यकायक वह एक भाव अवस्था में आ गई और गुस्से में बोलने लगी कि याद कर, कोई पच्चीस साल पहले तूने अमुक मंदिर में अपनी मनोकामना पूरी होने के लिए एक धर्मग्रंथ से फूल चुना था। तेरी वह इच्छा पूरी हो गई, मगर तूने संकल्प के साथ प्रसाद चढ़ाने का जो निश्चय किया था, वह आज तक अधूरा है। इसी कारण संकट में है। उस महिला को मेरी माताजी की पच्चीस साल पहले की घटना कैसे ख्याल में आ गई, यह विचार का अन्य विषय है, मगर अधूरा संकल्प परेशानी पैदा करता है, वह तो इससे प्रमाणित होता ही है।
आपके ख्याल में होगा कि कई धर्म स्थलों के दरवाजों पर श्रद्धालु मन्नत का धागा अथवा कोई वस्तु बांधते हैं और मन्नत पूरी होने पर प्रसाद चढ़ा कर धागा खोलते हैं। अर्थात संकल्प या इच्छा पूरी होने पर उसकी पूर्णाहुति जरूर करते हैं। ऐसी मान्यता है कि ऐसा नहीं करने पर दोष लगता है। संकल्प लेकर कोई व्रत रखने पर भी उसका उद्यापन करने की प्रथा हमारे यहां प्रचलित है। मन्नत का धागा बांधने की बात पर मुझे याद आया कि मेरी माताजी हमारा कोई कार्य होने की इच्छा रख कर अपनी चुन्नी के कोने पर गांठ बांधती है और काम पूरा होने पर गांठ खोल कर मन में तय किया हुआ प्रसाद चढ़ाती है। गांठ का प्रयोजन यही होता है कि संकल्प की याद विस्मृत न हो। ऐसे ही अनेक प्रकरण मेरी जानकारी में हैं।
मुझे लगता है कि गांठ न बांधने पर भी इच्छा की गांठ मन के भीतर पड़ जाती है, जिसे कि मैने ग्रंथी की संज्ञा दी है। इच्छा के पूरा होने पर वह ग्रंथी विसर्जित हो जाती है, अथवा कोई न कोई विकृति पैदा करती है।
कुल जमा निष्कर्ष ये है कि निर्मल बाबा जिस पद्यति का उपयोग करते हैं, वह कारगर होनी चाहिए। हमें भी सामान्य जीवन में यह ख्याल रखना चाहिए कि हमारे मन में जो भी इच्छा जागृत हो, उसे यथासंभव पूर्ण कर लेना चाहिए। चंद उदाहरण पेष हैं, जिनका हमें ख्याल रखना चाहिए। जैसे अगर हमारे मन में किसी भिखारी को कुछ देने का भाव आया है तो उसे पूरा कर लेना चाहिए। इसी प्रकार यदि कभी किसी मंदिर के दर्षन या किसी दरगाह में हाजिरी का मन में विचार आए तो यथासंभव उसे पूरा कर लेना चाहिए। इसमें ख्याल रखने योग्य बात ये है कि हमें अपनी इच्छाओं पर नियंत्रण रखना चाहिए। इसके अतिरिक्त अनीतिपूर्ण इच्छाओं को पैदा ही नहीं होने देना चाहिए। चूंकि अगर वे पूरी कर भी ली गई तो भले ही ग्रंथी से होने वाली कठिनाई से हम मुक्त हो जाएंगे, मगर अनीति से किए गए कार्य का परिणाम तो हमें भुगतना ही होगा।
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https://www.youtube.com/watch?v=fwjuxo3Tggs&t=23s
बुधवार, दिसंबर 11, 2024
मंदिर में दर्शन के बाद बाहर सीढ़ी पर क्यों बैठते हैं?
मुझे मोटे तौर यह समझ में आता है कि मंदिर के आध्यात्मिक माहौल को आत्मसात करने के बाद बाहर आने पर एक झटके में भौतिक जगत से जो सामना होता है, वह कहीं एक झटके में ही आध्यात्मिक भाव को नष्ट न कर दे। मंदिर के भीतर हमने जो ऊर्जा हासिल की है, वह बाहर आते ही भौतिक वातावरण में तिरोहित न हो जाए, इसलिए कुछ क्षण बैठ कर उसे भीतर गहरे बैठाने की कोशिश की जाती है।
हाल ही मेरे वरिष्ठ मित्र हाल दिल्ली निवासी श्री शिव शंकर गोयल, जो कि जाने-माने व्यंग्य लेखक हैं, ने इससे संबंधित पोस्ट वाट्स ऐप पर भेजी। उसे हूबहू आपके सम्मुख प्रस्तुत कर रहा हूं, उसे पढऩे के बाद हम विचार करेंगे कि क्या वाकई हमें अपने सवाल का जवाब मिला या नहीं-
परम्परा है कि किसी भी मंदिर में दर्शन के बाद बाहर आकर मंदिर की पैड़ी या अटले पर थोड़ी देर बैठना। क्या आप जानते हैं इस परंपरा का क्या कारण है? आजकल तो लोग मंदिर की पैड़ी पर बैठ कर अपने घर / व्यापार / राजनीति इत्यादि की चर्चा करते हैं, परंतु यह प्राचीन परंपरा एक विशेष उद्देश्य के लिए बनाई गई है। वास्तव में मंदिर की पैड़ी पर बैठ कर एक श्लोक बोलना चाहिए। यह श्लोक आजकल के लोग भूल गए हैं। इस श्लोक को मनन करें और आने वाली पीढ़ी को भी बताएं। श्लोक इस प्रकार है-
अनायासेन मरण
बिना देन्येन जीवन
देहान्त तव सान्निध्य
देहि मे परमेश्वर
इस श्लोक का अर्थ है
अनायासेन मरणम् अर्थात् बिना तकलीफ के हमारी मृत्यु हो और कभी भी बीमार होकर बिस्तर पर न पड़ें, कष्ट उठा कर मृत्यु को प्राप्त न हो। चलते फिरते ही हमारे प्राण निकल जाएं।
बिना देन्येन जीवनम् अर्थात् परवशता का जीवन न हो। कभी किसी के सहारे न रहना पड़े। जैसे कि लकवा हो जाने पर व्यक्ति दूसरे पर आश्रित हो जाता है, वैसे परवश या बेबस न हों। ठाकुर जी की कृपा से बिना भीख के ही जीवन बसर हो सकें।
देहांते तव सान्निध्यम् अर्थात् जब भी मृत्यु हो तब भगवान के सम्मुख हो। जैसे भीष्म पितामह की मृत्यु के समय स्वयं ठाकुर (कृष्ण जी) उनके सम्मुख जाकर खड़े हो गए। उनके दर्शन करते हुए प्राण निकले।
देहि में परमेशवरम् अर्थात् हे परमेश्वर ऐसा वरदान हमें देना।
भगवान से प्रार्थना करते हुए उपरोक्त श्लोक का पाठ करें।
गाडी, लाडी, लड़का, लड़की, पति, पत्नी, घर, धन इत्यादि (अर्थात् संसार) नहीं मांगना है, यह तो भगवान आप की पात्रता के हिसाब से खुद आपको देते हैं। इसीलिए दर्शन करने के बाद बैठ कर यह प्रार्थना अवश्य करनी चाहिए। यह प्रार्थना है, याचना नहीं है। याचना सांसारिक पदार्थों के लिए होती है। जैसे कि घर, व्यापार,नौकरी, पुत्र, पुत्री, सांसारिक सुख, धन या अन्य बातों के लिए जो मांग की जाती है, वह याचना है, वह भीख है।
प्रार्थना शब्द के प्र का अर्थ होता है विशेष अर्थात् विशिष्ट, श्रेष्ठ और अर्थना अर्थात् निवेदन। प्रार्थना का अर्थ हुआ विशेष निवेदन।
मंदिर में भगवान का दर्शन सदैव खुली आंखों से करना चाहिए, निहारना चाहिए। कुछ लोग वहां आंखें बंद करके खड़े रहते हैं। आंखें बंद क्यों करना, हम तो दर्शन करने आए हैं। भगवान के स्वरूप का, श्री चरणों का, मुखारविंद का, शृंगार का, संपूर्ण आनंद लें, आंखों में भर ले निज-स्वरूप को।
दर्शन के बाद जब बाहर आकर बैठें, तब नेत्र बंद करके जो दर्शन किया है, उस स्वरूप का ध्यान करें। मंदिर से बाहर आने के बाद, पैड़ी पर बैठ कर स्वयं की आत्मा का ध्यान करें, तब नेत्र बंद करें और अगर निज आत्मस्वरूप ध्यान में भगवान नहीं आए तो दोबारा मंदिर में जाएं और पुनः दर्शन करें।
इस पोस्ट में मंदिर के बाहर सीढ़ी पर बैठने के बाद क्या करना है, ये तो बहुत अच्छे तरीके से बताया गया है। साथ ही ऐसा करने का प्रयोजन भी आखिर में बताया गया है। वो यह कि भीतर जो दर्शन किया है, उसे सीढ़ी पर बैठ कर एक बार आत्मसात कर लें, ताकि वह चिरस्थाई हो जाए। जैसे पढ़ाई करते वक्त पढ़े हुए पाठ को याद रखने के लिए रिवीजन किया जाता है।
बेशक एक कारण ये हो सकता है, हालांकि लोग तो इस कारण को जाने बिना ही केवल औपचारिक रूप से ऐसा करते हैं। एक वजह सम्मान की भी हो सकती है। मंदिर से बाहर निकलते वक्त हमारी पीठ मूर्ति की ओर होती है, जो कि उचित नहीं। अतः मूर्ति के देवता के प्रति आदर व आभार प्रकट करने के लिए सीढ़ी पर कुछ क्षण बैठा जाता होगा। मेरी खोज जारी है, यदि कोई और कारण भी जानकारी में आया तो आपसे शेयर जरूर करूंगा।
गधे के बायीं ओर से गुजरना शुभ क्यों?
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https://www.youtube.com/watch?v=gUKg3PfZfl8
उबासी आने पर चुटकी क्यों ली जाती है?
बहरहाल उबासी के दौरान चुटकी लेने का एक प्रसंग रामायण में आता है। जरा इस पर बात कर लेते हैं।
वस्तुतः भक्त हनुमान द्वारा भगवान राम की निरंतर सेवा से सीता जी, भरत, लक्ष्मण आदि ईर्ष्या करने लगे थे। भगवान राम के राज्याभिषेक के बाद सब कुछ आनंद से चल रहा था। हनुमान जी भी अयोध्या में ही रह कर भगवान राम की सेवा करते थे। हर वक्त, यहां तक कि शयन कक्ष में भी हनुमान सेवा में उपस्थित रहते थे। ईर्ष्यावश सीता जी, भरत व लक्ष्मण ने एक योजना बनाई, ताकि हनुमान को सेवा से दूर रखा जा सके। राम दरबार में भरत ने राम की ओर से एक आदेश सुनाया। इसके तहत उन्होंने शयन कक्ष में सिर्फ सीता जी के, दरबार में भरत जी के और भोजन और भ्रमण के दौरान लक्ष्मण जी ने सेवा के अधिकार ले लिए। हालांकि भगवान राम ने हनुमान के लिए सेवा के लिए कुछ न छोडऩे पर संशय किया था, मगर सब टाल गए। अपने लिए सेवा का अवसर न बचने पर हनुमान हनुमान गढ़ी में दुखी हो कर रोने लगे। अपनी सेवा में हनुमान जी को न पाकर श्रीराम का भी मन नहीं लगा, तब उन्होंने हनुमान का पता करवाया और उनको बुलावा भेजा। हनुमान के दुख का कारण जान कर भगवान राम ने उनसे सेवा को कोई मौका मांगने को कहा। चतुर हनुमान ने भगवान राम को उबासी आने पर चुटकी बजाने की सेवा मांगी। भगवान राम ने स्वीकृति दे दी। हनुमान से ईर्ष्या करने वाली मंडली को यह बहुत ही सामान्य सी सेवा लगी, सो उन्होंने कोई ऐतराज नहीं किया। लेकिन इस सेवा के बहाने हनुमान हर पल भगवान राम के साथ ही रहने लगे। पता नहीं कब उबासी आ जाए और उन्हें चुटकी बजानी पड़े। एक दिन रात में सीता जी ने हनुमान को शयन कक्ष से बाहर भेज दिया। भगवान राम ने उबासी ली, और उनका मुंह खुला का खुला रह गया। यह स्थिति देख कर सभी घबरा गए। किसी को कुछ नहीं समझ आया कि क्या किया जाए। इस पर हनुमान को बुलवाया गया। उनके चुटकी बजाते ही भगवान राम सामान्य हो गए। है न दिलचस्प प्रसंग।
खैर, उबासी आती क्यों है, इस पर विदुषी निशी खंडेलवाल ने एक विस्तृत आलेख लिखा है। आइये, उसके कुछ अंश जान लेते हैं।
जानकारी ये है कि हम ही नहीं, बल्कि गर्भस्थ शिशु भी उबासी लेता है। अल्ट्रा साउंड निरीक्षण के दौरान 20 सप्ताह के शिशुओं की गर्भ में उबासिया रिकार्ड की गई हैं। इससे तो ऐसा लगता है कि उबासी का आना हमारे लिए काफी महत्वपूर्ण है और इस पर नियंत्रण कर पाना सम्भव नहीं। रात को सोने से पहले, सुबह उठने के बाद, किसी काम को लगातार करते रहने से, बहुत ज्यादा थकान महसूस होने जाने आदि-आदि परिस्थितियों में सभी के उबासी लेने के अनुभव हैं।
उबासी क्यों आती है, इसका पता लगाने और किसी निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए बहुत-से अध्ययन किए गए हैं। सन् 1986 में महाविद्यालय के कुछ छात्रों पर किए गए प्रयोगों में पाया कि उस समय उबासी ज्यादा आती है, जब छात्रों को बोरियत महसूस होती है।
ऐसा माना जाता है कि थके होने पर उबासी ज्यादा आती है। यह देखा जाता है कि अक्सर उबासी नींद आने की स्थिति में आती है। सबसे ज्यादा उबासी सोने से पहले और सो कर उठने के समय आती है, क्योंकि इस समय सक्रियता का स्तर बहुत कम होता है। परन्तुु बाद में हुए कुछ प्रयोगों से यह पता चला कि सतर्कता का स्तर अक्सर उबासी के बाद नहीं, उससे पहले बढ़ जाता है और सतर्कता के अन्य सम्भावित कारण भी पाए गए। तो यह परिकल्पना भी बहुत सटीक साबित नहीं हुई।
दिलचस्प बात है कि कई जानवर उबासी लेते हैं - शेर-बिल्ली, कुत्ते-भेड़िए, बन्दर-वानर, सांप, मछली, चूहे, घोड़े, तोते, पेंग्विन, उल्लू आदि। मनुष्यों की तरह सामाजिक समूहों में रहने वाले जानवरों में किसी को उबासी लेते हुए देख कर अन्य को भी उबासी आ जाती है। इनमें चिम्पैन्ज़ी और तोते शामिल हैं। शोध से यही पता चला है कि कुत्ते अपने मालिक को उबासी लेते देख खुद उबासी लेने लगते हैं। अर्थात उबासी एक प्रजाति से दूसरी प्रजाति में भी फैल सकती है।
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https://www.youtube.com/watch?v=saCr4Z6-lEw
सोमवार, दिसंबर 09, 2024
सत्यनारायण भगवान की मूल कथा कौन सी है?
हमारे यहां पूर्णिमा के दिन भगवान सत्यनारायण की कथा करने का प्रचलन है। किसी शुभारंभ के मौके पर भी यह कथा करवाई जाती है। इस कथा में पांच अध्याय होते हैं, जिनमें यह वर्णन होता है कि अमुक व्यक्ति ने कथा की तो उसे बहुुत फायदा हुआ और अमुक ने भूल से कथा नहीं की या कथा का अनादर किया तो उसका अनिष्ट हो गया। आज हम जो कथा कर रहे हैं, वह वाकई सत्यनाराण भगवान की कथा ही है, चूंकि उसमें भगवान की महिमा है, मगर सवाल ये उठता है कि पांचों अध्यायों में जिन लोगों ने कथा की वह आखिर कौन सी कथा थी? यह बिलकुल साफ है कि हम जो कथा कर रहे हैं, वह उन पांच अध्यायों में कथा करने वालों ने नहीं की थी। वह कथा कोई और ही है। वह कहां खो गई? यदि पांच अध्याय वाली कथा से हमें सुख-संपत्ति मिलती है तो मौलिक कथा का न जाने कितना लाभ होगा।
इस बारे में मैने अनेक विद्वानों व पंडितों से जानकारी चाही तो वे ये नहीं बता पाए कि वह कथा कौन सी थी।
जहां तक मुझे समझ में आता है, पांच अध्यायों में जिस कथा का उल्लेख है, वह मूलतरू कोई कथा नहीं थी। वह व्रत करते हुए धार्मिक विधि विधान पूर्वक सत्यनारायण भगवान की पूजा-अर्चना व आरती थी। गलती से उसे कथा कह दिया गया है। वर्तमान में हम जिस कथा की पुस्तक का पूजा-अर्चना के दौरान पाठ करते हैं, वह तो भिन्न-भिन्न प्रकरणों के पांच अध्यायों का संगलन मात्र है।
शुक्रवार, दिसंबर 06, 2024
भगवान आदमी है या औरत?
इस विषय को लेकर विशेष रूप से ईसाई समुदाय में काफी बहस छिड़ी हुई है। चर्च ऑफ इंग्लैंड का एक समूह दैनिक प्रार्थना के दौरान ईश्वर को पुरुषवाचक के साथ ही स्त्रीवाचक के रूप में भी संबोधित करने की मांग कर रहा है। उसकी मांग में दम भी है। लेकिन दिक्कत ये है कि जब भी हम ईश्वर का जिक्र करते हैं तो स्वाभाविक रूप से बिना सर्वनाम के उसके बारे में चर्चा करना कठिन है। यह भाषा की भी समस्या है। या तो हमें उसे पुरुष या स्त्री वाचक शब्द से पुकारना होगा। पुरुषवादी समाज में उसे स्त्री के रूप में संबोधित करना हमें स्वीकार्य नहीं, इसलिए हम उसे पुरुष मान कर ही संबोधित करते हैं।
वस्तुतरू ईश्वर एक सत्ता है, एक शक्ति केन्द्र है। वह स्वयंभू है। उसी सत्ता के अधीन संपूर्ण चराचर जगत संचालित हो रहा है। वह कोई व्यक्ति नहीं है। लेकिन चूंकि हम स्वयं व्यक्ति हैं, हमारी सीमित शक्ति है, इस कारण सर्वशक्तिमान की परिकल्पना करते समय हम उसे अपार क्षमताओं से युक्त एक महानतम व्यक्ति के रूप में देखते हैं। और चूंकि पूरी प्रकृति व समाज की व्यवस्था पुरुषवादी है, इस कारण उसके प्रति संबोधन में स्वाभाविक रूप से पुरुषवाचक शब्दों का चलन है।
आइये, जरा हमारी पुरुष प्रधान व्यवस्था पर जरा चर्चा कर लें। असल में प्रकृति की गति नर व नारी की संयुक्त भूमिका से है। न तो आदमी अपेक्षाकृत बेहतर है और न ही औरत तुलनात्मक रूप से कमतर। बावजूद इसके समाज की संरचना में आरंभ से पुरुष की प्रधानता रही। यही वजह है कि धार्मिक, सामाजिक व पारिवारिक रूप से पुरुष अग्रणी रहा। आप देखिए, बेशक, नाम स्मरण करते हुए राधे-श्याम, सीता-राम, लक्ष्मी-नारायण कहा जाता है, अर्थात पहले स्त्री का नाम लिया जाता है, स्त्री तत्त्व को विशेष सम्मान दर्शाया जाता है, मगर सच्चाई ये है कि प्रधानता पुरुष की ही रही है। सारे भगवान पुरुष हैं। चित्रों में भगवान विष्णु शेष नाग पर लेटे होते हैं और माता लक्ष्मी उनके चरणों में बैठी दिखाई जाती है। अन्य भगवानों व देवी-देवताओं में भी पुरुष की ही प्रधानता है। धर्म की पुरर्स्थापना के लिए अवतार लेने वाले सभी भगवान पुरुष हैं। सारे आश्रमों के प्रमुख ऋषि रहे हैं। लगभग सारे मठाधीश पुरुष ही रहे हैं। सभी शंकराचार्य पुरुष हैं। अधिसंख्य मंदिरों में पुजारी पुरुष हैं। तीर्थराज पुष्कर में पवित्र सरोवर की पूजा-अर्चना पुरुष पुरोहित ही करवाते हैं।
जैन धर्म की बात करें। जैन समाज के सभी तीर्थंकर पुरुष हैं। जैन मुनियों के नाम के आगे 108 व जैन साध्वियों के नाम के आगे 105 लिखा जाता है। बाकायदा तर्क दिया जाता है जैन साध्वियों में जैन मुनियों की तुलना में तीन गुण कम हैं।
इस्लाम की बात करें तो पैगम्बर हजरत मुहम्मद साहब पुरुष है। सारे मौलवी पुरुष हैं। मस्जिदों में नमाज की इमामत पुरुष करते हैं। यहां तक कि सार्वजिनक नमाज के दौरान महिलाओं की सफें पुरुषों से अलग लगती हैं। अजमेर की विश्व प्रसिद्ध दरगाह ख्वाजा साहब की दरगाह में खिदमत का काम पुरुष खादिम करते हैं। दरगाह स्थित महफिलखाने में महिलाएं पुरुषों के साथ नहीं बैठ सकतीं। उनके लिए अलग से व्यवस्था है। जानकारी तो ये भी है कि दरगाह परिसर में महिला कव्वालों को कव्वाली करने की इजाजत नहीं है। इसी प्रकार इसाई धर्म में भी ईश्वर के दूत ईसा मसीह पुरुष हैं। गिरिजाघरों में प्रार्थना फादर करवाते हैं।
सामाजिक व्यवस्था में भी पुरुषों की प्रधानता है। अधिसंख्य समाज प्रमुख पुरुष ही होते हैं। पारिवारिक इकाई का प्रमुख पुरुष है। वंश परंपरा पुरुष से ही रेखांकित होती है। स्त्रियां ब्याह कर पुरुष के घर जाती हैं, न कि पुरुष स्त्री के घर। हमारे यहां तो पत्नी से अपेक्षा की जाती है कि वह पति को भगवान माने। पति की लंबी आयु के लिए पत्नियां करवा चौथ का व्रत करती हैं। इस तरह की धारणा चलन में हैं कि महिला यदि कोई पुण्य करे तो उसका आधा फल पुरुष को मिलता है, जबकि पुरुष को उसके पुण्य का पूरा फल मिलता है।
कुल मिला कर अनादि काल से पुरुष तत्व की प्रधानता रही है। सामाजिक व धार्मिक परंपराओं का ढ़ांचा बनाने वाले पुरुष हैं। यही वजह है कि लिंगातीत, निर्गुण, निराकार ईश्वर का जिक्र पुरुष वाचक शब्दों से करते हैं।
आखिर में एक बात पर गौर कीजिए। ईश्वर के बारे हम चाहे जितनी टीका-टिप्पणियां कर लें, लेकिन वह हमारी कल्पनाओं व अवधारणों से कहीं बहुत आगे है। उसका पार पाना कठिन ही नहीं, नामुमकिन है। वेद भी व्याख्या करते वक्त आखिर में नेति-नेति कह कर हाथ खड़े कर देते हैं।
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गुरुवार, दिसंबर 05, 2024
आदमी को स्तन क्यों होते हैं?
मेरे जेहन में भी ये सवाल उभरा है। इसका जवाब तलाशने की बहुत कोशिश की, मगर फिलवक्त तक सटीक उत्तर नहीं मिल पाया है। हां, इतना जरूर समझ आया है कि यह इस बात का प्रतीक हैं कि आदमी में कुछ मात्रा में स्त्रैण हार्माेन भी होते हैं। होंगे ही, क्योंकि मनुष्य की उत्पत्ति स्त्री व पुरुष के मिलन से होती है और हर एक में दोनों के गुणसूत्र विद्यमान होते हैं। बस प्रतिशत का ही फर्क होता है, जिसकी वजह से कोई मेल तो कोई फीमेल पैदा होता है।
खैर, स्तन भले ही दूध की ग्रंथी है, मगर कहीं न कहीं इसका नस-नाडिय़ों के संतुलन से भी संबंध है। जब धरण टल जाती है तो नाड़ी वैद्य एक डोरी लेकर नाभि से पहले एक स्तन की दूरी नापता है और फिर दूसरे की। यदि दोनों की दूरी समान हो तो वह यही बताता है कि धरण नहीं टली है, पेट में दर्द किसी और वजह से है। यदि दूरी में फर्क आता है तो वह कहता है कि धरण टल गई है और झटके दे कर नाडिय़ों को संतुलित करता है। इसका मतलब ये हुआ कि जैसे नाभि पूरे शरीर की नस-नाडिय़ों का केन्द्र स्थान है, वैसे ही स्तन के बिंदु भी कहीं न कहीं नाडिय़ों के संतुलन का हिस्सा हैं।
दूसरी बात ये कि भले ही आदमी के स्तनों में दूध उत्पन्न नहीं होता, मगर हैं तो वे स्तन ही। भले ही सुप्त अवस्था में हों। यह नजरिया तब बना, जब ओशो के एक प्रवचन में यह सुना कि स्वामी रामकृष्ण परमहंस काली माता की भक्ति में इतने लीन हो गए कि जीवन के आखिरी दौर में उनका शरीर स्त्रैण हो गया। उनके स्तन अप्रत्याशित रूप से बढ़ गए व उनमें से दूध टपकने लगा। इसके यही मायने हैं कि पुरुष के शरीर में जो स्तन हैं, वे वाकई स्तन ही हैं, तभी तो स्वामी रामकृष्ण के स्तनों में से दूध आने लगा।
चूंकि आदमी के स्तन प्रतीकात्मक हैं, इस कारण यदि किसी के स्तन बढ़ जाते हैं तो उसके लिए शर्मिंदगी का कारण बन जाते हैं। विज्ञान की भाषा में बात करें तो असल में यह एक बीमारी है, इसको गाइनेकॉमस्टिया कहते हैं। टेस्टोस्टेरोन या एस्ट्रोजन हार्माेन के असंतुलन के कारण पुरुषों के स्तन बढ़ते हैं।। वैज्ञानिक शोध में यह भी सामने आया है कि लैवेंडर और चाय के पौधों के तेल के कारण युवकों के स्तन असामान्य रूप से बढ़ जाते हैं। इन तेलों में आठ ऐसे केमिकल होते हैं, जो हमारे हार्माेन्स पर प्रभाव डालते हैं। ज्ञाातव्य है कि लैवेंडर और टी ट्री पौधों से जुड़े तेल कई उत्पादों में पाए जाते हैं। साबुन, लोशन, शैम्पू और बाल संवारने वाले उत्पादों में इन तेलों का इस्तेमाल किया जाता है। ऐसा भी पाया गया है कि जिन लोगों ने इन तेलों का इस्तेमाल बंद किया तो उन्हें बढ़ते स्तन को काबू में करने में मदद मिली है।
जानकारी के अनुसार पुरुषों के स्तन बढऩे के मामले बढऩे लगे हैं। उसकी वजह हार्माेनल चौंजेज के साथ जिम जाने वालों में स्टेरॉयड का प्रयोग करने व लाइफ स्टाइल से जुड़े मामले इसके लिए जिम्मेदार हैं।
आखिर में एक रोचक बात। हालांकि ये अपवाद मात्र है, मगर है दिलचस्प। यह एक सामान्य सी बात है कि जो युवती गर्भ धारण करती है तो उसका जी मिचलाने लगता है। यदि यही समस्या पिता बनने वाले युवक के साथ भी हो तो चौंकना स्वाभाविक है। एक खबर के मुताबिक 29 साल के हैरिस ऐशबे की मंगेतर को उनका पहला बच्चा होने वाला था। हैरिस का भी जी मिचलाने लगा। उसके स्तन बढऩे लगे। डॉक्टरों ने बताया कि वह एक तरह के मेडिकल कंडिशन का शिकार हो गया है, जिसे कौवेड सिंड्रोम कहते हैं।
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बुधवार, दिसंबर 04, 2024
जाते हुए को पीछे से आवाज क्यों नहीं देते?
जरा गहराई में जाएं तो पाएंगे कि यकायक पीछे से आवाज देने का भाव हमारे मन में प्रकृति ही पैदा करती है। अर्थात जिस पल में वह भाव उत्पन्न होता है, वह किसी काम के निकलने के लिए उचित नहीं होता। प्रकृति उसे टाले जाने की सलाह दे रही होती है। अगर हम उसे अनसुना करते हैं तो उसका परिणाम विपरीत आ जाता है।
अगर इसको अंध विश्वास भी मान लें तो भी काम की सफलता इस कारण संदिग्ध हो जाती है, क्यों कि हमारे मन में यह धारणा पहले से बैठी हुई है कि पीछे से आवाज आई है, यानि कि कुछ गड़बड़ होगी ही, हमारी आत्मशक्ति में कुछ कमजोरी आ जाती है। हम वह कार्य उतने मनोयोग से नहीं कर पाते, जितने से किये जाने की जरूरत होती है। और वाकई काम ठीक से पूरा नहीं होता।
कई बार ऐसा भी होता है कि जैसे ही कोई रवाना होता है, और यकायक हमारे मन में उसे किसी बात की याद दिलाने का ख्याल आता है, मगर चूंकि हम मानते हैं कि पीछे से आवाज देना ठीक नहीं है, हम अपने आपको रोक लेते हैं और व्यक्ति को जाने देते हैं और पाते हैं कि वह स्वतः ही कुछ पल बाद वापस चला आता है, चूंकि तब तक टेलीपैथी से उसके मस्तिष्क में हमारा मस्तिष्क लौटने का संकेत भेज चुका होता है। ऐसा भी होता है कि भले ही हमने अपने आप को टोकने से रोक लिया हो फिर भी काम बिगड़ जाता है। इसका सीधा अर्थ है कि प्रकृति ने तो हमें संकेत दिया था, मगर हमने ही या तो अनसुना कर दिया या फिर बलात खुद को रोक दिया।
ऐसा नहीं कि केवल अन्य व्यक्ति के मन में ही पीछे से आवाज देने का भाव आता है, कई बार हम खुद काम के लिए निकलते हुए महसूस करते हैं कि पीछे से आवाज आ रही है, कुछ अधूरा-अधूरा सा है, या फिर हम कुछ भूल रहे हैं। कई बात तो दिमाग पर जोर डालने पर पकड़ लेते हैं कि हम क्या भूल रहे हैं, मगर कई बार ऐसा नहीं हो पाता। मजे की बात ये है कि क्या भूल रहे हैं, यह घर के भीतर जा कर उसी स्थान पर खड़े होने पर ही याद आता है, जहां से हमारे विचार या दृश्य की शृंखला टूटी है। ऐसा भी होता है कि लाख याद करने पर भी हमें याद नहीं आता तो हम काम के लिए रवाना हो जाते हैं और गन्तव्य स्थान पर पहुंचने के बाद ही पता लगता है कि अमुक चीज भूल गए।
सच में प्रकृति ने हमें मस्तिष्क नामक गजब का सुपर कंप्यूटर दिया है, जो अपने आस-पास से संकेत ग्रहण करता है और संकेत प्रेषित भी करता है। वैज्ञानिक भी इसे स्वीकार करने लगे हैं। हालांकि वे इसका वैज्ञानिक विवेचन नहीं कर पाते, मगर इसे टेली रेस्पोंस पॉवर के नाम से संबोधित करते हैं। टेली रेस्पोंस पॉवर के अनेक सफल प्रयोग हो चुके हैं। यह पूर्ण प्रमाणिक विज्ञान नहीं है, चूंकि यह हमारी मानसिक शक्ति पर निर्भर करता है। यह हमारे संदेश प्रसारण की क्षमता व संदेश ग्रहण करने की पात्रता पर निर्भर करता है। टेली रेस्पोंस पॉवर पर फिर कभी विस्तार से चर्चा करेंगे।
आखिर में एक बात कहना जरूर कहना चाहूंगा। वो ये कि प्रकृति में सदा दो और दो चार नहीं होता, कभी तीन तो कभी पांच हो जाता है। उसकी गणित अपनी अलग है, जो हमारी गणित से मेल नही खाती। बस यहीं से रहस्यवाद का आरंभ होता है।
https://www.youtube.com/watch?v=OHIOSst2bcA
सोमवार, दिसंबर 02, 2024
काम सिद्ध करना हो तो अधिकारी के बायीं ओर खड़े होइये
आइये, एक ऐसे टोटके पर चर्चा करते हैं, जिसका उपयोग हमारे दैनिक जीवन में कई बार हो सकता है। ऐसी मान्यता है कि अगर आपको किसी अधिकारी या किसी ओर से कोई काम हो तो उसके बायीं ओर खड़े हो कर अपनी बात कहिये, वह आसानी से आपकी बात मान जाएगा। इसके पीछे तर्क ये दिया जाता है कि हर व्यक्ति के बायीं ओर हृदय होता है। हृदय अर्थात दिल, जो कि संवेदना का केन्द्र है। वाम अंग पर चंद्रमा का प्रभाव होता है। जब हम बायीं ओर खड़े हो कर उससे कोई मांग रखते हैं तो वह संवेदनापूर्वक हमारी बात मान जाता है। अर्थात दायीं ओर की तुलना में बायीं ओर खड़े होने पर काम सिद्ध होने की संभावना अधिक रहती है। इसलिए जब भी किसी अधिकारी के पास जाएं तो कोशिश करके उसके बायीं ओर खड़े होइये।
एक बात और। कदाचित ऐसा भी हो सकता है कि टोटका इस्तेमाल करने के दौरान हमारा आत्मविश्वास मजबूत होता है। कि हम टोटके का उपयोग कर रहे हैं। और इसी वजह से अपनी बात पूरी ऊर्जा के साथ कहते हैं, जो सामने वाले पर असर कर जाती हो।
मैने स्वयं इसे आजमाया है। मुझे तो यह तथ्य सही लगा। मैं गलत भी हो सकता हूं, अतः आप स्वयं आजमाइये। संभव है, हम इस तथ्य की बारीकी को न समझ पाएं, मगर बायीं ओर खडे होने में हर्ज ही क्या है? क्या पता तथ्य सही हो। अगर विद्वानों ने बताया है तो कोई तो राज होगा।
रविवार, दिसंबर 01, 2024
रात के बारह बजे क्यों तोड़ते हैं व्रत?
आपने देखा होगा कि कई बार मंगलवार या शनिवार अथवा किसी और वार का व्रत रखने वाले किसी पार्टी में होते हैं तो कहते हैं कि आज अमुक वार है, मेरा व्रत है, अतः रात के बारह बजे दूसरा वार शुरू होने पर ही अन्न अथवा मदिरा का सेवन कर पाऊंगा। सवाल ये उठता है कि हम अपनी हिंदू संस्कृति के तहत व्रत रखते हैं तो उसमें वार का नियम भी हिंदू संस्कृति का लागू होगा, रात बारह बजे वार बदलने का नियम तो आंग्ल नियम है। हमारे यहां तो सूर्याेदय के समय नया वार शुरू होता है, जो कि दूसरे दिन सूर्याेदय तक रहता है। अर्थात कोई भी वार दिन से शुरू होता है और उसके बाद उस वार की रात आती है। इसी प्रकार इस्लामिक परंपरा में पहले रात व बाद में दिन शुरू होता है। तभी तो जुम्मे अर्थात शुक्रवार से पहले आने वाले गुरुवार को जुम्मेरात कहते हैं।
मुद्दा ये है कि आपने यदि मंगलवार को व्रत रखा हुआ है तो वह अगले दिन सुबह सूर्याेदय तक चलना चाहिए, जबकि अमूमन लोग रात बारह बजे ही वार बदलने वाले नियम को मानते हुए बारह बजते ही व्रत तोड़ देते हैं। आपने ये भी देखा होगा कि जो व्यक्ति मंगलवार का व्रत रखता है तो वह सोमवार की रात बारह बजे से पहले खा-पी लेता है, वह मानता है कि बारह बजे मंगलवार शुरू हो जाएगा, जबकि वह गलत है। इस बात को लेकर आपने कई बार मित्र मंडली में बहस होती हुई देखी होगी।
मेरा ऐसा अनुभव है कि कोई भी व्यक्ति जो भी नियम अपने लिए बनाता है, वह उस पर लागू होता है, उसमें संस्कृति के अनुसार बने हुए नियम का कोई अर्थ नहीं होता। यदि हमने मंगलवार की रात बारह बजे वार बदलने की धारणा अपने मन में कायम कर रखी है तो वही हमें प्रभावित करेगी। यदि हम उस धारणा को भंग करेंगे तो कदाचित वह प्रतिकूलता दे सकती है। और एक बार प्रतिकूलता मिली तो हमारा यकीन मजबूत हो जाता है कि मैंने अपना बनाया हुआ नियम तोड़ा, इस कारण प्रतिकूल स्थिति उत्पन्न हुई। वस्तुतः यह हमारी आस्था का सवाल है। एक गीत आपने सुना होगा- मानो तो गंगा मां हूं, ना मानो तो बहता पानी। ताजा मुद्दे पर यह पंक्ति सटीक बैठती है। मेरी नजर में इसका मानसिक खेल ये है कि जैसे ही किसी कारणवश हम अपनी निर्मित धारणा, जिसे कि हम लघु सृष्टि भी कह सकते हैं, के विपरीत कोई काम करेंगे, तो हमारे भीतर अपराधबोध उत्पन्न होगा, जो कि हमारी मानसिक शक्ति को कमजोर करेगा व मन में आशंका उत्पन्न होगी। कदाचित प्रतिकूल परिणाम भी हो सकता है। दूसरी ओर जिसने इस प्रकार वार का नियम नहीं बना रखा है तो उस को कोई फर्क नहीं पड़ता।
एक और उदाहरण देखिए। परंपरागत रूप से कुछ लोग मंगलवार व वृहस्पतिवार को बाल-नाखून आदि नहीं काटते, जबकि अनेक लोग बाल काटते समय वार को कोई अहमियत नहीं देते। दोनों प्रकार के लोगों पर अपने-अपने हिसाब से बनाई गई धारणा काम करती है। यह ठीक है कि जब भी मंगलवार व वृहस्पतिवार को बाल नहीं कटवाने की परंपरा शुरू हुई, उस वक्त उसके कोई तार्किक कारण रहे होंगे। हमारे दैनंदिन जीवन में प्रतिदिन में हम अनेकानेक परंपरागत नियमों का पालन करते हैं, मगर आपने देखा होगा कि समय बदलने के साथ वे नियम टूटे भी हैं और उनमें शिथिलता आई है। अब किसी ने नियम तोड़ा है तो उसे नुकसान हुआ ही है या होगा और किसी ने नियम पाला है तो उसे बहुत फायदा हुआ ही है या होगा, इस बारे में पक्के तौर पर कुछ नहीं कहा जा सकता।
यूं नियम की बड़ी महत्ता है, इस पर विस्तार से कभी और बात करेंगे।
आखिर में एक बात जरूर कहना चाहता हूं। प्रकृति के मामले में हमारा बोला हुआ तथ्य पूर्ण सत्य होगा, इसकी संभावना कम है, क्योंकि प्रकृति में दो और दो चार नहीं होता। कभी पांच तो कभी तीन हो जाता है। यही वजह है कि प्रकृति समझ में नहीं आती। वस्तुतरू यह प्रकृति चूंकि विरोधी तत्त्वों से मिल कर बनी है, इस कारण इसमें विरोधाभास भी खूब हैं। यह इतनी रहस्यपूर्ण है कि हम इसकी थाह नहीं पा सकते। यहां कुछ भी अंतिम सत्य नहीं है। जिसे हम सत्य मानते हैं, वही देश, काल, परिस्थिति बदलने पर असत्य हो जाता है।