इस मुद्दे का गहराई से अध्ययन करने से मैने पाया कि निर्मल बाबा जिस प्राकृतिक सिद्धांत के आधार पर उपाय बताते हैं, वह पद्यति कारगर होनी चाहिए। उन्हें कैसे पता लगता है कि अमुक सवाली के मन में क्या है और कौन सी वस्तु उसने कितने दिन से नहीं खाई है, अथवा उसका कौन सा संकल्प या इच्छा पूरी नहीं हुई है, उसके पीछे जरूर कोई गड़बड़झाला होने की संभावना मानी जा सकती है। वे अंतर्यामी हैं या नहीं, इस पर भी सवाल उठाए जा सकते हैं, मगर वे जिस प्राकृतिक सिद्धांत के आधार पर उपाय करते हैं, वह मुझे तो तार्किक लगती है।
ऐसा प्रतीत होता है कि जब भी हमारे मन में कोई इच्छा जागृत होती है अथवा कोई संकल्प निर्मित होता है, वह हमारे भीतर एक प्रकार की ग्रंथी का निर्माण करता है। जैसे ही वह इच्छा अथवा संकल्प पूरा होता है, ग्रंथी का विसर्जन हो जाता है। पूरा न होने पर वह ग्रंथी विकृतियां उत्पन्न करती है। अतृप्त इच्छा का कितना महत्व है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि कई बार आत्मा इसी कारण भटकती रहती है, क्योंकि उसकी कोई इच्छा विशेष पूरी नहीं हो पाती। यही वजह है कि हमारे यहां मृत्यु होने से ठीक पहले प्राणी की अंतिम इच्छा पूछी जाती है। उसकी वजह भी यही है कि उसकी आखिरी ख्वाहिश पूरी कर दी जाए, ताकि मृत्योपरांत उसकी आत्मा भटके नहीं।
अतृप्त इच्छाएं पूरी न होने पर उसका प्रभाव वस्तुओं पर भी पड़ता है, ऐसी हमारे यहां मान्यता है। आपको ऐसे कई लोग मिल जाएंगे, जो कि बाजार में सजा कर रखी गई मिठाई अथवा अन्य खाद्य पदार्थ का सेवन करने से बचते हैं। उसके पीछे धारणा ये है कि सजा कर रखी गई वस्तु पर अनेक लोगों की दृष्टि पड़ती है। ऐसे लोगों की नजर भी पड़ती है, जो कि उसे खाना तो चाहते हैं, मगर उनकी खरीदने की हैसियत नहीं होती अथवा किसी और कारण से खरीद नहीं पाते। ऐसे में वस्तु में अतृप्त इच्छा का दृष्टि दोष उत्पन्न हो जाता है। उस वस्तु को खाने पर हमको दोष लगता है।
हमारी संस्कृति में तो यह तक मान्यता है कि भोजन सदैव एकांत में करना चाहिए। ऐसा इसलिए कि भोजन करते समय अन्य की दृष्टि उस पर पडऩे से दोष उत्पन्न हो जाता है। आपने देखा होगा कि अनेक दुकानदार पीठ करके भोजन करते हैं, ताकि उस पर किसी ग्राहक की नजर नहीं पड़े। आपने देखा होगा कि यदि हमारे भोजन पर किसी अन्य की नजर पड जाए तो हम उसका कुछ अंष उसे खिला देते हैं, ताकि दोष न लगे।
अपूर्ण संकल्प जीवन में कठिनाइयां उत्पन्न करते हैं, ऐसी भी मान्यता है। एक प्रकरण आपसे साझा करता हूं। एक बार मेरी माताजी मामाजी के घर घूमने गई। वहां उनकी परिचित महिला से मुलाकात हो गई। वह स्नान करके शुद्ध हो कर उनके पास आ कर बैठी थी। जैसे ही उनके वस्त्र का मेरी माताजी के वस्त्र से स्पर्श हुआ, यकायक वह एक भाव अवस्था में आ गई और गुस्से में बोलने लगी कि याद कर, कोई पच्चीस साल पहले तूने अमुक मंदिर में अपनी मनोकामना पूरी होने के लिए एक धर्मग्रंथ से फूल चुना था। तेरी वह इच्छा पूरी हो गई, मगर तूने संकल्प के साथ प्रसाद चढ़ाने का जो निश्चय किया था, वह आज तक अधूरा है। इसी कारण संकट में है। उस महिला को मेरी माताजी की पच्चीस साल पहले की घटना कैसे ख्याल में आ गई, यह विचार का अन्य विषय है, मगर अधूरा संकल्प परेशानी पैदा करता है, वह तो इससे प्रमाणित होता ही है।
आपके ख्याल में होगा कि कई धर्म स्थलों के दरवाजों पर श्रद्धालु मन्नत का धागा अथवा कोई वस्तु बांधते हैं और मन्नत पूरी होने पर प्रसाद चढ़ा कर धागा खोलते हैं। अर्थात संकल्प या इच्छा पूरी होने पर उसकी पूर्णाहुति जरूर करते हैं। ऐसी मान्यता है कि ऐसा नहीं करने पर दोष लगता है। संकल्प लेकर कोई व्रत रखने पर भी उसका उद्यापन करने की प्रथा हमारे यहां प्रचलित है। मन्नत का धागा बांधने की बात पर मुझे याद आया कि मेरी माताजी हमारा कोई कार्य होने की इच्छा रख कर अपनी चुन्नी के कोने पर गांठ बांधती है और काम पूरा होने पर गांठ खोल कर मन में तय किया हुआ प्रसाद चढ़ाती है। गांठ का प्रयोजन यही होता है कि संकल्प की याद विस्मृत न हो। ऐसे ही अनेक प्रकरण मेरी जानकारी में हैं।
मुझे लगता है कि गांठ न बांधने पर भी इच्छा की गांठ मन के भीतर पड़ जाती है, जिसे कि मैने ग्रंथी की संज्ञा दी है। इच्छा के पूरा होने पर वह ग्रंथी विसर्जित हो जाती है, अथवा कोई न कोई विकृति पैदा करती है।
कुल जमा निष्कर्ष ये है कि निर्मल बाबा जिस पद्यति का उपयोग करते हैं, वह कारगर होनी चाहिए। हमें भी सामान्य जीवन में यह ख्याल रखना चाहिए कि हमारे मन में जो भी इच्छा जागृत हो, उसे यथासंभव पूर्ण कर लेना चाहिए। चंद उदाहरण पेष हैं, जिनका हमें ख्याल रखना चाहिए। जैसे अगर हमारे मन में किसी भिखारी को कुछ देने का भाव आया है तो उसे पूरा कर लेना चाहिए। इसी प्रकार यदि कभी किसी मंदिर के दर्षन या किसी दरगाह में हाजिरी का मन में विचार आए तो यथासंभव उसे पूरा कर लेना चाहिए। इसमें ख्याल रखने योग्य बात ये है कि हमें अपनी इच्छाओं पर नियंत्रण रखना चाहिए। इसके अतिरिक्त अनीतिपूर्ण इच्छाओं को पैदा ही नहीं होने देना चाहिए। चूंकि अगर वे पूरी कर भी ली गई तो भले ही ग्रंथी से होने वाली कठिनाई से हम मुक्त हो जाएंगे, मगर अनीति से किए गए कार्य का परिणाम तो हमें भुगतना ही होगा।
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