राजस्थान विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष रामेश्वर डूडी के निवास पर जनसुनवाई के दौरान उनके समर्थकों की ओर से अगला मुख्यमंत्री बनाने संबंधी नारे लगने के बाद इसकी चर्चा राजनीतिक हलकों सहित सोशल मीडिया पर खूब है। कुछ लोग इसे आगामी विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की ओर से मुख्यमंत्री पद के प्रबल दावेदार सचिन पायलट के लिए चुनौति मानते हैं तो कुछ इसे महज अचानक हुई एक घटना मात्र, तो कुछ जाट रणनीति का एक हिस्सा। यहां उल्लेखनीय है कि सचिन के लिए पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत भी एक चुनौति के रूप में माने जाते हैं। कांग्रेस का एक खेमा उन्हें अब भी अगला मुख्यमंत्री बनाए जाने के लिए सजीव बनाए हुए है।
सवाल ये उठता है कि क्या गहलोत व डूडी की इन चुनौतियों में गंभीरता कितनी है या फिर ये मात्र शोशेबाजी? असल में कांग्रेस में वही होता है, होता रहा है, जो कि हाईकमान ने चाहा है। बेशक स्थानीय क्षत्रप समय समय पर सिर उठाते हैं, मगर आखिरकार हाईकमान के फैसले के आगे सभी नतमस्तक हो जाते हैं। उसकी वजह ये है कि आमतौर पर क्षत्रपों का खुद का वजूद नहीं होता। वे जो कुछ होते हैं, पार्टी के बलबूते। ऐसे अनेक उदाहरण मिल जाएंगे, जो यह साफ दर्शाते हैं कि चाहे कोई कितना भी बड़ा नेता क्यों न हो, मगर कांग्रेस हाईकमान के विपरीत जाते ही हाशिये पर आ जाता है। ऐसे में अगर हाईकमान अगर चाहता है कि बहुमत आने पर सचिन को ही मुख्यमंत्री बनाना है तो किसी में इतनी ताकत नहीं कि उसे चुनौति दे सके। बेशक दबाव जरूर बना सकते हैं, जैसा कि गहलोत की ओर से बनाया जा रहा है, या फिर अब डूडी के समर्थक बना रहे हैं।
जहां तक गहलोत की ओर से दबाव बनाए जाने का सवाल है तो वह इस वजह से कि वे दो बार मुख्यमंत्री और एक बार प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष रह चुके हैं। जाहिर तौर पर इस दौरान उन्होंने हजारों समर्थकों को निजी लाभ पहुंचाया होगा। वे गहलोत के गुण गाएंगे ही। यूं उनका कार्यकाल अच्छा ही रहा है, मगर कुछ बड़ी राजनीतिक भूलों और मोदी लहर के चलते पार्टी चौपट हो गई। ऐसे में पार्टी ने कार्यकर्ताओं में नई जान फूंकने के लिए सचिन को प्रदेश अध्यक्ष बनाया और इस प्रकार का संदेश भी दिया कि उनके नेतृत्व में ही अगला चुनाव लड़ा जाएगा। स्वाभाविक रूप से पूर्व में स्थापित नेताओं को यह नागवार गुजरा होगा। गहलोत समर्थकों को तो कुछ ज्यादा ही, क्योंकि इससे उनको अपने वजूद का भी खतरा महसूस होने लगा। उसे बचाने कर खातिर वे लामबंद हैं। यही वजह है गहलोत एक चुनौति के रूप में देखे जाते हैं। गहलोत भी भला क्यों नहीं चाहेंगे कि उन्हें फिर से मुख्यमंत्री बनने का मौका मिले, अत: वे यह कह कर अपनी संभावनाओं को सुरक्षित कर लेते हैं कि मुख्यमंत्री का फैसला निर्वाचित विधायक करते हैं। मगर वे स्वयं भी जानते हैं कि अगर हाईकमान की रुचि सचिन में रही तो वे कुछ नहीं कर पाएंगे। कांग्रेस हाईकमान भी ऐसे संकेत देता रहा है कि गहलोत का उपयोग राजस्थान की बजाय दिल्ली या संगठन में किया जाएगा। हाल ही उन्हें उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव में स्क्रीनिंग कमेटी का चेयरमैन बनाया गया है। रहा सवाल राजस्थान में उनके दखल तो संभावना यही है कि आगामी विधानसभा चुनाव में उनके समर्थकों के लिए भी कुछ सीटें रिजर्व रखी जाएंगी। यानि कि हिस्सेदारी उनकी भी होगी। जैसे जब वे मुख्यमंत्री थे तो सी पी जोशी अपनी हिस्सेदारी बनाए हुए थे।
बात अगर डूडी के निवास पर हुई घटना का करें तो यह डूडी से कहीं अधिक किसी जाट को मुख्यमंत्री बनाए जाने की मांग से जुड़ा हुआ है। डूडी इतने बड़े या सर्वमान्य नेता नहीं कि मुख्यमंत्री पद की दावेदारी कर दें। वस्तुत: किसी जाट को मुख्यमंत्री बनाए जाने की मांग अरसे से की जाती रही है। वर्तमान चूंकि डूडी नेता प्रतिपक्ष हैं तो वे ही मांग के केन्द्र में नजर आ सकते हैं। यह सच है कि राजस्थान में जाटों का वर्चस्व रहा है, मगर एक बार भी किसी जाट को मुख्यमंत्री बनने का मौका नहीं मिला। यहां तक कि खांटी नेता परसराम मदेरणा को भी विधानसभा अध्यक्ष तक ही संतुष्ट रहना पड़ा। वे प्रदेश अध्यक्ष भी रहे। इसी प्रकार डॉ. चंद्रभान व नारायण सिंह को भी प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया। जब प्रदेश अध्यक्ष गुर्जर नेता सचिन पायलट को बनाया तो डूडी को नेता प्रतिपक्ष बना दिया गया। यानि कि जाटों को नकारा नहीं गया, संतुलन बनाए रखा गया, मगर सत्ता का शीर्ष पद नहीं सौंपा गया। इसके पीछे का क्या गणित है, वो तो पार्टी ही जाने। अगर डूडी के बहाने जाटों ने और दबाव बनाया तो होगा इतना ही कि टिकट वितरण के दौरान वे कुछ ज्यादा झटक लेंगे, इससे ज्यादा कुछ होता नजर नहीं आ रहा।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
8094767000
सवाल ये उठता है कि क्या गहलोत व डूडी की इन चुनौतियों में गंभीरता कितनी है या फिर ये मात्र शोशेबाजी? असल में कांग्रेस में वही होता है, होता रहा है, जो कि हाईकमान ने चाहा है। बेशक स्थानीय क्षत्रप समय समय पर सिर उठाते हैं, मगर आखिरकार हाईकमान के फैसले के आगे सभी नतमस्तक हो जाते हैं। उसकी वजह ये है कि आमतौर पर क्षत्रपों का खुद का वजूद नहीं होता। वे जो कुछ होते हैं, पार्टी के बलबूते। ऐसे अनेक उदाहरण मिल जाएंगे, जो यह साफ दर्शाते हैं कि चाहे कोई कितना भी बड़ा नेता क्यों न हो, मगर कांग्रेस हाईकमान के विपरीत जाते ही हाशिये पर आ जाता है। ऐसे में अगर हाईकमान अगर चाहता है कि बहुमत आने पर सचिन को ही मुख्यमंत्री बनाना है तो किसी में इतनी ताकत नहीं कि उसे चुनौति दे सके। बेशक दबाव जरूर बना सकते हैं, जैसा कि गहलोत की ओर से बनाया जा रहा है, या फिर अब डूडी के समर्थक बना रहे हैं।
जहां तक गहलोत की ओर से दबाव बनाए जाने का सवाल है तो वह इस वजह से कि वे दो बार मुख्यमंत्री और एक बार प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष रह चुके हैं। जाहिर तौर पर इस दौरान उन्होंने हजारों समर्थकों को निजी लाभ पहुंचाया होगा। वे गहलोत के गुण गाएंगे ही। यूं उनका कार्यकाल अच्छा ही रहा है, मगर कुछ बड़ी राजनीतिक भूलों और मोदी लहर के चलते पार्टी चौपट हो गई। ऐसे में पार्टी ने कार्यकर्ताओं में नई जान फूंकने के लिए सचिन को प्रदेश अध्यक्ष बनाया और इस प्रकार का संदेश भी दिया कि उनके नेतृत्व में ही अगला चुनाव लड़ा जाएगा। स्वाभाविक रूप से पूर्व में स्थापित नेताओं को यह नागवार गुजरा होगा। गहलोत समर्थकों को तो कुछ ज्यादा ही, क्योंकि इससे उनको अपने वजूद का भी खतरा महसूस होने लगा। उसे बचाने कर खातिर वे लामबंद हैं। यही वजह है गहलोत एक चुनौति के रूप में देखे जाते हैं। गहलोत भी भला क्यों नहीं चाहेंगे कि उन्हें फिर से मुख्यमंत्री बनने का मौका मिले, अत: वे यह कह कर अपनी संभावनाओं को सुरक्षित कर लेते हैं कि मुख्यमंत्री का फैसला निर्वाचित विधायक करते हैं। मगर वे स्वयं भी जानते हैं कि अगर हाईकमान की रुचि सचिन में रही तो वे कुछ नहीं कर पाएंगे। कांग्रेस हाईकमान भी ऐसे संकेत देता रहा है कि गहलोत का उपयोग राजस्थान की बजाय दिल्ली या संगठन में किया जाएगा। हाल ही उन्हें उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव में स्क्रीनिंग कमेटी का चेयरमैन बनाया गया है। रहा सवाल राजस्थान में उनके दखल तो संभावना यही है कि आगामी विधानसभा चुनाव में उनके समर्थकों के लिए भी कुछ सीटें रिजर्व रखी जाएंगी। यानि कि हिस्सेदारी उनकी भी होगी। जैसे जब वे मुख्यमंत्री थे तो सी पी जोशी अपनी हिस्सेदारी बनाए हुए थे।
बात अगर डूडी के निवास पर हुई घटना का करें तो यह डूडी से कहीं अधिक किसी जाट को मुख्यमंत्री बनाए जाने की मांग से जुड़ा हुआ है। डूडी इतने बड़े या सर्वमान्य नेता नहीं कि मुख्यमंत्री पद की दावेदारी कर दें। वस्तुत: किसी जाट को मुख्यमंत्री बनाए जाने की मांग अरसे से की जाती रही है। वर्तमान चूंकि डूडी नेता प्रतिपक्ष हैं तो वे ही मांग के केन्द्र में नजर आ सकते हैं। यह सच है कि राजस्थान में जाटों का वर्चस्व रहा है, मगर एक बार भी किसी जाट को मुख्यमंत्री बनने का मौका नहीं मिला। यहां तक कि खांटी नेता परसराम मदेरणा को भी विधानसभा अध्यक्ष तक ही संतुष्ट रहना पड़ा। वे प्रदेश अध्यक्ष भी रहे। इसी प्रकार डॉ. चंद्रभान व नारायण सिंह को भी प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया। जब प्रदेश अध्यक्ष गुर्जर नेता सचिन पायलट को बनाया तो डूडी को नेता प्रतिपक्ष बना दिया गया। यानि कि जाटों को नकारा नहीं गया, संतुलन बनाए रखा गया, मगर सत्ता का शीर्ष पद नहीं सौंपा गया। इसके पीछे का क्या गणित है, वो तो पार्टी ही जाने। अगर डूडी के बहाने जाटों ने और दबाव बनाया तो होगा इतना ही कि टिकट वितरण के दौरान वे कुछ ज्यादा झटक लेंगे, इससे ज्यादा कुछ होता नजर नहीं आ रहा।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
8094767000
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें