जनता के बीच से चुने गए सांसदों का हाल भी बहुत अच्छा नहीं है
इन दिनों क्रिकेट के भगवान कहे जाने वाले सचिन तेंदुलकर और सुप्रसिद्ध अभिनेत्री रेखा के संसद में लगातार अनुपस्थित रहने को लेकर खासी गरमागरम बहस हो रही है। आप याद कीजिए कि जून 2012 में जब सचिन तेंदुलकर ने सांसद की शपथ ली थी तो उन्होंने कहा था, मैं संसद में खेल से जुड़े मुद्दे उठाना चाहता हूं। जाहिर है ऐसा आज तक तो हुआ नहीं कि सचिन तेंदुललर कोई मुद्दा उठाये या रेखा ने कभी कुछ कहा भी हो। ऐसे में कोई सांसद कहता है कि ऐसे सेलिब्रिटी सदस्यों को हटा देना चाहिए तो कोई कहता है कि सांसदों की न्यूनतम उपस्थिति अनिवार्य की जानी चाहिए। बहस का एक बिंदु ये भी है कि आखिर ऐसी सेलिर्बिटी को संसद में भेजा ही क्यों जाता है, जिनके पास संसद में उपस्थित होने का समय और देश के ज्वलंत विषयों पर अपनी राय रखने की रुचि ही नहीं है।
असल में संविधान में विभिन्न क्षेत्रों की हस्तियों को राज्यसभा में मनोनीत करने की व्यवस्था की ही इस कारण गई कि वे गैर राजनीतिक होने के कारण चुनाव लड़ कर संसद में नहीं आ सकतीं, मगर सोसायटी के अन्य क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व भी होना चाहिए, ताकि उनकी भी भागीदारी हो। मगर अमूमन पाया ये गया है कि ऐसी सेलिब्रिटी न तो संसद आना जरूरी समझती हैं और न ही देश के जरूरी विषयों पर अपनी कोई राय रखती हैं। उन्होंने इसे केवल स्टेटस सिंबल बना रखा है और उससे होने वाले लाभ उठाती रहती हैं। ऐसे में यह सवाल उचित ही है कि ऐसी हस्तियों को संसद में रखने से क्या फायदा, जिनकी संसद में कोई रुचि ही नहीं है। माना कि राष्ट्रपति ने सरकार की राय पर ऐसी हस्तियों को सम्मान देने की खातिर उनका मनोनयन किया है, मगर उन्हें भी तो संसद का सम्मान करना चाहिए।
सिक्के का एक पहुल ये भी हस्तियों की लोकप्रियता ही इतनी है कि उन्हें एक अदद सांसद बनने की जरूरत नहीं है। उनका क्रेज ही इतना अधिक है कि खुद सांसद व मंत्री भी उनकी एक झलक पाना चाहते हैं। याद कीजिये तो 2012 में संसद के भीतर रेखा और सचिन तेंदुलकर को लेकर संसद का कुछ ऐसा ही हाल था। कैमरे की चमक। सितारों की चकाचौंध। हर नजर रेखा और सचिन की तरफ। एकबारगी तो ऐसा लगा कि संसद की चमक भी इनके सामने फीकी है। भला ऐसी हस्तियों को सांसद बनने की जरूरत ही क्या है? और अगर बन जाती हैं तो फिर संसद में अनुपस्थित न हो कर काहे को अपनी फजीहत करवाती हैं?
बहरहाल, चूंकि सांसदों की संसद में सक्रियता का मुद्दा इस बहाने उठ ही गया है तो बातें और भी उठने लगी हैं। वो ये कि जो सांसद सीधे जनता अथवा विधायकों के माध्मम चुन कर आते हैं, उनमें से भी कई कमोबेश ऐसा ही हाल है। सैकड़ों सांसद ऐसे हैं, जिन्हें जनता ने चुना है, लेकिन वे न तो कोई सवाल पूछते हैं, न चर्चा में शामिल होते है। आडवाणी और करिया मुंडा समेत समेत बीजेपी के दर्जनभर से ज्यादा सांसद ऐसे हैं, जिनकी हाजिरी सौ फीसदी रही, लेकिन न तो चर्चा में हिस्सा लिया, न ही कोई सवाल खड़ा किया। पिछली लोकसभा में कांग्रेस के जाने-पहचाने चेहरे अजय माकन ने पांच साल के दौरान न कोई सवाल पूछा, न ही किसी चर्चा में शामिल हुये। इसी कड़ी में हालांकि सोनिया व राहुल गांधी का नाम भी लिया जाता है, मगर उन पर इसलिए अंगुली नहीं उठाई जा सकती क्योंकि वे ही तो कांग्रेस के रुख की नीति बनाते हैं। वे न भी बोले तो अन्य कांग्रेसी सांसदों का बोलना पर्याप्त है।
हाल ही यूपी की कानून व्यवस्था को लेकर यूपी के सीएम की सांसद पत्नी डिंपल यादव संसद में बोल रही थी, लेकिन 15 लोकसभा में डिंपल यादव ने कुछ कहा ही नहीं। यही हाल कांग्रेस के सी पी जोशी और वीरभ्रद्र सिंह का भी रहा। हाजिरी 95 फीसदी, लेकिन कभी संसद में नहीं बोले। औसत निकालेंगे तो हर सत्र में सौ से ज्यादा सांसद ऐसे होंगे, जो संसद में आते हैं और चले जाते हैं। ताजा आंकड़ों को देखें तो मौजूदा लोकसभा में अभी तक 72 सांसदों की कोई भागेदारी ही नहीं है। 101 सांसदों ने किसी चर्चा में हिस्सा ही नहीं लिया है। 198 सांसदों ने कोई सवाल नहीं उठाया है।
खैर, जो सवाल सबसे बड़ा उभरता है वो यह है कि जब चुने हुए जिम्मेदार सांसदों का ही ये हाल है तो केवल सचिन या रेखा से ही कोई उम्मीद क्यों की जाये? जब उनकी अदा ही हर दिन चलने वाले संसद के खर्च से ज्यादा कमाई हर दिन कर लेती हो, तो फिर संसद की साख पर सचिन की अदा तो भारी होगी ही। चलो, रेखा और सचिन तो फिर भी मनोनीत हैं, मगर सीधे जनता के वोटों से जीतने वाले फिल्मी सांसदों का भी यही हाल है। बालीवुड के सिने कलाकार धर्मेन्द्र बीकानेर से जीत कर गए, मगर पूरे कार्यकाल के दौरान कुछ नहीं बोले। बोलने की छोडिय़े, वे तो पूरे पांच साल बीकानेर ही नहीं गए।
कुल मिला कर निष्कर्ष यही है कि चाहे सीधे जनता के जरिए लोकसभा चुनाव जीते या फिर विधायकों के जरिए या मनोनयन के आधार पर राज्य सभा में पहुंचे सांसदों पर कुछ तो नियम लागू होने ही चाहिए। जब स्कूल में छात्रों की निर्धारित उपस्थिति जरूरी है तो जनता के प्रति जिम्मेदार सांसदों के लिए क्यों जरूरी नहीं होनी चाहिए। इतना ही नहीं, हर सत्र या साल के बाद सांसदों की परफोरमेंस का रिकार्ड रख कर उन्हें निर्देशित किया जाना चाहिए कि वे जिस मकसद से संसद में हैं, उसका दायित्व निभाएं।
-तेजवानी गिरधर
इन दिनों क्रिकेट के भगवान कहे जाने वाले सचिन तेंदुलकर और सुप्रसिद्ध अभिनेत्री रेखा के संसद में लगातार अनुपस्थित रहने को लेकर खासी गरमागरम बहस हो रही है। आप याद कीजिए कि जून 2012 में जब सचिन तेंदुलकर ने सांसद की शपथ ली थी तो उन्होंने कहा था, मैं संसद में खेल से जुड़े मुद्दे उठाना चाहता हूं। जाहिर है ऐसा आज तक तो हुआ नहीं कि सचिन तेंदुललर कोई मुद्दा उठाये या रेखा ने कभी कुछ कहा भी हो। ऐसे में कोई सांसद कहता है कि ऐसे सेलिब्रिटी सदस्यों को हटा देना चाहिए तो कोई कहता है कि सांसदों की न्यूनतम उपस्थिति अनिवार्य की जानी चाहिए। बहस का एक बिंदु ये भी है कि आखिर ऐसी सेलिर्बिटी को संसद में भेजा ही क्यों जाता है, जिनके पास संसद में उपस्थित होने का समय और देश के ज्वलंत विषयों पर अपनी राय रखने की रुचि ही नहीं है।
असल में संविधान में विभिन्न क्षेत्रों की हस्तियों को राज्यसभा में मनोनीत करने की व्यवस्था की ही इस कारण गई कि वे गैर राजनीतिक होने के कारण चुनाव लड़ कर संसद में नहीं आ सकतीं, मगर सोसायटी के अन्य क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व भी होना चाहिए, ताकि उनकी भी भागीदारी हो। मगर अमूमन पाया ये गया है कि ऐसी सेलिब्रिटी न तो संसद आना जरूरी समझती हैं और न ही देश के जरूरी विषयों पर अपनी कोई राय रखती हैं। उन्होंने इसे केवल स्टेटस सिंबल बना रखा है और उससे होने वाले लाभ उठाती रहती हैं। ऐसे में यह सवाल उचित ही है कि ऐसी हस्तियों को संसद में रखने से क्या फायदा, जिनकी संसद में कोई रुचि ही नहीं है। माना कि राष्ट्रपति ने सरकार की राय पर ऐसी हस्तियों को सम्मान देने की खातिर उनका मनोनयन किया है, मगर उन्हें भी तो संसद का सम्मान करना चाहिए।
सिक्के का एक पहुल ये भी हस्तियों की लोकप्रियता ही इतनी है कि उन्हें एक अदद सांसद बनने की जरूरत नहीं है। उनका क्रेज ही इतना अधिक है कि खुद सांसद व मंत्री भी उनकी एक झलक पाना चाहते हैं। याद कीजिये तो 2012 में संसद के भीतर रेखा और सचिन तेंदुलकर को लेकर संसद का कुछ ऐसा ही हाल था। कैमरे की चमक। सितारों की चकाचौंध। हर नजर रेखा और सचिन की तरफ। एकबारगी तो ऐसा लगा कि संसद की चमक भी इनके सामने फीकी है। भला ऐसी हस्तियों को सांसद बनने की जरूरत ही क्या है? और अगर बन जाती हैं तो फिर संसद में अनुपस्थित न हो कर काहे को अपनी फजीहत करवाती हैं?
बहरहाल, चूंकि सांसदों की संसद में सक्रियता का मुद्दा इस बहाने उठ ही गया है तो बातें और भी उठने लगी हैं। वो ये कि जो सांसद सीधे जनता अथवा विधायकों के माध्मम चुन कर आते हैं, उनमें से भी कई कमोबेश ऐसा ही हाल है। सैकड़ों सांसद ऐसे हैं, जिन्हें जनता ने चुना है, लेकिन वे न तो कोई सवाल पूछते हैं, न चर्चा में शामिल होते है। आडवाणी और करिया मुंडा समेत समेत बीजेपी के दर्जनभर से ज्यादा सांसद ऐसे हैं, जिनकी हाजिरी सौ फीसदी रही, लेकिन न तो चर्चा में हिस्सा लिया, न ही कोई सवाल खड़ा किया। पिछली लोकसभा में कांग्रेस के जाने-पहचाने चेहरे अजय माकन ने पांच साल के दौरान न कोई सवाल पूछा, न ही किसी चर्चा में शामिल हुये। इसी कड़ी में हालांकि सोनिया व राहुल गांधी का नाम भी लिया जाता है, मगर उन पर इसलिए अंगुली नहीं उठाई जा सकती क्योंकि वे ही तो कांग्रेस के रुख की नीति बनाते हैं। वे न भी बोले तो अन्य कांग्रेसी सांसदों का बोलना पर्याप्त है।
हाल ही यूपी की कानून व्यवस्था को लेकर यूपी के सीएम की सांसद पत्नी डिंपल यादव संसद में बोल रही थी, लेकिन 15 लोकसभा में डिंपल यादव ने कुछ कहा ही नहीं। यही हाल कांग्रेस के सी पी जोशी और वीरभ्रद्र सिंह का भी रहा। हाजिरी 95 फीसदी, लेकिन कभी संसद में नहीं बोले। औसत निकालेंगे तो हर सत्र में सौ से ज्यादा सांसद ऐसे होंगे, जो संसद में आते हैं और चले जाते हैं। ताजा आंकड़ों को देखें तो मौजूदा लोकसभा में अभी तक 72 सांसदों की कोई भागेदारी ही नहीं है। 101 सांसदों ने किसी चर्चा में हिस्सा ही नहीं लिया है। 198 सांसदों ने कोई सवाल नहीं उठाया है।
खैर, जो सवाल सबसे बड़ा उभरता है वो यह है कि जब चुने हुए जिम्मेदार सांसदों का ही ये हाल है तो केवल सचिन या रेखा से ही कोई उम्मीद क्यों की जाये? जब उनकी अदा ही हर दिन चलने वाले संसद के खर्च से ज्यादा कमाई हर दिन कर लेती हो, तो फिर संसद की साख पर सचिन की अदा तो भारी होगी ही। चलो, रेखा और सचिन तो फिर भी मनोनीत हैं, मगर सीधे जनता के वोटों से जीतने वाले फिल्मी सांसदों का भी यही हाल है। बालीवुड के सिने कलाकार धर्मेन्द्र बीकानेर से जीत कर गए, मगर पूरे कार्यकाल के दौरान कुछ नहीं बोले। बोलने की छोडिय़े, वे तो पूरे पांच साल बीकानेर ही नहीं गए।
कुल मिला कर निष्कर्ष यही है कि चाहे सीधे जनता के जरिए लोकसभा चुनाव जीते या फिर विधायकों के जरिए या मनोनयन के आधार पर राज्य सभा में पहुंचे सांसदों पर कुछ तो नियम लागू होने ही चाहिए। जब स्कूल में छात्रों की निर्धारित उपस्थिति जरूरी है तो जनता के प्रति जिम्मेदार सांसदों के लिए क्यों जरूरी नहीं होनी चाहिए। इतना ही नहीं, हर सत्र या साल के बाद सांसदों की परफोरमेंस का रिकार्ड रख कर उन्हें निर्देशित किया जाना चाहिए कि वे जिस मकसद से संसद में हैं, उसका दायित्व निभाएं।
-तेजवानी गिरधर
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