तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

बुधवार, अगस्त 05, 2015

मिसाइल मेन अब्दुल कलाम और आतंकी याकूब की तुलना दुर्भाग्यपूर्ण

यह एक संयोग ही था कि एक ओर मिसाइल मैन पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम साहब का इंतकाल हो गया और दूसरी ओर मुंबई बम धमाके के षड्यंत्रकारी याकूब मेमन को फांसी दी जानी थी। सोशल मीडिया के जरिए मानो पूरा देश उबल रहा था। कहीं अश्रुपूरित भावातिरेक में तो कहीं उन्माद में। एक ओर जहां स्वाभाविक रूप से कलाम साहब की शान में गद्यात्मक व पद्यात्मक श्रद्धांजली का सैलाब था तो दूसरी ओर याकूब को फांसी दिए जाने पर राष्ट्रभक्ति से परिपूर्ण दिल को ठंडक पहुंचाने वाली शब्दावली। यह सब कुछ स्वाभाविक ही था। हालांकि कलाम साहब के प्रति अतिरिक्त से भी अतिरिक्त सम्मान जाहिर किए जाने पर कहीं कहीं ऐसा लगा कि कहीं ये उद्देश्य विशेष के लिए तो नहीं किया जा रहा। कहीं ऐसा तो नहीं कि एक समुदाय विशेष के व्यक्ति को फांसी दिए जाने से जो क्षति होगी, उसकी पूर्ति वर्ग विशेष के कलाम साहब को अतिरिक्त सम्मान दे कर न्यूट्रलाइज किया जाए, ताकि यह संदेश जाए कि हम समुदाय विशेष के व्यक्ति को अतिरिक्त सम्मान भी देना जानते हैं, गर वह देश के लिए काम करता है तो। मगर इस मौके पर जिस तरह एक समुदाय विशेष को निशाना बना कर कलाम साहब व याकूब की तुलना की गई, वह साबित कर रही थी कि कुछ विचारधारा विशेष से जुड़े लोग दोनों के एक ही समुदाय का होने की आड़ में समुदाय विशेष के लोगों को संदेश देने की कोशिश कर रहे हैं।
फेसबुक पर हुई एक पोस्ट का नमूना देखिए:-
जिनको ये लगता है कि हमें खास वर्ग का होने के कारण हर बार निशाना बनाया जाता है और हमारी देशभक्ति पर शक किया जाता है, उनको ये भी देखना चाहिए कि किस तरह पूरा देश अब्दुल कलाम साहब के निधन पर शोक में डूब गया है। देश का हर नागरिक आज शोकमग्न है और हर कोई कलाम साहब को श्रद्धांजलि अर्पित कर रहा है। इज्जत कमाई जाती है, मांगी नहीं जाती।
यह एक व्यक्ति की टिप्पणी मात्र नहीं है। बाकायदा एक मुहिम का हिस्सा है, जिसके चलते आज पूरा सोशल मीडिया बेहद तल्ख टिप्पणियों से अटा पड़ा है। देश भक्ति के बहाने सामुदायिक जहर उगला जा रहा है।
जहां तक टिप्पणी का सवाल है, प्रश्न ये उठता है कि कलाम साहब इसमें एक वर्ग विशेष के कैसे हो गए? जिस व्यक्ति ने पूरा जीवन देश की सेवा की, राष्ट्रपति के रूप में भी सेवाएं दीं, उसमें उनके एक वर्ग विशेष का होने की क्या भूमिका थी? क्या उनके एक वर्ग विशेष का होने के बावजूद राष्ट्रभक्त होने की हमें अपेक्षा नहीं थी? क्या कलाम साहब जिस मुकाम को हासिल किए, उसकी हमें अपेक्षा नहीं थी? यदि नहीं थी तो इसका अर्थ केवल ये निकलता है कि हम एक पूरे समुदाय को नजरिए विशेष से देखने की कोशिश कर रहे हैं। यदि कोई एक व्यक्ति देश के प्रति समर्पित रहा है तो उसमें उसके वर्ग विशेष को रेखांकित करने की जरूरत क्या है? क्या कलाम साहब अकेले ऐसे अनूठे व्यक्ति हैं? क्या हमारी गुप्तचर सेवाओं, सुरक्षा एजेंसियों में वर्ग विशेष के हजारों व्यक्ति देश के प्रति निष्ठा नहीं रखते हैं? कहीं ऐसा तो नहीं कि हम कलाम साहब के एक वर्ग विशेष का होने के बहाने एक पूरे समुदाय पर तंज कस रहे हैं? ऐसा करके हमें क्या हासिल होने जा रहा है? क्या हम दोनों घटनाओं को अलग-अलग परिपेक्ष में नहीं देख सकते? क्या इससे जिस समुदाय को जो संदेश देने की कोशिश की जा रही है, वह इसे इसी रूप में लेगा या फिर भयभीत हो कर और अधिक संगठित व प्रतिक्रियावादी होगा।
बात कुल जमा ये है कि कलाम साहब ने देश के लिए काम किया तो उन्हें सम्मान मिलना ही चाहिए, चाहे वे किसी भी समुदाय से हों और याकूब ने आतंकी वारदात में हिस्सा लिया है तो उसे सजा मिलनी ही चाहिए, चाहे वह किसी भी समुदाय से हो। अपराधी को कानूनी प्रावधान के तहत कड़ा से कड़ा दंड मिलना ही चाहिए, उसमें यह नहीं देखा जा सकता कि वह किस समुदाय से है। इसमें कोई किंतु परंतु होने का सवाल ही नहीं है। यहां इस विषय पर चर्चा होने का कोई मतलब ही नहीं कि फांसी जायज थी या नाजायज। जायज ही थी, तभी देश की न्याय व्यवस्था ने उसे दी। दूसरे पक्ष की दलील अपनी जगह है। चूंकि अधिसंख्य लोग आतंकी को फांसी दिए जाने के पक्ष में रहे, इस कारण जाहिर तौर पर याकूब की पैरवी करने वालों पर गालियों की बौछार हुई। मगर कानून ने अपना काम किया। इसमें कोई अगर समुदाय विशेष को तुष्ट करने का कृत्य देखता है, यह उसकी अपनी सोच हो सकती है। मगर जिस तरह दोनों घटनाओं को जोड़ कर समुदाय विशेष को सबक देने की कोशिश की गई, वह कम से सदाशयता की श्रेणी में तो नहीं गिनी जा सकती।
-तेजवानी गिरधर
7742067000

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