राजस्थान प्रदेश भाजपा अध्यक्ष वसुंधरा राजे की कार्यकारिणी में उपाध्यक्ष का पद स्वीकार कर निवर्तमान अध्यक्ष अरुण चतुर्वेदी ने सभी को चौंकाया है। पार्टी कार्यकर्ताओं व नेताओं को समझ में ही नहीं आ रहा है कि ऐसा उन्होंने कैसे किया? क्या वे हाईकमान की किसी रणनीति का शिकार हुए हैं? क्या वे स्वयं वसुंधरा की टीम के शामिल होना चाहते थे? या वसुंधरा उन्हें अपनी छतरी के नीचे लाना चाहती थीं? अगर उनको टीम में शामिल होने का ऑफर था तो भी उन्होंने उसे स्वीकार करने से पहले सौ बार सोचा क्यों नहीं? क्या उन्हें अपने पूर्व पद की मर्यादा व गौरव का जरा भी भान नहीं रहा? अपनी पहले ही प्रतिष्ठा का जरा भी ख्याल नहीं किया? क्या वे इतने पदलोलुप हैं कि अध्यक्ष के बाद उपाध्यक्ष बनने को उतारू थे? ये सारे सवाल भाजपाइयों के जेहन में रह-रह कर उभर रहे हैं।
स्वाभाविक सी बात है कि जो खुद अभी हाल तक अध्यक्ष पद पर रहा हो, वह भला किसी और की अध्यक्षता वाली कार्यकारिणी में उपाध्यक्ष पद के लिए राजी होगा तो ये सवाल पैदा होंगे? इससे एक शक और होता है, वो ये कि शायद वे अध्यक्ष पद के लायक थे ही नहीं। गलती से उन्हें अध्यक्ष बना दिया गया, जिसे उन्होंने संघ के दबाव में ढ़ोया। वे थे तो उपाध्यक्ष पद का टैग लगाने योग्य, मगर गलती से पार्टी ने उन पर अध्यक्ष का टैग लगा रखा था। असल में उन्होंने संस्कृत की स्वजाति द्रुतिक्रमा वाली कहानी को चरितार्थ कर लिया, जैसे एक चूहा विभिन्न योनियों के बाद आखिर चूहा पर बन कर ही संतुष्ट हुआ। अध्यक्ष रह चुकने के बाद भी उन्हें उपाध्यक्ष बन कर ही संतुष्टि हुई। और वह भी उसके नीचे, जिसे टक्कर देने के लिए उन्हें खड़ा किए रखा गया। आत्म समर्पण की इससे बड़ी मिसाल कहीं नहीं मिल सकती। धरातल का सच भी ये है कि उन्हें वसुंधरा की जिस दादागिरी को समाप्त करने और उन पर नियंत्रण करने का जिम्मा दिया गया था, उसमें वे कत्तई कामयाब नहीं हो पाए। वे कहने भर को पार्टी के अध्यक्ष थे, मगर प्रदेश में वसुंधरा की ही तूती बोलती रही। वह भी तब जब कि अधिकतर समय वसुंधरा ने जयपुर से बाहर ही बिताया। चाहे दिल्ली रहीं या लंदन में, पार्टी नेताओं का रिमोट वसुंधरा के हाथ में ही रहा। अधिसंख्य विधायक वसुंधरा के कब्जे में ही रहे। यहां तक कि संगठन के पदाधिकारी भी वसुंधरा से खौफ खाते रहे। परिणाम ये हुआ कि वसुंधरा ने जिस विधायक दल के पद से बमुश्किल इस्तीफा दिया, वह एक साल तक खाली ही रहा। आखिरकार अनुनय-विनय करने पर ही फिर से वसुंधरा ने पद ग्रहण करने को राजी हुई। जब-जब वसुंधरा को दबाने की कोशिश की गई, वे बिफर कर इस्तीफों की राजनीति पर उतर आईं, मगर पार्टी हाईकमान उनका कुछ नहीं बिगाड़ पाया।
कुल मिला कर चतुर्वेदी का उपाध्यक्ष बनना स्वीकार करना पार्टी कार्यकर्ताओं गले नहीं उतर रहा, चतुर्वेदी भले ही संतुष्ट हों।
-तेजवानी गिरधर
स्वाभाविक सी बात है कि जो खुद अभी हाल तक अध्यक्ष पद पर रहा हो, वह भला किसी और की अध्यक्षता वाली कार्यकारिणी में उपाध्यक्ष पद के लिए राजी होगा तो ये सवाल पैदा होंगे? इससे एक शक और होता है, वो ये कि शायद वे अध्यक्ष पद के लायक थे ही नहीं। गलती से उन्हें अध्यक्ष बना दिया गया, जिसे उन्होंने संघ के दबाव में ढ़ोया। वे थे तो उपाध्यक्ष पद का टैग लगाने योग्य, मगर गलती से पार्टी ने उन पर अध्यक्ष का टैग लगा रखा था। असल में उन्होंने संस्कृत की स्वजाति द्रुतिक्रमा वाली कहानी को चरितार्थ कर लिया, जैसे एक चूहा विभिन्न योनियों के बाद आखिर चूहा पर बन कर ही संतुष्ट हुआ। अध्यक्ष रह चुकने के बाद भी उन्हें उपाध्यक्ष बन कर ही संतुष्टि हुई। और वह भी उसके नीचे, जिसे टक्कर देने के लिए उन्हें खड़ा किए रखा गया। आत्म समर्पण की इससे बड़ी मिसाल कहीं नहीं मिल सकती। धरातल का सच भी ये है कि उन्हें वसुंधरा की जिस दादागिरी को समाप्त करने और उन पर नियंत्रण करने का जिम्मा दिया गया था, उसमें वे कत्तई कामयाब नहीं हो पाए। वे कहने भर को पार्टी के अध्यक्ष थे, मगर प्रदेश में वसुंधरा की ही तूती बोलती रही। वह भी तब जब कि अधिकतर समय वसुंधरा ने जयपुर से बाहर ही बिताया। चाहे दिल्ली रहीं या लंदन में, पार्टी नेताओं का रिमोट वसुंधरा के हाथ में ही रहा। अधिसंख्य विधायक वसुंधरा के कब्जे में ही रहे। यहां तक कि संगठन के पदाधिकारी भी वसुंधरा से खौफ खाते रहे। परिणाम ये हुआ कि वसुंधरा ने जिस विधायक दल के पद से बमुश्किल इस्तीफा दिया, वह एक साल तक खाली ही रहा। आखिरकार अनुनय-विनय करने पर ही फिर से वसुंधरा ने पद ग्रहण करने को राजी हुई। जब-जब वसुंधरा को दबाने की कोशिश की गई, वे बिफर कर इस्तीफों की राजनीति पर उतर आईं, मगर पार्टी हाईकमान उनका कुछ नहीं बिगाड़ पाया।
कुल मिला कर चतुर्वेदी का उपाध्यक्ष बनना स्वीकार करना पार्टी कार्यकर्ताओं गले नहीं उतर रहा, चतुर्वेदी भले ही संतुष्ट हों।
-तेजवानी गिरधर
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