तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

शनिवार, नवंबर 26, 2011

संघ अभी राजी नहीं है वसुंधरा राजे पर

भले ही भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी और पूर्व उप प्रधानमंत्री व वरिष्ठ भाजपा नेता लाल कृष्ण आडवाणी ने साफ कर दिया हो कि आगामी राजस्थान विधानसभा चुनाव वसुंधरा राजे के नेतृत्व में ही लड़ा जाएगा, मगर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का एक बड़ा वर्ग आज भी उनके पक्ष में नहीं है। जैसा कि संघ का मिजाज है, वह खुले में कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं करता, मगर भीतर ही भीतर पर इस बात पर मंथन चल रहा है कि वसुंधरा को किस प्रकार कमजोर किया जाए।
इसमें कोई दो राय नहीं कि राजस्थान में भाजपा के पास वसुंधरा राजे के मुकाबले का कोई दूसरा आकर्षक व्यक्तित्व नहीं है। अधिसंख्य विधायक व कार्यकर्ता भी उनसे प्रभावित हैं। उनमें जैसी चुम्बकीय शक्ति और ऊर्जा है, वैसी किसी और में नहीं दिखाई देती। उनके जितना साधन संपन्न भी कोई नहीं है। उनकी संपन्नता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जब भाजपा हाईकमान उनके विधानसभा में विपक्ष के नेता पद पर नहीं रहने पर अड़ गया था, तब उन्होंने एकबारगी तो नई पार्टी के गठन पर विचार ही शुरू कर दिया था। राजनीति के जानकार समझ सकते हैं कि नई पार्टी का गठन कितना धन साध्य और श्रम साध्य है। असल में वे उस विजया राजे सिंधिया की बेटी हैं, जो कभी भाजपा की सबसे बड़ी फाइनेंसर हुआ करती थीं। मुख्यमंत्री रहने के दौरान भी उन्होंने पार्टी को जो आर्थिक मदद की, उसका कोई हिसाब नहीं। जाहिर तौर पर ऐसे में जब उन पर ही अंगुली उठाई गई तो बिफर गईं। उन्होंने अपने और अपने परिवार के योगदान को बाकायदा गिनाया भी। वस्तुत: साधन संपन्नता और शाही ठाठ की दृष्टि से वसुंधरा के लिए मुख्यमंत्री का पद कुछ खास नहीं है। उन्हें रुचि है तो सिर्फ पद की गरिमा में, उसके साथ जुड़े सत्ता सुख में। बहरहाल, कुल मिला कर उनके मुकाबले का कोई नेता भाजपा में नहीं है। यह सही है कि भाजपा केडर बेस पार्टी है और उसका अपना नेटवर्क है। कोई भी व्यक्ति पार्टी से बड़ा नहीं माना जाता। कोई भी नेता पार्टी से अलग हट कर कुछ भी नहीं है, मगर वसुंधरा के साथ ऐसा नहीं है। उनका अपना व्यक्तित्व और कद है। और यही वजह है कि सिर्फ उनके चेहरे को आगे रख कर ही पार्टी चुनावी वैतरणी पार सकती है।
ऐसा नहीं है कि संघ इस बात को नहीं समझता। वह भलीभांति जानता है। मगर उसे उनके तौर तरीकों पर ऐतराज है। संघ का मानना है कि राजस्थान में आज जो पार्टी की संस्कृति है, वह वसुंधरा की ही देन है। इससे पहले पार्टी साफ-सुथरी हुआ करती थी। अब पार्टी में पहले जैसे अनुशासित और समर्पित कार्यकर्ताओं का अभाव है। निचले स्तर पर भले ही कार्यकर्ता आज भी समर्पित हैं, मगर मध्यम स्तर की नेतागिरी में कांग्रेसियों जैसे अवगुण आ गए हैं। और उसकी एक मात्र वजह है कि राजनीति अब बहुत खर्चीला काम हो गया है। बिना पैसे के कुछ भी नहीं होता। और पैसे के लिए जाहिर तौर पर वह सब कुछ करना होता है, जिससे अलग रह कर पार्टी अपने आप को पार्टी विथ द डिफ्रेंस कहाती रही है। मगर सत्ता के साथ जुड़े अवगुण भी नेताओं में आ गए। संघ भी इस बात को अब समझने को मजबूर है, मगर उसे ज्यादा तकलीफ इस बात से है कि वसुंधरा उसके सामने उतनी नतमस्तक नहीं होतीं, जितना अब तक भाजपा नेता होते रहे हैं। यह सर्वविदित है कि संघ के नेता लोकप्रियता और सत्ता सुख के चक्कर में नहीं पड़ते, सादा जीवन उच्च विचार में जीते हैं, मगर चाबी तो अपने हाथ में ही रखना चाहते हैं। और उसकी एक मात्र वजह ये है कि संघ भाजपा का मातृ संगठन है। भाजपा की अंदरूनी ताकत तो संघ ही है। वह अपनी अहमियत किसी भी सूरत में खत्म नहीं होने देना चाहता। उधर वसुंधरा की जो कार्य शैली है, वह संघ के तौर-तरीकों से मेल नहीं खाती। पिछले मुख्यमंत्रित्व काल के दौरान प्रदेश भाजपा अध्यक्षों को जिस प्रकार उन्होंने दबा कर रखा, उसे संघ कभी नहीं भूल सकता। चह चाहता है कि पार्टी संगठन पर संघ की ही पकड़ रहनी चाहिए। इसी वजह से वसुंधरा पर नकेल कसने के लिए अरुण चतुर्वेदी को प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया था, मगर वे भी वसुंधरा के आभा मंडल के आगे फीके ही साबित हुए हैं। उनके पास संघ की अंदरूनी ताकत जरूर है, मगर जननेता नहीं बन पाए। न तो वे लोकप्रिय हैं और न ही तेज-तर्रार, जैसी कि वसुंधरा हैं।  बावजूद इसके उन्होंने संघ के दम पर पार्टी पर पकड़ तो बना ही रखी है। इसे उनकी नहीं, अपितु संघ की पकड़ कहा जाए तो बेहतर होगा। आज भी स्थिति ये है कि विधानसभा टिकट के अधिसंख्य दावेदार संघ और वसुंधरा, दोनों को राजी रखने में ही अपनी भलाई समझ रहे हैं। जिन पर वसुंधरा की छाप है, वे गुपचुप संघ की हाजिरी बजाते हैं और जो संघ से जुड़े हैं वे वसुंधरा के यहां भी अपना लिंक बनाए हुए हैं। पता नहीं ऐन वक्त पर कौन ज्यादा ताकतवर हो जाए।
वैसे संघ की वास्तविक मंशा तो वसुंधरा को निपटाने की ही है, या उनसे पार्टी को मुक्त कराने की है, यह बात दीगर है कि अब ऐसा करना संभव नहीं हो पा रहा। ऐसे में संघ की कोशिश यही रहेगी कि आगामी विधानसभा चुनाव में टिकट वितरण के दौरान पूरी ताकत लगा कर संतुलन बनाया जाए। अर्थात संघ अपने पसंद के दावेदारों को टिकट दिलवाने की पूरी कोशिश करेगा, ताकि चुनाव के बाद वसुंधरा पार्टी पर हावी न हो जाएं।
राजस्थान में मोटे तौर पर भाजपा की तस्वीर यही है, मगर चूंकि केन्द्रीय स्तर पर भी काफी खींचतान चल रही है और रोज नए समीकरण बनते-बिगड़ते हैं, इस कारण पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता कि चुनाव के वक्त क्या हालात होंगे। चंद शब्दों में फिलहाल केवल यही कहा जा सकता है, टिकट वितरण में ज्यादा वसुंधरा की ही चलेगी और मुख्यमंत्री पद की दावेदार भी वे ही होंगी, मगर संघ भी अपना वजूद बनाए रखने के लिए पूरी ताकत झौंक देगा, ताकि भाजपा की सरकार बने तो सत्ता में उसकी भी भागीदारी हो।
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रविवार, नवंबर 13, 2011

गहलोत को चुनौती, साबित करके दिखाएं वसुंधरा राज का भ्रष्टाचार

पूर्व उप प्रधानमंत्री व वरिष्ठ भाजपा नेता लाल कृष्ण आडवाणी की जनचेतना यात्रा के राजस्थान दौरे के दौरान कांग्रेस और भाजपा के बीच चले आरोप-प्रत्यारोप के बीच मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को यह चुनौती मिल गई है कि वे वसुंधरा राजे सरकार के दौरान हुए जिस भ्रष्टाचार को लेकर वे बार-बार भाजपा पर हमले करते हैं, उन्हें साबित भी करके दिखाएं।
विवाद की नए सिरे से शुरुआत इस वजह से हुई क्योंकि कांग्रेस ने आडवाणी के राजस्थान में प्रवेश के साथ ही पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे और उनकी पूर्ववर्ती सरकार पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाते हुए भाजपा को घेरने की कोशिश की। कांग्रेस की ओर भ्रष्टाचार से जुड़े दस सवाल दागे, जो पूर्व में भी कई बार दागे जा चुके हैं। अर्थात कांग्रेस ने वे ही बम फिर छोडऩे की कोशिश की, जो कि पहले ही फुस्स साबित हो चुके हैं। वे सवाल खुद की ये सवाल पैदा कर रहे थे कि उनमें से एक में भी कार्यवाही क्यों नहीं हो पाई है, जबकि अब तो सरकार कांग्रेस की है। प्रतिक्रिया में न केवल भाजपा ने पलटवार किया और मौजूदा कांग्रेस सरकार के तीन साल के कामकाज पर सवाल उठा दिए, अपितु पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे भी दहाड़ीं। उन्होंने गहलोत के गृह नगर में ही उन्हें चुनौती दी कि केवल आरोप क्या लगाते हो, उन्हें साबित भी करके दिखाओ। उन्होंने साफ तौर पर कहा कि गहलोत ने उन्हें घेरने के लिए माथुर आयोग तक बनाया, कोर्ट में भी गए, मगर आज तक आरोप साबित नहीं कर पाए हैं। पूरी सरकार आपके पास है, सरकारी दस्तावेज आपके पास हैं, भ्रष्टाचार हुआ था तो साबित क्यों नहीं कर पा रहे। जाहिर तौर पर उनकी बात में दम है। हालांकि यह सही है कि गहलोत ने भाजपा के ही नेताओं के बयानों को आधार पर भारी भ्रष्टाचार के आरोप लगाए थे, मगर उनमें से एक को भी साबित नहीं कर पाए हैं। ऐसे में आडवाणी के यात्रा के दौरान उठाए गए सारे सवाल बेमानी हो गए हैं। उलटे भाजपा की ओर से सरकार को जिस प्रकार घेरा गया है, उसका गहलोत से जवाब देते नहीं बन रहा है। सरकार की यह हालत देख कर खुद कांग्रेसी नेताओं को बड़ा अफसोस है कि गहलोत सरकार इस मोर्चे पर पूरी तरह से नकारा साबित हो गई है। उन्हें बड़ी पीड़ा है कि वे वसुंधरा को घेरने की बजाय खुद ही घिरते जा रहे हैं। वसुंधरा के दहाडऩे से उनके सीने पर सांप लौटने लगे हैं। वे सियापा कर रहे हैं कि सरकार ने वसुंधरा के खिलाफ की जांच ठीक से क्यों नहीं करवाई। कांग्रेसी नेताओं का ये भी कहना है कि भले ही तकनीकी पहलुओं के कारण माथुर आयोग की कवायद बेकार हो गई, मगर इसका मतलब ये नहीं है कि भ्रष्टाचार तो नहीं हुआ था। कोर्ट ने वसुंधरा को क्लीन चिट नहीं दी है। कदाचित उनकी बात में कुछ सच्चाई भी हो, मगर न केवल वसुंधरा की ओर से, अपितु अब तो कांग्रेस ने भी एक तरह से गहलोत को चुनौती दे दी है कि वसुंधरा पर आरोप लगाने मात्र से कुछ नहीं होगा, उसे साबित भी करके दिखाइये। हालांकि यह भी सही है कि वसुंधरा जिस तरह से अपने आप को निर्दोष बताते हुए दहाड़ रही हैं, जनता उन्हें उतना पाक साफ नहीं मानती। भाजपा राज में हुए भ्रष्टाचार को लेकर आम जनता में चर्चा तो खूब है, भले ही गहलोत उसे साबित करने में असफल रहे हों। जनता की नजर में भले ही वसुंधरा की छवि बहुत साफ-सुथरी नहीं हो, मगर कम से कम गहलोत तो उनके दामन पर दाग नहीं लगा पाए हैं।
कुल मिला कर आडवाणी के यात्रा के दौरान कांग्रेस की पूर्ववर्ती सरकार को बदनाम करने की मुहिम तो नकारा हुई ही है, उलटे खुद कांग्रेस सरकार और उसके मंत्री तक घिर गए हैं। भंवरीदेवी नट के मामले में तो मदेरणा का कैरियर चौपट होने के साथ खुद गहलोत तो चुनौती मिल रही है कि उनके भी इस मामले से तार जुड़े हुए हैं और क्या वे भी इस्तीफा देंगे। गहलोत के तार जुड़े हुए हैं या नहीं, पता नहीं, लेकिन इतनी तो आम धारणा बन ही गई है कि इस मामले में वे जातीय राजनीति के कारण पूरी तरह से कमजोर दिख हैं। प्रदेश की प्रभावशाली जाट लॉबी के दबाव में वे काफी दिन तक तो इस मामले को टालते ही रहे। बाद में जब एक के बाद एक परतें खुलीं तो वे समझ गए कि मदेरणा को बचाना मुश्किल होगा। इस पर मदेरणा को इस्तीफा देने को कह दिया, मगर उनकी बात को मदेरणा ने सुना-अनसुना कर दिया। हालत ये हो गई कि कांग्रेस आलाकमान को दखल देना पड़ा और ऊपर की फटकार के बाद उन्हें मदेरणा को बर्खास्त करने की सिफारिश करनी पड़ी। कुछ और मंत्रियों पर लगे आरोपों के चलते गहलोत की पहले की काफी किरकिरी हो चुकी है। हालांकि गहलोत ने भंवरी देवी के मामले में पलट वार करते हुए भाजपा नेताओं के भी भंवरी से संबंधों की ओर इशारा किया है और सवाल खड़ा किया है कि इस मामले में भाजपा ज्यादा हल्ला क्यों नहीं मचा रही, मगर सब समझते हैं कि इसे साबित करना बहुत कठिन है। जाहिर तौर पर भंवरी देवी कोई कांग्रेसी तो थी नहीं कि उसके केवल कांग्रेस नेताओं से ही तालुक्क होते। जैसा उसका पेशा था, भाजपा नेताओं से भी उसके संबंध हो सकते हैं, मगर अहम सवाल ये है कि उसका अपहरण और कथित हत्या किसने करवाई? चूंकि मौजूदा विवाद की जड़ में भंवरी और मदेरणा के अवैध संबंध हैं, इस कारण उनसे जुड़ी सीडी भी सामने आई। ऐसी सीडी कम से कम भाजपा नेताओं के बारे में आने की तो संभावना कम ही नजर आती है। अलबत्ता किसी के बयानों में भंवरी के भाजपा नेताओं से भी संबंध होने की बात जरूर आ सकती है। वह कोई खास बात नहीं होगी, क्योंकि भंवरी के कुछ बड़े अधिकारियों से भी संबंधों की बात सामने आ रही है।
लब्बोलुआब मौजूदा दौर में यह जुमला फिट बैठता है कि बद अच्छा बदनाम बुरा। व्यक्तिगत तौर पर भले ही वसुंधरा राजे के बारे में आम धारणा ज्यादा अच्छी नहीं है और गहलोत के चरित्र पर कोई बड़ा दाग नहीं है, बावजूद इसके वसुंधरा की तुलना में गहलोत सरकार का कामकाज उन्नीस ही माना जा रहा है।
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