यह एक संयोग ही है कि एक ओर हम देश की आजादी का जश्न मनाने जा रहे हैं और दूसरी सिविल सोसायटी की ओर से अन्ना हजारे लोकपाल बिल के लिए दूसरी आजादी की मुहिम को परवान पर चढ़ा रहे हैं। उनका कहना है कि हमने एक आजादी तो गोरे अंग्रेजों से हासिल कर ली, लेकिन उनकी जगह काले अंग्रेजों ने ले ली। अब उनसे भी आजादी हासिल करनी होगी, तभी हम सुख से जी सकेंगे। हालांकि उनका आजादी के बाद की सरकारों को काले अंग्रेजों की संज्ञा देना बेहद आपत्तिजनक है, यह अराजकता फैलाने जैसा प्रतीत होता है, मगर हम अगर उनकी भावना पर ही ध्यान करें तो उनका कहना ठीक ही है कि हम आजाद होते हुए भी पूरी आजादी हासिल नहीं कर पाए हैं। कहने भर को हम आजाद हैं, हमारी खुद की चुनी हुई सरकार है, लेकिन आजादी के बाद जिस तेजी से भ्रष्टाचार बढ़ा है, उससे अमीर और अमीर एवं गरीब और गरीब होता जा रहा है। भ्रष्टाचार के कारण आम आदमी पिसता जा रहा है। पूरे सिस्टम में भ्रष्टाचार व्याप्त है और इससे मुक्ति के लिए बड़े उपाय करने की जरूरत है। इसे वे दूसरी आजादी का नाम दे रहे हैं।
यह सच है कि जो काम फिरंगी करते थे, उससे भी कहींं आगे हमारा राजनीतिक तंत्र कर रहा है। 'फूट डालो, राज करोÓ की जगह 'फूट डालो और वोट पाओÓ की नीति चल रही है। राजनीतिक हित साधने के लिए सत्ताधीशों को दंगा-फसाद कराने से भी गुरेज नहीं है। सत्ता को भ्रष्टाचार की ऐसी दीमक लग चुकी है की पूरा देश इससे कराह रहा है। संविधान में जिस स्वतंत्रता और समानता की बात की जाती है, वह स्वतंत्रता और समानता दूर-दूर तक दिखाई नहीं देती। पहले अंग्रेज देश को लूट रहे थे, आज वही काम नेता कर रहे हैं। आज ऐसे सत्ताधीशों की पूजा हो रही है, जिनका न कोई चरित्र है, न जिनमें नैतिकता है और न ईमानदारी। दरअसल, अब हम एक ऐसी परंतत्रता में जी रहे हैं, जिसके खिलाफ अब दोबारा संघर्ष की जरूरत है। हमें अगर पूरी आजादी चाहिए, तो हमें एक और स्वाधीनता संग्राम के लिये तैयार हो जाना चाहिये। यह स्वाधीनता संग्राम जमाखोरों, कालाबाजारियों के खिलाफ होना चाहिए। यह संग्राम भ्रष्टाचारियों से लड़ा जाना चाहिए। यह संग्राम चोर, उचक्कों, लुटेरों और ठगों के खिलाफ छेड़ा जाना चाहिये। यह संग्राम देश को खोखला कर रहे सत्ता व स्वार्थलोलुप नेताओं के विरुद्ध लड़ा जाना चाहिए। यह संग्र्र्राम उन लोगों के खिलाफ किया जाना चाहिये, जो गरीबों, दलितों, मजलूमों और नारी का शोषण कर फल-फूल रहे हैं। अगर हम ऐसे लोगों को परास्त कर सके, अगर हम ऐसे लोगों से देश को मुक्त करा सके , तब हम कह सकेंगे कि हम वास्तविक रूप से आजाद हो चुके हैं।
अन्ना हजारे उसी आजादी की बात कर रहे हैं। मगर ऐसा प्रतीत होता है कि मौजूदा सरकार और उनके बीच चल रही रस्साकसी संघर्ष को बढ़ाएगी। केन्द्रीय मंत्रीमंडल में पारित लोकपाल बिल का जो मसौदा संसद में पेश करने को तैयार है, उससे अन्ना हजारे व उनकी टीम सहित अनेक बुद्धिजीवी सहमत नहीं हैं। सरकार नहीं चाहती कि सर्वोच्च पद पर बैठे प्रधानमंत्री व न्यायपालिका इस बिल के माध्यम से लोकपाल के अधिकार क्षेत्र में आएं। इसके पीछे सरकार की चाहे जो मंशा हो, और चाहे जो तर्क दिए जा रहे हों, मगर वे आम जन को गले नहीं उतर रहे। दूसरी ओर हालांकि अन्ना हजारे की जिद देश के भले के लिए ही है, मगर उनके कुछ बिंदु ऐसे हैं, जिनके बारे में पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता कि उनको देश की तमाम जनता का पूरा समर्थन है। जो समर्थन दिखाई दे रहा है, वह भी पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता कि सोच-समझ कर दिया जा रहा है, अथवा देश हित के जज्बे के कारण दिया जा रहा है। उचित क्या है, अनुचित क्या है, इसका फैसला वस्तुत: अन्ना की टीम को नहीं दिया जा सकता। यदि ऐसा किया जाता है तो फिर पूरे लोकतांत्रिक सिस्टम का कोई मतलब ही नहीं रहेगा। आखिरकार हमारे यहां एक लोकतांत्रिक व्यवस्था है। मुहिम अपनी जगह है, उसकी महत्ता भी है, मगर निर्णय तो आखिरकार संसद को ही करना है। अन्ना हजारे को भी उसे मानना होगा, क्योंकि वे संसद से बड़े नहीं हैं।
बहरहाल, अन्ना की अनशन की जिद सरकार के लिए क्या संकट उत्पन्न करेगी, यह अभी पता नहीं लेकिन लोकतांत्रिक व्यवस्था के तहत विपक्षी पार्टियों पर बड़ा दायित्व आ गया है। उन्हें चाहिए कि वे संविधान के दायरे में रचनात्मक रूप से उचित मुद्दों पर सरकार को झुकने को मजबूर करें। हालांकि सरकार की रणनीति यही है कि कारगर लोकपाल की स्थापना के लिए अन्ना हजारे जब अनशन पर बैठें तो उनके आंदोलन को संसद के खिलाफ चित्रित कर दिया जाए, लेकिन यही मौका है जब विपक्ष प्रस्तावित लोकपाल को अधिक से अधिक ताकतवर बनाने के लिए रचनात्मक सुझाव पेश करे और उसे मनवाए। कोई ऐसा रास्ता निकाला जाए, जिससे अन्ना की मुहिम भी कामयाब हो जाए और टकराव भी न हो।
tejwanig@gmail.com
यह सच है कि जो काम फिरंगी करते थे, उससे भी कहींं आगे हमारा राजनीतिक तंत्र कर रहा है। 'फूट डालो, राज करोÓ की जगह 'फूट डालो और वोट पाओÓ की नीति चल रही है। राजनीतिक हित साधने के लिए सत्ताधीशों को दंगा-फसाद कराने से भी गुरेज नहीं है। सत्ता को भ्रष्टाचार की ऐसी दीमक लग चुकी है की पूरा देश इससे कराह रहा है। संविधान में जिस स्वतंत्रता और समानता की बात की जाती है, वह स्वतंत्रता और समानता दूर-दूर तक दिखाई नहीं देती। पहले अंग्रेज देश को लूट रहे थे, आज वही काम नेता कर रहे हैं। आज ऐसे सत्ताधीशों की पूजा हो रही है, जिनका न कोई चरित्र है, न जिनमें नैतिकता है और न ईमानदारी। दरअसल, अब हम एक ऐसी परंतत्रता में जी रहे हैं, जिसके खिलाफ अब दोबारा संघर्ष की जरूरत है। हमें अगर पूरी आजादी चाहिए, तो हमें एक और स्वाधीनता संग्राम के लिये तैयार हो जाना चाहिये। यह स्वाधीनता संग्राम जमाखोरों, कालाबाजारियों के खिलाफ होना चाहिए। यह संग्राम भ्रष्टाचारियों से लड़ा जाना चाहिए। यह संग्राम चोर, उचक्कों, लुटेरों और ठगों के खिलाफ छेड़ा जाना चाहिये। यह संग्राम देश को खोखला कर रहे सत्ता व स्वार्थलोलुप नेताओं के विरुद्ध लड़ा जाना चाहिए। यह संग्र्र्राम उन लोगों के खिलाफ किया जाना चाहिये, जो गरीबों, दलितों, मजलूमों और नारी का शोषण कर फल-फूल रहे हैं। अगर हम ऐसे लोगों को परास्त कर सके, अगर हम ऐसे लोगों से देश को मुक्त करा सके , तब हम कह सकेंगे कि हम वास्तविक रूप से आजाद हो चुके हैं।
अन्ना हजारे उसी आजादी की बात कर रहे हैं। मगर ऐसा प्रतीत होता है कि मौजूदा सरकार और उनके बीच चल रही रस्साकसी संघर्ष को बढ़ाएगी। केन्द्रीय मंत्रीमंडल में पारित लोकपाल बिल का जो मसौदा संसद में पेश करने को तैयार है, उससे अन्ना हजारे व उनकी टीम सहित अनेक बुद्धिजीवी सहमत नहीं हैं। सरकार नहीं चाहती कि सर्वोच्च पद पर बैठे प्रधानमंत्री व न्यायपालिका इस बिल के माध्यम से लोकपाल के अधिकार क्षेत्र में आएं। इसके पीछे सरकार की चाहे जो मंशा हो, और चाहे जो तर्क दिए जा रहे हों, मगर वे आम जन को गले नहीं उतर रहे। दूसरी ओर हालांकि अन्ना हजारे की जिद देश के भले के लिए ही है, मगर उनके कुछ बिंदु ऐसे हैं, जिनके बारे में पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता कि उनको देश की तमाम जनता का पूरा समर्थन है। जो समर्थन दिखाई दे रहा है, वह भी पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता कि सोच-समझ कर दिया जा रहा है, अथवा देश हित के जज्बे के कारण दिया जा रहा है। उचित क्या है, अनुचित क्या है, इसका फैसला वस्तुत: अन्ना की टीम को नहीं दिया जा सकता। यदि ऐसा किया जाता है तो फिर पूरे लोकतांत्रिक सिस्टम का कोई मतलब ही नहीं रहेगा। आखिरकार हमारे यहां एक लोकतांत्रिक व्यवस्था है। मुहिम अपनी जगह है, उसकी महत्ता भी है, मगर निर्णय तो आखिरकार संसद को ही करना है। अन्ना हजारे को भी उसे मानना होगा, क्योंकि वे संसद से बड़े नहीं हैं।
बहरहाल, अन्ना की अनशन की जिद सरकार के लिए क्या संकट उत्पन्न करेगी, यह अभी पता नहीं लेकिन लोकतांत्रिक व्यवस्था के तहत विपक्षी पार्टियों पर बड़ा दायित्व आ गया है। उन्हें चाहिए कि वे संविधान के दायरे में रचनात्मक रूप से उचित मुद्दों पर सरकार को झुकने को मजबूर करें। हालांकि सरकार की रणनीति यही है कि कारगर लोकपाल की स्थापना के लिए अन्ना हजारे जब अनशन पर बैठें तो उनके आंदोलन को संसद के खिलाफ चित्रित कर दिया जाए, लेकिन यही मौका है जब विपक्ष प्रस्तावित लोकपाल को अधिक से अधिक ताकतवर बनाने के लिए रचनात्मक सुझाव पेश करे और उसे मनवाए। कोई ऐसा रास्ता निकाला जाए, जिससे अन्ना की मुहिम भी कामयाब हो जाए और टकराव भी न हो।
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यह आन्दोलन कामयाब होगा या नहीं..... क्या कहें .... पर अन्ना अगर बाबा रामदेव के खिलाफ न होते तो इस दूसरे अनशन की आवश्यकता ही नहीं पड़ती........ सार्थक विवेचन
जवाब देंहटाएंआपका बहुत बहुत शुक्रिया
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