तीसरी आंख
शुक्रवार, मई 27, 2011
मंगलवार, मई 24, 2011
अजमेर में इंडिया अगेंस्ट करप्शन खुद ही पथ-भ्रष्ट
देश को भ्रष्टाचार से मुक्ति दिलाने का झंडाबरदार बनी इंडिया अगेंस्ट करप्शन मुहिम की अजमेर इकाई इसके दिल्ली में बैठे मैनेजरों की लापरवाही की वजह से पथ-भ्रष्ट हो गई। पथ-भ्रष्ट कहना इसलिए अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं कहा जा सकता क्यों कि उसमें गुटबाजी हो गई और उसका परिणाम ये रहा कि मौजूदा दौर की सर्वाधिक पवित्र मुहिम का कार्यक्रम फ्लॉप शो साबित हो गया।
असल में यह हालत पद और प्रतिष्ठा की लड़ाई के कारण हुआ। अजमेर इकाई का झंडा लेकर अब तक सक्रिय रही कॉर्डिनेटर प्रमिला सिंह को न केवल हटा दिया गया, अपितु उनको दिया गया पद ही समाप्त कर दिया गया। उनके स्थान कीर्ति पाठक को मुख्य कार्यकर्ता की जिम्मेदारी सौंप दी गई। बात यहीं खत्म नहीं हुई। एक ओर जहां कीर्ति पाठक ने ब्लॉसम स्कूल में इंडिया अगेंस्ट करप्शन के सदस्य श्रीओम गौतम का उद्बोधन आयोजित किया, वहीं प्रमिला सिंह भी पीछे नहीं रहीं और उन्होंने भी गौतम का कार्यक्रम कश्यप डेयरी में आयोजित करने की प्रेस रिलीज जारी कर दी। बड़ी दिलचस्प बात ये थी दोनों का समय शाम छह बजे बताया गया। जहां तक स्थान का सवाल है, बताने भर को दोनों अलग-अलग हैं, जबकि वे हैं एक ही स्थान पर। कश्यप डेयरी परिसर में ही ब्लॉसम स्कूल चलती है।
खैर, हुआ वही जो होना था। कीर्ती पाठक की ओर से आयोजित कार्यक्रम ब्लॉसम स्कूल में हुआ, प्रमिला सिंह वाला नहीं। इतना ही नहीं प्रमिला सिंह व उनके समर्थकों को कार्यक्रम में घुसने ही नहीं दिया गया। कीर्ति पाठक के पति राजेश पाठक ने पहले से ही पुलिस का बंदोबस्त कर दिया था। प्रमिला सिंह ने वहां खूब पैर पटके, मगर उनकी एक नहीं चली। इस पर उन्होंने झल्ला कर कहा कि वे आईएसी दिल्ली को शिकायत करेंगी। देखने वाल बात ये है कि उनकी शिकायत क्या रंग लाती है?
इस पूरे प्रकरण से यह तो स्पष्ट है कि प्रमिला सिंह को भी श्रीओम गौतम के आने की पुख्ता जानकारी थी। गौतम उनके कार्यक्रम में क्यों नहीं आए, इस पर दो सवाल उठते हैं। या तो प्रमिला सिंह को आखिर तक बेवकूफ बनाया जाता रहा या फिर उन्हें पता था कि गौतम उनके कार्यक्रम में नहीं आएंगे, फिर भी उन्होंने अपनी ओर से कार्यक्रम की घोषणा कर दी। हालांकि गौतम सुबह ही अजमेर आ गए थे, मगर प्रमिला सिंह लाख कोशिश के बाद भी उनसे मिल नहीं पाईं। वैसे ये संभव लगता नहीं है कि प्रमिला सिंह इतनी मासूम हैं कि उन्हें कीर्ति पाठक के कार्यक्रम का पता ही नहीं था।
बहरहाल, अजमेर इकाई में तो गुटबाजी उजागर हो ही गई है, मगर इस बात अभी पता नहीं लग पाया है कि क्या यही हाल ऊपर भी है? रहा सवाल कॉर्डिनेटर जैसे पद को समाप्त करने का तो साफ है कि मुहिम के मैनेजरों को पद का झगड़ा समाप्त करने की अक्ल बाद में आई है। और पहले जो पद देने की व्यवस्था की गई थी, उसी का परिणाम है कि अजमेर में गुटबाजी हो गई। वैसे मुहिम से जुड़े कार्यकर्ताओं में यह कानाफूसी होते हुए जरूर सुनी गई कि प्रमिला सिंह को उनके व्यक्तित्व के मुहिम के अनुकूल नहीं मान कर हटाया गया है।
खैर, पूरे उत्तर भारत में सबसे पहले पूर्ण साक्षर घोषित होने का गौरव हासिल अजमेर में इस मुहिम का क्या हाल है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि गौतम के लोकपाल बिल विवेचना कार्यक्रम में एक सौ से कुछ अधिक ही लोग पहुंचे, वे भी जुटाए हुए। ऐसा प्रतीत होता है कि दिल्ली में मुहिम के मैनेजरों को यह पता ही नहीं कि अजमेर में उन्होंने जिन स्वच्छ छवि के लोगों को कमान सौंपी है, उनकी न तो कोई पहचान है और न ही जनता पर पकड़। तुर्रा ये कि वे आम जनता को जोड़ कर अभियान छेड़े हुए हैं। हालांकि इससे उनकी निष्ठा व ईमानदारी पर सवाल खड़ा नहीं किया जा सकता, मगर इतना तो तय ही है कि उनको जनता को जोडऩे का कोई अनुभव ही नहीं है। केवल मीडिया के दम पर टिके हुए हैं। सोचते हैं कि चूंकि आमजन में भ्रष्टाचार के प्रति विरोध का भाव है, इस कारण मात्र मीडिया के जरिए ही वे उस फसल को काट लेंगे। अब ये बात किसी से छिपी हुई नहीं है कि लोकपाल बिल के मामले में मीडिया ने पिछले दिनों क्या कमाल कर दिखाया था। अजमेर वाला कार्यक्रम भी उसकी जीती जागती मिसाल है। जितना बड़ा वह कार्यक्रम था नहीं, उससे कहीं अधिक उसे कवरेज दिया गया। और यही वजह है कि कार्यक्रम आयोजित करने वाले जितने बड़े नेता हैं नहीं, उससे कहीं अधिक अपने आप को मानने लगे हैं।
असल में यह हालत पद और प्रतिष्ठा की लड़ाई के कारण हुआ। अजमेर इकाई का झंडा लेकर अब तक सक्रिय रही कॉर्डिनेटर प्रमिला सिंह को न केवल हटा दिया गया, अपितु उनको दिया गया पद ही समाप्त कर दिया गया। उनके स्थान कीर्ति पाठक को मुख्य कार्यकर्ता की जिम्मेदारी सौंप दी गई। बात यहीं खत्म नहीं हुई। एक ओर जहां कीर्ति पाठक ने ब्लॉसम स्कूल में इंडिया अगेंस्ट करप्शन के सदस्य श्रीओम गौतम का उद्बोधन आयोजित किया, वहीं प्रमिला सिंह भी पीछे नहीं रहीं और उन्होंने भी गौतम का कार्यक्रम कश्यप डेयरी में आयोजित करने की प्रेस रिलीज जारी कर दी। बड़ी दिलचस्प बात ये थी दोनों का समय शाम छह बजे बताया गया। जहां तक स्थान का सवाल है, बताने भर को दोनों अलग-अलग हैं, जबकि वे हैं एक ही स्थान पर। कश्यप डेयरी परिसर में ही ब्लॉसम स्कूल चलती है।
खैर, हुआ वही जो होना था। कीर्ती पाठक की ओर से आयोजित कार्यक्रम ब्लॉसम स्कूल में हुआ, प्रमिला सिंह वाला नहीं। इतना ही नहीं प्रमिला सिंह व उनके समर्थकों को कार्यक्रम में घुसने ही नहीं दिया गया। कीर्ति पाठक के पति राजेश पाठक ने पहले से ही पुलिस का बंदोबस्त कर दिया था। प्रमिला सिंह ने वहां खूब पैर पटके, मगर उनकी एक नहीं चली। इस पर उन्होंने झल्ला कर कहा कि वे आईएसी दिल्ली को शिकायत करेंगी। देखने वाल बात ये है कि उनकी शिकायत क्या रंग लाती है?
इस पूरे प्रकरण से यह तो स्पष्ट है कि प्रमिला सिंह को भी श्रीओम गौतम के आने की पुख्ता जानकारी थी। गौतम उनके कार्यक्रम में क्यों नहीं आए, इस पर दो सवाल उठते हैं। या तो प्रमिला सिंह को आखिर तक बेवकूफ बनाया जाता रहा या फिर उन्हें पता था कि गौतम उनके कार्यक्रम में नहीं आएंगे, फिर भी उन्होंने अपनी ओर से कार्यक्रम की घोषणा कर दी। हालांकि गौतम सुबह ही अजमेर आ गए थे, मगर प्रमिला सिंह लाख कोशिश के बाद भी उनसे मिल नहीं पाईं। वैसे ये संभव लगता नहीं है कि प्रमिला सिंह इतनी मासूम हैं कि उन्हें कीर्ति पाठक के कार्यक्रम का पता ही नहीं था।
बहरहाल, अजमेर इकाई में तो गुटबाजी उजागर हो ही गई है, मगर इस बात अभी पता नहीं लग पाया है कि क्या यही हाल ऊपर भी है? रहा सवाल कॉर्डिनेटर जैसे पद को समाप्त करने का तो साफ है कि मुहिम के मैनेजरों को पद का झगड़ा समाप्त करने की अक्ल बाद में आई है। और पहले जो पद देने की व्यवस्था की गई थी, उसी का परिणाम है कि अजमेर में गुटबाजी हो गई। वैसे मुहिम से जुड़े कार्यकर्ताओं में यह कानाफूसी होते हुए जरूर सुनी गई कि प्रमिला सिंह को उनके व्यक्तित्व के मुहिम के अनुकूल नहीं मान कर हटाया गया है।
खैर, पूरे उत्तर भारत में सबसे पहले पूर्ण साक्षर घोषित होने का गौरव हासिल अजमेर में इस मुहिम का क्या हाल है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि गौतम के लोकपाल बिल विवेचना कार्यक्रम में एक सौ से कुछ अधिक ही लोग पहुंचे, वे भी जुटाए हुए। ऐसा प्रतीत होता है कि दिल्ली में मुहिम के मैनेजरों को यह पता ही नहीं कि अजमेर में उन्होंने जिन स्वच्छ छवि के लोगों को कमान सौंपी है, उनकी न तो कोई पहचान है और न ही जनता पर पकड़। तुर्रा ये कि वे आम जनता को जोड़ कर अभियान छेड़े हुए हैं। हालांकि इससे उनकी निष्ठा व ईमानदारी पर सवाल खड़ा नहीं किया जा सकता, मगर इतना तो तय ही है कि उनको जनता को जोडऩे का कोई अनुभव ही नहीं है। केवल मीडिया के दम पर टिके हुए हैं। सोचते हैं कि चूंकि आमजन में भ्रष्टाचार के प्रति विरोध का भाव है, इस कारण मात्र मीडिया के जरिए ही वे उस फसल को काट लेंगे। अब ये बात किसी से छिपी हुई नहीं है कि लोकपाल बिल के मामले में मीडिया ने पिछले दिनों क्या कमाल कर दिखाया था। अजमेर वाला कार्यक्रम भी उसकी जीती जागती मिसाल है। जितना बड़ा वह कार्यक्रम था नहीं, उससे कहीं अधिक उसे कवरेज दिया गया। और यही वजह है कि कार्यक्रम आयोजित करने वाले जितने बड़े नेता हैं नहीं, उससे कहीं अधिक अपने आप को मानने लगे हैं।
शुक्रवार, मई 20, 2011
मतदाता के बदलते मूड का संकेत हैं ये चुनाव परिणाम
माकपा विचारधारा की राष्ट्रीय प्रासंगिकता पर लटकी तलवार
कांग्रेस को भुगतनी पड़ी अपनी खुद की गलतियां
भाजपा के अकेले दिल्ली पहुंचना सपना मात्रपांच राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव नतीजों ने यह एक बार फिर साबित कर दिया है कि आम मतदाता का मूड अब बदलने लगा है। वह जाति, धर्म अथवा संप्रदाय दीवारों को लांघ कर वह विकास और स्वस्थ प्रशासन को प्राथमिकता देने लगा है। राजनीति में घुन की तरह लगे भ्रष्टाचार से वह बेहद खफा हो गया है। अब उसे न तो धन बल ज्यादा प्रभावित करता है और न ही वह क्षणिक भावावेश के लिए उठाए गए मुद्दों पर ध्यान देता है। चंद लफ्जों में कहा जाए तो हमारा मजबूत लोकतंत्र अब परिपक्व भी होने लगा है। अब उसे वास्तविक मुद्दे समझ में आने लगे हैं। कुछ ऐसा ही संकेत उसने कुछ अरसे पहले बिहार में भी दिया था, जहां कि जंगलराज से उकता कर उसने नितीश कुमार की विकास की गाडी में चढऩा पसंद किया। कुछ इसी प्रकार सांप्रदायिकता के आरोपों से घिरे नरेन्द्र मोदी भी सिर्फ इसी वजह से दुबारा सत्तारूढ़ हो गए क्योंकि उन्होंने अपनी पूरी ताकत विकास के लिए झोंक दी।
सर्वाधिक चौंकाने वाला रहा पश्चिम बंगाल में आया परिवर्तन। यह कम बात नहीं है कि एक विचारधारा विशेष के दम पर 34 साल से सत्ता पर काबिज वामपंथी दलों का आकर्षण ममता की आंधी के आगे टिक नहीं पाया। असल में इस राज्य में वामपंथ का कब्जा था ही इस कारण कि मतदाता के सामने ऐसा कोई दमदार विकल्प मौजूद नहीं था जो राज्य के सर्वशक्तिमान वाम मोर्चे के लिए मजबूत चुनौती खड़ी कर सके। जैसे ही मां, माटी और मानुस की भाषा मतदाता के समझ में आई, उसने ममता का हाथ थाम लिया और वहां का लाल किला ढ़ह गया। असल में ममता का परिवर्तन का नारा जनता की अपेक्षाओं के अनुरूप था। कदाचित ममता की जीत व्यक्तिवाद की ओर बढ़ती राजनीति का संकेत नजर आता हो, मगर क्या यह कम पराकाष्ठा है कि लोकतंत्र यदि अपनी पर आ जाए तो जनकल्याणकारी सरकार के लिए वह एक व्यक्ति के परिवर्तन के नारे को भी ठप्पा लगा सकता है।
इस किले के ढ़हने की एक बड़ी वजह ये भी थी कि कैडर बेस मानी जाने वाली माकपा के हिंसक हथकंडों ने आम मतदाता को आक्रोषित कर दिया था। सिंगुर और नंदीग्राम की घटनाओं के बाद ममता की तृणमूल कांग्रेस ने साबित कर दिया कि वही वामपंथियों से टक्कर लेने की क्षमता रखती है। एक चिन्हित और स्थापित विचारधारा वाली सरकार का अपेक्षाओं का केन्द्र बिंदु बनी ममता के आगे परास्त हो जाना, इस बात का इशारा करती है कि आम आदमी की प्राथमिकता रोटी, कपड़ा, मकान और शांतिपूर्ण जीवन है, न कि कोरी विचारधारा।
तमिलनाडु चुनाव ने तो एक नया तथ्य ही गढ दिया है। इस चुनाव ने यह भी साबित कर दिया है कि आम मतदाता अपनी सुविधा की खातिर किसी दल को खुला भ्रष्टाचार करने की छूट देने को तैयार नहीं है। मतदाता उसको सीधा लालच मिलने से प्रभावित तो होता है, लेकिन भ्रष्ट तंत्र से वह कहीं ज्यादा प्रभावित है। चाहे उसे टीवी और केबल कनैक्शन जैसे अनेक लुभावने हथकंडों के जरिए आकर्षित किया जाए, मगर उसकी पहली प्राथमिकता भ्रष्टाचार से मुक्ति और विकास है। भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद के आरोपों से घिरे वयोवृद्ध द्रमुक नेता एम. करुणानिधि ने कभी कल्पना भी नहीं की होगी कि वे लोक-लुभावन हथकंडों के बाद भी अकेले भ्रष्टाचार के मुद्दे की वजह से इस तरह बुरी कदर हार जाएंगे। कदाचित इसकी वजह देशभर में वर्तमान में सर्वाधिक चर्चित भ्रष्टाचार के मुद्दे की वजह से भी हुआ हो।
जहां तक पांडिचेरी का सवाल है, वह अमूमन तमिलनाडु की राजनीति से प्रभावित रहता है। यही वजह है कि वहां करुणानिधि के परिवारवाद और भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी उनकी पार्टी से मतदाता में उठे आक्रोश ने अपना असर दिखा दिया। कांग्रेस को करुणानिधि से दोस्ती की कीमत चुकानी पड़ी। इसके अतिरिक्त रंगासामी के कांग्रेस से छिटक कर जयललिता की पार्टी के साथ गठबंधन करने ने भी समीकरण बदल दिए।
वैसे हर चुनाव में परिवर्तन का आदी केरल अपनी आदत से बाज नहीं आया, मगर अच्युतानंदन की निजी छवि ने भी नतीजों को प्रभावित किया। यद्यपि राहुल गांधी की भूमिका के कारण कांग्रेस की लाज बच गई और यही वजह रही कि वहां कांग्रेस की जीत का अंतर बहुत कम रहा।
रहा असम का सवाल तो वह संकेत दे रहा है कि अब छोटे राज्यों में हर चुनाव में सरकार बदल देने की प्रवत्ति समाप्त होने लगी है। मतदाता अब विकास को ज्यादा तरजीह देने लगा है। हालांकि जहां तक असम का सवाल है, वहां लागू की गईं योजनाएं तात्कालिक फायदे की ज्यादा हैं, मगर आम मतदाता तो यही समझता है कि उसे कौन सा दल ज्यादा फायदा पहुंचा रहा है। उसे तात्कालिक या स्थाई फायदे से कोई मतलब नहीं है। असम में सशक्त विपक्ष का अभाव भी तुरुण गोगोई की वापसी का कारण बना। एक और मुद्दा भी है। असम की जनता के लिए मौजूदा हालात में अलगाववाद का मुद्दा भाजपा के बांग्लादेशी नागरिकों के मुद्दे से ज्यादा असरकारक रहा। तरुण गोगोई की ओर से उग्रवादियों पर अंकुश के लिए की गई कोशिशों को मतदाता ने पसंद किया है। असल में अलगाववादियों की वह से त्रस्त असम वासी हिंसा और अस्थिरता से मुक्ति चाहते हैं।
कुल मिला कर इन परिणामों को राष्ट्रीय परिदृश्य की दृष्टि से देखें तो त्रिपुरा को छोड़ कर अपने असर वाले अन्य दोनों राज्यों में सत्ता से च्युत होना माकपा के लिए काफी चिंताजनक है। इसकी एक वजह ये भी है कि वह वैचारिक रूप से भले ही एक राष्ट्रीय पार्टी का आभास देती है, केन्द्र में उसका दखल भी रहता है, मगर वह कुछ राज्यों विशेष में ही असर रखती है और राष्ट्रीय स्तर पर वह प्रासंगिकता स्थापित नहीं कर पा रही। ताजा चुनाव कांग्रेस के लिए सुखद इसलिए नहीं रहे कि उसने खुद ने ही कुछ मजबूरियों के चलते गलत पाला नहीं छोड़ा। करुणानिधि की बदनामी के बावजूद उसने मौके की नजाकत को नहीं समझा और अन्नाद्रमुक के साथ हाथ मिलाने का मौका खो दिया। भाजपा की दिशा हालांकि ये चुनाव तय नहीं करने वाले थे, लेकिन फिर भी नतीजों ने उसे निराश ही किया है। पार्टी ने असम में जोर लगाया, मगर उसकी सीटें पिछली बार की तुलना में आधी से भी कम हो गई हैं। कुल मिला कर उसके सामने यह यक्ष प्रश्न खड़ा का खड़ा ही है कि वह आज भी देश के एक बड़े भू भाग में जमीन नहीं तलाश पाई है, ऐसे में भ्रष्टाचार और महंगाई से त्रस्त मतदाता को लुभाने के बावजूद राजनीतिक लाभ उठा कर देश पर शासन का सपना देखने का अधिकार नहीं रखती।
कांग्रेस को भुगतनी पड़ी अपनी खुद की गलतियां
भाजपा के अकेले दिल्ली पहुंचना सपना मात्रपांच राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव नतीजों ने यह एक बार फिर साबित कर दिया है कि आम मतदाता का मूड अब बदलने लगा है। वह जाति, धर्म अथवा संप्रदाय दीवारों को लांघ कर वह विकास और स्वस्थ प्रशासन को प्राथमिकता देने लगा है। राजनीति में घुन की तरह लगे भ्रष्टाचार से वह बेहद खफा हो गया है। अब उसे न तो धन बल ज्यादा प्रभावित करता है और न ही वह क्षणिक भावावेश के लिए उठाए गए मुद्दों पर ध्यान देता है। चंद लफ्जों में कहा जाए तो हमारा मजबूत लोकतंत्र अब परिपक्व भी होने लगा है। अब उसे वास्तविक मुद्दे समझ में आने लगे हैं। कुछ ऐसा ही संकेत उसने कुछ अरसे पहले बिहार में भी दिया था, जहां कि जंगलराज से उकता कर उसने नितीश कुमार की विकास की गाडी में चढऩा पसंद किया। कुछ इसी प्रकार सांप्रदायिकता के आरोपों से घिरे नरेन्द्र मोदी भी सिर्फ इसी वजह से दुबारा सत्तारूढ़ हो गए क्योंकि उन्होंने अपनी पूरी ताकत विकास के लिए झोंक दी।
सर्वाधिक चौंकाने वाला रहा पश्चिम बंगाल में आया परिवर्तन। यह कम बात नहीं है कि एक विचारधारा विशेष के दम पर 34 साल से सत्ता पर काबिज वामपंथी दलों का आकर्षण ममता की आंधी के आगे टिक नहीं पाया। असल में इस राज्य में वामपंथ का कब्जा था ही इस कारण कि मतदाता के सामने ऐसा कोई दमदार विकल्प मौजूद नहीं था जो राज्य के सर्वशक्तिमान वाम मोर्चे के लिए मजबूत चुनौती खड़ी कर सके। जैसे ही मां, माटी और मानुस की भाषा मतदाता के समझ में आई, उसने ममता का हाथ थाम लिया और वहां का लाल किला ढ़ह गया। असल में ममता का परिवर्तन का नारा जनता की अपेक्षाओं के अनुरूप था। कदाचित ममता की जीत व्यक्तिवाद की ओर बढ़ती राजनीति का संकेत नजर आता हो, मगर क्या यह कम पराकाष्ठा है कि लोकतंत्र यदि अपनी पर आ जाए तो जनकल्याणकारी सरकार के लिए वह एक व्यक्ति के परिवर्तन के नारे को भी ठप्पा लगा सकता है।
इस किले के ढ़हने की एक बड़ी वजह ये भी थी कि कैडर बेस मानी जाने वाली माकपा के हिंसक हथकंडों ने आम मतदाता को आक्रोषित कर दिया था। सिंगुर और नंदीग्राम की घटनाओं के बाद ममता की तृणमूल कांग्रेस ने साबित कर दिया कि वही वामपंथियों से टक्कर लेने की क्षमता रखती है। एक चिन्हित और स्थापित विचारधारा वाली सरकार का अपेक्षाओं का केन्द्र बिंदु बनी ममता के आगे परास्त हो जाना, इस बात का इशारा करती है कि आम आदमी की प्राथमिकता रोटी, कपड़ा, मकान और शांतिपूर्ण जीवन है, न कि कोरी विचारधारा।
तमिलनाडु चुनाव ने तो एक नया तथ्य ही गढ दिया है। इस चुनाव ने यह भी साबित कर दिया है कि आम मतदाता अपनी सुविधा की खातिर किसी दल को खुला भ्रष्टाचार करने की छूट देने को तैयार नहीं है। मतदाता उसको सीधा लालच मिलने से प्रभावित तो होता है, लेकिन भ्रष्ट तंत्र से वह कहीं ज्यादा प्रभावित है। चाहे उसे टीवी और केबल कनैक्शन जैसे अनेक लुभावने हथकंडों के जरिए आकर्षित किया जाए, मगर उसकी पहली प्राथमिकता भ्रष्टाचार से मुक्ति और विकास है। भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद के आरोपों से घिरे वयोवृद्ध द्रमुक नेता एम. करुणानिधि ने कभी कल्पना भी नहीं की होगी कि वे लोक-लुभावन हथकंडों के बाद भी अकेले भ्रष्टाचार के मुद्दे की वजह से इस तरह बुरी कदर हार जाएंगे। कदाचित इसकी वजह देशभर में वर्तमान में सर्वाधिक चर्चित भ्रष्टाचार के मुद्दे की वजह से भी हुआ हो।
जहां तक पांडिचेरी का सवाल है, वह अमूमन तमिलनाडु की राजनीति से प्रभावित रहता है। यही वजह है कि वहां करुणानिधि के परिवारवाद और भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी उनकी पार्टी से मतदाता में उठे आक्रोश ने अपना असर दिखा दिया। कांग्रेस को करुणानिधि से दोस्ती की कीमत चुकानी पड़ी। इसके अतिरिक्त रंगासामी के कांग्रेस से छिटक कर जयललिता की पार्टी के साथ गठबंधन करने ने भी समीकरण बदल दिए।
वैसे हर चुनाव में परिवर्तन का आदी केरल अपनी आदत से बाज नहीं आया, मगर अच्युतानंदन की निजी छवि ने भी नतीजों को प्रभावित किया। यद्यपि राहुल गांधी की भूमिका के कारण कांग्रेस की लाज बच गई और यही वजह रही कि वहां कांग्रेस की जीत का अंतर बहुत कम रहा।
रहा असम का सवाल तो वह संकेत दे रहा है कि अब छोटे राज्यों में हर चुनाव में सरकार बदल देने की प्रवत्ति समाप्त होने लगी है। मतदाता अब विकास को ज्यादा तरजीह देने लगा है। हालांकि जहां तक असम का सवाल है, वहां लागू की गईं योजनाएं तात्कालिक फायदे की ज्यादा हैं, मगर आम मतदाता तो यही समझता है कि उसे कौन सा दल ज्यादा फायदा पहुंचा रहा है। उसे तात्कालिक या स्थाई फायदे से कोई मतलब नहीं है। असम में सशक्त विपक्ष का अभाव भी तुरुण गोगोई की वापसी का कारण बना। एक और मुद्दा भी है। असम की जनता के लिए मौजूदा हालात में अलगाववाद का मुद्दा भाजपा के बांग्लादेशी नागरिकों के मुद्दे से ज्यादा असरकारक रहा। तरुण गोगोई की ओर से उग्रवादियों पर अंकुश के लिए की गई कोशिशों को मतदाता ने पसंद किया है। असल में अलगाववादियों की वह से त्रस्त असम वासी हिंसा और अस्थिरता से मुक्ति चाहते हैं।
कुल मिला कर इन परिणामों को राष्ट्रीय परिदृश्य की दृष्टि से देखें तो त्रिपुरा को छोड़ कर अपने असर वाले अन्य दोनों राज्यों में सत्ता से च्युत होना माकपा के लिए काफी चिंताजनक है। इसकी एक वजह ये भी है कि वह वैचारिक रूप से भले ही एक राष्ट्रीय पार्टी का आभास देती है, केन्द्र में उसका दखल भी रहता है, मगर वह कुछ राज्यों विशेष में ही असर रखती है और राष्ट्रीय स्तर पर वह प्रासंगिकता स्थापित नहीं कर पा रही। ताजा चुनाव कांग्रेस के लिए सुखद इसलिए नहीं रहे कि उसने खुद ने ही कुछ मजबूरियों के चलते गलत पाला नहीं छोड़ा। करुणानिधि की बदनामी के बावजूद उसने मौके की नजाकत को नहीं समझा और अन्नाद्रमुक के साथ हाथ मिलाने का मौका खो दिया। भाजपा की दिशा हालांकि ये चुनाव तय नहीं करने वाले थे, लेकिन फिर भी नतीजों ने उसे निराश ही किया है। पार्टी ने असम में जोर लगाया, मगर उसकी सीटें पिछली बार की तुलना में आधी से भी कम हो गई हैं। कुल मिला कर उसके सामने यह यक्ष प्रश्न खड़ा का खड़ा ही है कि वह आज भी देश के एक बड़े भू भाग में जमीन नहीं तलाश पाई है, ऐसे में भ्रष्टाचार और महंगाई से त्रस्त मतदाता को लुभाने के बावजूद राजनीतिक लाभ उठा कर देश पर शासन का सपना देखने का अधिकार नहीं रखती।
सदस्यता लें
संदेश (Atom)