मनोवैज्ञानिक व सामुद्रिक शास्त्र के जानकारों का मानना है कि प्राकृतिक परिस्थितियों और सांपों से लगातार संपर्क में रहने के कारण शनैः शनैः उनकी आंखें भी सांपों जैसी हो गईं। फिर आनुवांषिक गुणों की वजह से हर आने वाली पीढी की युवतियों की आंखें भी वैसी ही होने लगीं। इसके भेद का खुद कालबेलियां युवतियों तक को भान नहीं। उनसे पूछो तो वे यही बता पाती हैं कि यह सब भगवान की देन है।
वस्तुतः कालबेलिया समाज पीढ़ियों से सांपों के साथ जीता आया है। वे सर्पों को पकड़ते, उनके विष को पहचानते और उन्हें सुरक्षित छोड़ने का काम करते रहे हैं। सर्प उनके जीवन का साथी है, डर का नहीं। सांप की तरह वे भी स्थिर दृष्टि से दुनिया को देखते हैं। सर्प की निगाह में जो रहस्य और गहराई होती है, वही वर्षों के सह-अस्तित्व से इन स्त्रियों की आंखों में उतर आई है। उनके नृत्य में, उनके चेहरे के भावों में और उनकी दृष्टि में वह स्थिरता झलकती है, जो सर्प अपने शिकार को देखते समय दिखाता है।
रेगिस्तान की तेज धूप, खुला आसमान और धूलभरा जीवन उनकी आंखों को गहरी और चमकदार बनाता है। निरंतर खुले वातावरण में रहने से आंखों की मांसपेशियां मजबूत होती हैं, और उनमें स्वाभाविक तीक्ष्णता आती है। इसके साथ ही, कालबेलिया स्त्रियां बचपन से नृत्य सीखती हैं। उनके नृत्य में शरीर के हर अंग की भूमिका होती है, पर सबसे प्रभावशाली भूमिका निभाती हैं उनकी आंखें। वे नृत्य नहीं करतीं, बल्कि अपनी नजरों से कहानी कहती हैं। दर्शक को बांधने की यह कला उनके भीतर पीढ़ियों से उतरी है। यह भी सच है कि कभी यह समाज उपेक्षित था। सांप पकड़ने वाला समुदाय अछूत माना जाता था। लेकिन आज वही स्त्रियां कैमरे की रोशनी में लोकनृत्य का चेहरा बन चुकी हैं। यह परिवर्तन सिर्फ बाहरी नहीं है, यह उनकी आंखों की चमक में भी झलकता है। वह चमक सौंदर्य की नहीं, आत्मसम्मान की है। वे आंखें कहती हैं, “हम वही हैं जिन्हें जंगलों में भुला दिया गया था, पर अब सभ्यता हमारे पांवों की थाप पर नाचती है।”
कालबेलिया स्त्रियों की आंखों का नशा किसी सजावट का परिणाम नहीं, बल्कि उनकी जीवनगाथा का प्रतिबिंब है। उनके भीतर सर्प का प्रतीक बसता है। लहराता हुआ, स्थिर आकर्षक, पर खतरनाक। उनके काजल से घिरी आंखें लोककथा बन चुकी हैं। राजस्थान के लोकगीतों में भी कहा गया है “नागिन नैना मत मिला, नजर से चुभे डंस ज्यूं।” यह पंक्ति उनके सौंदर्य और रहस्य दोनों को एक साथ बयान करती है।
आज जब सुमन कालबेलिया मंच पर नाचती हैं, तो वह केवल एक नर्तकी नहीं होतीं। वह अपने समाज की परंपरा, अपनी दादी-नानियों की मेहनत, और रेगिस्तान की आत्मा को लेकर नाचती हैं। उनकी आंखों में जो नशा है, वह रूप का नहीं, बल्कि संघर्ष और पहचान का है।
इसलिए कहा जा सकता है- कालबेलिया स्त्रियों की आंखें नशा नहीं, इतिहास हैं। वे उस समाज की कहानी कहती हैं, जिसने विष के बीच भी नृत्य करना सीखा और नजरों को कविता बना दिया।

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