तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

बुधवार, फ़रवरी 27, 2013

ब्राह्मणों के वर्चस्व वाली भाजपा में तिवाड़ी बेगाने क्यों?

ghanshyam tiwariपूर्व मुख्यमंत्री एवं भाजपा की प्रदेशाध्यक्ष श्रीमती वसुन्धरा राजे ने अपने सरकारी निवास पर राजस्थान ब्राह्मण महासभा द्वारा आयोजित सम्मान समारोह में प्रदेश के ब्राह्मण वोटों को आकर्षित करने के लिए एक दिलचस्प बात कह दी। वो ये कि भाजपा के संस्थापक पंडित दीनदयाल उपाध्याय ब्राह्मण थे और भाजपा के शीर्षस्थ नेता पूर्व प्रधानमंत्री अटल वाजपेयी भी ब्राह्मण ही हैं। लोकसभा और राज्यसभा में नेता प्रतिपक्ष भी ब्राह्मण ही हैं। भाजपा के केन्द्रीय संसदीय बोर्ड में भी अधिकांश ब्राह्मण ही हैं। देश के अधिकांश राज्यों में भाजपा के प्रदेशाध्यक्ष भी ब्राह्मण ही हैं। इसलिये हम तो पंडितों के आशीर्वाद के बिना आगे बढ़ ही नहीं सकते।
सवाल ये उठता है कि अगर वे ब्राह्मणों का इतना ही सम्मान करती हैं और उनके आशीर्वाद के बिना आगे बढ़ ही नहीं सकतीं तो फिर अपने ही साथी घनश्याम तिवाड़ी को रूठा हुआ कैसे छोड़ रही हैं? इतना वरिष्ठ ब्राह्मण नेता ही पार्टी में बेगाना और अलग-थलग क्यों है? जब से वसुंधरा व संघ लॉबी में सुलह हुई है तिवाड़ी नाराज चल रहे हैं। उन्हें मनाने की कोशिशें निचले स्तर पर जरूर हुई हैं, मगर खुद वसुंधरा ने अब तक कोई गंभीर कोशिश नहीं की है। क्या तिवाड़ी ब्राह्मण नहीं हैं? अगर हैं तो इसका मतलब ये है कि उनके वचन और कर्म में तालमेल नहीं हैं। ब्राह्मणों के सम्मान में भले ही कुछ कहें, मगर धरातल पर कितना सम्मान है, इसका जीता जागता उदाहरण हैं वरिष्ठ भाजपा नेता तिवाड़ी की नाराजगी। होना तो यह चाहिए था कि ब्राह्मण महासभा के आयोजन में ही उनका ठीक से सम्मान किया जाता। उससे भी ज्यादा अफसोसनाक है ब्राह्मण महासभा का कृत्य, जिसने अपनी समाज के वरिष्ठ नेता को हाशिये डाले जाने के बाद भी कोई ऐतराज नहीं किया। उलटे वसुंधरा का स्वागत करने पहुंच गई। ऐसा प्रतीत होता है कि तिवाड़ी को आइना दिखाने के लिए ही यह आयोजन हुआ, ताकि उन्हें संदेश दिया जाए कि वे भले ही नाराज हों, मगर उनकी समाज तो वसुंधरा के साथ है।
ज्ञातव्य है कि प्रदेश भाजपा में नए तालमेल के प्रति तिवाड़ी की असहमति तभी पता लग गई थी, जबकि दिल्ली में सुलह वाले दिन वे तुरंत वहां से निजी काम के लिए चले गए। इसके बाद वसुंधरा के राजस्थान आगमन पर स्वागत करने भी नहीं गए। श्रीमती वसुंधरा के पद भार संभालने वाले दिन सहित कटारिया के नेता प्रतिपक्ष चुने जाने पर मौजूद तो रहे, मगर कटे-कटे से। कटारिया के स्वागत समारोह में उन्हें बार-बार मंच पर बुलाया गया लेकिन वे अपनी जगह से नहीं हिले और हाथ का इशारा कर इनकार कर दिया। बताते हैं कि इससे पहले तिवाड़ी बैठक में ही नहीं आ रहे थे, लेकिन कटारिया और भूपेंद्र यादव उन्हें घर मनाने गए। इसके बाद ही तिवाड़ी यहां आने के लिए राजी हुए। उन्होंने दुबारा उप नेता बनने का प्रस्ताव भी ठुकरा दिया।
ब्राह्मण के मुद्दे पर एक बात और याद आती है। हाल ही एक बयान में तिवाड़ी की पीड़ा उभर आई थी, वो ये कि मैं ब्राह्मण के घर जन्मा हूं। ब्राह्मण का तो मास बेस हो ही नहीं सकता। मैं राजनीति में जरूर हूं, लेकिन स्वाभिमान से समझौता करना अपनी शान के खिलाफ समझता हूं। मैं उपनेता का पद स्वीकार नहीं करूंगा। पता नहीं ब्राह्मण महासभा को उनकी ब्राह्मण होने की इस पीड़ा का अहसास है या नहीं।
एक बात और। अगर बकौल वसुंधरा भाजपा में ब्राह्मणों का इतना ही वर्चस्व है तो अन्य जातियों का क्या होगा? जिस जाति की वे बेटी हैं, जिस जाति में वे ब्याही हैं व जिस जाति की वे समधन हैं और इन संबंधों की बिना पर जिन जातियों से वोट मांगती हैं, उनका क्या होगा? तब उनके बार-बार दोहराये जाने वाले इस बयान के क्या मायने रह जाते हैं कि भाजपा छत्तीसों कौम की पार्टी है? ऐसे में अगर लोग ये कहते हैं कि भाजपा ब्राह्मण-बनियों की पार्टी है तो क्या गलत कहते हैं? सच तो ये है कि ऊंची जातियों के वर्चस्व की वजह से ही भाजपा अनुसूचित जातियों में अपनी पकड़ नहीं बना पाई है। अस्सी फीसदी हिंदुओं के इस देश में हिंदूवाद के नाम पर भाजपा को तीन-चौथाई बहुमत नहीं मिल पाता। अनुसूचित जाति के लोग भाजपा के इस कथित हिंदूवाद की वजह से ही कांग्रेस, सपा, बसपा, जनता दल आदि का रास्ता तलाशते हैं।
-तेजवानी गिरधर

सोमवार, फ़रवरी 25, 2013

लो अब भाभड़ा ने भी बदला अपना सुर

vasu-bhabhadaअब जब कि प्रदेश के सारे वसुंधरा विरोधी भाजपा नेताओं को यह साफ दिख गया है कि वे ही पार्टी की वर्तमान और भविष्य हैं तो वे मौके की नजाकत देख कर अपना सुर बदलने लगे हैं। पहले वसुंधरा के धुर विरोधी वरिष्ठ नेता कैलाश मेघवार ने अपना मूड, माइंड व सुर बदल कर उन्हें भावी मुख्यमंत्री स्वीकार किया और अब पुराने दिग्गज हरिशंकर भाभड़ा ने भी अपना सुर बदल कर न केवल उन्हें जीतने का आशीर्वाद दिया, अपितु यह भी कहा कि वे पहले भी वसुंधरा राजे के साथ थे, आज भी हैं और आगे भी साथ रहेंगे। 2008 के चुनाव के बाद हमारी वसुंधरा राजे से कभी कोई शिकायत नहीं रही। हमारी शिकायत तो पार्टी हाईकमान से थी। ज्ञातव्य है कि पार्टी में अपने राजनीतिक विरोधियों को मनाने की कवायद के तहत प्रदेश भाजपा अध्यक्ष वसुंधरा राजे ने हाल ही जयपुर के मालवीय नगर में पूर्व उप मुख्यमंत्री हरिशंकर भाभड़ा से मिलने उनके आवास पर गईं। यहां वसुंधराराजे की भाभड़ा से पौने घंटे बातचीत हुई।
आपको याद दिला दें कि इससे पहले भास्कर के वरिष्ठ संवाददाता त्रिभुवन को एक साक्षात्कार में भाभड़ा ने कहा था कि अब भाजपा को भी कांग्रेस की तरह समझने लगे हैं। दोनों का अंतर कम हो गया। लोग भ्रमित हैं कि किसे वोट दें। पहले राजाओं का वर्चस्व था। अब पैसे और सत्ता के बल पर नए जागीरदार पैदा हो गए। उन्हीं की घणी-खम्मां हो रही है। अघोषित राजतंत्र है। अपने कुटुंब को आगे बढ़ाते हैं। टिकट भी उनको, पद भी उनको। सब पार्टियों में यही हाल है। जिस वसुंधरा के कारण आज वे खंडहर की माफिक हो गए हैं, उनके बारे में उनकी क्या धारणा रही, इसका खुलासा होता है उनके तब दिए इस बयान से हो जाता है कि जनता ने राजा-रानियों को एक मौका तो दिया, लेकिन कुछ नहीं किया तो दूसरा मौका नहीं दिया। साथ ही कहा था कि वसुंधरा बहुत काबिल हैं। उनकी हर विषय पर पकड़ है। उन्हें भाषा की कठिनाई नहीं है। वसुंधरा की प्रशासन पर पकड़ अच्छी थी, लेकिन कुछ एलीमेंट तो ऐसे होते ही हैं, जिन पर कोई कंट्रोल नहीं कर सकता! उन्होंने ये भी कहा था कि भाजपा और कांग्रेस को खतरा एक-दूसरे से नहीं, अपने आपके भीतर पैदा हो चुके विरोधियों से है। भाजपा के दोनों गुटों की अपनी महत्वाकांक्षाएं हैं। एक गुटबाजी करेगा तो दूसरा भी करेगा। एक गुटबाजी के लिए जिम्मेदार होता है, दूसरा तो प्रतिक्रिया करता है। जब उनसे पूछा गया कि इसके लिए जिम्मेदार कौन है तो यह कह कर मन की बात छिपाने की कोशिश करते हैं कि जिसने गुटबाजी शुरू की। जब पूछा गया कि किसने शुरुआत की तो यह कह कर बचने की कोशिश भी करते हैं कि यह खोज का विषय है। वसुंधरा के परिपेक्ष्य में उन्होंने कहा था कि हम मर्यादा रखते थे। शेखावत को नेता माना तो माना। उनसे हम आपत्ति रखते थे तो वे जायज चीजें तुरंत मान लेते थे। वे जिद्दी नहीं थे। इससे झगड़ा नहीं होता था।
जब ये पूछा गया था कि वसुंधरा राजे को मुख्यमंत्री पद का दावेदार मान कर चुनाव लडने के मुद्दे पर उनके क्या विचार हैं तो बोले थे कि जरूरी नहीं कि किसी को लोकतंत्र में चुनाव से पहले नेता घोषित किया जाए। किसी एक आदमी को नेता तब घोषित किया जाता है, जब उसका नाम घोषित होने से लाभ होता हो। यह गंभीर प्रश्न है कि नेता घोषित हो कि नहीं! यह विषय केंद्रीय चुनाव समिति तय करती है। वह फायदे और नुकसान देखे। . .भैरोसिंह शेखावत मुख्यमंत्री रहे, लेकिन उन्हें कभी मुख्यमंत्री घोषित थोड़े किया गया था। आज यह तो तय है कि मुख्यमंत्री कौन बनेगा? साथ ही जोड़ा कि आप बात तो लोकतंत्र की करते हैं तो किसी को मुख्यमंत्री पहले कैसे घोषित कर सकते हैं। आप चुने हुए विधायकों के अधिकार की अवहेलना कैसे कर सकते हैं। कई बार नेता घोषित करने के दुष्परिणाम भी होते हैं। महत्वाकांक्षाएं जब सीमा पार कर जाती हैं तो वे पार्टी के लिए घातक होती हैं। जब वसुंधरा की लोकप्रियता का पार्टी को लाभ मिलने का सवाल किया गया तो बोले कि भाजपा में टीम वर्क रहा है। कभी उन्होंने किसी व्यक्ति पर अपने आपको आश्रित नहीं किया।
कुल मिला कर भाभड़ा के हृदय परिवर्तन से यह साफ हो गया है कि वे धरातल के सच और हालात को समझ चुके हैं और वसुंधरा के आगे नतमस्तक हैं।
-तेजवानी गिरधर

वसुंधरा ने फिर शुरू की खंडहरों को सलामी की कवायद

vasu-kailashvasu-bhabhadaहालांकि प्रदेश भाजपा अध्यक्ष बनने और मुख्यमंत्री पद की दावेदार के रूप में स्थापित हो चुकी श्रीमती वसुंधरा जानती हैं कि अब अधिसंख्य पुराने नेता भी उनका नेतृत्व स्वीकार कर रहे हैं, फिर भी उनका सम्मान रखने की खातिर अब उनसे मिल कर नाराजगी को सदा के लिए समाप्त करने की कवायद में फिर जुट गई हैं। हालांकि इससे पहले भी उन्होंने यह अभियान चलाया था और पुराने नेताओं से मिल कर उनका दिल जीतने की कोशिश की थी, मगर राष्ट्रीय अध्यक्ष का मसला नहीं सुलझ पाने के कारण उसे स्थगित कर दिया था। अब जब कि उन्हें लगभग फ्री हैंड सा मिल गया है, वे पूरे जोश-खरोश के साथ अपने अभियान में फिर जुट गई हैं। इसका एक बड़ा फायदा ये हो रहा है कि एक ओर जहां नेताओं की नाराजगी दूर हो रही है, वहीं उनके वसुंधरा को भावी मुख्यमंत्री स्वीकार करने के बयानों से पार्टी स्तर पर मजबूती भी मिल रही है। इससे यह संदेश जा रहा है कि अब वसुंधरा की दावेदारी में कोई कसर बाकी नहीं रह गई है।
सबसे पहले उन्होंने अपने धुर विरोधी दिग्गज कैलाश मेघवाल को अपने निवास पर आमंत्रित कर गिले-शिकवे दूर किए तो मेघवाल ने भी उनको भावी मुख्यमंत्री के रूप में स्वीकार करने की ऐलान कर दिया। इसके बाद उन्होंने पूर्व उपमुख्यमंत्री हरिशंकर भाभड़ा के निवास स्थान पर जा कर उनकी आशीर्वाद लिया। इसके एवज में भाभड़ा ने पुरानी सारी बातें भूलते हुए कहा कि वे पहले भी वसुंधरा राजे के साथ थे, आज भी हैं और आगे भी साथ रहेंगे। जानकारी है कि वे जल्द ही कटे-कटे से चल रहे घनश्याम तिवाड़ी को भी मनाने की कोशिश करने वाली हैं।
vs1vs2ज्ञातव्य है प्रदेश भाजपा में सुलह से पहले भी वसुंधरा ने कुशलक्षेम पूछने के बहाने कोटा में बुजुर्ग नेताओं से मुलाकात की और इन नेताओं के अगले विधानसभा चुनाव में कामयाबी का आशीर्वाद मांगा था। उन्होंने वरिष्ठ कांग्रेसी नेताओं तक से भेंट की थी। तब पत्रकारों ने जब यह सवाल किया था कि इस दौरे के क्या मायने हैं तो उन्होंने कहा था कि राज को राज रहने दो। तब उन्होंने वरिष्ठ नेता पूर्व मंत्री के के गोयल, पूर्व सांसद रघुवीरसिंह कौशल, पूर्व केंद्रीय मंत्री भुवनेश चतुर्वेदी, जुझारसिंह और रामकिशन वर्मा के घर पहुंच कर उनकी कुशलक्षेम पूछी। वे साहित्यकार वयोवृद्ध भाजपा नेता गजेंद्रसिंह सोलंकी की कुशलक्षेम पूछने भी गई थीं। वरिष्ठ नेता भाभडा की कुशलक्षेम उन्होंने अपने इस दौरे में भी पूछी थी। वसुंधरा के इस दौरे को अगले विधानसभा चुनाव की तैयारी के लिए कूटनीति की जाजम बिछाने के रूप में भी देखा जा गया था।
-तेजवानी गिरधर

रविवार, फ़रवरी 24, 2013

असल में मेघवाल का मूड व माइंड बदला है

vasu-kailashकभी पूर्व मुख्यमंत्री श्रीमती वसुधंरा राजे के धुर विरोधी रहे वरिष्ठ भाजपा नेता कैलाश मेघवाल ने दैनिक भास्कर के वरिष्ठ संवाददाता त्रिभुवन को एक साक्षात्कार में कहा है कि वसुंधरा राजे का मूड और माइंड अब बदल गया है, उन्होंने अनुभवों से बहुत कुछ सीखा है, जबकि असलियत ये है कि मूड व मांइड तो मेघवाल का बदला है, सुर भी बदला है, अपना वजूद बचाने की खातिर। आपको याद होगा, ये वही मेघवाल हैं, जिन्होंने सर्वाधिक मुखर हो कर श्रीमती राजे का विरोध किया और अगर ये कहा जाए कि वसुंधरा विरोधी मुहिम के सूत्रधार ही मेघवाल ही थे तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को अगर वसुंधरा पर हमले का मौका मिला तो असल में वह मेघवाल ने ही दिया था। उन्होंने उन्हीं के आरोपों को आधार बना कर वसुंधरा पर हमले किए थे और आज भी करते रहते हैं।
असल में मेघवाल उन चंद नेताओं में शुमार रहे हैं, जिनकी कोशिश थी कि वसुंधरा राजस्थान में पैर नहीं जमा पाएं। और इसके लिए उन्होंने पार्टी लाइन से हट कर नागाई की। पूर्व उपराष्ट्रपति भैरोंसिंह शेखावत ने भी अपने दामाद नरपत सिंह राजवी की खातिर वसुंधरा विरोधी रुख अख्तियार किया था, यह बात अलग है कि उन्हें इसमें कामयाबी हासिल नहीं हो पाई। वसुंधरा का इतना खौफ हुआ करता था कि भाजपा के अधिसंख्य नेता उन दिनों शेखावत से मिलने तक से डरते थे। नतीजतन राजस्थान का एक ही सिंह अपने राज्य में ही बेगाना सा हो गया था। लगभग यही स्थिति मेघवाल की भी हुई। वे हाशिये पर चले गए। अपना अस्तित्व समाप्त होता देख शातिर दिमाग खांटी नेता मेघवाल ने अपना मूड, माइंड व सुर बदल लिया है। उन्होंने भी अनुभव से सीख लिया है कि वसुंधरा को नेता माने बिना कोई चारा नहीं है। कुछ समय पहले सीएम इन वेटिंग के सवाल पर न सूत, न कपास और जुलाहों में ल_म ल_ा कहने वाले मेघवाल के श्रीमुख से ही निकल रहा है कि आगामी चुनाव में वसुंधरा के चेहरे और नाम का भरपूर फायदा पार्टी को मिलेगा। बड़ी दिलचस्प बात ये है कि वे खुद ही कह रहे हैं कि वसुंधरा अपने विरोधियों को परास्त करने और अपने आपको मुख्यमंत्री पद का स्वाभाविक दावेदार बनाने में सबल और सक्षम साबित हुई हैं। वसुंधरा ही मुख्यमंत्री होंगी। यानि राजनीति में जिंदा रहने के लिए वे साफ तौर पर सरंडर कर चुके हैं। उन्हें कपासन से टिकट चाहिए, इसी कारण वसुंधरा के यहां धोक देने पहुंच गए।
रहा सवाल हाशिये पर जा चुके मेघवाल की वर्तमान में प्रासंगिकता का तो इसमें कोई दोराय नहीं कि पार्टी को आज भी उनकी जरूरत महसूस हो रही है। इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जब वे वसुंधरा से मिले तो इस मुलाकात की बाकायदा विज्ञप्ति जारी की गई, जिसमें बताया गया कि आगामी विधानसभा चुनाव वसुन्धरा के नेतृत्व में लड़ेंगे। वसुन्धरा ही भाजपा की सरकार में मुख्यमंत्री होंगी। असल में मेघवाल को इतनी तवज्जो इस कारण दी गई क्योंकि वे अनुसूचित जाति के उन पुराने नेताओं में शुमार हैं, जिनकी कि आज भी जमीन पर पकड़ है। वैसे भी वे उस जमाने के भाजपा नेता हैं, जब अनुसूचित जाति पर भाजपा की कुछ खास पकड़ नहीं हुआ करती थी। अब तो भाजपा में अनुसूचित जाति के अनेक नेता पैदा हो चुके हैं।
समझा जाता है कि समीकरणों में आए बदलाव के बाद मेघवाल टिकट भी हासिल करने में कामयाब होंगे और अपना स्थान फिर बनाने में भी।
-तेजवानी गिरधर

शनिवार, फ़रवरी 23, 2013

भाजपा समर्थित भारतीय मजदूर संघ हुआ खंड-खंड

bmsप्रदेश की कथित अनुशासित पार्टी भाजपा समर्थित भारतीय मजदूर संघ अब तीन खंडों में विभाजित हो गया हैै। कहा जाता है कि यह वह संघ है, जो सरकारी कर्मचारियों को राष्ट्रीय विचारधारा से जोडऩे का काम करता है। धरातल का सच ये है कि राजनीतिक मायनों में यह भाजपा समर्थित है। यह सबसे पुराना एवं एक मात्र कर्मचारी संगठन है। प्रदेश के सरकारी विभाग, निगम और बोर्ड की कर्मचारी राजनीति में उक्त संगठन का रोल तो रहता ही है, वहीं विधानसभा और लोकसभा चुनावों में भी उक्त संघ भाजपा की लाइफ लाइन का काम करता आया है। मौजूदा समय में यह शक्ति तीन खंडों में खंड -खंड हो रही है। इसके पीछे कुछ नए तो कुछ पुराने कारण उभर कर आए हैं।
वस्तुत: 2008 के चुनावों में भारतीय मजदूर संघ ने भाजपा राजनीति में अपना दखल देते हुए 25 टिकट मांगे। उस वक्त टिकट नहीं दिए गए। कहीं न कहीं भाजपा की हार में यह स्थिति भी कारण बनी। भारतीय मजदूर संघ के प्रदेश उपाध्यक्ष एवं राजस्थान राज्य कर्मचारी महासंघ भामसं के प्रदेश अध्यक्ष महेश व्यास से इस्तीफा तक मांग लिया गया। व्यास भामसं के कद्दावर नेता तो थे ही साथ ही यह कर्मचारी हितों की मांगों के जरिए कांग्रेस सरकार पर हमला बोलने वाले अचूक बाण भी माने जाते थे। सचिवालय में पदस्थापित होने के कारण व्यास ने पूरे प्रदेश में अपना नेटवर्क पहले से ही जमा रखा था, इसी नेटवर्क के बूते पर उन्होंने जनवरी 2010 में अखिल राजस्थान कर्मचारी एवं मजदूर महासंघ का गठन कर लिया। यह संघ अब भामसं को प्रदेश के हर जिले में बराबर की टक्कर दे रहा है। इससे बीएमएस टूटने लगा है।
कुछ महीने पहले ही भाजपा ने एक और संगठन की नींव डाल दी। कर्मचारी राजनीति के जानकारों के मुताबिक यह संगठन जाने-अनजाने में भारतीय मजदूर संघ को ही क्षीण करने का काम कर रहा है। गैर सरकारी मजदूरों एवं कर्मचारियों के लिए भारतीय जनता मजदूर महासंघ की स्थापना की गई है, ताकि भाजपा के संस्कारों का प्रसार हो। अजमेर में इस संघ के अध्यक्ष सुरेंद्र गोयल है। सुरेंद्र गोयल यूआईटी ट्स्टी और भारतीय मजदूर संघ के अध्यक्ष रह चुके हैं। अब तक भारतीय मजदूर संघ से कई प्राइवेट कर्मचारी और अन्य यूनियनें नाता बनाकर चलती थीं, मगर नए मजदूर महासंघ ने सभी को तोडऩा आरंभ कर दिया है। ऐसे में प्रदेश स्तर पर सरकारी विभागों से भामसं का वर्चस्व कमजोर होता जा रहा है। कर्मचारी भामसं और व्यास गुट में तो बंटे ही थे, अब मजदूर महासंघ के प्रवेश ने कर्मचारी और मजदूर वर्ग की शक्ति को बांट दिया है। भाजपा की यह शक्ति त्रिशंकु हो चली है। यदि इसे संतुलित नहीं किया गया तो, इसका परिणाम आने वाले विधानसभा चुनावों में भाजपा पर पडऩा लगभग तय है।
-तेजवानी गिरधर

राज्यपाल की रस्म अदायगी पर इतनी परेशानी क्यों?

margret alvaराजस्थान विधानसभा में बजट सत्र शुरू होने पर राज्यपाल मारगे्रट अल्वा ने परंपरागत रूप से अभिभाषण प्रस्तुत किया और उसके चार पैरे पढ़ कर पढ़ा हुआ मानने का आदेश दिया तो बुद्धिजीवियों ने भी इसे अनुचित ठहराया। इस संदर्भ में राजस्थानियों के दिल की धड़कन बन चुके दैनिक भास्कर के अग्र लेख की ही चर्चा करें तो उसमें राज्यपाल को संबोधित करते हुए कहा गया कि राजस्थान के साढ़े छह करोड़ लोगों की भावनाओं को रस्म अदायगी मत समझिए।
अव्वल तो यह पहला मौका नहीं है कि अभिभाषण का कुछ अंश पढ़ कर बाकी का पढ़ा हुआ मान लेने को कहा गया। ऐसा कई बार हो चुका है, विशेष रूप से व्यवघान होने पर। इसकी वजह ये है कि भले ही राज्यपाल ने अपने श्रीमुख से पूरा अभिभाषण पढ़ा हो या नहीं, मगर वह लिखित रूप में सभी विधायकों को उपलब्ध कराया जाता है, ताकि वे आराम से उसका अध्ययन कर सकें। बेशक अभिभाषण को पूरा नहीं पढऩा एक विवाद का विषय हो सकता है, मगर सवाल उठता है कि वैसे भी अभिभाषण में सरकार की ओर से अपनी बढ़ाई के अलावा होता क्या है? ऐसा कितनी बार हुआ है कि किसी राज्यपाल ने सरकार की ओर लिख दिया गया अभिभाषण छोड़ कर अपनी ओर से कुछ नई बात रखी हो? क्या अभिभाषण परंपरा मात्र का हिस्सा मात्र नहीं रह गया है? पढऩे को जरूर वह पढ़ा जाता है, मगर उसे वास्तव में कितने विधायक सुनते हैं? क्या उसमें सरकार की उपब्धियों व भावी योजनाओं का बखान के अलावा कुछ होता भी है, जिसे कि विधायकगण गौर से सुनते हों? क्या ऐसे ऊबाऊ अभिभाषण को सुनते-सुनते अमूमन विधायको को ऊंग नहीं आ जाती? भले ही अभिभाषण के बहाने राज्यपाल को विधानसभा में गरिमामय उपस्थिति दर्ज करवाने का मौका मिलता हो, इस कारण यह परंपरा ठीक लगती है, मगर अपना तो मानना है कि राज्यपाल की उपस्थिति में ही अभिभाषण सदन के पटल पर मात्र रख दिया जाना चाहिए। उसे पढऩे में जो वक्त जाया होता है, उसका बेहतर उपयोग किया जाना चाहिए।
भास्कर के अग्र लेख में कहा गया है कि आखिर करोड़ों राजस्थानियों के साथ इस तरह भावनात्मक मजाक क्यों किया जा रहा है? समझ में नहीं आता कि इससे आखिर किस प्रकार भावनात्मक मजाक हुआ है? आम आदमी की हालत तो ये है कि वह इसे सुनना ही पसंद नहीं करता। दूसरे दिन अखबारों में छप जाए तो भी उसे पढऩे में अपना वक्त जाया नहीं करता। वह सिर्फ महत्वपूर्ण हाईलाइट्स पर ही नजर डालता है। यदि अभिभाषण इतना ही भावनात्मक है तो उसे सभी अखबारों को पूरा का पूरा छापना चाहिए, ताकि राज्य के साढ़े छह करोड़ लोगों की भावनाओं का सम्मान हो सके।
बड़े मजे की बात है कि लेखक ने यह भी स्वीकार किया है कि सही है अभिभाषण में रुचि कम हो रही है। लेकिन ऐसा क्यों हो रहा है? अगर अभिभाषण में मौलिकता बची होती। सवाल उठता है कि क्या अब तक कितने राज्यपालों ने खुद का लिखा हुआ अभिभाषण पढ़ा है।
लेख के आखिर में लिखा है कि इस पर बहस तो होनी ही चाहिए कि पढ़े हुए मान लिए जाने का मतलब क्या है? क्या यह होना चाहिए या नए सिरे से इस पर चर्चा होनी चाहिए-क्यों पढ़ा हुआ मान लिया जाए। अपन ने लेखक की ओर से बहस की अपेक्षा को पूरा करने का प्रयास किया है। आखिर में अपना मानना है कि यह इतना बड़ा मुद्दा था नहीं, जिस पर कि दैनिक भास्कर जैसे अखबार को अग्र लेख लिखने की जरूरत पड़ गई।
-तेजवानी गिरधर

शुक्रवार, फ़रवरी 22, 2013

तिवाड़ी ने खोली भाजपाई एकता की पोल

ghanshyam tiwariलंबी जद्दोजहद के बाद भले ही पूर्व मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे व संघ लॉबी के बीच सुलह हो गई हो और इस एकता से कथित अनुशासित पार्टी भाजपा के कार्यकर्ता उत्साहित हों, मगर वरिष्ठ भाजपा नेता घनश्याम तिवाड़ी इस एकता की पोल खोलने को उतारु हैं। वे अपनी नाराजगी सार्वजनिक रूप से जताने की जिद पर अड़े हैं, भले ही इससे पार्टी एकता की छीछालेदर हो जाए। उन्होंने इसका इसका ताजा नमूना पेश किया राजस्थान विधानसभा सत्र के पहले दिन राज्यपाल के अभिभाषण के दौरान। उन्होंने पार्टी लाइन से हट कर राज्यपाल के अंग्रेजी में पढ़े जाने वाले अभिभाषण पर व्यवस्था का सवाल उठाते हुए ऐतराज किया। यह बात दीगर है कि राज्यपाल ने उनके विरोध को देखते हुए अभिभाषण के कुछ पैरे हिंदी में पढ़े, मगर इससे भाजपाई रणनीति की कमजोरी तो उजागर हो ही गई।
अव्वल तो वे भाजपा विधायक दल की बैठक में गए ही नहीं, जिसमें कि रणनीति तैयार की गई थी। इसी से अंदाजा लग जाता है कि उन्हें पार्टी गाइड लाइन की कोई परवाह ही नहीं है। इतना ही नहीं, उन्होंने जो कहा था वह करके दिखाया। ज्ञातव्य है कि जब यह बात सामने आई कि राज्यपाल मारग्रेट अल्वा अंग्रेजी में अभिभाषण पढ़ेंगी तो भाजपा का रुख स्पष्ट नहीं था कि वह इसका विरोध करेगी या नहीं, जबकि तिवाड़ी ने पहले ही कह दिया कि वे तो इसका विरोध करेंगे, चाहे कोई उनका साथ दे या नहीं। वे अकेले ही इस मुद्दे को उठाने का ऐलान कर चुके थे। और ठीक इसके अनुरूप किया। हालांकि भाजपा विधायक दल की बैठक में यह तय हुआ था कि राज्यपाल के अभिभाषण की भाषा को लेकर नेता प्रतिपक्ष गुलाबचंद कटारिया विरोध दर्ज करवाएंगे, लेकिन तिवाड़ी ने इस फैसले की परवाह किए बिना ही विधानसभा में अभिभाषण शुरू होने से पहले ही हिंदी-अंग्रेजी का मुद्दा उठा लिया। बाद में कटारिया को यह कह सफाई देनी पड़ी कि उन्होंने विधायक दल की बैठक खत्म होने के बाद तिवाड़ी को बता दिया था कि क्या रणनीति तय हुई है। इस प्रकार भले ही कटारिया ने पार्टी में एकजुटता होने का संकेत दिया हो, मगर यह साफ है कि तिवाड़ी बेहद नाराज हैं। उनके तल्खी भले जवाब को दिखिए-मुझे विधायक दल की बैठक की सूचना नहीं थी। मैंने कोई मुद्दा हाईजेक नहीं किया। मैंने सदन में व्यवस्था का प्रश्न उठाया था कि राज्यपाल अंग्रेजी में अभिभाषण नहीं पढ़ सकतीं। ये बात जो जानता होगा वही तो बोलेगा! मैंने कोई पार्टी लाइन नहीं तोड़ी। ये विधानसभा के स्वाभिमान और राष्ट्रभाषा की रक्षा का मसला था। कुल मिला कर यह स्पष्ट है कि तिवाड़ी को अभी राजी नहीं किया जा सका है और वे आगे भी फटे में टांग फंसाते रहेंगे।
ज्ञातव्य है कि प्रदेश भाजपा में नए तालमेल के प्रति उनकी असहमति तभी पता लग गई थी, जबकि दिल्ली में सुलह वाले दिन वे तुरंत वहां से निजी काम के लिए चले गए। इसके बाद वसुंधरा के राजस्थान आगमन पर स्वागत करने भी नहीं गए। श्रीमती वसुंधरा के पद भार संभालने वाले दिन सहित कटारिया के नेता प्रतिपक्ष चुने जाने पर मौजूद तो रहे, मगर कटे-कटे से। कटारिया के स्वागत समारोह में उन्हें बार-बार मंच पर बुलाया गया लेकिन वे अपनी जगह से नहीं हिले और हाथ का इशारा कर इनकार कर दिया। बताते हैं कि इससे पहले तिवाड़ी बैठक में ही नहीं आ रहे थे, लेकिन कटारिया और भूपेंद्र यादव उन्हें घर मनाने गए। इसके बाद ही तिवाड़ी यहां आने के लिए राजी हुए। उन्होंने दुबारा उप नेता बनने का प्रस्ताव भी ठुकरा दिया। उनके मन में पीड़ा कितनी गहरी है, इसका अंदाजा इसी बयान से लगा जा सकता है कि मैं ब्राह्मण के घर जन्मा हूं। ब्राह्मण का तो मास बेस हो ही नहीं सकता। मैं राजनीति में जरूर हूं, लेकिन स्वाभिमान से समझौता करना अपनी शान के खिलाफ समझता हूं। मैं उपनेता का पद स्वीकार नहीं करूंगा।
-तेजवानी गिरधर