राजस्थान विधानसभा में बजट सत्र शुरू होने पर राज्यपाल मारगे्रट अल्वा ने परंपरागत रूप से अभिभाषण प्रस्तुत किया और उसके चार पैरे पढ़ कर पढ़ा हुआ मानने का आदेश दिया तो बुद्धिजीवियों ने भी इसे अनुचित ठहराया। इस संदर्भ में राजस्थानियों के दिल की धड़कन बन चुके दैनिक भास्कर के अग्र लेख की ही चर्चा करें तो उसमें राज्यपाल को संबोधित करते हुए कहा गया कि राजस्थान के साढ़े छह करोड़ लोगों की भावनाओं को रस्म अदायगी मत समझिए।
अव्वल तो यह पहला मौका नहीं है कि अभिभाषण का कुछ अंश पढ़ कर बाकी का पढ़ा हुआ मान लेने को कहा गया। ऐसा कई बार हो चुका है, विशेष रूप से व्यवघान होने पर। इसकी वजह ये है कि भले ही राज्यपाल ने अपने श्रीमुख से पूरा अभिभाषण पढ़ा हो या नहीं, मगर वह लिखित रूप में सभी विधायकों को उपलब्ध कराया जाता है, ताकि वे आराम से उसका अध्ययन कर सकें। बेशक अभिभाषण को पूरा नहीं पढऩा एक विवाद का विषय हो सकता है, मगर सवाल उठता है कि वैसे भी अभिभाषण में सरकार की ओर से अपनी बढ़ाई के अलावा होता क्या है? ऐसा कितनी बार हुआ है कि किसी राज्यपाल ने सरकार की ओर लिख दिया गया अभिभाषण छोड़ कर अपनी ओर से कुछ नई बात रखी हो? क्या अभिभाषण परंपरा मात्र का हिस्सा मात्र नहीं रह गया है? पढऩे को जरूर वह पढ़ा जाता है, मगर उसे वास्तव में कितने विधायक सुनते हैं? क्या उसमें सरकार की उपब्धियों व भावी योजनाओं का बखान के अलावा कुछ होता भी है, जिसे कि विधायकगण गौर से सुनते हों? क्या ऐसे ऊबाऊ अभिभाषण को सुनते-सुनते अमूमन विधायको को ऊंग नहीं आ जाती? भले ही अभिभाषण के बहाने राज्यपाल को विधानसभा में गरिमामय उपस्थिति दर्ज करवाने का मौका मिलता हो, इस कारण यह परंपरा ठीक लगती है, मगर अपना तो मानना है कि राज्यपाल की उपस्थिति में ही अभिभाषण सदन के पटल पर मात्र रख दिया जाना चाहिए। उसे पढऩे में जो वक्त जाया होता है, उसका बेहतर उपयोग किया जाना चाहिए।
भास्कर के अग्र लेख में कहा गया है कि आखिर करोड़ों राजस्थानियों के साथ इस तरह भावनात्मक मजाक क्यों किया जा रहा है? समझ में नहीं आता कि इससे आखिर किस प्रकार भावनात्मक मजाक हुआ है? आम आदमी की हालत तो ये है कि वह इसे सुनना ही पसंद नहीं करता। दूसरे दिन अखबारों में छप जाए तो भी उसे पढऩे में अपना वक्त जाया नहीं करता। वह सिर्फ महत्वपूर्ण हाईलाइट्स पर ही नजर डालता है। यदि अभिभाषण इतना ही भावनात्मक है तो उसे सभी अखबारों को पूरा का पूरा छापना चाहिए, ताकि राज्य के साढ़े छह करोड़ लोगों की भावनाओं का सम्मान हो सके।
बड़े मजे की बात है कि लेखक ने यह भी स्वीकार किया है कि सही है अभिभाषण में रुचि कम हो रही है। लेकिन ऐसा क्यों हो रहा है? अगर अभिभाषण में मौलिकता बची होती। सवाल उठता है कि क्या अब तक कितने राज्यपालों ने खुद का लिखा हुआ अभिभाषण पढ़ा है।
लेख के आखिर में लिखा है कि इस पर बहस तो होनी ही चाहिए कि पढ़े हुए मान लिए जाने का मतलब क्या है? क्या यह होना चाहिए या नए सिरे से इस पर चर्चा होनी चाहिए-क्यों पढ़ा हुआ मान लिया जाए। अपन ने लेखक की ओर से बहस की अपेक्षा को पूरा करने का प्रयास किया है। आखिर में अपना मानना है कि यह इतना बड़ा मुद्दा था नहीं, जिस पर कि दैनिक भास्कर जैसे अखबार को अग्र लेख लिखने की जरूरत पड़ गई।
-तेजवानी गिरधर
अव्वल तो यह पहला मौका नहीं है कि अभिभाषण का कुछ अंश पढ़ कर बाकी का पढ़ा हुआ मान लेने को कहा गया। ऐसा कई बार हो चुका है, विशेष रूप से व्यवघान होने पर। इसकी वजह ये है कि भले ही राज्यपाल ने अपने श्रीमुख से पूरा अभिभाषण पढ़ा हो या नहीं, मगर वह लिखित रूप में सभी विधायकों को उपलब्ध कराया जाता है, ताकि वे आराम से उसका अध्ययन कर सकें। बेशक अभिभाषण को पूरा नहीं पढऩा एक विवाद का विषय हो सकता है, मगर सवाल उठता है कि वैसे भी अभिभाषण में सरकार की ओर से अपनी बढ़ाई के अलावा होता क्या है? ऐसा कितनी बार हुआ है कि किसी राज्यपाल ने सरकार की ओर लिख दिया गया अभिभाषण छोड़ कर अपनी ओर से कुछ नई बात रखी हो? क्या अभिभाषण परंपरा मात्र का हिस्सा मात्र नहीं रह गया है? पढऩे को जरूर वह पढ़ा जाता है, मगर उसे वास्तव में कितने विधायक सुनते हैं? क्या उसमें सरकार की उपब्धियों व भावी योजनाओं का बखान के अलावा कुछ होता भी है, जिसे कि विधायकगण गौर से सुनते हों? क्या ऐसे ऊबाऊ अभिभाषण को सुनते-सुनते अमूमन विधायको को ऊंग नहीं आ जाती? भले ही अभिभाषण के बहाने राज्यपाल को विधानसभा में गरिमामय उपस्थिति दर्ज करवाने का मौका मिलता हो, इस कारण यह परंपरा ठीक लगती है, मगर अपना तो मानना है कि राज्यपाल की उपस्थिति में ही अभिभाषण सदन के पटल पर मात्र रख दिया जाना चाहिए। उसे पढऩे में जो वक्त जाया होता है, उसका बेहतर उपयोग किया जाना चाहिए।
भास्कर के अग्र लेख में कहा गया है कि आखिर करोड़ों राजस्थानियों के साथ इस तरह भावनात्मक मजाक क्यों किया जा रहा है? समझ में नहीं आता कि इससे आखिर किस प्रकार भावनात्मक मजाक हुआ है? आम आदमी की हालत तो ये है कि वह इसे सुनना ही पसंद नहीं करता। दूसरे दिन अखबारों में छप जाए तो भी उसे पढऩे में अपना वक्त जाया नहीं करता। वह सिर्फ महत्वपूर्ण हाईलाइट्स पर ही नजर डालता है। यदि अभिभाषण इतना ही भावनात्मक है तो उसे सभी अखबारों को पूरा का पूरा छापना चाहिए, ताकि राज्य के साढ़े छह करोड़ लोगों की भावनाओं का सम्मान हो सके।
बड़े मजे की बात है कि लेखक ने यह भी स्वीकार किया है कि सही है अभिभाषण में रुचि कम हो रही है। लेकिन ऐसा क्यों हो रहा है? अगर अभिभाषण में मौलिकता बची होती। सवाल उठता है कि क्या अब तक कितने राज्यपालों ने खुद का लिखा हुआ अभिभाषण पढ़ा है।
लेख के आखिर में लिखा है कि इस पर बहस तो होनी ही चाहिए कि पढ़े हुए मान लिए जाने का मतलब क्या है? क्या यह होना चाहिए या नए सिरे से इस पर चर्चा होनी चाहिए-क्यों पढ़ा हुआ मान लिया जाए। अपन ने लेखक की ओर से बहस की अपेक्षा को पूरा करने का प्रयास किया है। आखिर में अपना मानना है कि यह इतना बड़ा मुद्दा था नहीं, जिस पर कि दैनिक भास्कर जैसे अखबार को अग्र लेख लिखने की जरूरत पड़ गई।
-तेजवानी गिरधर
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