तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

शनिवार, जुलाई 29, 2017

मुख्यमंत्री हेल्पलाइन : नई बोतल में पुरानी शराब

राज्य सरकार आमजन की समस्याओं के समाधान के लिए आगामी 15 अगस्त से मुख्यमंत्री हेल्पलाइन लॉन्च करने जा रही है। यह निश्चित ही स्वागत योग्य कदम है, क्योंकि इसके लिए जो प्रक्रिया बनाई गई है, वह परिणाममूलक नजर आती है, मगर हमारा जो प्रशासनिक ढ़ांचा है, वह इसे कामयाब होने देगा, इसमें तनिक संदेह है। संदेह की वजह भी है। राज्य की जनता का पिछला अनुभव अच्छा नहीं रहा है।
आपको ज्ञात होगा कि पिछली सरकार के दौरान लोक सेवा गारंटी कानून लागू कर हर शिकायत का निपटारा करने के लिए चालीस दिन की अवधि तय की गई थी। बेशक वह भी जनता को राहत देने वाला एक अच्छा कदम था, मगर उसका हश्र क्या हुआ, सबको पता है। आरंभ में जरूर इस पर काम हुआ और वह गति पकड़ता, इससे पहले ही सत्ता परिवर्तन हो गया। प्रशासनिक ढ़ांचे ने राहत की सांस ली। हालांकि कानून आज भी लागू है, मगर न तो उसके तहत समाधान तलाशा जा रहा है और न ही प्रशासन को उसकी चिंता है। कुछ इसी तरह का सूचना का अधिकार कानून बना, मगर सूचना देने में अधिकारी कितनी आनाकानी या कोताही बररते हैं, यह सर्वविदित है। अव्वल तो वे अर्जी में ही कोई न कोई तकनीकी गलती बताते हुए सूचना देने से इंकार कर देते हैं। अगर कोई पीछे ही पड़ जाए तो सूचना देने से बचने के उपाय के बतौर शब्दों की बारीकी में उलझा देते हैं। सच बात तो ये है कि आम आदमी थोड़ी बहुत बाधा आने पर आगे रुचि ही नहीं लेता। अगर कोई पीछे पड़ता है तो कई बाधाओं को पार करने के बाद ही संबंधित अधिकारी पर जुर्माना करवा पाता है।
खैर, अब बात करते हैं मौजूदा सरकार की ओर से शुरू किए गए मुख्यमंत्री संपर्क पोर्टल की। इसमें भी समस्याओं के ऑन लाइन समाधान की व्यवस्था है, मगर कितनों का समाधान मिलता है, यह किसी से छिपा नहीं है। असल में जो व्यवस्था बनाई गई है, वह तो पूरी तरह से दुरुस्त है, मगर उस पर अमल का जो तरीका है, वह पूरी तरह से बाबूगिरी स्टाइल का है। उसमें कहीं न कहीं टालमटोल नजर आती है। शिकायतकर्ता को जवाब तो आता है, मगर उसमें समाधान कहीं नजर आता। वस्तुत: हमारे सरकारी अमले में कागजी खानापूर्ति की आदत पड़ गई है, समाधान हो या न हो, उसकी कोई फिक्र नहीं।
अब अगर मुख्यमंत्री हेल्पलाइन लॉन्च की जा रही है तो यह अपने आप में इस बात का सबूत है कि मुख्यमंत्री संपर्क पोर्टल कारगर नहीं हो पाया। बेशक मुख्यमंत्री हेल्पलाइन की व्यवस्था भी बड़ी चाक-चौबंद नजर आती है, मगर असल में ये है पुरानी व्यवस्था का ही नया तकनीकी रूप।  जैसे नई बोतल में पुरानी शराब। पहले पोर्टल पर शिकायत ऑन लाइन, दर्ज होती रही है, और अब भी वह ऑन लाइन ही है। फर्क सिर्फ इतना है कि अब अनपढ़ शिकायतकर्ता भी मोबाइल फोन पर अपनी आवाज में अपनी परेशानी दर्ज करवा सकता है। रहा सवाल शिकायत के निपटाने का तो पहले भी संबंधित विभाग के पास शिकायत जाती थी, अब भी जाएगी। रहा सवाल समस्या समाधान की समय सीमा का तो वह लोक सेवा गारंटी कानून के तहत भी थी और मुख्यमंत्री संपर्क पोर्टल में भी। मगर हुआ क्या?
असल में हमारे यहां गणेश जी की बड़ी महिमा है, इस कारण हर योजना का श्रीगणेश बहुत बढिय़ा, गाजे-बाजे के साथ किए जाने की परंपरा रही है। योजनाएं बनाते वक्त भी उसकी हर बारीकी को ध्यान में रखा जाता है, मगर बाद में वही ढर्ऱे पर चल पड़ती है। एक छोटे से उदाहरण से आप हमारी मानसिकता को समझ सकते हैं। आपने देखा होगा कि जब भी कहीं सार्वजनिक मूत्रालय बनाया जाता है तो बाकायदा में चिकनी टाइलें लगाई जाती हैं, पॉट भी लगाया जाता है, निकासी की भी पुख्ता व्यवस्था की जाती है, यहां तक कि पानी की टंकी का भी इंतजाम होता है, मगर चंद दिन बाद ही उसकी हालत ऐसी हो जाती है कि वहां जाने पर घिन्न सी आती है। टंकी में पानी नहीं भरा जाता, टाइलें टूट जाती हैं, पॉट साबूत बचता है तो उसका पाइप गायब होता है। कहीं कहीं तो निकासी ही ठप होती है। यानि कि बनाते समय जरूर सारी जरूरतों का ध्यान रखा जाता है, मगर बाद में मॉनिटरिंग पर कोई ध्यान नहीं देता। कुछ ऐसा ही है सरकारी योजनाओं का हाल।
आपने देखा होगा कि दैनिक भास्कर में भी भास्कर हस्तक्षेप कॉलम में स्थानीय संपादक डॉ. रमेश अग्रवाल ने भी मुख्यमंत्री हैल्पलाइन को यद्यपि   नई आजादी की संज्ञा दी है, मगर साथ ही यह भी आशंका जता दी है कि दफ्तरी पैंतरों के शातिर, नौकरशाह उम्मीदों से भरी नई व्यवस्था को भी अपने पंजों का शिकार बना डालें। दफ्तरों से फाइल की फाइल गायब कर डालना, किसी अर्जी पर एक बार में सारी आपत्तियां डालना, स्पष्ट कानूनों में भी भ्रम के पेंच डालकर मार्गदर्शन मांगने के नाम पर आवेदनों को अटका देना, कानूनों की नकारात्मक व्याख्या निकालना, ये सब वे फंदे हैं, जिनमें उलझकर बड़े से बड़े लोक कल्याणकारी कानून जमीन सूंघ चुके हैं।
कुल मिला कर योजना निश्चित रूप से सराहनीय है, मगर यदि सरकार की यह मंशा है कि इससे वाकई आमजन को राहत मिले तो उसे इसे परिणाममूलक बनाने के लिए दंडात्मक बनाना होगा, वरना हमारा प्रशासनिक तंत्र कितना चतुर है, उसकी व्याख्या करने की जरूरत नहीं है।
-तेजवानी गिरधर
7742067000

शुक्रवार, जुलाई 28, 2017

सत्ता की खातिर भ्रष्टाचार को छोड़ सांप्रदायिकता से नाता जोड़ा

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने एक बार फिर यह स्थापित कर दिया है कि राजनीति अब सिद्धांत विहीन होती जा रही है। सत्ता की खातिर कुछ भी किया जा सकता है। कैसी विडंबना है कि सांप्रदायिकता के नाम पर जिन को पानी पी-पी कर कोसा और सत्ता भी हासिल की, उन्हीं से हाथ मिला लिया। हालांकि उन्होंने लालू से नाता तोड़ कर ये संदेश देने की कोशिश की है कि वे भ्रष्टाचार के साथ कोई समझौता नहीं कर सकते, मगर सांप्रदायिकता के जिस मुद्दे को लेकर भाजपा से पुराना नाता तोड़ा, आज उसी से गलबहियां कर रहे हैं, तो यह भी तो संदेश जा रहा है कि सत्ता की खातिर आप जमीर व जनभावना को भी ताक पर रख सकते हैं। केवल इतना ही क्यों, जब आपने भाजपा का साथ छोड़ कर लालू का हाथ पकड़ा था, तब भी चारा घोटाले में उन्हें सजा सुनाई जा चुकी थी, मगर चूंकि आपको जीत का जातीय समीकरण समझ आ गया था, इस कारण उस वक्त भ्रष्टाचार के साथ समझौता करने में जरा भी देर नहीं की। यानि की आपका मकसद केवल सत्ता हासिल करना है, जब जो अनुकूल लगे, उसके साथ। न आपको सांप्रदायिकता से परहेज है और न ही भ्रष्टाचार से।
और सबसे बड़ा सवाल ये कि जिस जनता का वोट आपने सांप्रदायिकता के खिलाफ बोल कर हासिल किया, उसके प्रति भी आपकी कोई जिम्मेदारी बनती है या नहीं। इन सबसे अफसोसनाक पहलु ये है कि जो नरेन्द्र मोदी लोकतंत्र का भारी समर्थन पा चुके हैं, वे लोकतांत्रिक मूल्यों की पुनस्र्थापना करने की बजाय लोकतांत्रिक अनैतिकता को खुले आम बढ़ावा दे रहे हैं।
यह ठीक है कि तेजस्वी यादव पर कानूनी शिकंजा कसने के बाद उनके पास लालू यादव के साथ रहना मुश्किल हो रहा था, ऐसे में इस्तीफा  दे कर उन्होंने भ्रष्टाचार के खिलाफ एक अच्छा संदेश दिया, मगर उनकी अंतरआत्मा की आवाज व नैतिकता तभी स्थापित हो सकती थी, जबकि  वे विपक्ष में बैठने को राजी हो जाते। यदि आपने सत्ता और केवल सत्ता को ही ख्याल में रखा है, तो भ्रष्टाचार और सिद्धांत परिवर्तन में क्या अंतर है? एक आर्थिक भ्रष्टाचार है तो दूसरा नैतिक भ्रष्टाचार। यदि आप अपना जमीर बेच रहे हैं तो आप भी भ्रष्टाचारी हैं।
हां, इतना जरूर है कि उन्होंने अपने आपको एक चतुर राजनीतिज्ञ साबित कर दिया है। वो ऐसे कि यदि अचानक इस्तीफा दे कर सत्ता के गणित को नहीं बदलते तो खुद उनकी ही पार्टी में सेंध पडऩे वाली थी। तेजस्वी यादव के समर्थक जेडीयू विधायक उनके खिलाफ कुछ भी सुनने को तैयार नहीं थे। जेडीयू में ऐसे विधायकों की संख्या करीब डेढ़ दर्जन बतायी जा रही है। इनमें से ज्यादातर यादव और मुस्लिम विधायक हैं। इसके अतिरिक्त उनके खुद के विधायक भी तेजस्वी के साथ जाने को तैयार थे। यानि कि तेजस्वी को हटाने की हिम्मत तो उनकी थी ही नहीं। जैसे ही वे उन्हें हटाते तेजस्वी सहानुभूति का फायदा उठाते और सारा गणित उलटा पड़ जाता।
खैर, अब जबकि नीतीश की कथित सुशासन बाबू की छवि और लालू के जातीय गणित की संयुक्त ढ़ाल तोड़ कर भाजपा ने बिहार में सेंध लगा दी है, वहां नई कुश्ती शुरू होगी। फिलहाल भले ही नीतीश ने कुर्सी बचा ली हो, मगर अगले चुनाव में उनको अपना खुद का जनाधार कायम रखना मुश्किल होगा। और अगर भाजपा कोई बहुत बड़ा ख्वाब देख रही है तो फिलहाल तो ये हवाई किला ही होगा, क्योंकि उसके पास मोदी लहर के अलावा कोई और बड़ा वजूद नहीं है, जो कि अगले चुनाव तक कितनी बाकी रहती है, कुछ नहीं कहा जा सकता।
-तेजवानी गिरधर
7742067000

बुधवार, जुलाई 19, 2017

पार्टी में बगावत के सुर उठे, तब जा कर झुकी सरकार

कुख्यात आनंदपाल के एनकाउंटर मामले में एक ओर जहां भाजपा का राजपूत वोट बैंक खिसकने का खतरा उत्पन्न हो गया था, वहीं पार्टी में भी बगावत के हालात पैदा हो गए थे, तब जा कर सरकार को मामले की सीबीआई जांच के लिए घुटने टेकने पड़े।
असल में राजपूत आंदोलन जिस मुकाम पर आ कर खड़ा हो गया था, वहां पार्टी के राजपूत विधायकों व मंत्रियों की स्थिति अजीबोगरीब हो गई थी। जिस जाति के नाम पर वे राजनीति कर सत्ता का सुख भोग रहे हैं, अगर वही जनाधार ही खिसकने की नौबत आ गई तो उनके लिए पार्टी में बने रहना कठिन हो गया। वे हालात पर गहरी नजर रखे हुए थे। कैसी भी स्थिति आ सकती थी। इसी बीच वरिष्ठ भाजपा नेता व विधायक नरपत सिंह राजवी मुखर हो गए। ज्ञातव्य है कि वे पूर्व उपराष्ट्रपति व पूर्व मुख्यमंत्री स्व. भैरोंसिंह शेखावत के जंवाई हैं और मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे से उनके राजनीतिक रिश्ते किसी से छिपे हुए नहीं हैं। उन्होंने प्रदेश नेतृत्व को दरकिनार करके सीधे राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह को पत्र लिख कर आनंदपाल मामले में राजपूतों पर पुलिस द्वारा की जा रही मनमानीपूर्ण कार्रवाई में दखल देने की मांग कर दी। उन्होंने कहा कि राजस्थान में राजपूत समाज के साथ पुलिस द्वारा अत्यंत निंदनीय बर्ताव किया जा रहा है। राजपूत समाज में असमंजस और आक्रोश की स्थिति उत्पन्न हो गई है। यह समाज अब तक के सभी चुनावों में 90 प्रतिशत तक पार्टी के साथ खड़ा रहा है, लेकिन दुख की बात है कि उसी भाजपा की सरकार में यही राजपूत समाज अपने आपको ठगा सा महसूस कर रहा है। इस पत्र के मायने साफ समझे जा सकते हैं। अगर सरकार सीबीआई जांच के लिए राजी नहीं होती तो अन्य विधायक भी मुखरित हो सकते थे।
शायद ही ऐसी भद पिटी किसी गृहमंत्री की
आनंदपाल मामले में गृहमंत्री गुलाब चंद कटारिया की जितनी भद पिटी, उतनी शायद ही किसी की पिटी हो। पहले जब आनंदपाल राजनीतिक संरक्षण की वजह से पकड़ से बाहर था तो उनसे जवाब देते नहीं बनता था और एनकाउंटर के बाद पुलिस कार्यवाही को सही बताते हुए सीबीआई जांच की मांग किसी भी सूरत में नहीं मानने पर अड़े तो मुख्यमंत्री के कहने पर उसी बैठक में सरकार की ओर से बैठना पड़ा, जिसमें सीबीआई जांच  का समझौता करना पड़ा। इससे बड़ी कोई विडंबना हो नहीं सकती। होना तो यह चाहिए कि इतनी किरकिरी के बाद उन्हें पद त्याग देना चाहिए। उनकी जिद के कारण ही आंदोलन इतना लंबा खिंचा, जिसमें हिंसा और जन-धन की हानि हुई। प्रदेश के कुछ हिस्सों में तो अराजकता की स्थिति उत्पन्न हो गई। एनकाउंटर को सही ठहराने के लिए पुलिस के तीन आला अधिकारियों को प्रेस वार्ता करनी पड़ी। खुद भी यही बोले कि अपनी पुलिस का मनोबल नहीं  गिरने दे सकता। चाहो हाईकोर्ट से जांच के आदेश करवा दो। और फिर यकायक यू टर्न ले लिया। सवाल ये उठता है कि अगर मांग माननी ही थी तो क्यों आनंदपाल के शव की दुर्गति करवाई? क्यों प्रदेश को हिंसक आंदोलन के मुंह में धकेला?
क्या पुलिस ने खो दिया है विश्वास?
क्या अब समय आ गया है कि पुलिसकर्मियों को अपने हथियार मालखाने में जमा करा देने चाहिए, क्योंकि अब पुलिस को दिए गए हथियारों के इस्तेमाल पर जनता को भरोसा नहीं रहा है। देशभर के न्यायालय, राजनेता, सामाजिक संगठना व मीडिया अब पुलिस के हथियारों के प्रयोग पर इतना गहरा संदेह करने लग गए हैं कि पुलिसकर्मी चाहे जितनी गोलियां खा कर घायल हो जाये, तब भी पुलिस के कामकाज पर भरोसा नहीं है। बहुत सोचनीय है कि सोसायटी पुलिस की बजाय खूंखार अपराधी के साथ खड़ी हो जाती है। वस्तुत: कुख्यात अपराधियों के साथ हुए तथाकथित एनकाउंटर की घटनाओं में सुप्रीम कोर्ट व सीबीआई की दखलंदाजी के बाद एनकाउंटर की थ्योरी गलत साबित होने लगी है व कई पुलिसकर्मी जेलों में बंद हुए हैं। क्या ऐसी स्थिति में पुलिस को जनता का विश्वास फिर से हासिल करने के बाद ही हथियारों का इस्तेमाल करना चाहिए? एक तरह से पुलिस की सच्चाई व अस्मिता पर बड़ा सवाल खड़ा हो गया है। इस पर यदि समय रहते गंभीर चिंतन कर रास्ता नहीं निकाला गया तो समाज को बहुत बुरे अंजाम देखने होंगे।
तेजवानी गिरधर
7742067000

वोट बैंक खोने के डर से मानी सीबीआई जांच की मांग

आखिरकार राज्य की वसुंधरा राजे सरकार ने राजपूतों की मांग मान ही ली। अब सरकार एनकाउंटर में मारे गए आनंदपाल के मामले की सीबीआई जांच कराने को तैयार हो गई है। अन्य सभी मांगों पर भी सहमति दे दी है। सवाल उठता है कि अगर ये मांगें माननी ही थीं, तो काहे तो आनंदपाल के पार्थिव शरीर की दुर्गति होने दी गई? काहे को इतना लंबा आंदोलन होने दिया गया? काहे को सांवराद में मुठभेड़ और हिंसा की नौबत पैदा होने दी गई? काहे को गृह मंत्री गुलाब चंद कटारिया के उस बयान की किरकिरी करवाई, जिसमें उन्होंने साफ कहा था कि हम तो सीबीआई की जांच नहीं करवाएंगे, चाहें तो इसके लिए हाईकोर्ट से आदेश करवा दें?
साफ दिखाई दे रहा है कि इस मामले से निपटने में वसुंधरा राजे के सलाहकार आरंभ से ही गलत दिशा में चल रहे थे। उन्हें अंदाजा ही नहीं था कि पूरा राजपूत समाज इस प्रकार एकजुट हो जाएगा। वे तो यही मान कर चल रहे थे कि राजपूत नेताओं के बीच किसी न किसी तरह से दोफाड़ कर दी जाएगी और आंदोलन टांय टांय फिस्स हो जाएगा। राजपूत नेताओं में मतभेद के प्रयास भी हुए, मगर आम राजपूत इतना उग्र हो गया था कि किसी भी नेता की हिम्मत नहीं हुई कि वह मुख्य धारा से हट सके। सरकार यह सोच कर चल रही थी कि आंदोलन को लंबा करवा कर उसे विफल करवा दिया जाएगा, मगर वह रणनीति भी कामयाब नहीं हो पाई। यह ठीक है कि सांवराद में हुई हिंसा के बाद लागू कफ्र्यू के बीच आनंदपाल के शव का अंतिम संस्कार करवाने में सरकार सफल हो गई, मगर वह भी उलटा पड़ गया। सरकार को यह लगा कि अंतिम संस्कार के बाद आंदोलन की हवा निकल जाएगी, मगर वह अनुमान भी गलत निकला। राजपूतों को यह कहने का मौका मिल गया कि सरकार ने अंत्येष्टि के लिए दमन का सहारा लिया। सोशल मीडिया पर आम राजपूत का गुस्सा फूटने लगा। हालत ये हो गई राजपूत भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के जयपुर दौरे के दौरान बड़ा जमावड़ा करने को आमादा हो गए। सरकार जानती थी कि लाख कोशिशों के बाद भी वह राजपूतों को जयपुर में एकत्रित न होने देने में कामयाब नहीं हो पाएगी।  और अगर रोकने के लिए पुलिस का सख्त रवैया अख्तियार किया जाता तो राजपूत अपनी अस्मिता को लेकर और उग्र हो जाता। इसका परिणाम ये होता कि भाजपा का यह परंपरागत वोट बैंक पूरी तरह से छिन्न-भिन्न हो जाता। आखिरकार सरकार को अपना स्टैंड बदल कर यू टर्न लेना पड़ा। इसमें गौर करने वाली बात ये है कि आरंभ से वसुंधरा राजे ने चुप्पी साध रखी थी। काफी दिन तक तो गृहमंत्री कटारिया भी मुखर नहीं हुए। और जब सामने आए तो ऐसे कि मानो उनसे मजबूत राजनेता कोई है ही नहीं। वे साफ तौर पर बोले कि वे अपनी पुलिस का मनोबल नहीं गिरा सकते। सीबीआई जांच की मांग किसी भी सूरत में नहीं मानी जाएगी। राजपूत चाहें तो इसके लिए हाईकोर्ट चले जाएं। उन्होंने ऐसा अहसास कराया, मानो उनके पास राजपूतों को कंट्रोल करने की कोई युक्ति हाथ आ गई है। मगर दो दिन बाद ही उनकी किरकिरी हो गई। उनकी फजीहत तो आनंदपाल के लंबे समय तक न पकड़े जाने के कारण भी होती रही और अब उसकी मृत्यु के बाद भी  घुटने टेकने को मजबूर हुए हैं।
आनदंपाल की गिरफ्तारी न हो पाने से लेकर आंदोलन से निपटने तक में पुलिस की नाकामी तो अपनी जगह है ही, सरकार इसके राजनीतिक पहलु को सुलझाने में भी विफल हो गई। कुल मिला कर अब यह साफ हो गया है कि सरकार ने अपना वोट बैंक खत्म हो जाने के डर से सीबीआई की जांच की मांग मानी है।
-तेजवानी गिरधर
7742067000

बुधवार, जून 28, 2017

हीरो कैसे बन गया आनंदपाल?

यह कहना आसान है, सही भी है कि जो आनंदपाल खुले आम दो बार पुलिस की हिरासत से भागा, जिस पर हत्या, लूट, अवैध हथियार रखने, शराब व हथियार तस्करी, संगठित माफिया के रूप में अवैध खनन जैसे सिद्ध आरोप थे, उसे महिमामंडित कैसे किया जा सकता है? परिवारजन की पीड़ा और एनकाउंटर की सीबीआई जांच सहज प्रतिक्रिया हो सकती है, उसे अन्यथा लिया भी नहीं जाना चाहिए, लेकिन अगर पूरा समाज के उसके साथ खड़ा हो गया है तो इसे गंभीरता से लेना और समझना होगा।
यह सर्वविदित है कि आनंदपाल पिछले ढ़ाई साल से सुर्खियों में रहा।  पुलिस के कब्जे से फरार होने के कारण और फिर उसे गिरफ्तार न कर पाने की पुलिस की नाकामयाबी के कारण भी। निश्चित रूप से उसके नहीं पकड़े जाने को लेकर राजस्थान पुलिस के साथ सरकार की खिल्ली भी उड़ रही थी। मगर जैसे ही वह एनकाउंटर में मारा गया तो पुलिस के गले में आ गई। सवाल सिर्फ ये है कि क्या उसका एनकाउंटर फर्जी था? और इसीलिए सीबीआई की जांच की मांग की जा रही है। मगर उससे भी बड़ा सवाल ये कि आखिर क्यों एक पूरा समाज यकायक लामबंद हो गया है? इसका सीधा सा अर्थ ये है कि वह मात्र खूंखार अपराधी ही नहीं था, बल्कि उसके राजनीतिक कनैक्शन भी थे। मीडिया में इस किस्म की चर्चा भी रही उसे भगाने व उसके गिरफ्तार न हो पाने की एक मात्र वजह उसकी चालाकी नहीं, बल्कि राजनीतिक संरक्षण भी था। और अगर राजनीतिक संरक्षण था तो यह भी बात माननी होगी कि जिन राजनीतिज्ञों ने उसे संरक्षण दिया हुआ था, वे जरूर उससे कोई न कोई लाभ उठा रहे थे। वह आर्थिक भी हो सकता है और समाज विशेष के वोटों की शक्ल में भी हो सकता है। वरना कोई राजनीतिज्ञ किसी को क्यों संरक्षण दे रहा था? एक ओर पुलिस पर आनंदपाल को गिरफ्तार करने का दबाव था तो दूसरी ओर उसके कथित कनैक्शन वाले राजनीतिज्ञों को डर था कि अगर वह गिरफ्तार हुआ तो कहीं उनके कनैक्शन न उजागर हो जाएं। ऐसे में आखिरी रास्ता एनकाउंटर ही था। एनकाउंटर के साथ ही बहुत से राजनीतिक राज राज की रह जाते हैं। इसमें कितनी सच्चाई है ये तो सीबीआई जांच में ही उजागर हो पाएगा। एनकाउंटर वास्तविक था, या फिर फर्जी, ये तो साफ होगा ही, कदाचित ये भी सामने आए कि आनंदपाल के किस प्रभावशाली व राजनीतिक व्यक्ति से ताल्लुकात रहे।
दैनिक भास्कर के स्थानीय संपादक डॉ. रमेश अग्रवाल ने इस बात को कुछ इन शब्दों में पिरो कर संकेत देने की कोशिश की है:- जातिवाद के शेर को पाल कर बड़ा करने वाले राजनीतिज्ञ शायद यह नहीं जानते कि शेर जब आदमखोर हो जाता है तो वह अपने पालने वाले को भी नहीं बख्शता।
डॉ. अग्रवाल ने एक बात और लिखी है कि अपराध को जब घोषित रूप से सही ठहराया जाने लगे, समझ लेना चाहिये उस समाज की नींवें हिल चुकी हैं। अपना ये मानना है कि नींवें अभी नहीं हिल रहीं, पहले से हिली हुई थीं, बस दिख नहीं रही थीं। कहने भर को हमारा लोकतंत्र दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है, मगर उसकी बुनियाद जातिवाद पर ही टिकी हुई है। क्या ये सच नहीं है कि आज की राजनीति पूरी तरह से बाहुबल और धनबल से ही संचालित है और वोटों का धु्रवीकरण जाति व धर्म के आधार पर होता है? ऐसे में अगर कोई खूंखार अपराधी पैदा होता है, तो उसकी जननी यही राजनीति है। इसे स्वीकार करना ही होगा।
रहा सवाल राज्य सरकार का तो भले ही उसकी नजर में एनकाउंटर आखिरी चारा था या पूरी तरह से उचित था, मगर मामले की सीबीआई जांच से कतराना दाल में काला होने का संकेत देता है। अगर सरकार व पुलिस सही है तो उसे सीबीआई जांच करवाने में कोई परहेज नहीं होना चाहिए। दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएगा।
-तेजवानी गिरधर
7742076000

गुरुवार, जून 22, 2017

तिवाड़ी ने खोला वसुंधरा के खिलाफ मोर्चा

अगर यह सही है कि प्रदेशभर के लाखों मोबाइल फोनों पर जो वॉइस मैसेज आ रहा है, वह वरिष्ठ भाजपा विधायक घनश्याम तिवाड़ी का ही है तो, यह अब साफ है कि पार्टी लाइन से हट कर चल रहे तिवाड़ी ने काफी जद्दोजहद के बाद अपनी ही पार्टी की मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे के खिलाफ आर-पार की जंग छेड़ दी है। इस वॉइस मैसेज में तिवाड़ी बता रहे हैं कि मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे जिस बंगले में निवास कर रही हैं, उसकी कीमत दो हजार करोड़ रुपए हैं और उन्होंने इस पर आजन्म कब्जा करने की कानूनी जुगत बैठा ली है। अर्थात अगर वे दुबारा मुख्यमंत्री नहीं भी बनती हैं तो भी उस पर काबिज रहेंगी, वह उनकी निजी संपत्ति होगी। तिवाड़ी का कहना है कि यह संपत्ति जनता की है और वे जतना के हित के साथ खिलवाड़ कत्तई बर्दाश्त नहीं करेंगे और इस सिलसिले में आगामी 25 जून को आंदोलन आरंभ करेंगे। उन्होंने इस आंदोलन में सहयोग की अपील की है।
ज्ञातव्य है कि इससे पूर्व काफी लंबे समय से तिवाड़ी सरकार, विशेष रूप से मुख्यमंत्री राजे के खिलाफ बोलते रहे हैं। इस पर प्रदेश भाजपा अध्यक्ष अशोक परनामी ने राष्ट्रीय अनुशासन समिति को शिकायत की थी, जिस पर समिति के अध्यक्ष गणेशीलाल ने तिवाड़ी को नोटिस दे कर दस दिन में जवाब मांगा। नोटिस में साफ तौर कहा गया है कि वे पिछले दो साल से लगातार पार्टी विरोधी गतिविधियों एवं पार्टी के विरुद्ध बयानबाजी करने में संलग्न हैं। पार्टी द्वारा आयोजित बैठकों में वे उपस्थित नहीं हो रहे और विपक्षी दलों के साथ मिलकर मंच साझा कर रहे हैं। इसके साथ ही नोटिस में यह भी बताया गया है कि वे समानांतर राजनीतिक दल का गठन करने के प्रयास में जुटे हैं। नोटिस की भाषा से ही स्पष्ट था पार्टी का रुख अब उनके प्रति क्या रहने वाला है। तिवाड़ी भी ये जानते थे और उन्होंने बहुत सोच समझ कर अपनी मुहिम को जारी रखा। नोटिस पर प्रतिक्रियास्वरूप तिवाड़ी ने जो पलटवार किया, उसी से ही लग गया था कि वे आरपार की लड़ाई के मूड में हैं। उन्होंने कहा कि प्रदेश अध्यक्ष अशोक परनामी जिस दीनदयाल वाहिनी के गठन को लेकर केंद्रीय नेतृत्व को मेरी अनुशासनहीनता की शिकायतें कर रहे हैं, उसका गठन 29 साल पहले सीकर में उस समय हो गया था, जब मैं विधायक था और परनामी राजनीति में कुछ नहीं थे। वे उस समय सिर्फ अगरबत्ती बेचते थे। उन्होंने कहा कि वे न तो डरेंगे और न ही झुकेंगे। भ्रष्ट सरकार के खिलाफ लड़ाई जारी रखेंगे। अपनी ही पार्टी की सरकार को भ्रष्ट करार देना कोई मामूली बात नहीं है।
हालांकि इस बीच वसुंधरा के प्रति वफादारी दिखाने वाले कुछ नेताओं ने तिवाड़ी पर आरोपों की झड़ी लगा दी, मगर इससे वे और अधिक मुखर हो गए।
अब जबकि वे खुल कर आंदोलन करने पर उतारु हो ही गए हैं तो लगता नहीं कि बीच का रास्ता निकलेगा। अगर उनको पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाया जाता है तो जाहिर तौर पर प्रदेश भाजपा की राजनीति के समीकरणों में बदलाव आएगा। इसके अतिरिक्त यह भी साफ हो जाएगा कि कौन उनके साथ है और कौन पार्टी के साथ। बाकी एक बात जरूर है कि आज जब कि पार्टी अच्छी स्थिति में है, उसके बाद भी तिवाड़ी ने जो दुस्साहस दिखाया है तो वह गौर करने लायक है।
-तेजवानी गिरधर
7742067000

गुरुवार, जून 15, 2017

मोदी का गृहराज्य गुजरात अब उतना आसान नहीं

हालांकि देश की राजनीति में इन दिनों मोदी ब्रांड धड़ल्ले से चल रहा है, ऐसे में यही माना जाना चाहिए कि उनका खुद का गृह राज्य गुजरात तो  सबसे सुरक्षित है, मगर धरातल का सच ये है कि भाजपा के लिए वहां हो रहे आगामी विधानसभा चुनाव बहुत आसान नहीं है। बेशक जब तक मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे, तब तक उन्होंने वहां अपनी जबरदस्त पकड़ बना रखी थी, मगर प्रधानमंत्री बनने के बाद वहां स्थानीय नेतृत्व सशक्त नहीं होने के कारण भाजपा का धरातल कमजोर हुआ है। इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि भाजपा को अपने सशक्त किले में ही मुख्यमंत्री को बदलना पड़ गया। हालांकि वहां अब भी भाजपा जीतने की स्थिति में है, मगर अंतर्कलह संकट का कारण बनी हुई है। गुजरात की राजनीति में थोड़ी बहुत समझ रखने वाले जानते हैं कि मोदी के पीएम बनने के बाद से ही राज्य में अमित शाह, आनंदीबेन पटेल और पुरुषोत्तम रूपाला की गुटबाजी बढ़ी है।
गुजरात में भाजपा के लिए सबसे बड़ी चुनौती आदिवासी नेताओं की उपेक्षा व भिलीस्तान हैं। गुजरात के अधिसंख्य राजनीतिक विशेषज्ञों के ताजा आलेखों पर नजर डालें तो वहां भाजपा के लिए पाटीदारों और दलितों के बाद आदिवासी समुदाय मुसीबत का बड़ा सबब बन सकता। आदिवासी इलाकों में भिलीस्तान आंदोलन खड़ा किया जा रहा है, जिसमें कुछ राजनीतिक दल एवं धार्मिक ताकतें आदिवासी समुदाय को हवा दे रही हैं। अब जबकि चुनाव का समय सामने है यही आदिवासी समाज जीत को निर्णायक बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाला है। हर बार चुनाव के समय आदिवासी समुदाय को बहला-फुसलाकर उन्हें अपने पक्ष में करने की तथाकथित राजनीति इस बार असरकारक नहीं होगी। क्योंकि गुजरात का आदिवासी समाज बार-बार ठगे जाने के लिए तैयार नहीं है। इस प्रांत की लगभग 23 प्रतिशत आबादी आदिवासियों की हैं। देश के अन्य हिस्सों की तरह गुजरात के आदिवासी दोयम दर्जे के नागरिक जैसा जीवन-यापन करने को विवश हैं। यूं भले ही गुजरात समृद्ध राज्य है, मगर आदिवासी अब भी समाज की मुख्य धारा से कटे नजर आते हैं। इसका फायदा उठाकर मध्यप्रदेश से सटे नक्सली उन्हें अपने से जोड़ लेते हैं। महंगाई के चलते आज आदिवासी दैनिक उपयोग की वस्तुएँ भी नहीं खरीद पा रहे हैं। वे कुपोषण के शिकार हो रहे हैं। अगर भिलीस्तान आंदोलन को नहीं रोका गया तो गुजरात का आदिवासी समाज खण्ड-खण्ड हो जाएगा। इसके लिए तथाकथित हिन्दू विरोधी लोग भी सक्रिय हैं। इन आदिवासी क्षेत्रों में जबरन धर्मान्तरण की घटनाएं भी गंभीर चिंता का विषय है। यही ताकतें आदिवासियों को हिन्दू मानने से भी नकार रही है और इसके लिए तरह-तरह के षडयंत्र किये जा रहे हैं।
ऐसे में आदिवासियों का रुख मुख्यमंत्री विजय रूपाणी व भाजपा अध्यक्ष जीतू वाघानी के लिए तो चुनौती है ही, मोदी के लिए भी चिंता का विषय बना हुआ है। मोदी हालात से अच्छी तरह से वाकिफ हैं, इस कारण वे एक दर्जन बार गुजरात की यात्रा कर चुके हैं। मोदी ने आदिवासी कॉर्निवल में आदिवासी उत्थान और उन्नयन की चर्चाएं की, मगर धरातल तक राहत पहुंचने में वक्त लग सकता है। ऐसे में तेजी से बढ़ता आदिवासी समुदाय को विखण्डित करने का हिंसक दौर आगामी विधानसभा चुनावों का मुख्य मुद्दा बन सकता है और एक समाज और संस्कृति को बचाने की मुहिम इन विधानसभा चुनावों की जीत का आधार बन सकती है।
-तेजवानी गिरधर
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