यह कहना आसान है, सही भी है कि जो आनंदपाल खुले आम दो बार पुलिस की हिरासत से भागा, जिस पर हत्या, लूट, अवैध हथियार रखने, शराब व हथियार तस्करी, संगठित माफिया के रूप में अवैध खनन जैसे सिद्ध आरोप थे, उसे महिमामंडित कैसे किया जा सकता है? परिवारजन की पीड़ा और एनकाउंटर की सीबीआई जांच सहज प्रतिक्रिया हो सकती है, उसे अन्यथा लिया भी नहीं जाना चाहिए, लेकिन अगर पूरा समाज के उसके साथ खड़ा हो गया है तो इसे गंभीरता से लेना और समझना होगा।
यह सर्वविदित है कि आनंदपाल पिछले ढ़ाई साल से सुर्खियों में रहा। पुलिस के कब्जे से फरार होने के कारण और फिर उसे गिरफ्तार न कर पाने की पुलिस की नाकामयाबी के कारण भी। निश्चित रूप से उसके नहीं पकड़े जाने को लेकर राजस्थान पुलिस के साथ सरकार की खिल्ली भी उड़ रही थी। मगर जैसे ही वह एनकाउंटर में मारा गया तो पुलिस के गले में आ गई। सवाल सिर्फ ये है कि क्या उसका एनकाउंटर फर्जी था? और इसीलिए सीबीआई की जांच की मांग की जा रही है। मगर उससे भी बड़ा सवाल ये कि आखिर क्यों एक पूरा समाज यकायक लामबंद हो गया है? इसका सीधा सा अर्थ ये है कि वह मात्र खूंखार अपराधी ही नहीं था, बल्कि उसके राजनीतिक कनैक्शन भी थे। मीडिया में इस किस्म की चर्चा भी रही उसे भगाने व उसके गिरफ्तार न हो पाने की एक मात्र वजह उसकी चालाकी नहीं, बल्कि राजनीतिक संरक्षण भी था। और अगर राजनीतिक संरक्षण था तो यह भी बात माननी होगी कि जिन राजनीतिज्ञों ने उसे संरक्षण दिया हुआ था, वे जरूर उससे कोई न कोई लाभ उठा रहे थे। वह आर्थिक भी हो सकता है और समाज विशेष के वोटों की शक्ल में भी हो सकता है। वरना कोई राजनीतिज्ञ किसी को क्यों संरक्षण दे रहा था? एक ओर पुलिस पर आनंदपाल को गिरफ्तार करने का दबाव था तो दूसरी ओर उसके कथित कनैक्शन वाले राजनीतिज्ञों को डर था कि अगर वह गिरफ्तार हुआ तो कहीं उनके कनैक्शन न उजागर हो जाएं। ऐसे में आखिरी रास्ता एनकाउंटर ही था। एनकाउंटर के साथ ही बहुत से राजनीतिक राज राज की रह जाते हैं। इसमें कितनी सच्चाई है ये तो सीबीआई जांच में ही उजागर हो पाएगा। एनकाउंटर वास्तविक था, या फिर फर्जी, ये तो साफ होगा ही, कदाचित ये भी सामने आए कि आनंदपाल के किस प्रभावशाली व राजनीतिक व्यक्ति से ताल्लुकात रहे।
दैनिक भास्कर के स्थानीय संपादक डॉ. रमेश अग्रवाल ने इस बात को कुछ इन शब्दों में पिरो कर संकेत देने की कोशिश की है:- जातिवाद के शेर को पाल कर बड़ा करने वाले राजनीतिज्ञ शायद यह नहीं जानते कि शेर जब आदमखोर हो जाता है तो वह अपने पालने वाले को भी नहीं बख्शता।
डॉ. अग्रवाल ने एक बात और लिखी है कि अपराध को जब घोषित रूप से सही ठहराया जाने लगे, समझ लेना चाहिये उस समाज की नींवें हिल चुकी हैं। अपना ये मानना है कि नींवें अभी नहीं हिल रहीं, पहले से हिली हुई थीं, बस दिख नहीं रही थीं। कहने भर को हमारा लोकतंत्र दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है, मगर उसकी बुनियाद जातिवाद पर ही टिकी हुई है। क्या ये सच नहीं है कि आज की राजनीति पूरी तरह से बाहुबल और धनबल से ही संचालित है और वोटों का धु्रवीकरण जाति व धर्म के आधार पर होता है? ऐसे में अगर कोई खूंखार अपराधी पैदा होता है, तो उसकी जननी यही राजनीति है। इसे स्वीकार करना ही होगा।
रहा सवाल राज्य सरकार का तो भले ही उसकी नजर में एनकाउंटर आखिरी चारा था या पूरी तरह से उचित था, मगर मामले की सीबीआई जांच से कतराना दाल में काला होने का संकेत देता है। अगर सरकार व पुलिस सही है तो उसे सीबीआई जांच करवाने में कोई परहेज नहीं होना चाहिए। दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएगा।
-तेजवानी गिरधर
7742076000
यह सर्वविदित है कि आनंदपाल पिछले ढ़ाई साल से सुर्खियों में रहा। पुलिस के कब्जे से फरार होने के कारण और फिर उसे गिरफ्तार न कर पाने की पुलिस की नाकामयाबी के कारण भी। निश्चित रूप से उसके नहीं पकड़े जाने को लेकर राजस्थान पुलिस के साथ सरकार की खिल्ली भी उड़ रही थी। मगर जैसे ही वह एनकाउंटर में मारा गया तो पुलिस के गले में आ गई। सवाल सिर्फ ये है कि क्या उसका एनकाउंटर फर्जी था? और इसीलिए सीबीआई की जांच की मांग की जा रही है। मगर उससे भी बड़ा सवाल ये कि आखिर क्यों एक पूरा समाज यकायक लामबंद हो गया है? इसका सीधा सा अर्थ ये है कि वह मात्र खूंखार अपराधी ही नहीं था, बल्कि उसके राजनीतिक कनैक्शन भी थे। मीडिया में इस किस्म की चर्चा भी रही उसे भगाने व उसके गिरफ्तार न हो पाने की एक मात्र वजह उसकी चालाकी नहीं, बल्कि राजनीतिक संरक्षण भी था। और अगर राजनीतिक संरक्षण था तो यह भी बात माननी होगी कि जिन राजनीतिज्ञों ने उसे संरक्षण दिया हुआ था, वे जरूर उससे कोई न कोई लाभ उठा रहे थे। वह आर्थिक भी हो सकता है और समाज विशेष के वोटों की शक्ल में भी हो सकता है। वरना कोई राजनीतिज्ञ किसी को क्यों संरक्षण दे रहा था? एक ओर पुलिस पर आनंदपाल को गिरफ्तार करने का दबाव था तो दूसरी ओर उसके कथित कनैक्शन वाले राजनीतिज्ञों को डर था कि अगर वह गिरफ्तार हुआ तो कहीं उनके कनैक्शन न उजागर हो जाएं। ऐसे में आखिरी रास्ता एनकाउंटर ही था। एनकाउंटर के साथ ही बहुत से राजनीतिक राज राज की रह जाते हैं। इसमें कितनी सच्चाई है ये तो सीबीआई जांच में ही उजागर हो पाएगा। एनकाउंटर वास्तविक था, या फिर फर्जी, ये तो साफ होगा ही, कदाचित ये भी सामने आए कि आनंदपाल के किस प्रभावशाली व राजनीतिक व्यक्ति से ताल्लुकात रहे।
दैनिक भास्कर के स्थानीय संपादक डॉ. रमेश अग्रवाल ने इस बात को कुछ इन शब्दों में पिरो कर संकेत देने की कोशिश की है:- जातिवाद के शेर को पाल कर बड़ा करने वाले राजनीतिज्ञ शायद यह नहीं जानते कि शेर जब आदमखोर हो जाता है तो वह अपने पालने वाले को भी नहीं बख्शता।
डॉ. अग्रवाल ने एक बात और लिखी है कि अपराध को जब घोषित रूप से सही ठहराया जाने लगे, समझ लेना चाहिये उस समाज की नींवें हिल चुकी हैं। अपना ये मानना है कि नींवें अभी नहीं हिल रहीं, पहले से हिली हुई थीं, बस दिख नहीं रही थीं। कहने भर को हमारा लोकतंत्र दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है, मगर उसकी बुनियाद जातिवाद पर ही टिकी हुई है। क्या ये सच नहीं है कि आज की राजनीति पूरी तरह से बाहुबल और धनबल से ही संचालित है और वोटों का धु्रवीकरण जाति व धर्म के आधार पर होता है? ऐसे में अगर कोई खूंखार अपराधी पैदा होता है, तो उसकी जननी यही राजनीति है। इसे स्वीकार करना ही होगा।
रहा सवाल राज्य सरकार का तो भले ही उसकी नजर में एनकाउंटर आखिरी चारा था या पूरी तरह से उचित था, मगर मामले की सीबीआई जांच से कतराना दाल में काला होने का संकेत देता है। अगर सरकार व पुलिस सही है तो उसे सीबीआई जांच करवाने में कोई परहेज नहीं होना चाहिए। दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएगा।
-तेजवानी गिरधर
7742076000
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