तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

बुधवार, अक्टूबर 17, 2018

राजस्थान में बहुत जोर आएगा मोदी व शाह को

-तेजवानी गिरधर-
राजस्थान अब चुनाव के मुहाने पर खड़ा है। दोनों दलों में प्रत्याशियों के चयन की कवायद भी कमोबेश आरंभ हो गई है। माना यही जा रहा है कि राज्य में हर पांच साल में सत्ता बदलने का ट्रेंड ही कायम रहेगा। ऐसे में जहां कांग्रेस उत्साहित है तो वहीं मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे को यही यकीन है कि वे ट्रेंड को बदल कर दुबारा सत्ता पर काबिज हो जाएंगी। अब तक जो सर्वे हुए हैं, उससे तो यही लगता है कि भाजपा का फिर सत्ता में आना कठिन है। इसी से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी व भाजपा अध्यक्ष अमित शाह चिंतित हैं, क्यों कि अगर यहां भाजपा सत्ता से बेदखल हुई तो उसका असर आगामी लोकसभा चुनाव पर भी पड़ेगा। मोदी-शाह यही चाहते थे कि एंटी इन्कंबेंसी से बचने के लिए वसुंधरा राजे को साइड लाइन किया जाए, मगर बहुत प्रयासों के बाद भी वे ऐसा नहीं कर पाए। न केवल वसुंधरा राजे की सहमति से ही मदनलाल सेनी को प्रदेश अध्यक्ष घोषित करना पड़ा, अपितु यह भी ऐलान करना पड़ा कि आगामी चुनाव वसुंधरा के नेतृत्व में ही लड़ा जाएगा। उसके बाद आई ग्राउंड रिपोर्ट में यह तथ्य उभर कर आया है कि भाजपा का ग्राफ काफी नीचे गिर रहा है। उसे ऊंचा करने के लिए खुद मोदी व शाह को बहुत मशक्कत करनी होगी।
ज्ञातव्य है कि एक बड़े सर्वे का निष्कर्ष था कि कांग्रेस को 143 और भाजपा को मात्र 57 सीटें मिल पाएंगी। सट्टा बाजार भी कांग्रेस को लगभग 140-150 और भाजपा को मात्र 50-60 सीटें दे रहा है। धरातल कर सच भी ये है कि लोकसभा व विधानसभा उपचुनाव में भाजपा की करारी हार हुई। इससे वसुंधरा सरकार की चूलें हिल गईं। अगर उत्तर प्रदेश के उपचुनावों में भी बड़ी हार नहीं हुई होती, तो राजस्थान में नेतृत्व परिवर्तन तय था। राजस्थान के नए मुख्यमंत्री के नाम भी बाजार में आ गए थे, लेकिन उत्तर प्रदेश की हार वसुंधरा के लिए अभयदान साबित हुई। उस हार के आगे राजस्थान की अभूतपूर्व हार को, भाजपा आलाकमान को नजरअंदाज करना पड़ा और वसुंधरा राजे के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की जा सकी।
असल में भाजपा का ग्राफ गिरने के कई कारण हैं। बड़ी वजह तो ये है कि जो सपने दिखा कर वसुंधरा सत्ता में आई, वे धरातल पर नहीं उतर पाए।  इसके अतिरिक्त नोट बंदी व जीएसटी ने भी भाजपा के खिलाफ माहौल बनाया है। दो बड़े मामलों में तो वसुंधरा सरकार को यूटर्न लेना पड़ा। प्रेस के खिलाफ वसुंधरा राजे एक साल पहले काला कानून लाई थीं, तब पत्रकारों ने उस काले कानून के खिलाफ धरना प्रदर्शन किया था। राजस्थान पत्रिका ने तो सरकार की खबरों का बायकाट किया। आखिरकार सरकार को झुकना पड़ा तथा कानून वापस लेना पड़ा। दूसरे मामला था बाबा रामदेव का। उन्हें करोली में जमीन देने का फैसला इस कारण बदलना पड़ा क्योंकि कोर्ट ने साफ कर दिया कि मंदिर माफी की जमीन नहीं दी जा सकती।
वसुंधरा राजे पर सीधे हमले करने वाले वरिष्ठ नेता घनश्याम तिवाड़ी ने सबसे ज्यादा मुसीबत खड़ी की। वे विधानसभा के अंदर व बाहर लगातार वसुंधरा को घेरते रहे। मगर भाजपा हाईकमान की हिम्मत ही नहीं हुई कि उन पर कार्यवाही करे। आखिरकार तिवाड़ी ने खुद ही पार्टी छोड़ी और नई पार्टी बना कर सभी दो सौ सीटों पर चुनाव लडऩे का ऐलान कर दिया है। बात अगर गौरव यात्रा की करें तो बेशक इसके जरिए वसुंधरा ने हालात पर काबू करने की भरसक कोशिश की है, मगर यह यात्रा भी कुछ विवादों में आ गई। यात्रा में किए जा रहे सरकारी खर्च को लेकर हाईकोर्ट के दखल से सरकार की किरकिरी हुई।
हालांकि कुछ लोगों का आकलन है कि जिस चुनावी सर्वे में भाजपा की हालत पतली बताई गई है, वह कुछ पुराना हो चुका है। तब तक न तो मोदी की रैली हुई थी और न ही शाह के दौरे आरंभ हुए थे। वसुंधरा की गौरव यात्रा भी शुरू नहीं हुई थी। अब वह स्थिति नहीं रही होगी। जरूर भाजपा का जनाधार कुछ संभला होगा। लेकिन अब भी भाजपा सरकार दुबारा बनेगी, इसमें संशय है। इतना तो पक्का है कि स्थितियां उसके अनुकूल नहीं हैं। उन्हें ठीक करने के लिए मोदी-शाह को अतिरिक्त मेहनत करनी होगी।
चुनाव भले ही वसुंधरा के नेतृत्व में लड़ा जाए, मगर बड़े पैमाने पर मौजूदा विधायकों के टिकट काटने का कड़ा निर्णय लेना पड़ेगा। कुछ मंत्री भी चपेट में आ सकते हैं। कुल मिला कर मोदी व शाह को चुनावी रणनीति में बड़ा फेरबदल करना होगा। अकेले वसुंधरा के दम पर चुनाव जीतना कत्तई नामुमकिन लग रहा है, इस कारण दोनों स्वयं भी धरातल पर आ कर ज्यादा से ज्यादा जोर लगाना होगा। संभव है संघ के सहयोग से तिवाड़ी को कुछ सीटें दे कर राजी करने की कोशिश की जाए। वरिष्ठ नेता ओम प्रकाश माथुर की एंट्री हो सकती है। जैसे-जैसे चुनाव नजदीक आएंगे, भाजपा हाईकमान अपने पत्ते खोलेगी। वे क्या होंगे, इसका अनुमान लगाना कठिन है।

शुक्रवार, सितंबर 07, 2018

नोटबंदी की नाकामयाबी पर रिजर्व बैंक का ठप्पा

-तेजवानी गिरधर-
राजनीति में शुचिता व भ्रष्टाचार के प्रति जीरो टोलरेंस का आदर्श स्थापित करने का लुभावना वादा कर कांग्रेस का तख्ता पलट करने वाली भाजपा कालाधन खत्म करने के लिए नोटबंदी लागू करने का उद्घोष करने वाली भाजपा सरकार के मुंह पर रिजर्व बैंक ने ताला जड़ दिया है। रिजर्व बैंक की रिपोर्ट से अब यह पूरी तरह साफ हो गया है कि जिस मकसद से नोटबंदी लागू की गई, वह पूरी तरह से नाकामयाब हो गया। अफसोसनाक बात ये कि इसकी वजह से चौपट हुई अर्थव्यवस्था ने आम आदमी का जीवन इतना दूभर कर दिया है, जिससे वह आज तक नहीं उबर पाया है। रही सही कसर जीएसटी ने पूरी कर दी।
आपको याद होगा कि काला धन व भ्रष्टाचार के मुद्दे पर सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हजारे ने इतनी बड़ी मुहिम चलाई कि तत्कालीन कांग्रेस नीत सरकार बुरी तरह से घिर गई। चूंकि अन्ना के पास कोई राजनीतिक विकल्प नहीं था, इस कारण तब भाजपा ने इस मुद्दे को तत्काल लपक लिया और नरेन्द्र मोदी की ब्रांडिंग के साथ सत्ता पर कब्जा कर लिया। सत्ता हासिल करने के लिए मोदी ने अब तक का सबसे बड़ा व लुभावना सपना दिखाया कि यदि काला धन समाप्त किया जाए तो हर भारतीय के बैंक खाते में पंद्रह लाख रुपए जमा कराए जा सकते हैं। उसी काले धन को नष्ट करने के लिए मोदी ने यकायक बिना किसी कार्ययोजना के नोटबंदी लागू कर दी। पूरा देश हिल गया। करोड़ों लोग बैंकों के आगे भिखारियों की तरह लाइन में लग गए। कितनों की जान गई। हालात इतने बेकाबू हो गए कि सरकार नित नए आदेश जारी करने लगी, मगर समस्या सुरसा के मुंह की तरह बढ़ती ही गई।  नकद राशि के अभाव में कई युवाओं की शादियां टल गईं। तरल धन की कमी के चलते निर्माण कार्य करने वाले मजदूरों को उनका भुगतान तक नहीं कर पाए। हजारों लोग बेरोजगार हो गए। लघु उद्योग तो पूरी तरह से चौपट हो गए। सच तो ये है कि देश की पूरी अर्थव्यवस्था पंगु हो गई थी। मौका देख कर बैंक कर्मियों ने भी जम कर लूट मचाई। समझा जाता है कि बैंकों इतिहास में पहली बार इस प्रकार कर खुला भ्रष्टाचार हुआ। बदतर हालात देख कर मोदी समर्थकों ने कहना शुरू कर दिया कि अगर बैंक वाले बेईमानी पर नहीं उतरते तो नोटबंदी कामयाब हो जाती।
नोटबंदी लागू होते ही आम जनता की दुश्वारियां बढ़ीं तो हालात सामान्य होने के लिए पचास दिन की मोहलत मांगी। लोगों ने यह सोच कर सब्र रखा कि मोदी को एक बार काम करने का मौका दिया जाना चाहिए। आम आदमी परेशान तो था, मगर उसे खुशी थी कि मोदी पैसे वालों की आंतडिय़ां फाड़ कर काला धन लाने वाले हैं। मगर चंद दिन में ही यह अंदेशा हो गया था कि नोटबंदी बेकार होने वाली है।
ताजा रिपोर्ट के अनुसार सरकार ने कहा था कि ढाई साल में 1.2 लाख करोड़ रु. कालाधन बाहर आया। 3-4 लाख करोड़ और आएगा। मगर हुआ ये कि 99.3 प्रतिशत पुराने नोट वापस आ चुके हैं। जो 10,720 करोड़ रु. नहीं आए, उन्हें भी सरकार पूरी तरह कालाधन नहीं मान रही।
इसी प्रकार मोदी का दावा था कि भ्रष्टाचार को समाप्त करने के लिए नोटबंदी लागू की जा रही है, मगर हुआ ये कि पहले भ्रष्ट देशों में भारत 2016 में 79 नंबर पर था। अब 2017 में 81 पर पहुंच गया।
सरकार ने नोटबंदी की वजह से हो रही परेशानी से ध्यान बंटाने के लिए यह पैंतरा चला कि नोटबंदी से आतंकवाद की कमर टूट जाएगी। यह बात लोगों के गले भी उतरी। मगर सच्चाई ये है कि यह जुमला मात्र ही रहा। तथ्य ये है कि 8 नवंबर 2015 से नवंबर 2016 तक 155 आतंकी घटनाएं हुईं। इसके बाद 2017 तक 184 व 31 जुलाई 2018 तक 191 घटनाएं हुईं।
यदि सरकार को कोई सफलता हासिल भी हुई तो ये कि 2016 के मुकाबले 2017 में डिजिटल पेमेंट की राशि 40 प्रतिशत तक बढ़ी है। जुलाई 2018 तक 5 गुणा बढ़ोतरी।
कुल मिला कर यह साबित हो चुका है कि नोटबंदी लागू करने की एवज में जो फायदे गिनाए गए थे, वे पूरी तरह से फ्लाप साबित हुए हैं। न तो  आतंकवाद में कमी आई है और न ही भ्रष्टाचार कम हुआ है।
सवाल ये उठता है कि क्या रिजर्व बैंक की रिपोर्ट के बाद सरकार आम जन से माफी मांगेगी?

बुधवार, अगस्त 29, 2018

एक देश, एक चुनाव : सत्ता पर दुबारा काबिज होने की कवायद

-तेजवानी गिरधर-
भाजपा की एक देश एक चुनाव की कवायद भले ही चुनाव सुधार की दिशा में बढ़ती नजर आती है, मगर राजनीतिक जानकारों की दृष्टि में उसका साइलेंट एजेंडा एक बार फिर सत्ता पर काबिज होने की मंशा है। ज्ञातव्य है कि हाल ही यह खबर सुर्खियों में रही कि भाजपा लोकसभा चुनाव के साथ 11 राज्यों के विधानसभा चुनाव भी करवा लेना चाहती है। इस आशय की खबरें पूर्व में आती रहीं, मगर उस पर मंथन मात्र ही हुआ। हालांकि इस पर अभी सर्वसम्मति नहीं हो पाई है और न ही कोई ठोस प्रस्ताव तैयार हो पाया है, मगर भाजपा की कोशिश है कि किसी न किसी तरह इसे अमल में लाया जाए।
पार्टी सूत्रों का कहना है कि कम से कम सैद्धांतिक रूप से अगले साल लोकसभा चुनावों के साथ 11 राज्यों के विधानसभा चुनाव कराने का प्रयास किया जा सकता है। लोकसभा चुनावों के साथ 11 राज्यों के चुनाव कराने पर भाजपा शासित तीन राज्यों के चुनाव देर से कराया जा सकते हैं और 2019 में बाद में होने वाले कुछ राज्यों के चुनाव पहले कराए जा सकते हैं। ऐसे 11 राज्यों की पहचान की गई है। रहा सवाल ओडिशा, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और सिक्किम का तो वहां मतदान सामान्य तौर पर लोकसभा चुनावों के साथ होते हैं। झारखंड़, हरियाणा और महाराष्ट्र में भी चुनाव 2019 में अक्टूबर में होने हैं, ऐसे में वहां कुछ महीने पहले चुनाव कराए जा सकते हैं। जम्मू-कश्मीर में पहले से ही राज्यपाल शासन लगा हुआ है। ऐसे में वहां भी चुनाव लोकसभा चुनावों के साथ हो सकते हैं। मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ विधानसभाओं का कार्यकाल जनवरी 2019 में समाप्त हो रहा है। भाजपा की सोच है कि वहां कुछ समय के लिए राज्यपाल शासन लगाया जा सकता है ताकि वहां विधानसभा चुनाव अगले साल लोकसभा चुनाव के साथ हों। कांग्रेस शासित मिजोरम विधानसभा का कार्यकाल भी इस साल दिसंबर में समाप्त हो रहा है। ऐसे में इन 11 राज्यों- मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, मिजोरम, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, ओडिशा, झारखंड, हरियाणा, सिक्किम और अरुणाचल में एक साथ चुनाव कराए जा सकते हैं।
जहां तक चुनाव आयोग का सवाल है वह स्पष्ट कर चुका है कि वह दिसम्बर में लोकसभा चुनाव के साथ चार राज्यों में एक साथ चुनाव कराने में सक्षम है। यह बात उन्होंने मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, मिजोरम और राजस्थान में एक साथ चुनाव कराने के सवाल पर कही। आयोग के अनुसार लोकसभा चुनाव अप्रैल-मई 2019 में होने हैं, लेकिन स्थिति बन रही है कि इन्हें नवम्बर-दिसम्बर 2018 में कराया जा सकता है। ऐसे में ये चुनाव मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, मिजोरम और राजस्थान के विधानसभा चुनाव के साथ हो सकते हैं। फिलहाल, मिजोरम विधानसभा का कार्यकाल 15 दिसंबर को पूरा हो रहा है। वहीं, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान विधानसभा क्रमश: 5 जनवरी, 7 जनवरी और 20 जनवरी को अपना कार्यकाल पूरा कर लेंगी।
जानकारों का मानना है कि भाजपा की कोशिश है कि केन्द्र में उसकी सत्ता बरकरार रहे। उधर राजस्थान, मध्यप्रदेश व छत्तीसगढ़ के हालात ऐसे हैं कि अगर वहां नवंबर में चुनाव होते हैं तो एंटी इन्कंबेंसी फैक्टर के चलते भाजपा सत्ता से दूर रह सकती है। अगर ऐसा हुआ तो आगामी लोकसभा चुनाव में उसे दिक्कत आ सकती है। ये ऐसे राज्य हैं, जहां योजनाबद्ध कोशिश की जाए तो परिणाम भाजपा के अनुकूल आने की संभावना बनती है। भाजपा सोचती है कि अगर इन विधानसभाओं के चुनाव लोकसभा के साथ कराए जा सके तो राज्य स्तरीय फैक्टर कम हो जाएगा और मोदी की ब्रांडिंग काम आ जाएगी। हालांकि यह सही है कि केन्द्र सरकार की परफोरमेंस अच्छी नहीं रही है, इस कारण दुबारा सत्ता में आना आसान नहीं रहा, कम से कम पहले जैसी मोदी लहर तो नहीं चलने वाली, मगर अब भी मोदी का ब्रांड तो चल ही रहा है। भाजपा उसका लाभ लेना चाहती है।
जानकार सूत्रों के अनुसार मोदी एक-दो ऐसी जनकल्याणकारी योजनाएं लागू करने में मूड में हैं, जिनका बड़े पैमाने पर सीधे आम जनता को लाभ मिलेगा और उनकी नॉन परफोरमेंस की स्मृति धुंधली पड़ जाएगी। आशंका इस बात की भी है कि वोटों के धु्रवीकरण के लिए पाकिस्तान के साथ छेडख़ानी की भी जा सकती है।
स्वाधीनता दिवस पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ओर से दिए गए संबोधन में यदि केंद्र सरकार की ओर से अब तक किए गए काम विस्तार से रेखांकित हुए तो इसीलिए, क्योंकि यह लाल किले के प्राचीर से उनके वर्तमान कार्यकाल का आखिरी भाषण था। ऐसे भाषण में आम चुनाव निगाह में होना स्वाभाविक है और शायद इसीलिए उन्होंने अपनी सरकार की अब तक की उपलब्धियों का जिक्र करने के साथ ही खुद को देश को आगे ले जाने के लिए व्यग्र बताया। उन्होंने अपनी सरकार की भावी योजनाओं पर भी प्रकाश डाला। इनमें सबसे महत्वाकांक्षी योजना आयुष्मान भारत है। प्रधानमंत्री ने 25 सितंबर से इस योजना को लागू करने की करने की घोषणा करते हुए यह भी स्पष्ट किया कि प्रारंभ में तो यह योजना निम्न वर्ग के दस करोड़ परिवारों के लिए होगी, लेकिन बाद में निम्न-मध्यम, मध्यम और उच्च वर्ग भी इसके दायरे में आएंगे।
कुल मिला कर यही संकेत मिला कि प्रधानमंत्री खास तौर पर गरीबों, महिलाओं और किसानों यानी एक बड़े वोट बैंक को यह भरोसा दिलाना चाह रहे हैं कि वे सब उनकी सरकार की विशेष प्राथमिकता में हैं। साफ है कि एक तरह से प्रधानमंत्री लाल किले की प्राचीर से यह आग्रह भी कर गए कि उन्हें इस ऐतिहासिक स्थल पर तिरंगा फहराने का अवसर फिर से मिलना चाहिए।

सोमवार, जुलाई 23, 2018

राजस्थान में तो वसुंधरा ही भाजपा है

महारानी के आगे घुटने टेके मोदी व शाह ने

-तेजवानी गिरधर-
प्रदेश भाजपा अध्यक्ष पद से अशोक परनामी को हटाने और मदनलाल सैनी को कमान सौंपे जाने के बीच चली लंबी रस्साकशी की निष्पत्ति मात्र यही है कि राजस्थान में वसुंधरा ही भाजपा है और भाजपा ही वसुंधरा है। ज्ञातव्य है कि इंडिया इस इंदिरा एंड इंदिरा इज इंडिया की तर्ज पर पंचायती राज मंत्री राजेन्द्र सिंह राठौड़ एक बार इस आशय का बयान दे चुके हैं।
सर्वविदित है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी व पार्टी अध्यक्ष अमित शाह केंद्रीय कृषि राज्य मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत को प्रदेशाध्यक्ष बनाना चाहते थे, लेकिन मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे इस नाम पर सहमत नहीं थीं। इस चक्कर में प्रदेश अध्यक्ष पद ढ़ाई महीने से खाली पड़ा था। ऐसा नहीं कि हाईकमान ने वसुंधरा को राजी करने की कोशिश नहीं की, मगर महारानी राज हठ पर अड़ी रहीं। आखिरकार मोदी-शाह की पसंद पर वसुंधरा का वीटो भारी पड़ गया। यूं तो वसुंधरा पूर्व में भी मोदी से नाइत्तफाकी जाहिर कर चुकी हैं, मगर यह पहला मौका है, जबकि मोदी के प्रधानमंत्री व शाह के अध्यक्ष बनने के बाद किसी क्षत्रप ने उनको चुनौती दे डाली। न केवल चुनौती दी, अपितु उन्हें घुटने टेकने को मजबूर कर दिया। जिस पार्टी पर मोदी व शाह का जादू सिर चढ़ कर बोल रहा हो, उनके वजूद को एक राज्य स्तरीय नेता का इस प्रकार नकारना अपने आप में उल्लेखनीय है।
दरअसल मोदी के साथ वसुंधरा की ट्यूनिंग शुरुआती दौर में ही बिगड़ गई थी। हालांकि स्वयंसिद्ध तथ्य है कि मोदी लहर के कारण भाजपा को राजस्थान में बंपर बहुमत मिला, मगर वसुंधरा उसका पूरा श्रेय मोदी को देने के पक्ष में नहीं थीं। यह मोदी जैसे एकछत्र राज की महत्वाकांक्षा वाले नेता को नागवार गुजरा। उन्होंने कई बार वसुंधरा को राजस्थान से रुखसत करने की सोची, मगर कर कुछ नहीं पाए। इस आशय की खबरें कई बार मीडिया में आईं। आखिर विधानसभा चुनाव नजदीक आ गए। पार्टी को एक तो यह परेशानी थी कि प्रदेश भाजपा पर वसुंधरा ने कब्जा कर रखा है, दूसरा ये कि उसकी रिपोर्ट के अनुसार इस बार वसुंधरा के चेहरे पर चुनाव जीतना कठिन था। इसी ख्याल से प्रदेश अध्यक्ष परनामी पर गाज गिरी। मोदी व शाह वसुंधरा पर शिकंजा कसने के लिए गजेंद्र सिंह शेखावत को अध्यक्ष बनाना चाहते थे, मगर वसुंधरा ने उन्हें सिरे से नकार दिया। उनका तर्क था कि शेखावत को अध्यक्ष बनाने से भाजपा का जीत का जातीय समीकरण बिगड़ जाएगा। असल में उन्हें ऐसा करने पर जाटों के नाराज होने का खतरा था।
खैर, जैसे ही वसुंधरा ने विरोध का सुर उठाया तो मोदी व शाह और सख्त हो गए। उन्होंने इसके लिए सारे हथकंडे अपनाए, मगर राजनीति की धुरंधर व अधिसंख्य विधायकों पर वर्चस्व रखने वाली वसुंधरा भी अड़ ही गईं। पार्टी हाईकमान जानता था कि अगर वसुंधरा को नजरअंदाज कर अपनी पसंद के नेता को अध्यक्ष बना दिया तो पार्टी में दोफाड़ हो जाएगी। वसुंधरा के मिजाज से सब वाकिफ हैं। इस प्रकार की खबरें प्रकाश में आ चुकी हैं कि राजनाथ सिंह के पार्टी अध्यक्ष रहते हुए एक बार वसुंधरा जिद ही जिद में नई पार्टी बनाने का मानस बना चुकी थीं। आखिर उन्हें ही चुनाव की पूरी कमान सौंपनी पड़ी थी।
बहरहाल, अब जबकि वसुंधरा अपना वर्चस्व साबित कर चुकी हैं, यह साफ हो गया है कि अगला चुनाव उनके नेतृत्व में ही लड़ा जाएगा। इतना ही नहीं टिकट वितरण में भी उनकी ही ज्यादा चलने वाली है। संघ को तो उसका निर्धारित कोटा दे दिया जाएगा। साफ है कि अगर भाजपा जीती तो वसुंधरा ही फिर मुख्यमंत्री बनेंगी। जहां तक मदन लाल सैनी की भूमिका का सवाल है तो हैं भले ही वे संघ पृष्ठभूमि से, मगर वसुंधरा के आगे वे ज्यादा खम ठोक कर टिक नहीं पाएंगे। यानि कि अध्यक्ष पद पर चेहरे का बदलाव मात्र हुआ है, स्थिति जस की तस है। अर्थात मोदी-शाह की सारी कवायद ढ़ाक के तीन पात साबित हुई है।
रहा सवाल वसुंधरा के नेतृत्व में भाजपा के चुनाव लडऩे और परिणाम का तो यह स्पष्ट है कि उन्हें एंटी इन्कंबेंसी का सामना तो करना ही होगा। कांग्रेस भी अब मजबूत हो कर चुनाव मैदान में आने वाली है। वे किस दम पर पार्टी सुप्रीमो से टशल ले कर फिर सत्ता में आने का विश्वास जता रही हैं, ये तो वे ही जानें कि उनके पास आखिर कौन सा जादूई पासा है कि बाजी वे ही जीतेंगी।

सोमवार, जुलाई 09, 2018

ऐन चुनाव से पहले तिवाड़ी ने दिया भाजपा को झटका

-तेजवानी गिरधर-
यूं तो भाजपा के वरिष्ठ नेता घनश्याम तिवाड़ी पिछले काफी समय से पार्टी के अंदर व बाहर, विधानसभा के भीतर भी और जनता के समक्ष भी राज्य की मौजूदा भाजपा सरकार, विशेष रूप से मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे पर हमले बोलते रहे हैं, मगर अब ऐन चुनाव से ठीक पांच माह पहले ने पार्टी को तिलांजलि दे कर उन्होंने बड़ा झटका दिया है। इस पूरे प्रकरण में सर्वाधिक गौरतलब बात ये है कि तिवाड़ी लगातार सरकार की रीति-नीति पर प्रहार करते रहे, मगर भाजपा हाईकमान उनके खिलाफ कार्यवाही करने की हिम्मत नहीं जुटा पाया। मात्र अनुशासन समिति में जवाब-तलब होते रहे, मगर वह वसुंधरा के धुर विरोधी नेता के खिलाफ कदम उठाने से बचता रहा। अब जब कि तिवाड़ी पार्टी छोड़ कर नई पार्टी भारत वाहिनी का गठन कर सभी दो सौ विधानसभा सीटों पर अपने प्रत्याशी खड़े करने की घोषणा कर चुके हैं, भले ही भाजपा की ओर से यह कहा जा रहा हो कि उसको कोई नुकसान नहीं होगा, मगर इसके साथ सवाल ये भी उठता है कि अगर तिवाड़ी इतने ही अप्रभावी नेता हैं तो लगातार अनुशासन तोडऩे के बाद भी उनके विरुद्ध कार्यवाही करने से क्यों बचा गया?
असल में तिवाड़ी भाजपा के भीतर ही उस वर्ग के प्रतिनिधि थे, जो मूलत: संघ पोषित रहा है और जिसके कई नेताओं को वसुंधरा राजे बर्फ में दफ्न कर चुकी हैं। सच तो ये है कि संघ पृष्ठभूमि के कई प्रभावशाली नेता या तो काल कलवित हो गए या फिर महारानी शरणम् गच्छामी हो गए। कुछ ऐसे भी हैं, जो विरोधी तो हैं, मगर उनमें तिवाड़ी जैसा माद्दा नहीं और चुपचाप टाइम पास कर रहे हैं। तिवाड़ी उस सांचे या कहिये कि उस मिट्टी के आखिरी बड़े नेता बचे थे, जिन्होंने पार्टी के भीतर रह कर भी लगातार वसुंधरा का विरोध जारी रखा। वसुंधरा का आभा मंडल इतना प्रखर है कि उनका विरोध नक्कार खाने में तूती की सी आवाज बन कर रह गया। वे चाहते थे कि वसुंधरा उन्हें बाहर निकालें ताकि वे अपनी शहादत को भुना सकें, मगर वसुंधरा ने उन्हें ये मौका नहीं दिया। आखिर तिवाड़ी को खुद को ही पार्टी छोडऩे को मजबूर होना पड़ा। जाहिर तौर पर यह शह और मात का खेल है। इसमें कौन जीता व कौन हारा, यह तय करना अभी संभव नहीं, विशेष रूप से विधानसभा चुनाव से पहले, मगर इतना तय है कि उनके लगातार विरोध प्रदर्शन के चलते न केवल वसुंधरा की कलई उतरी, अपितु उनकी पूरी लॉबी, जो कि सरकार चला रही है, उसके नकारा होने को रेखांकित हुई है। जातीय समीकरण अथवा अन्य जोड़-बाकी-गुणा-भाग के लिहाज से तिवाड़ी का ताजा कदम क्या गुल खिलाएगा, ये तो वक्त ही बताएगा, मगर उन्होंने जिस आवाज की दुंदुभी बजाई है, वह सरकार के खिलाफ काम कर रही एंटी इन्कंबेंसी को और हवा देगी। तिवाड़ी ने जो मुहिम चलाई, उसका लाभ उनको अथवा उनकी पार्टी को कितना मिलेगा, कहा नहीं जा सकता, मगर इतना तय है कि उन्होंने कांग्रेस का काम और आसान कर दिया है। कांग्रेस के विरोध प्रदर्शन को राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता कहा जा सकता है, मगर चूंकि भाजपा के अंदर का ही खांटी नेता भी अगर वे ही मुद्दे उठा रहा है, तो इससे कांग्रेस के तर्कों पर ठप्पा लग गया है।
प्रसंगवश, यह चर्चा करना प्रासंगिक ही रहेगा कि भाजपा मूलत: दो किस्म की धाराओं की संयुक्त पार्टी है। विशेष रूप से राजस्थान में। इसमें एक धारा सीधे संघ की तथाकथित मर्यादित आचरण वाली है तो दूसरी वसुंधरा के शक्ति केन्द्र के साथ चल रही है, जहां साम-दाम-दंड-भेद जायज हैं। हालांकि पार्टी का मातृ संगठन संघ ही है, जिसकी भीतरी ताकत हिंदूवाद से पोषित होती है, मगर वसुंधरा के इर्द-गिर्द ऐसा जमावड़ा है, जिसका संघ से सीधा नाता नहीं है, या कहिये कि उस जमात ने पेंट के नीचे चड्डी नहीं पहन रखी है। संघ निष्ठों को यही तकलीफ है कि पार्टी उनके दम पर ही सत्ता में है, मगर उसमें सत्ता का मजा अधिसंख्य वे ही ले रहे हैं, जिन्होंने लालच में आ कर बाद में चड्डी पहनना शुरू किया है। कुल मिला कर पार्टी की कमान भले ही संघ के हाथ में है, जो कहने भर को है, मगर खुद संघ को भी वसुंधरा के साथ तालमेल करके चलना पड़ रहा है। जब से देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी व भाजपा अध्यक्ष अमित शाह बने हैं, तब से वसुंधरा नामक शक्ति केन्द्र को ध्वस्त करने की ख्वाहिश तो रही है, मगर उसमें अब तक कामयाबी नहीं मिल पाई है।
हालांकि यह कहना अभी जल्दबाजी होगा कि तिवाड़ी को ताकत सीधे संघ से ही मिल रही है या फिर संघ ही इस साजिश का सूत्रधार है, मगर इतना तय है कि तिवाड़ी उसी जनमानस को अपने साथ जोडऩे की कोशिश कर रहे हैं, जो संघ के नजदीक है। ऐसे में जो विश्लेषक उन्हें मात्र ब्राह्मण नेता मान कर राजनीतिक समीकरणों का आकलन कर रहे हैं, वे जरूर त्रुटि कर रहे हैं। वे सिर्फ ये देेख रहे हैं कि प्रदेश में 9 विधानसभा सीटें ब्राह्मण बाहुल्य वाली हैं और 18 से ज्यादा विधानसभा सीटों पर सर्वाधिक वोटरों की संख्या में ब्राह्मण वोटर नंबर 2 या 3 पर है, इन पर तिवाड़ी कितना असर डालेंगे? कुछ अंश में यह फैक्टर काम करेगा, मगर एक फैक्टर और भी दमदार काम करेगा। वो यह कि एंटी इन्कंबेंसी देखते हुए बड़ी संख्या में मौजूदा भाजपा विधायकों के टिकट काटे जाएंगे। ऐसे में पार्टी में भितरघात की स्थिति का फायदा तिवाड़ी की नई पार्टी को मिल सकता है। निश्चित रूप से वे जो भी वोट तोड़ेंगे, वे भाजपा के खाते से छिटकेंगे। भले ही तिवाड़ी की पार्टी का एक भी विधायक न जीत पाए, मगर भाजपा को तकरीबन 25 सीटों पर बड़ा नुकसान दे जाएंगे।

गुरुवार, जून 14, 2018

पेट्रोल चाहे जितने का हो जाए, वोट तो मोदी को ही दूंगा?

-तेजवानी गिरधर-
हाल ही जब केन्द्र की नरेन्द्र मोदी सरकार ने चार साल पूरे किए तो स्वाभाविक रूप से कांग्रेस ने सरकार की उपलब्धि शून्यता पर हंगामा किया, जो कि विपक्ष का फर्ज भी है, मगर साथ ही भाजपा वाले, जिन्हें कि मोदी भक्त कहना ज्यादा उपयुक्त होगा, भी पूरा राशन पानी लेकर सोशल मीडिया पर तैयार थे। हर सरकार अपनी उपलब्धियां गिनाती है, उसमें कुछ भी गलत नहीं है, मगर यदि दलीलें तर्क की पराकाष्ठा को पार कर जाएं तो उस पर ध्यान जाना स्वाभाविक ही है।
असल में भाजपा वाले भी ये जानते हैं कि जिन मुद्दों को लेकर मोदी प्रचंड बहुमत के साथ सरकार पर काबिज हुए, उनमें सरकार पूरी तरह से विफल रही है। मगर वे तो इस बात से आत्मविमुग्ध हैं कि आज मोदी ने चार साल पूरे कर लिए और यह इच्छा भी बलवती है कि अगले साल के बाद आने वाले पांच साल भी मोदी ही राज करें, भले ही कोई उपलब्धि हो या नहीं। और जब विपक्ष सरकार की अनुपलब्धि पर सवाल करे तो पूरी ढि़ठाई के साथ ऐसे जवाब देना ताकि उससे केवल और केवल हिंदुत्व मजबूत हो व पक्के वोट नहीं बिखरें।
आप जरा तर्क देखिए:- पेट्रोल चाहे जितने का हो जाए, मगर मैं तो मोदी को ही वोट दूंगा। कल्पना कीजिए कि ये वे ही लोग हैं कि जो मात्र एक रुपया बढ़ जाने पर भी आसमान सिर पर उठा लेते थे, मगर आज जब पेट्रोल अस्सी को भी पार कर गया है तो इसमें उन्हें कुछ भी अनुचित नहीं लगता। वे जानते हैं कि पेट्रोल के दाम इतने ऊंचे होने और कमरतोड़ महंगाई के साथ अन्य अनेक मुद्दों पर सरकार की विफलता के कारण जनता पर छाया मोदी का जादू खत्म हो सकता है तो वे इसके लिए ऐसे तर्क जुटा रहे हैं ताकि मोदी का नशा बरकरार रहे।
एक बानगी देखिए:- मोदी ने महंगाई बढ़ा रखी है, व्यापार में दिक्कत है, जीएसटी रिटर्न भरने में परेशानी है, महंगा कर रखा है, आरक्षण खत्म नहीं किया, राम मंदिर नहीं बनवाया, 15 लाख नहीं दिए, अच्छे दिन नहीं आए, नोटबन्दी की वजह से जनता मरी, फलाना-ढ़ीकाना। इसलिए अब हम मोदी की दुकान बंद कराएंगे, आने वाले चुनाव में वोट नहीं देंगे।
बंधुओं, रही मोदी की दुकान बंद कराने की बात, तो आपको बता दें कि मोदी की उम्र अब 67 वर्ष है और उनके पीछे न परिवार है और बीवी-बच्चे। उन्होंने जिंदगी में जो पाना था वो पा लिया है। अब अगर आप वोट नहीं भी देंगे और वो हार भी जाएंगे, तब भी वो पूर्व प्रधानमंत्री कहलाएंगे, आजीवन दिल्ली में घर, गाड़ी, पेंशन, एसपीजी सुरक्षा, कार्यालय मिलता रहेगा। दस-पंद्रह साल जीकर चले जाएंगे। लेकिन सवाल ये उठता है कि आप क्या करेंगे? जब कांग्रेस+लालू+मुलायम+मायावती+ममता+केजरीवाल मिल कर इस देश का इस्लामीकरण और ईसाईकरण करेंगे, रोहिंग्याओं को बसाएंगे, भगवा आतंकवाद जैसे नए-नए शब्द बनेंगे और आतंकवादी सरकारी मेहमान बनेंगे। हिंदुओं का खतना करवाएंगे, मुसलमानों को आरक्षण देंगे, लव जिहाद को बढ़ावा देंगे, पप्पू देश लूट कर इटली घूमने जायेगा।
मोदी तो संतोष के साथ मरेंगे कि मैंने एक कोशिश तो की अपना देश बचाने की, लेकिन आप लोग तो हर दिन मरेंगे, और अंतिम सांस कैसे लेंगे? अपने बच्चों के लिए कैसा भारत छोड़ कर मरेंगे? जरा विचार कीजिए और तब निर्णय लीजिए।
ऐसी ही अनेक बानगियां पूरे सोशल मीडिया पर छायी हुई हैं, जिनमें सीधे-सीधे तर्क की बजाय कि भी प्रकार मोदी की भक्ति ही साफ नजर आती है।
कुल मिला कर इन तर्कों से समझा जा सकता है कि उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि कितनी महंगाई है, कितनी बेरोजगारी है, लोग कितने परेशान हैं, उन्हें तो इस बात से मतलब है कि पहली बार सरकार पर काबिज भाजपा व हिंदुत्व को पोषित करने वाले मोदी कैसे सरकार में बने रहें। उन्हें इससे भी कोई मतलब नहीं कि अच्छे दिन आए या नहीं, चाहे बुरे से बुरे दिन ही क्यों आ जाएं, उन्हें तो केवल इससे सरोकार है कि मोदी ब्रांड के दम पर हिंदुत्व वाली विचारधारा सरकार पर सवार हो गई। इससे यह भी आभास होता है कि जनता से जुड़ी आम समस्याओं के निवारण में असफल होने के कारण उन्हें भाजपा सरकार के दुबारा न आने का अंदेशा है, लिहाजा आखिरी विकल्प के रूप में हिंदुत्व के नाम पर येन-केन-प्रकारेण धु्रवीकरण करना चाह रहे हैं। यदि वाकई मोदी सरकार की उपलब्धियां होतीं या फिर मोदी ने जिन जुमलों पर सवार हो कर सरकार पर कब्जा किया, उनके पूरा होने का बखान करते। तर्क के साथ बताते कि मोदी ने ये किया, वो किया। विपक्ष सरकार को विफल बताए, उस पर आप भरोसा करें न करें, खुद वे ही अप्रत्यक्ष रूप से बखान कर रहे हैं कि हां, मोदी असफल हैं, मगर चूंकि वे हिंदुत्व को पोषित कर रहे हैं, इस कारण उन्हें अगली बार भी प्रधानमंत्री बनाएं। यानि कि जनहित के मुद्दों से ध्यान हटा कर कोशिश यही की जा रही है कि किसी भी प्रकार हिंदुत्व के नाम पर लोगों को एकजुट किया जाए।
चलो, ये मान भी लिया जाए कि हर पार्टी को अपने हिसाब से जनता को आकर्षित करने का अधिकार है, चाहे हिंदुत्व के नाम पर चाहे जातिवाद के नाम पर, मगर असल सवाल ये है कि क्या यह वास्तविक लोकतंत्र है? जिसमें जनता की जरूरतों के मुद्दे तो ताक पर रखे जा रहे हैं और कोरी भक्ति के नाम पर तिलिस्म कायम किया जा रहा है।

मंगलवार, मई 08, 2018

... फिर भी लाखों लोग आसाराम के मुरीद क्यों हैं?

-गिरधर तेजवानी-
नाबालिगा के साथ दुष्कर्म के आरोपी संत आसाराम अब सजायाफ्ता कैदी हैं। कोर्ट ने उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनाई है। अस्सी साल की उम्र में उम्र कैद का सीधा सा अर्थ ये है कि मृत्यु पर्यंत उन्हें कैद में रहना होगा। कोर्ट के इस फैसले से जहां कानून का इकबाल ऊंचा हुआ है, करोड़ों लोग इस फैसले से संतुष्ट हैं, वहीं लाखों लोग ऐसे भी हैं, जो अब भी उन्हें निर्दोष मानते हैं और कोई गुरू के रूप में तो कोई भगवान के रूप में पूजता है। कैसा विरोधाभास है? न्यायालय की ओर से दोषी करार दिए जाने के बाद भी उनके भक्त अंध श्रद्धा के वशीभूत हैं। आखिर ऐसी क्या वजह है कि निकृष्टमत अपराध के बाद भी लोग अपराधी के प्रति श्रद्धा से लबरेज हैं। भक्तों की अगाध श्रद्धा का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि वे इस बारे में कोई तर्क नहीं सुनना चाहते। इतनी दृढ़ आस्था आखिर क्यों कर है? हम भारतवासी तो फिर भी इस विरोधाभास को पी सकते हैं, मगर सोचिए कि अमेरिका में बैठा व्यक्ति क्या सोचता होगा? कैसा देश है भारत? कैसा है भारतवासियों का मिजाज? अपराधी को पूजा जा रहा है?
असल में इस प्रकरण को रावण प्रकरण की रोशनी में देखें तो आसानी से समझ आ जाएगा कि यह विरोधाभास क्यों है। रावण के बारे में कहा जाता है कि वह प्रकांड पंडित, महाशक्तिवान व चतुर राजनीतिज्ञ था। उसकी महिमा अपार थी। मगर अकेले परनारी के प्रति आसक्ति के भाव ने उसको नष्ट होने की परिणति तक पहुंचा दिया। अकेले एक दोष ने उसकी सारी महिमा को भस्मीभूत कर दिया। इससे यह समझ में आता है कि महान से महान व सर्वगुण संपन्न व्यक्ति भी बुद्धि पथभ्रष्ट होने पर अपराध कर सकता है और अपराध किए जाने पर दंडित उसी तरह से होता है, जैसा कि आम आदमी।
आसाराम के मामले में देखिए। जेल में जाने से पहले तक बड़े-बड़े राजनीतिज्ञ, सीनियर आईएएस, यहां तक कि न्यायाधिकारी तक उनकी महिमा का गुणगान किए नहीं थकते थे। मीडियाकर्मी भी उनके भक्त रहे हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, जब गुजरात के मुख्यमंत्री थे, तब का आसाराम के साथ का वीडियो सोशल मीडिया खूब चला। ऐसे ही अनेक धार्मिक व राजनीतिक नेताओं के साथ के फोटो फेसबुव वाट्सऐप पर छाए हुए हैं।  जेल जाने के बाद राजनीति भी हुई और कुछ हिंदू नेताओं ने उनसे मिलने बाद कहा कि उनके साथ साजिश हुई है। इसके लिए सोनिया गांधी तक को जिम्मेदार ठहराया गया, कि ईसाइयत का विरोध करने की वजह से उन्हें फंसाया। मगर अब हालत ये है कि कांग्रेस नीत सरकार गए चार साल हो गए हैं और भाजपा की सरकार है तो भी उनकी खैर खबर लेने वाला कोई नहीं है। मीडिया तो हाथ धो कर पीछे पड़ा है। ऐसा होना स्वाभाविक भी है, क्योंकि उनका कृत्य ही ऐसा रहा, जिसकी घोर निंदा होनी ही चाहिए।
बहरहाल, बड़ा सवाल ये कि आखिर क्यों लाखों लोगों को आसाराम निर्दोष नजर आते हैं। यदि दीवानगी की हद तक लोगों की श्रद्धा है तो इसका कोई तो कारण होगा ही। हम भले ही उन्हें अंधभक्त कहें या बेवकूफ करार दें, मगर उन लोगों ने जरूर आसाराम में कुछ देखा होगा, जो उन्हें सम्मोहित किए हुए है। केवल सम्मोहित ही नहीं, अपितु अनेकानेक लोगों के जीवन में परिवर्तन आ गया है। उनका व्यवहार पावन हो गया है। पूरा जीवन अध्यात्म की ओर रुख कर गया है। ऐसे अनेक उदाहरण हैं, जो कि पता नहीं झूठे हैं या सच, मगर उनमें यह बताया गया है कि विपत्ति के समय उन्होंने आसाराम को याद किया और उनकी परेशानी खत्म हो गई या टल गई। कई लोगों को तो उनमें भगवान के दर्शन होते हैं। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि जरूर आसाराम में कुछ ऐसे गुण रहे होंगे, विद्या रही होगी, जो भक्तों को प्रभावित करती है। इसी वजह से उनके अनन्य भक्त हैं। सरकार भी इस बात को जानती है, तभी तो उनको सजा सुनाए जाने वाले दिन अतिरिक्त सुरक्षा प्रबंध किए गए, ताकि उनके भक्त अराजकता न फैला दें।
आसाराम को पूर्वाभास भी होता था, जो कि एक वीडियो से परिलक्षित होता है। उसमें वे कहते दिखाई देते हैं कि उनके मन में जेल जाने का संकल्प आता है और उनका संकल्प देर-सवेर पूरा होता ही है। किस निमित्त, ये पता नहीं। आखिर हुआ भी यही।
खैर, उनमें चाहे जितने गुण रहे हों, मगर मात्र एक अवगुण ने उनकी जिंदगी नारकीय कर दी। अरबों-खरबों का उनका साम्राज्य छिन्न-भिन्न हो गया। उसी अवगुण अथवा कृत्य के कारण उनके सारे गुण दिखाई देना बंद हो गए। दूसरी ओर उनके भक्तों को वे तमाम गुण नजर आते हैं, जबकि एक कृत्य साजिश दिखाई देता है।
दुर्भाग्य से आसाराम की तरह अन्य अनेक संत भी गंभीर आरोपों के कारण जेल में हैं। उनका भी अरबों का धार्मिक साम्राज्य बिखर गया है। इन सब की कटु आलोचना इस कारण है कि जो व्यक्ति दूसरों को सदाचार की सीख देता है, जिसके लाखों अनुयायी हैं, अगर वही कदाचार में लिप्त हो जाता है, तो वह घोर निंदनीय है।
कुल जमा बात ये है कि जिस कुकृत्य की वजह से आसराम को आजीवन कैद की सजा सुनाई गई है, उसने उनके जीवन का एक तरह से अंत ही कर दिया है। दूसरा ये कि कोई व्यक्ति कितना भी प्रभावशाली क्यों न हो, कानून के सामने वह एक सामान्य व्यक्ति है। अपराध करेगा तो दंड का भागी होगा ही। ताजा फैसले से कानून की प्रभुसत्ता स्थापित हुई है, जो हर आम-ओ-खास के लिए एक नजीर व सबक है।

मोदी के सामने खम ठोक कर खड़ी हैं वसुंधरा

पिछले विधानसभा व लोकसभा चुनाव से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी व राजस्थान की मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे के बीच चल रही नाइत्तफाकी आखिर आगामी विधानसभा चुनाव से सात माह पहले परवान चढ़ गई है। यूं तो कई बार इस आशय की राजनीतिक अफवाहें उड़ीं कि मोदी वसुंधरा को जयपुर से हटा कर दिल्ली शिफ्ट करेंगे, मगर ऐसा कुछ हुआ नहीं। वजह थी वसुंधरा को डिस्टर्ब करना आसान नहीं था। उनकी राजस्थान पर अपनी निजी पकड़ है। अब जब कि विधानसभा चुनाव नजदीक हैं तो लोकसभा उपचुनाव में करारी हार के बाद स्वाभाविक रूप से भाजपा हाईकमान को यहां नए सिरे से जाजम बिछानी ही है। उसी के तहत प्रदेश अध्यक्ष अशोक  परनामी को हटाया गया, मगर नया अध्यक्ष कौन हो, इसको लेकर मोदी व वसुंधरा के बीच टकराव की नौबत आ ही गई। हालांकि इस टकराव का क्या अंजाम होगा, यह कहना मुश्किल है, मगर यह सुनिश्चित है कि वसुंधरा इतनी आसानी से हथियार डालने वाली नहीं हैं।
ज्ञातव्य है कि भाजपा हाईकमान से टकराव की हिम्मत वसुंधरा पूर्व में भी दिखा चुकी हैं, मगर तब भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह थे। तब भाजपा विपक्ष में होने के कारण कमजोर भी थी। इस कारण वसुंधरा के आगे हाईकमान को झुकना पड़ा। लंबे अरसे तक विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष किसी को नहीं बनने दिया। चुनावी साल में आखिरकार हाईकमान को मजबूर हो कर उन्हें ही पार्टी की कमान सौंपनी पड़ी। लेकिन जैसे ही मोदी लहर के साथ भाजपा पहली बार स्पष्ट बहुमत के साथ केन्द्र पर काबिज हुई और पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष मोदी के ही हनुमान अमित शाह को बनाया गया तो हाईकमान का पलड़ा काफी भारी हो गया। ऐसे में वसुंधरा को दिक्कतें आने लगीं। कई बार उन्हें हाईकमान के आगे मनमसोस कर चुप रहना पड़ा। बहुत प्रयासों के बाद भी अपने बेटे दुष्यंत को केन्द्र में मंत्री नहीं बनवा पायीं। मोदी लगातार इसी कोशिश में थे कि वसुंधरा सरंडर कर दें, मगर रजपूती महारानी का विल पॉवर कमजोर नहीं पड़ा।
ताजा विवाद नए प्रदेश अध्यक्ष को लेकर है। वसुंधरा को हाईकमान की ओर सुझाए जा रहे अध्यक्ष मंजूर नहीं हैं। वे अपने ही इशारे पर काम करने वाला अध्यक्ष चाहती हैं। उधर अमित शाह इस फिराक में हैं कि ऐसा अध्यक्ष बनाया जाए, जो केवल हाईकमान के कहने पर चले और वसुंधरा के आभामंडल का शिकार न हो। वस्तुत: भाजपा हाईकमान किसी भी सूरत में राजस्थान पर कब्जा बरकरार रखना चाहता है। वसुंधरा के फ्रंट पर रहते यह संभव नहीं है। वसुंधरा की पार्टी विधायकों व नेताओं पर तो पकड़ है, मगर जनाधार अब खिसक चुका है। उनके ताजा कार्यकाल में जातीय संतुलन भी काफी बिगड़ा है। ऐसे में उनके नेतृत्व में चुनाव लडऩे के जोखिम उठाया नहीं जा सकता। इसके लिए पार्टी को नए सिरे से तानाबाना बुनना होगा। बड़े पैमाने पर मौजूदा विधायकों के टिकट काटने होंगे। नए जातीय समीकरण बनाने होंगे। उसी के तहत परनामी का इस्तीफा हुआ, मगर नए अध्यक्ष की नियुक्ति को लेकर गाडी गेर में आ गई। इसका प्रमाण ये है कि हाईकमान को नया अध्यक्ष घोषित करने में देरी हो रही है। अब देखना ये है कि वह वसुंधरा कैसे सैट करता है।
बड़ा सवाल ये भी है कि क्या वसुंधरा को अब हटाने का दुस्साहस हाईकमान में है, वो भी तब जबकि चुनाव नजदीक हैं और लोकसभा उपचुनाव के परिणामों ने साबित कर दिया है कि राजस्थान में एंटी इंकंबेंसी फैक्टर काम कर रहा है। लगता यही है कि वह कोई अतिवादी कदम उठाने की स्थिति में नहीं हैं। अगर ऐसा हुआ तो भाजपा के दोफाड़ होने का अंदेशा है। यह सुविज्ञ है कि पिछली बार जब टकराव हुआ था तो इस आशय की खबरें तक आ चुकी थीं कि हाईकमान नहीं माना तो वे अलग पार्टी खड़ी कर लेंगी। ऐसे में बीच का ही रास्ता अपनाया जाएगा। वसुंधरा भी तभी मानेंगी, जब कि उन्हें विधानसभा चुनाव टिकट वितरण में आनुपातिक रूप से पर्याप्त सीटें मिलेंगी। हो सकता है कि वसुंधरा को अनुमान हो कि आखिरकार उन्हें हाईकमान के आगे झुकना होगा या समझौता करना पड़ेगा, मगर फिर भी वे खम ठोक कर खड़ी हैं। असल में उन्हें इस बात का बड़ा गुमान है कि भाजपा वह पार्टी है, जिसे खड़ा करने में उनकी माताजी स्वर्गीया श्रीमती विजयाराजे सिंधिया का अहम योगदान रहा है। इस नाते वे पार्टी की एक ट्रस्टी हैं और बाद में आगे आए नेता उन्हें पीछे नहीं धकेल सकते। इसके अतिरिक्त उन्होंने राजस्थान भाजपा पर मजबूत पकड़ बना रखी है। बहुत से विधायक उनके व्यक्तिगत अनुयायी हैं। और सबसे बड़ी बात ये कि मोदी व शाह कितने भी पावरफुल व शातिर क्यों न हों, मगर राजनीतिक चालों में वसुंधरा भी कम नहीं हैं। राजनीति उनके खून में है। ऐसी महारानी भला इतनी आसानी से कैसे झुक सकती हैं।
-गिरधर तेजवानी

बुधवार, अप्रैल 25, 2018

सांप्रदायिकता व जातिवाद की पराकाष्ठा से गुजर रहा है देश

-तेजवानी गिरधर-
यह सही है कि सांप्रदायिकता व जातिवाद हमारे देश की प्रमुख समस्याओं में से हैं, और ये अरसे से कायम हैं, मगर विशेष रूप से इन दिनों ये पराकाष्ठा को छूने लगी हैं। गनीमत है कि हमारा संविधान कठोर व स्पष्ट है और सामाजिक व्यवस्था में विशेष किस्म की उदारता व सहिष्णुता है, वरना स्थिति इतनी भयावह है कि गृह युद्ध छिड़ जाए या देश के टुकड़े हो जाएं।
तेजवानी गिरधर
कठुआ की घटना को ही लीजिए। कैसी विडंबना है कि वीभत्स बलात्कार व हत्या जैसे जघन्य अपराधों को भी अब संप्रदाय से जोड़ कर देखा जा रहा है। दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र और प्रगतिशील कहलाने वाला हमारा देश आज कैसे दुष्चक्र में फंसा हुआ है। इस तरह के दुष्चक्र पहले भी चलते रहे हैं, मगर सत्ता के संरक्षण में आज जो कुछ हो रहा है, वह बेहद अफसोसनाक है। हालत ये है कि संयुक्त राष्ट्र संघ को ऐसे मामले में दखल देना पड़ रहा है। भारी दबाव में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के कड़े रुख के बाद जरूर जिम्मेदार राजनेता रेखांकित हुए, मगर तब तक आक्रोष पूरे देश में फैल चुका है।
यूं हमारे देश के बहुसंख्यक नागरिक शांति प्रिय हैं, मगर उन्हें बरगलाने वाले साधन अब बहुत अधिक हो गए हैं। सूचना के आदान-प्रदान का काम जब केवल प्रिंट व इलैक्ट्रॉनिक मीडिया के पास रहा, तब तक वे मर्यादा की सीमा से बंधे हुए रहे, कमोबेश अब भी हैं, मगर जब से सोशल मीडिया का बोलबाला है, किसी पर कोई अंकुश ही नहीं रहा। वाट्स ऐप व फेसबुक सांप्रदायिकता व जातिवाद के साथ राजनीतिक विद्वेष वाली पोस्टों से भरे पड़े हैं। भड़ास निकालने का स्तर इतना घटिया हो चला है कि ऐसा प्रतीत होता है कि मानो हम पूरी तरह से अराजक हो गए हैं। समय-समय पर सरकारों की ओर से चेतावनियां दी जाती हैं, पुलिस आखिरी हथियार के रूप में साइबर सेवाओं को कुछ दिन के लिए ठप कर देती हैं, मगर कानून का भय तो मानो बच ही नहीं गया है। आज अगर सांप्रदायिकता चरम पर है तो उसकी बड़ी वजह ये है कि सांप्रदायिक लोग ऊलजलूल हरकतें करके अपने आपको गौरवान्वित महसूस करते हैं। दुर्भाग्य से उन्हें शाबाशी देने वाले भी कम नहीं हैं। सरकार पर उनका कोई नियंत्रण नहीं। कभी कभी तो लगता है कि कहीं राजनीतिक लाभ के लिए जानबूझ कर समाज में ध्रुवीकरण को बढ़ावा तो नहीं दिया जा रहा।
पिछले दिनों एससी एसटी के मामले में सुप्रीम कोर्ट की व्यवस्था के बाद जिस प्रकार देश जल उठा, उससे तो हिंदू भी आपस में बंटा नजर आया। जैसे ही उसका राजनीतिकरण हुआ, सत्तारूढ़ भाजपा भी घबरा गई। उसे लगने लगा कि पिछले कई साल की मशक्कत के बाद मुख्य धारा से जोड़ा गया कुछ प्रतिशत अनुसूचित जाति का तबका कहीं छिटक न जाए। एक ओर तो वह कट्टर हिंदूवाद के अंदरूनी दबाव में है तो दूसरी ओर अनुसूचित जाति की मिजाजपुर्सी के लिए अंबेडकवाद को पूजने को मजबूर है। अंबेडकर के नाम पर अब क्या कुछ नहीं हो रहा। एक ओर संघ प्रमुख मोहन भागवत के आरक्षण विरोध विचार का कड़वा घूंट पिया जा रहा है तो दूसरी ओर राजनीतिक घाटा होते देख आरक्षण समाप्त नहीं किए जाने की ताबड़तोड़ बयानबाजी देनी पड़ रही है। आरक्षण का पूरा दोष कांग्रेस पर मढ़ तो दिया जाता है, मगर संस्कारवान पीढ़ी बनाने की दुहाई देने वाले दुनिया के सबसे बड़े स्वयंसेवी संगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ वाले इस देश में सामाजिक समरसता कायम नहीं की जा सकी है। गांवों में आज भी सामाजिक स्तर पर अनुसूचित जाति का तबका दमन का शिकार है। आपको ख्याल होगा कि पिछले दिनों एससी एसटी आंदोलन के दौरान सर्वाधिक पूजित हनुमान जी के चित्र के साथ घृणित दुव्र्यवहार होने का वीडियो वायरल हुआ तो उस पर बड़ा विवाद हुआ, मगर इसका किसी के पास जवाब नहीं था कि हनुमान जी और अन्य देवी-देवताओं के मंदिरों में प्रवेश नहीं करने देने के लिए कौन जिम्मेदार है? जब हम उन्हें मंदिर में जोने से रोकते हैं तो यह उम्मीद कैसे करके बैठे हैं कि जिन देवी-देवताओं को हम रोजाना श्रद्धा से पूजते हैं, उनको वे भी पूजनीय मानेंगे। अर्थात कड़वी सच्चाई यही है कि हमारी सामाजिक व्यवस्था आज भी पिछड़ों को बराबरी का दर्जा नहीं दे रही, केवल कानूनी रूप से ही पिछड़े आगे लाए जा रहे हैं। कानून का दुरुपयोग अगर हो रहा है तो उसकी वजह यही है कि हम मानसिक रूप से पिछड़ों को स्वीकार नहीं कर रहे, ऐसे में वे अतिरेक करने पर आमादा हो जाते हैं।
केवल अनुसूचित जातियां ही क्यों, हिंदुओं की अन्य जातियां भी अलग-अलग केन्द्रों पर ध्रुवीकृत हो चुकी हैं। यही वजह है कि चुनावों में टिकटों का निर्धारण ही जातियों के आधार पर हो रहा है।
कुल जमा सांप्रदायिकता व ऊंच-नीच की इस समस्या का समाधान इस कारण नहीं हो पा रहा है कि हमारी राजनीतिक व्यवस्था उसमें सहयोग करने की बजाय बढ़ावा देने पर आमादा है। ऐसे में इस देश का भगवान ही मालिक है।

शुक्रवार, मार्च 23, 2018

वसुंधरा को न निगलते बन रहा है, न उगलते

-तेजवानी गिरधर-
हाल ही संपन्न लोकसभा उपचुनाव में 17 विधानसभा क्षेत्रों में बुरी तरह से पराजित होने के बाद भाजपा सकते में है। न तो वह यह निश्चय कर पा रही है कि मोदी लहर कम हो गई है और न ही ये कि यह केवल मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे की अकुशल शासन व्यवस्था का परिणाम है। आरएसएस खेमा जहां इस हार को वसुंधरा के अब तक के शासन काल के प्रति जनता की नाराजगी से जोड़ कर देख रही है तो वहीं वसुंधरा खेमा यह मानता है कि ऐसे परिणाम आरएसएस की चुप्पी की वजह से आये हैं। असलियत ये है कि यह दोनों ही तथ्य सही है। एक सोची समझी रणनीति के तहत इस उपचुनाव को पूरी तरह से वसुंधरा राजे के मत्थे मढ़ दिया गया, जिसमें प्रत्याशियों के चयन से लेकर चुनावी रणनीति व प्रचार का जिम्मा वसुंधरा पर ही था। आरएसएस की चुप्पी असर ये हुआ कि घर-घर से मतदाता को निकाल कर वोट डलवाने का माहौल कहीं भी नजर नहीं आया। यह सही है कि एंटी इन्कंबेंसी फैक्टर ने काम किया गया, मगर संघ की अरुचि के कारण उसे रोका नहीं जा सका। दिलचस्प बात ये है कि भले ही इसे राज्य सरकार के प्रति एंटी इन्कंबेंसी से जोड़ा गया, मगर सच ये है कि इसमें मुख्य भूमिका केन्द्र सरकार की नोटबंदी व जीएसटी ने अदा की। अर्थात जनता की नाराजगी राज्य के साथ केन्द्र की सरकार के प्रति भी उजागर हुई। ऐसे में अकेले वसुंधरा को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा पा रहा।
आपको ज्ञात होगा कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की वसुंधरा के प्रति नाइत्तफाकी काफी समय से चल रही है और यही वजह है कि कई बार उनको हटा कर किसी और को मुख्यमंत्री बनाने की चर्चाएं हुईं। अब जबकि वसुंधरा के नेतृत्व में लड़े गए उपचुनाव में भाजपा चारों खाने चित्त हो गई तो यही माना जाना चाहिए कि भाजपा हाईकमान नई रणनीति के तहत वसुंधरा को हटाए, मगर ऐसा होना आसान नहीं लग रहा। इस तथ्य को आसानी से समझा जा सकता है कि आज जब वसुंधरा राजस्थान में हैं, तब भाजपा की ये हालत हुई है तो उन्हें दिल्ली बुलाए जाने पर क्या होगा। वसुंधरा के एरोगेंस के बारे हाईकमान अच्छी तरह से वाकिफ है। अगर उनके कद के साथ कुछ भी छेडख़ानी की जाती है तो वे किसी भी स्तर पर जा सकती हैं। अब दिक्कत ये है कि मजबूरी में भाजपा यदि वसुंधरा के चेहरे पर ही चुनाव लड़ती है तो परिणाम नकारात्मक आने का खतरा है और हटाती है तो और भी अधिक नुकसान हो सकता है। कुल मिला कर भाजपा ही हालत ये है कि वसुंधरा न निगलते बन रही है और न ही उगलते। यदि वजह है कि वसुंधरा के नेतृत्व में ही नई सोशल इंजीनियरिंग पर काम हो रहा है। मंत्रीमंडल में फेरबदल पर गंभीरता से विचार हो रहा है। डेमेज कंट्रोल के लिए पिछले दिनों किरोड़ी लाल मीणा की पूरी पार्टी का भाजपा में विलय होना इसी कवायद का हिस्सा है। ऐसा करके भाजपा ने मीणा समाज को जोडऩे का काम किया है। भाजपा अभी आनंदपाल प्रकरण से नाराज राजपूतों व वरिष्ठ नेता घनश्याम तिवाड़ी के कारण छिटक रहे ब्राह्मण समाज को भी साधने की जुगत में लगी हुई है। कदाचित इसी वजह से राजपूत व ब्राह्मण समाज से एक-एक उप मुख्यमंत्री तक की अफवाहें फैल रही हैं। हालांकि यह एक फार्मूला है, मगर अन्य फार्मूलों पर भी चर्चा हो रही है। संभव है, जल्द ही मंत्रीमंडल का नया स्वरूप सामने आ जाए।
राजनीति में कब क्या होगा, कुछ नहीं कहा जा सकता। हो सकता है कि वसुंधरा पर इतना दबाव बना दिया जाए कि वे राजस्थान छोड़ कर दिल्ली जाने को राजी हो जाएं, मगर जिस तरह की हलचल चल रही है, उसे देखते हुए नहीं लगता कि पार्टी इतना बड़ा कदम उठाने का दुस्साहस करेगी। हद से हद ये होगा कि वसुंधरा यथावत रहेंगी और मोदी व पार्टी अध्यक्ष अमित शाह के दबाव में विधानसभा चुनाव में संघ कोटे की सीटें बढ़ा दी जाएं। आगे आगे देखते हैं होता है क्या?

गुरुवार, मार्च 08, 2018

मन से भगाए बिना नहीं भागेगा विधानसभा से भूत

-तेजवानी गिरधर-
भूत होते हैं या नहीं, इस पर विवाद सदैव से रहा है। भूतों को मानने वालों के पास इसका कोई सबूत नहीं है तो नहीं मानने वाले भी विपदा के समय आखिरी चारा न होने पर ऊपरी हवा का उपचार करवाने ओझाओं की शरण में चले जाते हैं। यह एक सीधी सट्ट सच्चाई है। पिछले दिनों विधानसभा में भूतों की मौजूदगी की अफवाह के चलते न केवल तांत्रिकों से जांच-पड़ताल करवाई गई, अपितु इस चर्चा को लेकर खूब हंसी-ठिठोली भी हुई। प्रिंट व इलैक्टॉनिक मीडिया ने तो इसका महा कवरेज किया ही, सोशल मीडिया पर भी यह मुद्दा छाया रहा। विधायकों व नेताओं की जितनी सामूहिक छीछालेदर हुई, उतनी शायद ही कभी हुई हो।
स्वाभाविक रूप से इक्कसवीं सदी में जबकि, विज्ञान व तकनीकी अपने चरम पर हैं, भूतों की बात बेमानी लगती है। सार्वजनिक मंच की बात करें तो वहां भूत अंधविश्वास के सिवाय कुछ भी नहीं, मगर सच्चाई इसके सर्वथा विपरीत है। अध्ययन-अध्यापन में कहीं भी भूतों की पुष्टि नहीं की जाती, मगर सच ये है कि भूत की मौजूदगी हमारी मान्यताओं में है और उसे कोई भी नकार नहीं सकता। यह एक कड़वी सच्चाई है कि विधायक हों या नेता, या फिर आम आदमी, आम तौर पर भूत की मौजदगी की सर्वस्वीकार्यता है। तभी तो तांत्रिक व ओझाओं की झाड़-फूंक परंपरा कायम है। वस्तुत: बातें भले ही हम वैज्ञानिक युग की करें, मगर जब भी लाइलाज बीमारी या रहस्यपूर्ण आदिभौतिक समस्या आती है तो डॉक्टरों से इलाज के साथ तांत्रिकों व पीर-फकीरों की शरण में चले जाते हैं। यद्यपि इस सबका ग्राफ गिरा है, मगर भूतों अथवा ऊपरी हवा की मान्यता नकारी नहीं जा सकी है।  आपने कई बार ये भी सुना होगा कि अमुक बंगले में भूत का वास है, इस कारण वहां कोई नहीं रहता।
भूत-प्रेत से इतर बात करें तो यह सर्वविदित है कि हमारे नेतागण राजनीति चमकाने अथवा टिकट हासिल करने के लिए बाबाओं, ज्योतिषियों व तांत्रिकों के देवरे ढोकते हैं। इसे अन्यथा नहीं लिया जाता। यानि कि सारी की सारी अवैज्ञानिक मान्यताओं को हमारे समाज से सहमति दे रखी है। वास्तु को तो वैज्ञानिक मान्यता की तरह लिया जाने लगा है, जबकि आज भी उसका सटीक वैज्ञानिक व तर्कयुक्त आधार नहीं है। इसको लेकर कई तरह की भ्रांतियां हैं, मगर हम अपने निजी जीवन में उसे स्वीकार करते ही हैं। पूर्ण स्वीकार्यता भी नहीं और पूर्ण अस्वीकार्यता भी नहीं। पैंडुलम जैसी स्थिति है। 
ऐसे में अगर विधानसभा भवन में भूत-प्रेत अथवा वास्तुदोष का शगूफा छूटता है तो उस पर हम असहज हो जाते हैं। मीडिया तो ल_ लेकर ही पीछे पड़ जाता है। इसके विपरीत अगर हम मीडिया कर्मियों के निजी जीवन में झांकें तो वे भी कहीं न कहीं ऊपरी हवा से निजात के लिए तंत्र-मंत्र इत्यादि का सहज इस्तेमाल करते दिखाई दे जाएंगे। क्या यह सही नहीं है कि हम अपने घर में अज्ञात कारण से होने वाली अशांति से निपटने के लिए सुंदरकांड का पाठ नहीं करवाते? क्या ज्योतिषी के बताने पर पितरों की शांति के लिए अनुष्ठान नहीं करवाते? पुष्कर के निकट सुधाबाय में तो बाकायदा मंगल चौथ के दिन मेला भरता है और कुंड में डुबकी लगवा कर कथित रूप से प्रेत-बाधा से मुक्ति दिलवाने वालों का तांता लगा रहता है।
लब्बोलुआब, बात ये है कि हम निजी जीवन में तो पारंपरिक अंध विश्वासों को लिए हुए जीते हैं, मगर सार्वजनिक मंच पर उसका विरोध करने लगते हैं। यानि कि हम दोहरा चरित्र जी रहे हैं। न तो पूर्ण विज्ञान परक हो पाए हैं और न ही पुरानी परंपराओं को छोड़ पाए हैं। ऐसे में विधानसभा में भूतों की रहस्यमयी समस्या को लेकर बहस बेमानी सी लगती है।

शुक्रवार, फ़रवरी 09, 2018

हार के बाद भी भाजपा को हुआ फायदा

भीलवाड़ा जिले की मांडल विधानसभा सीट सहित अजमेर व अलवर की सभी विधानसभा सीटों को मिला कर कुल सभी 17 सीटों पर भाजपी की करारी हार से बेशक भाजपा को तगड़ा झटका लगा है और उसका मोदी फोबिया उतर गया है, मगर राजनीति के जानकार मानते हैं कि इस उपचुनाव से भाजपा को फायदा ही हुआ है।
जानकारों का मानना है कि दो लोकसभा सीटों व एक विधानसभा सीट के हारने से सीटों की गिनती के लिहाज से केन्द्र व राज्य की सरकारों को कुछ खास नुकसान नहीं हुआ है, मगर इससे ये खुलासा हो गया है कि न तो अब मोदी लहर कायम है और न ही वसुंधरा राजे की लोकप्रियता शेष रही है। एंटी इन्कंबेंसी के फैक्टर ने भी तगड़ा काम किया है। कांग्रेस मुक्त भारत के जुमले की जुगाली करने वाले भाजपाइयों का दंभ भी टूटा है। सब कुछ मिला कर भाजपा को विधानसभा चुनाव से दस माह पहले ही अपनी जमीन खिसकने की जानकारी मिल गई है। अगर ये उपचुनाव नहीं होते तो कदाचित भाजपा भ्रम में ही रहती और सीधे विधानसभा चुनाव हुए होते तो शर्तिया तौर पर सत्ता से बेदखल हो जाती। अब जबकि उसे जमीनी हकीकत पता लग गई है तो उसे संभलने का पूरा मौका मिल गया है। अब वह न केवल अपने पहले से मौजूद सांगठनिक ढ़ांचे को और मजबूत बनाएगी, अपितु चुनाव परिणामों को प्रभावित करने वाले सभी पहलुओं पर गंभीरता से विचार कर लेगी। अब बाकायदा नए सिरे से जाजम बिछाएगी। जातीय समीकरण भी साधेगी और मौजूदा विधायकों की गंभीरता से स्क्रीनिंग करेगी।
उधर कांग्रेस को बड़ा फायदा ये हुआ है कि वह अब पूरी तरह से उत्साह से लबरेज हो गई है। मगर साथ ही यह भी आशंका है कि कहीं सत्ता आने की संभावना में उसका कार्यकर्ता सुस्त न हो जाए। वैसे पहली बार प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सचिन पायलट ने मेरा बूथ मेरा गौरव अभियान चला कर पार्टी का चुनावी ढ़ांचा मजबूत कर लिया है। इसका लाभ निश्चित रूप से विधानसभा चुनाव में होगा, मगर संदेह ये भी उत्पन्न होता है कि कहीं अति उत्साह में कार्यकर्ता ढ़ीला न पड़ जाए।

बुधवार, फ़रवरी 07, 2018

कांग्रेस के हौसले बुलंद, भाजपा को बिछानी होगी नई जाजम

उपचुनाव में सत्तारूढ़ भाजपा की करारी हार के साथ कांग्रेस के हौसले बुलंद हो गए हैं। तकरीबन चार साल साल पहले विधानसभा चुनाव में जो कांग्रेस चारों खाने चित्त हो गई थी और मृत प्राय: सी थी, वह प्रदेश अध्यक्ष सचिन पायलट के नेतृत्व में पूरे जोश के साथ फिर खड़ी हो गई है। हालांकि  विधानसभा चुनाव अभी दूर हैं और तब न जाने कौन से समीकरण बनेंगे, मगर जिस तरह मांडलगढ़ सहित अजमेर व अलवर की सभी विधानसभा सीटों पर कांग्रेस ने बढ़त हासिल की है, उससे उसके कार्यकर्ताओं में अगला चुनाव जीत सकने का विश्वास भर दिया है। दूसरी ओर भाजपा इन परिणामों से हतप्रभ है और अगले चुनाव में जीत के लिए उसे मौजूदा जाजम को हटा कर नई जाजम बिछानी होगी, केवल पैबंद लगाने से काम नहीं चलेगा। बेशक उसके पास सशक्त संगठन है, फिर भी प्रत्याशियों के चयन में अतिरिक्त सावधानी बरतनी होगी। इसके अतिरिक्त एंटी इन्कंबेंसी फैक्टर को ध्यान में रखते हुए सरकार की कार्यप्रणाली में सुधार लाना होगा। यदि जनता को राहत नहीं मिली तो वह उसे पलटी खिला देगी। रहा सवाल मोदी लहर का तो वह पूरी तरह से समाप्त हो चुकी है, अलबत्ता अगला चुनाव मोदी को खुद मोनीटर करना होगा।
वसुंधरा के दिल्ली ट्रांसफर के आसार
राजस्थान में लोकसभा के दो व विधानसभा के एक उपचुनाव में भाजपा की हार के बाद यह पक्के तौर पर माना जा रहा है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जल्द ही मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे को दिल्ली बुला कर केबीनेट मंत्री बनाएंगे, ताकि राजस्थान में आगामी विधानसभा चुनाव से पहले नए सिरे से जाजम बिछाई जा सके।
हालांकि मोदी काफी समय से इस ताक में थे कि वसुंधरा को राजस्थान से हटाया जाए, मगर वे इतनी मजबूत रही हैं कि उन्हें हिलाने का साहस नहीं कर पाए। अब जब कि भाजपा तीन सीटों के उपचुनाव में बुरी तरह से हार गई है, मोदी को मौका मिल जाएगा। असल में मोदी व वसुंधरा की नाइत्तफाकी काफी समय से है, यही वजह है कि कई बार ये चर्चा हुई कि वसुंधरा को हटा कर ओम माथुर या राज्यवर्धन सिंह अथवा भूपेन्द्र यादव को मुख्यमंत्री बनाया जा सकता है। लेकिन हर बार कोई न कोई ऐसा कारण बन जाता था कि अफवाहों पर विराम लग जाता था। अब जब कि यह स्पष्ट हो गया है कि वसुंधरा का चेहरा आगामी विधानसभा चुनाव लड़ाने के लायक नहीं रहा है तो उन्हें हटा कर नए सिरे से जाजम बैठाना भाजपा की मजबूरी हो गया है। यदि उन्हें हटाने में कोई दिक्कत आती है तो इतना तय माना जा रहा है कि कम से कम विधानसभा चुनाव तो उनके नाम पर नहीं लड़ा जाएगा। इतना ही नहीं माना ये भी जा रहा है कि जीत सुनिश्चित करने के लिए मोदी एक सौ बांसठ विधायकों में से तकरीबन एक सौ मौजूदा विधायकों के टिकट काटने जैसा कड़ा कदम भी उठा सकते हैं, जाहिर तौर पर उसमें कई मंत्री भी होंगे।
सचिन पायलट ही होंगे मुख्यमंत्री पद के दावेदार
अजमेर सहित लोकसभा की दो सीटों व एक विधानसभा सीट पर कांग्रेस की शानदार जीत के बाद प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सचिन पायलट को आगामी विधानसभा चुनाव में मुख्यमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट किए जाने पर मुद्दे पर अंदरखाने मिल रही चुनौती पर विराम लग गया है।
इसमें कोई दो राय यह उपचुनाव सचिन के लिए विधानसभा चुनाव के सेमी फाइनल के रूप में अग्रि परीक्षा सा था। उन्होंने न केवल प्रत्याशियों के चयन में चतुराई बरती, अपितु रणनीति पर भी खूब काम किया। मेरा बूथ मेरा गौरव अभियान चला कर सभी छोटे-बड़े नेताओं को बूथ पर काम कर दिखाने को बांध दिया। नतीजतन अनुकूल परिणाम आए। समझा जाता है कि अब आगामी चुनाव उनके ही नेतृत्व में लड़े जाने की संभावना प्रबल हो गई। यह तो कांग्रेस हाईकमान पर निर्भर है कि वह उन्हें मुख्यमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट चुनाव लड़ती है अथवा नहीं, मगर यदि सरकार कांग्रेस की बनती है तो मुख्यमंत्री वे ही होंगे। कुछ लोगों ने उन पर अजमेर लोकसभा सीट का उपचुनाव लडऩे का दबाव बनाया, मगर चूंकि उन्हें राजस्थान की कमान सौंपने के मकसद से प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया था और उन्होंने चार साल में दिन-रात एक करके मृतप्राय: कांग्रेस में जान फूंकी, उन्होंने अपने आप को विधानसभा चुनाव के लिए सुरक्षित रख लिया। उनकी यह नीति काम आई और अब आगामी चुनाव उनके ही नेतृत्व में लड़े जाने व सरकार बनने पर मुख्यमंत्री बनने का रास्ता सुगम हो गया है।
-तेजवानी गिरधर-