-तेजवानी गिरधर-
यह सही है कि सांप्रदायिकता व जातिवाद हमारे देश की प्रमुख समस्याओं में से हैं, और ये अरसे से कायम हैं, मगर विशेष रूप से इन दिनों ये पराकाष्ठा को छूने लगी हैं। गनीमत है कि हमारा संविधान कठोर व स्पष्ट है और सामाजिक व्यवस्था में विशेष किस्म की उदारता व सहिष्णुता है, वरना स्थिति इतनी भयावह है कि गृह युद्ध छिड़ जाए या देश के टुकड़े हो जाएं।
कठुआ की घटना को ही लीजिए। कैसी विडंबना है कि वीभत्स बलात्कार व हत्या जैसे जघन्य अपराधों को भी अब संप्रदाय से जोड़ कर देखा जा रहा है। दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र और प्रगतिशील कहलाने वाला हमारा देश आज कैसे दुष्चक्र में फंसा हुआ है। इस तरह के दुष्चक्र पहले भी चलते रहे हैं, मगर सत्ता के संरक्षण में आज जो कुछ हो रहा है, वह बेहद अफसोसनाक है। हालत ये है कि संयुक्त राष्ट्र संघ को ऐसे मामले में दखल देना पड़ रहा है। भारी दबाव में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के कड़े रुख के बाद जरूर जिम्मेदार राजनेता रेखांकित हुए, मगर तब तक आक्रोष पूरे देश में फैल चुका है।
यूं हमारे देश के बहुसंख्यक नागरिक शांति प्रिय हैं, मगर उन्हें बरगलाने वाले साधन अब बहुत अधिक हो गए हैं। सूचना के आदान-प्रदान का काम जब केवल प्रिंट व इलैक्ट्रॉनिक मीडिया के पास रहा, तब तक वे मर्यादा की सीमा से बंधे हुए रहे, कमोबेश अब भी हैं, मगर जब से सोशल मीडिया का बोलबाला है, किसी पर कोई अंकुश ही नहीं रहा। वाट्स ऐप व फेसबुक सांप्रदायिकता व जातिवाद के साथ राजनीतिक विद्वेष वाली पोस्टों से भरे पड़े हैं। भड़ास निकालने का स्तर इतना घटिया हो चला है कि ऐसा प्रतीत होता है कि मानो हम पूरी तरह से अराजक हो गए हैं। समय-समय पर सरकारों की ओर से चेतावनियां दी जाती हैं, पुलिस आखिरी हथियार के रूप में साइबर सेवाओं को कुछ दिन के लिए ठप कर देती हैं, मगर कानून का भय तो मानो बच ही नहीं गया है। आज अगर सांप्रदायिकता चरम पर है तो उसकी बड़ी वजह ये है कि सांप्रदायिक लोग ऊलजलूल हरकतें करके अपने आपको गौरवान्वित महसूस करते हैं। दुर्भाग्य से उन्हें शाबाशी देने वाले भी कम नहीं हैं। सरकार पर उनका कोई नियंत्रण नहीं। कभी कभी तो लगता है कि कहीं राजनीतिक लाभ के लिए जानबूझ कर समाज में ध्रुवीकरण को बढ़ावा तो नहीं दिया जा रहा।
पिछले दिनों एससी एसटी के मामले में सुप्रीम कोर्ट की व्यवस्था के बाद जिस प्रकार देश जल उठा, उससे तो हिंदू भी आपस में बंटा नजर आया। जैसे ही उसका राजनीतिकरण हुआ, सत्तारूढ़ भाजपा भी घबरा गई। उसे लगने लगा कि पिछले कई साल की मशक्कत के बाद मुख्य धारा से जोड़ा गया कुछ प्रतिशत अनुसूचित जाति का तबका कहीं छिटक न जाए। एक ओर तो वह कट्टर हिंदूवाद के अंदरूनी दबाव में है तो दूसरी ओर अनुसूचित जाति की मिजाजपुर्सी के लिए अंबेडकवाद को पूजने को मजबूर है। अंबेडकर के नाम पर अब क्या कुछ नहीं हो रहा। एक ओर संघ प्रमुख मोहन भागवत के आरक्षण विरोध विचार का कड़वा घूंट पिया जा रहा है तो दूसरी ओर राजनीतिक घाटा होते देख आरक्षण समाप्त नहीं किए जाने की ताबड़तोड़ बयानबाजी देनी पड़ रही है। आरक्षण का पूरा दोष कांग्रेस पर मढ़ तो दिया जाता है, मगर संस्कारवान पीढ़ी बनाने की दुहाई देने वाले दुनिया के सबसे बड़े स्वयंसेवी संगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ वाले इस देश में सामाजिक समरसता कायम नहीं की जा सकी है। गांवों में आज भी सामाजिक स्तर पर अनुसूचित जाति का तबका दमन का शिकार है। आपको ख्याल होगा कि पिछले दिनों एससी एसटी आंदोलन के दौरान सर्वाधिक पूजित हनुमान जी के चित्र के साथ घृणित दुव्र्यवहार होने का वीडियो वायरल हुआ तो उस पर बड़ा विवाद हुआ, मगर इसका किसी के पास जवाब नहीं था कि हनुमान जी और अन्य देवी-देवताओं के मंदिरों में प्रवेश नहीं करने देने के लिए कौन जिम्मेदार है? जब हम उन्हें मंदिर में जोने से रोकते हैं तो यह उम्मीद कैसे करके बैठे हैं कि जिन देवी-देवताओं को हम रोजाना श्रद्धा से पूजते हैं, उनको वे भी पूजनीय मानेंगे। अर्थात कड़वी सच्चाई यही है कि हमारी सामाजिक व्यवस्था आज भी पिछड़ों को बराबरी का दर्जा नहीं दे रही, केवल कानूनी रूप से ही पिछड़े आगे लाए जा रहे हैं। कानून का दुरुपयोग अगर हो रहा है तो उसकी वजह यही है कि हम मानसिक रूप से पिछड़ों को स्वीकार नहीं कर रहे, ऐसे में वे अतिरेक करने पर आमादा हो जाते हैं।
केवल अनुसूचित जातियां ही क्यों, हिंदुओं की अन्य जातियां भी अलग-अलग केन्द्रों पर ध्रुवीकृत हो चुकी हैं। यही वजह है कि चुनावों में टिकटों का निर्धारण ही जातियों के आधार पर हो रहा है।
कुल जमा सांप्रदायिकता व ऊंच-नीच की इस समस्या का समाधान इस कारण नहीं हो पा रहा है कि हमारी राजनीतिक व्यवस्था उसमें सहयोग करने की बजाय बढ़ावा देने पर आमादा है। ऐसे में इस देश का भगवान ही मालिक है।
यह सही है कि सांप्रदायिकता व जातिवाद हमारे देश की प्रमुख समस्याओं में से हैं, और ये अरसे से कायम हैं, मगर विशेष रूप से इन दिनों ये पराकाष्ठा को छूने लगी हैं। गनीमत है कि हमारा संविधान कठोर व स्पष्ट है और सामाजिक व्यवस्था में विशेष किस्म की उदारता व सहिष्णुता है, वरना स्थिति इतनी भयावह है कि गृह युद्ध छिड़ जाए या देश के टुकड़े हो जाएं।
तेजवानी गिरधर |
यूं हमारे देश के बहुसंख्यक नागरिक शांति प्रिय हैं, मगर उन्हें बरगलाने वाले साधन अब बहुत अधिक हो गए हैं। सूचना के आदान-प्रदान का काम जब केवल प्रिंट व इलैक्ट्रॉनिक मीडिया के पास रहा, तब तक वे मर्यादा की सीमा से बंधे हुए रहे, कमोबेश अब भी हैं, मगर जब से सोशल मीडिया का बोलबाला है, किसी पर कोई अंकुश ही नहीं रहा। वाट्स ऐप व फेसबुक सांप्रदायिकता व जातिवाद के साथ राजनीतिक विद्वेष वाली पोस्टों से भरे पड़े हैं। भड़ास निकालने का स्तर इतना घटिया हो चला है कि ऐसा प्रतीत होता है कि मानो हम पूरी तरह से अराजक हो गए हैं। समय-समय पर सरकारों की ओर से चेतावनियां दी जाती हैं, पुलिस आखिरी हथियार के रूप में साइबर सेवाओं को कुछ दिन के लिए ठप कर देती हैं, मगर कानून का भय तो मानो बच ही नहीं गया है। आज अगर सांप्रदायिकता चरम पर है तो उसकी बड़ी वजह ये है कि सांप्रदायिक लोग ऊलजलूल हरकतें करके अपने आपको गौरवान्वित महसूस करते हैं। दुर्भाग्य से उन्हें शाबाशी देने वाले भी कम नहीं हैं। सरकार पर उनका कोई नियंत्रण नहीं। कभी कभी तो लगता है कि कहीं राजनीतिक लाभ के लिए जानबूझ कर समाज में ध्रुवीकरण को बढ़ावा तो नहीं दिया जा रहा।
पिछले दिनों एससी एसटी के मामले में सुप्रीम कोर्ट की व्यवस्था के बाद जिस प्रकार देश जल उठा, उससे तो हिंदू भी आपस में बंटा नजर आया। जैसे ही उसका राजनीतिकरण हुआ, सत्तारूढ़ भाजपा भी घबरा गई। उसे लगने लगा कि पिछले कई साल की मशक्कत के बाद मुख्य धारा से जोड़ा गया कुछ प्रतिशत अनुसूचित जाति का तबका कहीं छिटक न जाए। एक ओर तो वह कट्टर हिंदूवाद के अंदरूनी दबाव में है तो दूसरी ओर अनुसूचित जाति की मिजाजपुर्सी के लिए अंबेडकवाद को पूजने को मजबूर है। अंबेडकर के नाम पर अब क्या कुछ नहीं हो रहा। एक ओर संघ प्रमुख मोहन भागवत के आरक्षण विरोध विचार का कड़वा घूंट पिया जा रहा है तो दूसरी ओर राजनीतिक घाटा होते देख आरक्षण समाप्त नहीं किए जाने की ताबड़तोड़ बयानबाजी देनी पड़ रही है। आरक्षण का पूरा दोष कांग्रेस पर मढ़ तो दिया जाता है, मगर संस्कारवान पीढ़ी बनाने की दुहाई देने वाले दुनिया के सबसे बड़े स्वयंसेवी संगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ वाले इस देश में सामाजिक समरसता कायम नहीं की जा सकी है। गांवों में आज भी सामाजिक स्तर पर अनुसूचित जाति का तबका दमन का शिकार है। आपको ख्याल होगा कि पिछले दिनों एससी एसटी आंदोलन के दौरान सर्वाधिक पूजित हनुमान जी के चित्र के साथ घृणित दुव्र्यवहार होने का वीडियो वायरल हुआ तो उस पर बड़ा विवाद हुआ, मगर इसका किसी के पास जवाब नहीं था कि हनुमान जी और अन्य देवी-देवताओं के मंदिरों में प्रवेश नहीं करने देने के लिए कौन जिम्मेदार है? जब हम उन्हें मंदिर में जोने से रोकते हैं तो यह उम्मीद कैसे करके बैठे हैं कि जिन देवी-देवताओं को हम रोजाना श्रद्धा से पूजते हैं, उनको वे भी पूजनीय मानेंगे। अर्थात कड़वी सच्चाई यही है कि हमारी सामाजिक व्यवस्था आज भी पिछड़ों को बराबरी का दर्जा नहीं दे रही, केवल कानूनी रूप से ही पिछड़े आगे लाए जा रहे हैं। कानून का दुरुपयोग अगर हो रहा है तो उसकी वजह यही है कि हम मानसिक रूप से पिछड़ों को स्वीकार नहीं कर रहे, ऐसे में वे अतिरेक करने पर आमादा हो जाते हैं।
केवल अनुसूचित जातियां ही क्यों, हिंदुओं की अन्य जातियां भी अलग-अलग केन्द्रों पर ध्रुवीकृत हो चुकी हैं। यही वजह है कि चुनावों में टिकटों का निर्धारण ही जातियों के आधार पर हो रहा है।
कुल जमा सांप्रदायिकता व ऊंच-नीच की इस समस्या का समाधान इस कारण नहीं हो पा रहा है कि हमारी राजनीतिक व्यवस्था उसमें सहयोग करने की बजाय बढ़ावा देने पर आमादा है। ऐसे में इस देश का भगवान ही मालिक है।
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