-तेजवानी गिरधर-
भूत होते हैं या नहीं, इस पर विवाद सदैव से रहा है। भूतों को मानने वालों के पास इसका कोई सबूत नहीं है तो नहीं मानने वाले भी विपदा के समय आखिरी चारा न होने पर ऊपरी हवा का उपचार करवाने ओझाओं की शरण में चले जाते हैं। यह एक सीधी सट्ट सच्चाई है। पिछले दिनों विधानसभा में भूतों की मौजूदगी की अफवाह के चलते न केवल तांत्रिकों से जांच-पड़ताल करवाई गई, अपितु इस चर्चा को लेकर खूब हंसी-ठिठोली भी हुई। प्रिंट व इलैक्टॉनिक मीडिया ने तो इसका महा कवरेज किया ही, सोशल मीडिया पर भी यह मुद्दा छाया रहा। विधायकों व नेताओं की जितनी सामूहिक छीछालेदर हुई, उतनी शायद ही कभी हुई हो।
स्वाभाविक रूप से इक्कसवीं सदी में जबकि, विज्ञान व तकनीकी अपने चरम पर हैं, भूतों की बात बेमानी लगती है। सार्वजनिक मंच की बात करें तो वहां भूत अंधविश्वास के सिवाय कुछ भी नहीं, मगर सच्चाई इसके सर्वथा विपरीत है। अध्ययन-अध्यापन में कहीं भी भूतों की पुष्टि नहीं की जाती, मगर सच ये है कि भूत की मौजूदगी हमारी मान्यताओं में है और उसे कोई भी नकार नहीं सकता। यह एक कड़वी सच्चाई है कि विधायक हों या नेता, या फिर आम आदमी, आम तौर पर भूत की मौजदगी की सर्वस्वीकार्यता है। तभी तो तांत्रिक व ओझाओं की झाड़-फूंक परंपरा कायम है। वस्तुत: बातें भले ही हम वैज्ञानिक युग की करें, मगर जब भी लाइलाज बीमारी या रहस्यपूर्ण आदिभौतिक समस्या आती है तो डॉक्टरों से इलाज के साथ तांत्रिकों व पीर-फकीरों की शरण में चले जाते हैं। यद्यपि इस सबका ग्राफ गिरा है, मगर भूतों अथवा ऊपरी हवा की मान्यता नकारी नहीं जा सकी है। आपने कई बार ये भी सुना होगा कि अमुक बंगले में भूत का वास है, इस कारण वहां कोई नहीं रहता।
भूत-प्रेत से इतर बात करें तो यह सर्वविदित है कि हमारे नेतागण राजनीति चमकाने अथवा टिकट हासिल करने के लिए बाबाओं, ज्योतिषियों व तांत्रिकों के देवरे ढोकते हैं। इसे अन्यथा नहीं लिया जाता। यानि कि सारी की सारी अवैज्ञानिक मान्यताओं को हमारे समाज से सहमति दे रखी है। वास्तु को तो वैज्ञानिक मान्यता की तरह लिया जाने लगा है, जबकि आज भी उसका सटीक वैज्ञानिक व तर्कयुक्त आधार नहीं है। इसको लेकर कई तरह की भ्रांतियां हैं, मगर हम अपने निजी जीवन में उसे स्वीकार करते ही हैं। पूर्ण स्वीकार्यता भी नहीं और पूर्ण अस्वीकार्यता भी नहीं। पैंडुलम जैसी स्थिति है।
ऐसे में अगर विधानसभा भवन में भूत-प्रेत अथवा वास्तुदोष का शगूफा छूटता है तो उस पर हम असहज हो जाते हैं। मीडिया तो ल_ लेकर ही पीछे पड़ जाता है। इसके विपरीत अगर हम मीडिया कर्मियों के निजी जीवन में झांकें तो वे भी कहीं न कहीं ऊपरी हवा से निजात के लिए तंत्र-मंत्र इत्यादि का सहज इस्तेमाल करते दिखाई दे जाएंगे। क्या यह सही नहीं है कि हम अपने घर में अज्ञात कारण से होने वाली अशांति से निपटने के लिए सुंदरकांड का पाठ नहीं करवाते? क्या ज्योतिषी के बताने पर पितरों की शांति के लिए अनुष्ठान नहीं करवाते? पुष्कर के निकट सुधाबाय में तो बाकायदा मंगल चौथ के दिन मेला भरता है और कुंड में डुबकी लगवा कर कथित रूप से प्रेत-बाधा से मुक्ति दिलवाने वालों का तांता लगा रहता है।
लब्बोलुआब, बात ये है कि हम निजी जीवन में तो पारंपरिक अंध विश्वासों को लिए हुए जीते हैं, मगर सार्वजनिक मंच पर उसका विरोध करने लगते हैं। यानि कि हम दोहरा चरित्र जी रहे हैं। न तो पूर्ण विज्ञान परक हो पाए हैं और न ही पुरानी परंपराओं को छोड़ पाए हैं। ऐसे में विधानसभा में भूतों की रहस्यमयी समस्या को लेकर बहस बेमानी सी लगती है।
भूत होते हैं या नहीं, इस पर विवाद सदैव से रहा है। भूतों को मानने वालों के पास इसका कोई सबूत नहीं है तो नहीं मानने वाले भी विपदा के समय आखिरी चारा न होने पर ऊपरी हवा का उपचार करवाने ओझाओं की शरण में चले जाते हैं। यह एक सीधी सट्ट सच्चाई है। पिछले दिनों विधानसभा में भूतों की मौजूदगी की अफवाह के चलते न केवल तांत्रिकों से जांच-पड़ताल करवाई गई, अपितु इस चर्चा को लेकर खूब हंसी-ठिठोली भी हुई। प्रिंट व इलैक्टॉनिक मीडिया ने तो इसका महा कवरेज किया ही, सोशल मीडिया पर भी यह मुद्दा छाया रहा। विधायकों व नेताओं की जितनी सामूहिक छीछालेदर हुई, उतनी शायद ही कभी हुई हो।
स्वाभाविक रूप से इक्कसवीं सदी में जबकि, विज्ञान व तकनीकी अपने चरम पर हैं, भूतों की बात बेमानी लगती है। सार्वजनिक मंच की बात करें तो वहां भूत अंधविश्वास के सिवाय कुछ भी नहीं, मगर सच्चाई इसके सर्वथा विपरीत है। अध्ययन-अध्यापन में कहीं भी भूतों की पुष्टि नहीं की जाती, मगर सच ये है कि भूत की मौजूदगी हमारी मान्यताओं में है और उसे कोई भी नकार नहीं सकता। यह एक कड़वी सच्चाई है कि विधायक हों या नेता, या फिर आम आदमी, आम तौर पर भूत की मौजदगी की सर्वस्वीकार्यता है। तभी तो तांत्रिक व ओझाओं की झाड़-फूंक परंपरा कायम है। वस्तुत: बातें भले ही हम वैज्ञानिक युग की करें, मगर जब भी लाइलाज बीमारी या रहस्यपूर्ण आदिभौतिक समस्या आती है तो डॉक्टरों से इलाज के साथ तांत्रिकों व पीर-फकीरों की शरण में चले जाते हैं। यद्यपि इस सबका ग्राफ गिरा है, मगर भूतों अथवा ऊपरी हवा की मान्यता नकारी नहीं जा सकी है। आपने कई बार ये भी सुना होगा कि अमुक बंगले में भूत का वास है, इस कारण वहां कोई नहीं रहता।
भूत-प्रेत से इतर बात करें तो यह सर्वविदित है कि हमारे नेतागण राजनीति चमकाने अथवा टिकट हासिल करने के लिए बाबाओं, ज्योतिषियों व तांत्रिकों के देवरे ढोकते हैं। इसे अन्यथा नहीं लिया जाता। यानि कि सारी की सारी अवैज्ञानिक मान्यताओं को हमारे समाज से सहमति दे रखी है। वास्तु को तो वैज्ञानिक मान्यता की तरह लिया जाने लगा है, जबकि आज भी उसका सटीक वैज्ञानिक व तर्कयुक्त आधार नहीं है। इसको लेकर कई तरह की भ्रांतियां हैं, मगर हम अपने निजी जीवन में उसे स्वीकार करते ही हैं। पूर्ण स्वीकार्यता भी नहीं और पूर्ण अस्वीकार्यता भी नहीं। पैंडुलम जैसी स्थिति है।
ऐसे में अगर विधानसभा भवन में भूत-प्रेत अथवा वास्तुदोष का शगूफा छूटता है तो उस पर हम असहज हो जाते हैं। मीडिया तो ल_ लेकर ही पीछे पड़ जाता है। इसके विपरीत अगर हम मीडिया कर्मियों के निजी जीवन में झांकें तो वे भी कहीं न कहीं ऊपरी हवा से निजात के लिए तंत्र-मंत्र इत्यादि का सहज इस्तेमाल करते दिखाई दे जाएंगे। क्या यह सही नहीं है कि हम अपने घर में अज्ञात कारण से होने वाली अशांति से निपटने के लिए सुंदरकांड का पाठ नहीं करवाते? क्या ज्योतिषी के बताने पर पितरों की शांति के लिए अनुष्ठान नहीं करवाते? पुष्कर के निकट सुधाबाय में तो बाकायदा मंगल चौथ के दिन मेला भरता है और कुंड में डुबकी लगवा कर कथित रूप से प्रेत-बाधा से मुक्ति दिलवाने वालों का तांता लगा रहता है।
लब्बोलुआब, बात ये है कि हम निजी जीवन में तो पारंपरिक अंध विश्वासों को लिए हुए जीते हैं, मगर सार्वजनिक मंच पर उसका विरोध करने लगते हैं। यानि कि हम दोहरा चरित्र जी रहे हैं। न तो पूर्ण विज्ञान परक हो पाए हैं और न ही पुरानी परंपराओं को छोड़ पाए हैं। ऐसे में विधानसभा में भूतों की रहस्यमयी समस्या को लेकर बहस बेमानी सी लगती है।
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