तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

गुरुवार, जून 27, 2019

अफसोस कि पत्रकारिता के इतने निकृष्ट दौर का मैं गवाह हूं

गुुरुवार को एबीपी न्यूज चैनल पर चल रही एक बहस देखी। उसे देख कर बहस की एंकर रुबिका पर तो दया आई, मगर खुद आत्मग्लानी से भर गया। पत्रकारिता का इतना मर्यादाविहीन और निकृष्ट स्वरूप देख कर सहसा विश्वास ही नहीं हुआ कि एक प्रतिष्ठित न्यूज चैनल पर अनुभवहीन युवति को कैसे एंकर बना दिया गया है। अपने आप से घृणा होने लगी कि क्यों कर मैने इस पत्रकार जमात में अपनी जिंदगी बर्बाद कर ली। 
असल में बहस इस बात पर हो रही थी कि जेएनयू के पूर्व छात्र संघ अध्यक्ष कन्हैया कुमार पर पुलिस ने देशद्रोह के मामले में चार्जशीट पेश की है। ज्ञातव्य है कि तकरीबन तीन साल बाद यह चार्जशीट पेश की गई है। अब अदालत में बाकायदा मुकदमा चलेगा और वही तय करेगी कि कन्हैया कुमार देशद्रोही है या नहीं। पूरी बहस के दौरान एंकर रुबिका इस तरह चिल्ला चिल्ला कर टिप्पणियां कर रही थीं, मानो कन्हैया को देशद्रोही करार दे दिया गया है। अपने स्टैंड के पक्ष में वे उत्तेजित हो कर लगातार कुतर्क दे रही थीं।  उनका तर्क था कि चार्जशीट को बनाने में क्यों कि तीन साल लगे हैं, इसका मतलब ये है कि उसमें जो चार्ज लगाए गए हैं, वे सही हैं। उन्होंने यहां तक कह दिया कि एक देशद्रोही कैसे हीरो बन गया और सीपीआई ने उसे लोकसभा चुनाव का टिकट तक दे दिया। उन्होंने इस बात पर बहुत अफसोस जताया कि कोई देशद्रोही कैसे चुनाव लड़ सकता है? कन्हैया कुमार का पक्ष ले रहे एक राजनीतिक समीक्षक कह रहे थे कि किसी के खिलाफ चार्जशीट पेश होने पर आप उसे कैसे देशद्रोही कह सकती हैं, मगर रुबिका उनकी एक नहीं सुन रही थीं। उलटे उन्हें कन्हैया कुमार का अंधभक्त कह कर उन पर पिल पड़ीं। उनकी बॉडी लैंग्वेज ऐसी थी मानो वे ही सबसे बड़ी देशभक्त है और उनका जोर चले तो कन्हैया का पक्ष ले रहे पेनलिस्ट के कपड़े फाड़ दें।
दूसरी ओर जाहिर तौर पर कन्हैया कुमार के खिलाफ वकालत कर रही एक महिला वकील व भाजपा के प्रवक्ता रुबिका के सुर में सुर मिला रहे थे। मगर बहस में बुलाए गए जाने-माने वरिष्ठ पत्रकार अभय दुबे की रुबिका ने जो हालत की, उसे देख कर बहुत अफसोस हुआ कि वे क्यों कर एक नौसीखिया एंकर के सामने पैनलिस्ट बन कर गए। क्यों अपनी इज्जत का फलूदा बनवाने वहां पहुंचे? वे स्पष्ट रूप से कह रहे थे कि इस बहस को आप कोर्ट न बनाइये, यहां न तो कोई जज बैठा है और न ही कोई सबूत पेश किए जा रहे हैं। आप केवल चार्जशीट के आधार पर किसी को द्रेशद्रोही नहीं कह सकते, यह काम कोर्ट को करने दीजिए। यह सुन कर रुबिका को बहुत बुरा लगा कि वे जिस एजेंडे को चला रही हैं, उसी पर कोई कैसे सवाल खड़ा कर सकता है। वे और ज्यादा भिनक गईं। उन्होंने दुबे जी को बोलने ही नहीं दिया। सवाल ये भी कि एंकर केवल एंकर का ही धर्म क्यों नहीं पालती! पेनलिस्ट को अपनी अपनी राय देने दीजिए, दर्शक खुद फैसला कर लेगा। एकंर खुद ही पार्टी बन रही है, कमाल है।
मुझे तो पत्रकारिता की जो सीख दी गई है उसमें ये सिखाया गया है कि अगर कोई चोरी के आरोप में पकडा जाए तो उसे चोर न लिखें या कोई हत्या के आरोप में पकडा जाए तो उसे हत्यारा पकडा गया ये न लिखें. मगर आज के पत्रकारों को पत्रकारिता के मूलभूत नियम तक का ज्ञान नहीं है, उलटे वे चीख चीख कर पत्रकारिता के कायदों को तार तार कर रहे हैं।
इस बहस को देख कर मन वितृष्णा से भर गया कि आज मैं पत्रकारिता के कैसे विकृत स्वरूप का गवाह बन कर जिंदा हूं। हमने तो पत्रकारिता जी ली, जैसी भी जी, कोई बहुत बड़े झंडे नहीं गाड़े, मगर कभी मर्यादा व निष्पक्षता का दामन नहीं छोड़ा। आज दो-दो कौड़ी के पत्रकारों के हाथ में पत्रकारिता की कमान आ गई है।
सच तो ये है कि वर्तमान में पत्रकारिता का जो दौर चल रहा है, उसमें कोई टिप्पणी ही नहीं करनी चाहिए। कुछ कहना ही नहीं चाहिए। विकृत पत्रकारिता का राक्षस इतना बड़ा व शक्तिशाली हो गया है कि मेरे जैसे पत्रकार को जुबान सिल ही लेनी चाहिए। अपने आपको बहुत रोका, मगर नहीं रोक पाया। मेरी इस टिप्पणी से किसी का मन दुख रहा हो तो मैं क्षमाप्रार्थी हूं।
-तेजवानी गिरधर
7742067000

रविवार, जून 16, 2019

इन्हीं महारानी ने कभी बाबोसा को भी हाशिये पर खड़ा कर दिया था

ऐसी जानकारी है कि रविवार, 16 जनवरी को जयपुर में हुई प्रदेश भाजपा कार्यसमिति की बैठक में पूर्व मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे की भूमिका अन्य नेताओं की तुलना में कमतर नजर आई। हालांकि वे अब राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बना दी गई हैं, मगर ऐसा प्रतीत हुआ, मानो वे हाशिये की ओर धकेली जा रही हों। उनमें वो जोश व जज्बा नजर नहीं आया, जैसा कि मुख्यमंत्री पद पर रहते देखा जाता था।
बड़े-बजुर्ग ठीक ही कह गए हैं कि इतिहास अपने आप को दोहराता है। वसुंधरा की ताजा हालत कहीं न कहीं इस कहावत से मेल खाती है। ये वही वसुंधरा हैं, जो राजस्थान में सिंहनी की भूमिका में थीं। उनके इशारे के बिना प्रदेश भाजपा में पत्ता भी नहीं हिलता था। कुछ ऐसा ही राजस्थान का एक ही सिंह, भैरोंसिंह भैरोंसिंह का भी रुतबा रहा है। वे जब स्वयं उपराष्ट्रपति बन कर दिल्ली गए तो प्रदेश की चाबी वसुंधरा को सौंप गए, मगर वे जब रिटायर हो कर लौटे तो उनकी पूरी जमीन वसुंधरा ने खिसका ली थी। राजस्थान का यह सिंह अपने ही प्रदेश में बेगाना सा हो गया। कुछ माह तो घर से निकले ही नहीं। और जब हिम्मत करके बाहर निकले तो उनके कदमों में लौटने वाले भाजपाई ही उन्हें अछूत समझ कर उनसे दूर बने रहे। वसुंधरा का भाजपाइयों में इतना खौफ था कि वे जहां भी जाते, इक्का-दुक्का को छोड़ कर अधिसंख्यक भाजपाई उनके पास फटकते तक नहीं थे। वसुंधरा का आभा मंडल इतना प्रखर था कि उसके आगे संघ लॉबी के नेताओं की रोशनी टिमटिमाती थी। उन्होंने हरिशंकर भाभड़ा सरीखे अनेक नेताओं को खंडहर बता कर टांड पर रख दिया था। राजस्थान में संघ उनके साथ समझौता करके ही काम चला रहा था। एक बार टकराव बढ़ा तो वसुंधरा ने नई पार्टी ही बना लेने की तैयारी कर ली, नतीजतन हाईकमान को झुकना पड़ा।
जब 2014 में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का दौर आया तो भी वे झुकने का तैयार नहीं हुईं। पूरे पांच साल खींचतान में ही निकले। विधानसभा चुनाव आए तो एक नारा आया कि मोदी से तेरे से बैर नहीं, वसुंधरा तेरी खैर नहीं। बताया जाता है कि यह नारा संघ ने  ही दिया था। नतीजा सामने है। आज जब ये कहा जाता है कि भाजपा वसुंधरा के चेहरे के कारण हारी तो इसे समझना चाहिए कि इस चेहरे को बदनाम करने का काम भी भाजपाइयों ने ही किया। यदि ये कहा जाए कि मोदी के कहने पर संघ ने ही वसुंधरा को नकारा करार दिया तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी, जबकि वे इतनी भी बुरी मुख्यमंत्री नहीं थीं। वस्तुत: मोदी जिस मिशन पर लगे थे, उसमें उनको एक भी क्षत्रप बर्दाश्त नहीं था। तो वसुंधरा को निपटा कर ही दम लिया।
जाहिर तौर पर सिंहनी वर्तमान में बहुत कसमसा रहीं होगी, मगर उनके मन में क्या चल रहा है, किसी को जानकारी नहीं है। जानकार मानते हैं कि अब भी वसुंधरा में दम-खम कम नहीं हुआ है, मगर मोदी का कद इतना बड़ा हो चुका है कि वसुंधरा का फिर से उठना नामुमकिन ही लगता है। वसुंधरा की तो बिसात ही क्या है, भाजपा के सारे के सारे दिग्गज नेता मोदी शरणम गच्छामी हो गए हैं। सच तो ये है कि मोदी ने भाजपा को हाईजैक कर लिया है। भाजपा कहने भर को भाजपा है, मगर वह अब अमित शाह के सहयोग से तानाशाह मोदी की सेना में तब्दील हो चुकी है। अगर वसुंधरा हथियार डाल देती हैं तो हद से हद किसी राज्य की राज्यपाल बनाई जा सकती हैं, मगर शायद उनकी इच्छा अब अपने बेटे दुष्यंत सिंह को ढ़ंग की जगह दिलाना होगी, मगर मोदी के रहते ऐसा मुश्किल ही है।
खैर। हालांकि वसुंधरा राजे की स्थिति अभी इतनी खराब नहीं हुई है, उन्हें राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बना कर इज्जत बख्शी गई है। उन्होंने शेखावत की जो हालत की थी, उससे से तो वे बेहतर स्थिति में ही हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से उनकी जो नाइत्तफाकी है, उसे तो देखते हुए यही लगता है कि वे भी उसी संग्रहालय में रख दी जाएंगी, जहां भाजपा के शीर्ष पुरुष लालकृष्ण आडवाणी व मुरली मनोहर जोशी को रखा गया है।
-तेजवानी गिरधर
7742067000

शनिवार, अप्रैल 20, 2019

जीत के लिए भाजपा को नैतिकता ताक पर रखने की सलाह

गिरधर तेजवानी
आज जब कि देश लोकसभा चुनाव की दहलीज में प्रवेश कर चुका है तो भाजपा एक बार फिर सत्ता हासिल करने के लिए नरेन्द्र मोदी ब्रांड के ही भरोसे है। जो किसी जमाने में इंदिरा इज इंडिया, इंडिया इज इंदिरा के जुमले पर तंज कसते हुए व्यक्तिवाद पर हमला करते थे, वे ही आज व्यक्तिवाद की राह पर चल चुके हैं। खुद मोदी भी मोदी है तो मुमकिन है का नारा देकर भाजपा की नैया पार लगाने की भरसक कोशिश में हैं। हम लाख दुहाई दें कि हमारा देश दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र हैं, मगर भाजपा को भी अब समझ आ गया है कि नीतियां अपनी जगह, मगर जीत का मंत्र तो ब्रांडिंग में ही निहित है, चाहे अनीति पर ही क्यों न चलना पड़े।
इसी सिलसिले में एक पोस्ट पिछले कुछ दिनों से सोशल मीडिया पर धड़ल्ले से चल रही है, जिसमें साफ तौर पर मोदी से पहले और मोदी के बाद की भाजपा का विश्लेषण करते हुए सलाह दी जा रही है कि सत्ता के लिए नैतिकता ताक पर रखने से गुरेज नहीं करना चाहिए।
इस पोस्ट में बताया गया है कि जब तक भाजपा अटल बिहारी वाजपेयी की विचारधारा पर चलती रही, मर्यादा पुरुषोत्तम राम के नाम पर नैतिकता व शुचिता को अपनाए रही, तब तक कभी भी पूर्ण बहुमत हासिल नहीं कर सकी। करोड़ों के बाद भी कांग्रेस बेशर्मी से अपने लोगों का बचाव करती रही, वहीं पार्टी फंड के लिए मात्र एक लाख रुपये ले लेने पर भाजपा ने अपने राष्ट्रीय अध्यक्ष बंगारू लक्ष्मण को हटाने में तनिक भी विलंब नहीं किया, परन्तु चुनावों में नतीजा, वही ढ़ाक के तीन पात। झूठे ताबूत घोटाला के आरोप पर तत्कालीन रक्षामंत्री जार्ज फर्नांडिस का इस्तीफा, परन्तु चुनावों में नतीजा  वही ढाक के तीन पात। कर्नाटक में भ्रष्टाचार के आरोप लगते ही येदियुरप्पा को भाजपा ने निष्कासित करने में कोई विलंब नहीं किया, परन्तु चुनावों में नतीजा, वही ढाक के तीन पात।
फिर  होता है नरेन्द्र मोदी का पदार्पण। मर्यादा पुरुषोत्तम राम के नक्शे कदम पर चलने वाली भाजपा को वे कर्मयोगी कृष्ण की राह पर ले आते हैं। कृष्ण अधर्मी को मारने में किसी भी प्रकार की गलती नहीं करते हैं। छल हो तो छल से, कपट हो तो कपट से, अनीति हो तो अनीति से, अधर्मी को नष्ट करना ही उनका ध्येय होता है। कुल मिला कर सार यह है कि अभी देश दुश्मनों से घिरा हुआ है, नाना प्रकार के षड्यंत्र रचे जा रहे हैं। इसलिए अभी हम नैतिकता को अपने कंधे पर ढोकर नहीं चल सकते हैं। नैतिकता को रखिये ताक पर। यदि देश को बचाना चाहते हैं, तो सत्ता को अपने पास ही रखना होगा। वो चाहे किसी भी प्रकार से हो, साम दाम दंड भेद किसी भी प्रकार से। इसलिए भाजपा के कार्यकर्ताओं को चाहिए कि कर्ण का अंत करते समय कर्ण के विलापों पर ध्यान न दें। सिर्फ ये देखें कि अभिमन्यु की हत्या के समय उनकी नैतिकता कहां चली गई थी। आज राजनीतिक गलियारा जिस तरह से संविधान की बात कर रही है, तो लग रहा है जैसे हम पुन: महाभारत युग में आ गए हैं। विश्वास रखो, महाभारत का अर्जुन नहीं चूका था, आज का अर्जुन भी नहीं चूकेगा। चुनावी जंग में अमित शाह जो कुछ भी जीत के लिए पार्टी के लिए कर रहे हैं, वह सब उचित है। वाजपेयी की तरह एक वोट का जुगाड़ न करके आत्मसमर्पण कर देना क्या एक राजनीतिक चतुराई थी? अटलजी ने अपनी व्यक्तिगत नैतिकता के चलते एक वोट से अपनी सरकार गिरा डाली और पूरे देश को चोर लुटेरों के हवाले कर दिया। राजनीतिक गलियारे में ऐसा विपक्ष नहीं है, जिसके साथ नैतिक-नैतिक खेल खेला जाए, सीधा धोबी पछाड़ आवश्यक है।
सिक्के का दूसरा पहलु ये है कि जिस हिंदूवाद के नाम पर भाजपा सत्ता पर काबिज हुई, पांच साल में उसी का पोषण न कर पाने पर भी विश्लेषकों की नजर है।
एक पोस्ट में लिखा है कि देश के लोगों ने मोदी-शाह के नेतृत्व में भाजपा के राष्ट्रवाद और हिंदुत्व को अपने असली रूप में देख लिया है। जब तक पूर्ण बहुमत के साथ यह पार्टी सत्ता में नहीं आई थी, तब तक एक कौतूहल था कि पता नहीं, ये क्या करेंगे, जब ये अपने दम पर सत्ता में आएंगे। वाजपेयी जी के नेतृत्व में भाजपा पहली बार सत्ता में आयी तो जरूर थी, लेकिन बैसाखियों के सहारे। ऊपर से अटल जी का अपेक्षाकृत उदारवादी चेहरा। तो...समर्थकों में एक कसक सी रह गई कि काश, पार्टी कभी अपने दम पर सत्ता में आ पाती। लो जी, वह भी हो गया। मोदी ने इतिहास रच दिया।  कहा गया कि पृथ्वीराज चौहान के पश्चात 900 वर्षों के इंतजार के बाद कोई चक्रवत्र्ती हिन्दू सम्राट दिल्ली के सिंहासन पर बैठा है। और फिर सिर्फ  उन्मादी ही नहीं, प्रायोजित भीड़ के द्वारा अखलाक की निर्मम हत्या के साथ इस हिंदुत्व का पहला परिचय मिला। गौमाता के रक्षकों के उत्पात से देश दहलने लगा। दूसरी ओर हालत ये है कि कॉमन सिविल कोड, धारा 370 और राम मंदिर के एजेंडे को लेकर भाजपा लगातार 32 वर्षों से चल रही थी, उस पर कुछ भी नहीं हुआ। ऐसे में कट्टर हिंदूवादियों की यह चिंता जायज है कि यदि आज अपने बूते पर भाजपा सत्ता में होने के बाद भी कुछ नहीं कर पाई तो  ढ़लती मोदी लहर के दौर में क्या हो पाएगा? कदाचित इसी कारण भाजपा आज फिर रोजगार, गरीबी, महंगाई जैसे मुद्दों को साइड में रख कर, नोटबंदी व जीएसटी जैसे बडे कदमों की सफलता के नाम पर वोट मांगने की बजाय पाकिस्तान को गाली दे कर राष्ट्रवाद के नाम पर वोट हासिल करने की जुगत में लग गई है।

मंगलवार, मार्च 05, 2019

सर्जिकल स्ट्राइक टू पर सवार हो कर ताजपोशी चाहते हैं मोदी

-तेजवानी गिरधर-
एक अनुमान पहले से था कि नोटबंदी व जीएसटी की नाकामी और चुनावी वादे जुमले साबित होने के बाद दुबारा सत्ता पर काबिज होने के लिए मोदी कोई न कोई खेल खेलेंगे। कुछ को आशंका इस बात की भी थी कि इसके लिए वे पाकिस्तान से छेडख़ानी भी कर सकते हैं। हालांकि पाकिस्तान के साथ मौजूदा टकराव को मोदी की सोची-समझी रणनीति कहने का न तो पर्याप्त आधार है और न ही ऐसा कहना उचित है, मगर संयोग से चुनाव से चंद माह पहले हुए घटनाक्रम की आड़ में मोदी को दुबारा प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठाने के जतन सरेआम किए जा रहे हैं, इसमें तनिक भी संदेह नहीं है।
मौजूदा संकट के वक्त विपक्ष की सदाशयता या मजबूरी ही है कि वह ऐसे मौके पर सरकार का साथ दे रहा है, मगर मोदी भक्तों ने इस अवसर का भरपूर फायदा उठाने की ठान ही ली है। एक ओर पाक के आतंकी ठिकानों को ध्वस्त किए जाने पर जहां विपक्ष वायु सेना को शाबाशी दे रहा है तो वहीं   भाजपा मोदी के महिमामंडन में जुट गई है। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने तो साफ कहा है कि आतंकी ठिकानों को नष्ट करना यह साबित करता है कि नरेन्द्र मोदी के मजबूत और निर्णायक नेतृत्व में भारत सुरक्षित है।
पाक से टकराव के दौर में आरंभ हुए चुनाव प्रचार में इस्तेमाल किया जा रहा नारा 'मोदी है तो मुमकिन हैÓ इस बात का स्पष्ट संकेत देता है कि मोदी को फिर सत्तारूढ़ करने की खातिर उन्हें महान बनाए जाने की मुहिम छेड़ दी गई है। अमित शाह ने बिना मौका गंवाए यह ऐलान कर दिया कि पाकिस्तान को जो सरकार जवाब दे सकती है, उसी आधार पर 2019 का चुनाव लड़ा जाएगा।
एक पोस्ट देखिए:-
रात भर हमले की मोनिटरिंग, सुबह केबिनेट की मीटिंग, फिर राष्ट्रपति भवन में कार्यक्रम, फिर दिल्ली से उड़ कर चुरू में चुनावी रैली, फिर तुरन्त दिल्ली रवाना होकर मेट्रो में बेठ कर इस्कॉन मन्दिर में श्रीमद भगवद गीता का विमोचन....कब आराम, कब नाश्ता, कब लंच किया होगा? ये मानव नहीं, महामानव है। सेल्यूट मोदी जी।
मोदी को महान बताए जाने की पराकाष्ठा देखिए:-सिकंदर पुराना हो गया, अबसे जो जीता, वही नरेंदर है।
मोदी भक्ति की एक नमूना ये भी देखिए:-मोदी जी मेरे 15 लाख ब्याज सहित पाकिस्तान पर गिराए गए बमों के खर्च में एडजस्ट करके मेरा खाता जीरो कर देना। मेरा और आपका अब तक का हिसाब शून्य हो जायेगा।
एक और पोस्ट:-मैसेज फॉर राहुल गांधी
जब तू सो रहा था
चौकीदार पाकिस्तान को धो रहा था
एक और बानगी:-मोदी को अटल बिहारी वाजपेयी समझने की भूल मत करना। क्यूं की ये टेढ़ी ऊंगली से घी ही नहीं निकालता, डब्बा ही गरम कर देता है।
इस पोस्ट में तो सरासर चुनावी लाभ लेने का प्रयास नजर आता है:-
इसका बटन आपने ही 2014 में दबाया था।
2019 में भी वही बटन दबाना मत भूलना।
क्या इसे भारतीय वायु सेना की शौर्यगाथा का राजनीतिकरण करने का प्रयास नहीं माना जाना चाहिए। चुनाव तक अगर यही मुद्दा प्रमुख रूप से चर्चा में रहता है तो निश्चित तौर पर बीजेपी इसका फायदा उठाने में कामयाब हो सकती है। सोशल मीडिया पर चल रही यह पोस्ट कि सिर्फ आतंकी नहीं मरे हैं, कुछ की प्रधानमंत्री बनने की उम्मीदें भी मर गई हैं, यह साफ इंगित करता है कि इस मौके का भाजपा भरपूर फायदा उठाने जा रही है। इसी कड़ी में यह पोस्ट भी आपकी नजर आई होगी-
केवल मोदी को महान ही नहीं बताया जा रहा, अपितु विरोधियों को पाक परस्त बता कर कड़े तंज भी कसे जा रहे हैं। आतंकियों से पहले उनसे निपटने की अपीलें की जा रही हैं। ये पोस्टें देखिए:-
भाजपा को वोट देना मतलब सेना को एक बुलेट प्रूफ जैकेट देना। कांग्रेस को वोट देना मतलब आतंकवादी को ए के-47 देना। फैसला आपका।
गद्दारों की छाती पर एक चोट मैं भी दूंगा। आने वाले चुनाव में फिर से मोदी जी को वोट दूंगा।
साला, आज ऐसा फील हो रहा है, जैसे  2019 का लोकसभा चुनाव, कांग्रेस एडवांस में हार गई।
मोदीजी का सीना अब इंचों में नहीं, बीघा में नापा जाएगा।
बदला-बदला बोलने वाले कांग्रेसियों की एक भी पोस्ट नहीं आ रही। अरे भाई ये हमला पाकिस्तान पर हुआ है तुम पर नहीं।
जाहिर तौर पर विपक्ष को लगने लगा कि मोदी ताजा हालात का चुनाव में फायदा उठाने जा रहे हैं तो उसका काउंटर देने के लिए इस किस्म की पोस्ट सामने आई:-
इससे पहले की पायलट की वापसी का पूरा श्रेय एक व्यक्ति को दिया जाए, भक्त मीडिया 70 साल के भारत के शौर्य को शून्य करके आप को उस काल में ले जाये कि जो हो रहा है, पहली बार हो रहा है, आपकी जानकारी के लिये बता दूं कि 1971 में हमारे पायलट को पाकिस्तान ने भारत के दबाब में छोड़ा, तब प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी थीं और 1999 में पायलट नचिकेता को छोड़ा, तब प्रधानमंत्री पंडित अटल बिहारी वाजपेयी थे।
एक ओर जहां पहली सर्जिकल स्ट्राइक के सबूत मांगे जाने का मुद्दे पर सत्ता पक्ष लगातार विपक्ष को उलाहने देता जा रहा है, वहीं कुछ ऐसे भी हैं जो बीबीसी के हवाले वे बालाकोट में तीन-चार सौ आतंकियों के मारे पर संदेह जाहिर करने लगे हैं।
कुल मिला कर एक ओर जहां विपक्ष को साथ लेकर सरकार पाक से मुकाबला कर रही है, वहीं देशभर में बयान युद्ध छिड़ा हुआ है। मामले का राजीतिकरण नहीं किए जाने की लाख दुहाइयां दी जाएं, मगर सच ये है कि सारे के सारे देशभक्त आपस में तलवारें भांज रहे हैं। इसका असर स्वाभाविक तौर पर आगामी चुनाव में पड़ता दिखाई दे रहा है।

गुरुवार, फ़रवरी 14, 2019

क्या संघ तिवाड़ी को कांग्रेस में जाने से रोकेगा?

राजनीतिक गलियारों में एक सवाल गूंज रहा है कि क्या राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ भारत वाहिनी पार्टी के अध्यक्ष घनश्याम तिवाड़ी को कांग्रेस में जाने से रोकेगा? यह सवाल इस कारण उठा है कि प्रदेश में सत्ता परिवर्तन के बाद तिवाड़ी तीन बार मुख्यमंत्री अशोक गहलोत से मुलाकात कर चुके हैं  और कयास ये लगाए जा रहे हैं कि वे कांग्रेस में जा सकते हैं।
ज्ञातव्य है कि तिवाड़ी ने विधानसभा चुनावों से पहले भारत वाहिनी पार्टी का गठन किया था। इससे पहले वे भाजपा में थे। पार्टी ने विधानसभा चुनावों में 62 सीटों पर प्रत्याशी खड़े किए थे, जिसमें से एक भी प्रत्याशी जीतने में सफल नहीं हुआ। यहां तक कि खुद घनश्याम तिवाड़ी भी अपनी सांगानेर सीट से बुरी तरह से हार कर अपनी जमानत जब्त करा बैठे थे। ऐसे में आगामी लोकसभा चुनाव के मद्देनजर उन्हें कोई तो रुख अख्तियार करना ही होगा, अन्यथा वे व उनकी पार्टी राजनीति में अप्रासंगिक हो जाएगी। इसी सिलसिले में उन्होंने ऐलान किया है कि उनकी पार्टी लोकसभा चुनाव लडऩे की इच्छुक नहीं है, क्योंकि प्रदेश में दो ही दल भाजपा और कांग्रेस की स्वीकारोक्ति है और उनकी पार्टी इन्हीं में से किसी एक में अपना भविष्य देख रही है। किस पार्टी में शामिल होना है, इसको लेकर पार्टी के प्रमुख नेताओं की बैठक के बाद मार्च के पहले ही हफ्ते में एलान कर देंगे कि वे किसके साथ जा रहे हैं।
चूंकि उन्होंने भाजपा छोड़ कर नई पार्टी बनाई थी, इस कारण यह सवाल प्रासंगिक हो गया कि उनका प्रयोग फेल होने के बाद क्या वे भाजपा में लौट सकते हैं, इस पर वे कहते हैं कि उन्हें बीजेपी से निकाला नहीं गया था, बल्कि उन्होंने खुद बीजेपी छोड़ी थी। इसके अतिरिक्त उनकी दो ही मांग थी, एक तो सवर्ण आरक्षण और दूसरा वसुंधरा सरकार को हटाना। दोनों ही मांगें पूरी हो चुकी हैं, ऐसे में अब भारतीय जनता पार्टी क्या सोचती है, प्रस्ताव भेजती है तो उस पर विचार किया जाएगा।
उनके इस बयान से साफ है कि भले ही वे कांग्रेस में शामिल होने के मन से गहलोत से मुलाकातें कर रहे हों, मगर भाजपा में जाने का रास्ता भी बंद नहीं करना चाहते। वैचारिक रूप से भाजपा उनके लिए अधिक अनुकूल है। वे संघ पृष्ठभूमि से हैं और उन्होंने जब नई पार्टी बनाई, तब भी अधिसंख्य समर्थक या तो संघ से जुड़े हुए थे या फिर वसुंधरा के विरोधी। अब जब कि वसुंधरा को राष्ट्रीय राजनीति में ले कर राजस्थान में उनकी भूमिका को सीमित कर दिया गया है, संभावना इस बात की अधिक है कि संघ उन पर भाजपा में लौटने का दबाव बनाए। बस तिवाड़ी को देखना ये है कि उनको कितने सम्मान के साथ वापस लिया जाता है।
जहां तक उनके कांग्रेस में जाने का सवाल है तो कांग्रेस के लिए यह एक उपलब्धि होगी कि संघ विचारधारा से जुड़ी पार्टी उसके साथ आ रही है, मगर सवाल ये है कि ऐसा होने पर क्या पूरी की पूरी पार्टी कांग्रेस में आएगी? तिवाड़ी को भले ही राजनीतिक मजबूरी के कारण कांग्रेस में जाना ठीक लग रहा हो, मगर उनके संघ विचारधारा के कार्यकर्ता भी उनके साथ कांग्रेस में आएंगे, इसमें तनिक संशय हो सकता है। इसका अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि विधानसभा चुनाव और उसके बाद जयपुर महापौर का उपचुनाव हार चुकी भाजपा में भारत वाहिनी पार्टी से जुड़े चार पदाधिकारियों की घर वापसी हो गई। ये चारों प्रत्याशी इससे पहले भाजपा से ही जुड़े थे।
बहरहाल, संघ की खासियत ये रही है कि वह मौलिक रूप से संघ से जुड़े राजनीतिक कार्यकर्ता के प्रति सॉफ्ट कॉर्नर रखती है, मगर यदि उसे जच जाए कि उसे किल करना है तो उसे भी पूरी निष्ठुरता के साथ अंजाम देता है, जिसका सबसे बड़ा उदाहरण है लाल कृष्ण आडवाणी। देखते हैं कि तिवाड़ी के कांग्रेस में जाने के कयासों के बीच संघ क्या खेल खेलता है।
-तेजवानी गिरधर
774206700

मंगलवार, फ़रवरी 05, 2019

राजनीति के क्षितिज पर प्रियंका की एंट्री से सनसनी

-तेजवानी गिरधर-
जब से प्रियंका गांधी सक्रिय राजनीति में कांग्रेस महासचिव की हैसियत से आई हैं, राजनीतिक हलकों में सनसनी सी फैल गई है। विशेष रूप से सोशल मीडिया पर जिस तरह से प्रियंका को निशाने पर लेकर बहसबाजी की जा रही है, उससे ऐसा प्रतीत होता है कि कांग्रेस ने भले ही नरेन्द्र मोदी को रोकने के लिए यह ब्रह्मास्त्र चला हो, मगर असल में उनको लेकर भाजपा में भारी दहशत है।
वस्तुत: कांग्रेस कार्यकर्ता लंबे अरसे से प्रियंका को राजनीति में लाने की मांग करते रहे थे, मगर कांग्रेस हाईकमान इस हथियार को रिजर्व में रखे हुए था और उसको उचित अवसर की तलाश थी। ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे ही यह तथ्य सामने आया कि तीन राज्यों में भाजपा की हार के बाद मोदी का तिलिस्म फीका पडऩे लगा है, आगामी लोकसभा चुनाव में उसे झटका देने के लिए प्रियंका को मैदान में उतार दिया गया है। प्रियंका के सक्रिय राजनीति में आने से भाजपा में खौफ की एक मात्र प्रमुख वजह ये है कि उनमें देश की लोकप्रिय नेता रहीं इंदिरा गांधी का अक्स नजर आता है। जो मीडिया परिवारवाद व व्यक्तिवाद की आलोचना करता है, वही स्वीकार करता है कि प्रियंका की एंट्री धमाकेदार है। वजह है उनका चुंबकीय व्यक्तित्व।  उनका ताजगी से लबरेज रंग-रूप, जनता से संवाद करने का प्रभावोत्पादक तरीका, गांधी-नेहरू परिवार की विरासत और थके-उबाऊ-बदनाम चेहरों से मुक्त होने को तैयार राजनीतिक पृष्ठभूमि। वास्तविकता क्या है, ये तो कांग्रेस हाईकमान के चंद रणनीतिकार जानते हैं, मगर मीडिया की धारणा है कि राजस्थान, मध्यप्रदेश व छत्तीसगढ़ में सरकारों की कमान किसे सौंपी जाए, इसकी व्यूहरचना में प्रियंका की अहम भूमिका रही है।
बहरहाल, लोकसभा चुनाव के नजदीक आते ही जब प्रचार अभियान की तेजी के साथ पूरे राजनीतिक परिदृश्य में जो नई उत्तेजना और नये नजारे सामने आयेंगे, उनमें प्रियंका गांधी की उपस्थिति स्पष्ट दस्तक दे रही होगी। प्रियंका की मौजूदगी न केवल मोदी को अपसारित करेगी, अपितु मायावती और अखिलेश की तरह के दलितों और पिछड़ों के मतों पर एकाधिकार रखने वाले दावेदारों को भी पीछे धकेलेगी। उनकी बोदी पड़ चुकी सूरतों से दलितों-पिछड़ों का चिपके रहना कोई ईश्वरीय अटल सत्य नहीं है, जिसे काफी हद तक 2014 में भी देखा जा चुका है।
इस स्थिति का शब्द चित्र एक लेखक ने कुछ इस तरह चित्रित किया है:- किसी भी जुनून या जिद में यदि मायावती-अखिलेश राहुल के साथ प्रियंका के उतरने से पैदा होने वाली नई परिस्थिति की अवहेलना करते हैं तो हमारे अनुसार ठोस चुनावी परिस्थिति का आकलन करने में वे एक बड़ी भारी भूल करेंगे।
रहा सवाल भाजपा के पलटवार का तो वह कितना अभद्र है, इसका आगाज चंद भाजपा नेताओं की ओर से चाकलेटी चेहरे की उपमा देने से हो गया है। हमले का घटिया स्तर किस स्तर तक जा रहा है, वह मोदी भक्तों की ओर से प्रियंका की तुलना रावण की बहन सूर्पनखा और हिरणकश्यप की बहन होलिका से करने के साथ ही स्पष्ट हो गया है। देश के इतिहास में ऐसा पहली हो रहा हो, ऐसा नहीं है। एक विचारधारा महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी से लेकर सोनिया गांधी व राहुल गांधी तक का चरित्र हनन करने की आदी रही है। यह भी एक निरी सच्चाई है कि जितने निजी हमले इस परिवार पर हुए हैं, उतना ही यह भारतीय जनमानस  में गहरे पैठता गया है।
कांग्रेस विचारधारा के एक ब्लॉगर ने दुष्प्रचार की भयावहता को महसूस करते हुए लिखा है कि भाजपा आईटी सेल से जुड़े हुए सैकड़ों लोगों ने प्रियंका गांधी के चरित्र हनन पर काम करना शुरू कर दिया है। कुछ तस्वीरों  में प्रियंका गांधी को यूपी के दौरे के दौरान ईंट पत्थरों पर चलते हुए दिखाया गया है, जिसके नीचे इतने घटिया अल्फाज लिखे गए हैं, जो कि शायद इस ब्लॉग में लिखने योग्य नहीं हैं। वे कट्टरवादी व उन्मादी युवा पीढ़ी से सवाल करते हैं कि क्या हमारे देश में राजनीति का स्तर अब इतना रसातल तक जाएगा, जहां हम सत्ता की हवस में एक सभ्रांत महिला का चरित्र हनन करने से भी नहीं चूकेंगे। किसी को भी नहीं भूलना चाहिए की प्रियंका गांधी स्व. प्रधानमंत्री भारत रत्न राजीव गांधी की बेटी हैं। उस पिता की, जिसे देश की एकता और अखंडता की रक्षा करने की वजह से बम से उड़ा दिया गया था। क्या हम एक शहीद की बेटी के साथ यह शर्मनाक व्यवहार करेंगे?
ऐसा नहीं कि कांग्रेस विचारधारा के ब्लॉगर ही चिंतित हैं, मोदी समर्थक भी प्रियंका के हाईलाइट होने से परेशान हैं। सोशल मीडिया पर चल रही एक पोस्ट की बानगी देखिए:-
प्रियंका को मैदान में उतारना निश्चित रूप से एक मास्टर स्ट्रोक है और बीजेपी इस जाल में न फंसे, इसलिए भाजपा के थिंकटैंक को इन बातों पर जरूर गौर करना चाहिए-
1. अपने अति उत्साही कार्यकर्ताओं को समझाइश दी देनी चाहिए कि प्रियंका पर अभद्र चुटकुले न बनाएं और न सोशल मीडिया पर फैलायें। प्रियंका के व्यक्तिगत मामलों पर टिप्पणी करके किया गया हमला एक महिला का अपमान प्रचारित होगा, जो बूमरैंग साबित होगा।
2. राहुल और अन्य कांग्रेसियों को उनके पुराने कारनामों पर करारा जवाब दीजिये क्योंकि कांग्रेस की कोशिश यही है कि बीजेपी की तोप का मुंह राहुल, सोनिया और कांग्रेस के 10  साल के कुशासन से हट के प्रियंका की तरफ हो जाये।
3. भाषाई मर्यादा का पालन करें, याद कीजिये 2014 जब हर विपक्षी मोदी विरोध के चक्कर में सारी सामाजिक मर्यादाएं भूल गए थे, जिसके परिणाम स्वरूप वे बहुमत से विजयी हुए।
4. भाजपा कार्यकर्ता और नेता भाषा की मर्यादा रखें और प्रियंका को पूरी तरह नजरअंदाज करने की नीति पर चलें। हां, राष्ट्रवाद और हिंदुत्व का तड़का बीच-बीच मे जरूर लगाते रहें क्योंकि ये दो मुद्दों पर ही विपक्ष डिफेंसिव हो जाता है। ये एक स्वयंसेवक के विचार हैं, बाकी तो फिर चाणक्य और चंद्रगुप्त सब हैं ही भाजपा में।
लगे हाथ बात राहुल गांधी की करें तो तस्वीर का दूसरा रुख ये है कि जिस मोदी ब्रांड को भगवान के रूप में अवतरित किया गया, अब उसी को राहुल गांधी नामक उस नौजवान ने ललकारना शुरू कर दिया है, जिसे बाकायदा प्रायोजित तरीके से नौसीखिया करार दे दिया गया था। राहुल गांधी की आक्रामक शैली मोदी के चेहरे पर झलकते दंभ, चाल में इठलाहट और जुबान की लफ्फाजी को दिक्कत पैदा करने लगी है। बेशक मोदी ब्रांड अभी जिंदा है और अब भी वे भाजपा के लिए आशा की आखिरी किरण हैं, मगर सत्ता के नग्न दुरुपयोग व भ्रष्टाचार के प्रति नॉन टोलरेंस के तिरोहित होते वादे से उनका राजनीतिक ग्राफ गिरने लगा है। ऐसे में प्रियंका का अवतार तस्वीर में नए रंग भरेगा, इसकी पूरी संभावना नजर आती है।

रविवार, जनवरी 27, 2019

वसुंधरा के हटते ही भाजपा में बिखराव?

tejwani girdhar
राजस्थान विधानसभा चुनाव में भाजपा की पराजय के बाद पूर्व मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे को राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बना कर राजस्थान की राजनीति से साइड करने से भाजपा में बिखराव की नौबत आ गई दिखती है। हालांकि बिना किसी हील हुज्जत के जब वे उपाध्यक्ष बनने व धुर विरोधी गुलाब चंद कटारिया को विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष बनने देने को राजी हुईं तो यही लगा कि उनकी खुद की भी अब राजस्थान में रुचि नहीं रही है, मगर हाल ही जब उन्होंने कहा कि वे राजस्थान की बहू हैं और से यहां से उनकी अर्थी ही जाएगी तो ऐसे संकेत मिले कि वे यकायक अपनी दिलचस्पी कम करने वाली नहीं हैं। तो क्या एक ओर उनका राजस्थान के प्रति मोह और दूसरी ओर जयपुर नगर निगम के मेयर के चुनाव में भाजपा की पराजय व जिला परिषद में पेश भाजपा का अविश्वास प्रस्ताव खारिज होने को आपस में जोड़ देखा जाना चाहिए?
बेशक जिस प्रकार इन दोनों मामलों में भाजपा की किरकिरी हुई है, उसका वसुंधरा से सीधा कोई लेना-देना नहीं है, मगर इस मौके पर उनकी अनुपस्थिति भाजपा को खल रही होगी। अगर कमान उनके हाथ होती तो वे इतना आसानी से नहीं होने नहीं देतीं। यह नाकमयाबी साफ तौर पर प्रदेश भाजपा अध्यक्ष मदनलाल सैनी के खाते में ही गिनी जाएगी। इसका अर्थ ये भी निकलता है कि जैसे ही वसुंधरा राज्य की राजनीति से अलग की गई हैं, सैनी कमजोर हो गए हैं। उनका नियंत्रण नहीं रहा है, जैसा कि वसुंधरा के रहते होता था। सिक्के का एक पहलु ये भी है कि भले ही वसुंधरा राज्य की राजनीति से पृथक दी गई हों, मगर संगठन में अधिसंख्य पदाधिकारी उनकी ही पसंद के हैं। तो सवाल उठता है कि क्या वसुंधरा की तरह उन्होंने भी रुचि लेना कम कर दिया है। इसे आसानी से समझा जा सकता है कि अकेले वसुंधरा को दिल्ली भेज दिए जाने से उनका गुट तो समाप्त तो नहीं हो गया होगा। दिल्ली जाने के बाद भी इस गुट के जरिए अपनी अंडरग्राउंड पकड़ बनाए रखना चाहेंगी।
जो कुछ भी है, यह स्पष्ट है कि ताजा हालात ये ही बयां कर रहे हैं कि लोकसभा चुनाव की तैयारियों के बीच भाजपा बिखराव की स्थिति में आ गई है। हो सकता है कि भाजपा हाईकमान ने वसुंधरा को राजस्थान से रुखसत किए जाने के बाद उत्पन्न होने वाले हालात का अनुमान लगा रखा हो, मगर फिलवक्त लगता है कि हाईकमान को स्थितियों का नए सिरे से आकलन करना होगा। इतना ही नहीं, उसे वसुंधरा के मजबूत गुट के साथ संतुलन बनाने के लिए वसुंधरा को महत्व देना ही होगा। अन्यथा आगामी लोकसभा चुनाव में उसे भारी परेशानी का सामना करना होगा। होना तो यह चाहिए था कि वसुंधरा को राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बनाए जाने के साथ यहां की संगठनात्मक चादर को नए सिरे से बिछाना चाहिए था, मगर लोकसभा चुनाव सिर पर ही आ जाने के कारण इतना बड़ा फेरबदल करना आसान भी नहीं था।
यह ठीक है कि स्थानीय इक्का-दुक्का हार की हाईकमान को चिंता नहीं है, मगर देखने वाली बात ये होगी कि वह उसके लिए अत्यंत महत्वपूर्ण लोकसभा चुनाव में क्या रणनीति अपनाती है।