ऐसी जानकारी है कि रविवार, 16 जनवरी को जयपुर में हुई प्रदेश भाजपा कार्यसमिति की बैठक में पूर्व मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे की भूमिका अन्य नेताओं की तुलना में कमतर नजर आई। हालांकि वे अब राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बना दी गई हैं, मगर ऐसा प्रतीत हुआ, मानो वे हाशिये की ओर धकेली जा रही हों। उनमें वो जोश व जज्बा नजर नहीं आया, जैसा कि मुख्यमंत्री पद पर रहते देखा जाता था।
बड़े-बजुर्ग ठीक ही कह गए हैं कि इतिहास अपने आप को दोहराता है। वसुंधरा की ताजा हालत कहीं न कहीं इस कहावत से मेल खाती है। ये वही वसुंधरा हैं, जो राजस्थान में सिंहनी की भूमिका में थीं। उनके इशारे के बिना प्रदेश भाजपा में पत्ता भी नहीं हिलता था। कुछ ऐसा ही राजस्थान का एक ही सिंह, भैरोंसिंह भैरोंसिंह का भी रुतबा रहा है। वे जब स्वयं उपराष्ट्रपति बन कर दिल्ली गए तो प्रदेश की चाबी वसुंधरा को सौंप गए, मगर वे जब रिटायर हो कर लौटे तो उनकी पूरी जमीन वसुंधरा ने खिसका ली थी। राजस्थान का यह सिंह अपने ही प्रदेश में बेगाना सा हो गया। कुछ माह तो घर से निकले ही नहीं। और जब हिम्मत करके बाहर निकले तो उनके कदमों में लौटने वाले भाजपाई ही उन्हें अछूत समझ कर उनसे दूर बने रहे। वसुंधरा का भाजपाइयों में इतना खौफ था कि वे जहां भी जाते, इक्का-दुक्का को छोड़ कर अधिसंख्यक भाजपाई उनके पास फटकते तक नहीं थे। वसुंधरा का आभा मंडल इतना प्रखर था कि उसके आगे संघ लॉबी के नेताओं की रोशनी टिमटिमाती थी। उन्होंने हरिशंकर भाभड़ा सरीखे अनेक नेताओं को खंडहर बता कर टांड पर रख दिया था। राजस्थान में संघ उनके साथ समझौता करके ही काम चला रहा था। एक बार टकराव बढ़ा तो वसुंधरा ने नई पार्टी ही बना लेने की तैयारी कर ली, नतीजतन हाईकमान को झुकना पड़ा।
जब 2014 में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का दौर आया तो भी वे झुकने का तैयार नहीं हुईं। पूरे पांच साल खींचतान में ही निकले। विधानसभा चुनाव आए तो एक नारा आया कि मोदी से तेरे से बैर नहीं, वसुंधरा तेरी खैर नहीं। बताया जाता है कि यह नारा संघ ने ही दिया था। नतीजा सामने है। आज जब ये कहा जाता है कि भाजपा वसुंधरा के चेहरे के कारण हारी तो इसे समझना चाहिए कि इस चेहरे को बदनाम करने का काम भी भाजपाइयों ने ही किया। यदि ये कहा जाए कि मोदी के कहने पर संघ ने ही वसुंधरा को नकारा करार दिया तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी, जबकि वे इतनी भी बुरी मुख्यमंत्री नहीं थीं। वस्तुत: मोदी जिस मिशन पर लगे थे, उसमें उनको एक भी क्षत्रप बर्दाश्त नहीं था। तो वसुंधरा को निपटा कर ही दम लिया।
जाहिर तौर पर सिंहनी वर्तमान में बहुत कसमसा रहीं होगी, मगर उनके मन में क्या चल रहा है, किसी को जानकारी नहीं है। जानकार मानते हैं कि अब भी वसुंधरा में दम-खम कम नहीं हुआ है, मगर मोदी का कद इतना बड़ा हो चुका है कि वसुंधरा का फिर से उठना नामुमकिन ही लगता है। वसुंधरा की तो बिसात ही क्या है, भाजपा के सारे के सारे दिग्गज नेता मोदी शरणम गच्छामी हो गए हैं। सच तो ये है कि मोदी ने भाजपा को हाईजैक कर लिया है। भाजपा कहने भर को भाजपा है, मगर वह अब अमित शाह के सहयोग से तानाशाह मोदी की सेना में तब्दील हो चुकी है। अगर वसुंधरा हथियार डाल देती हैं तो हद से हद किसी राज्य की राज्यपाल बनाई जा सकती हैं, मगर शायद उनकी इच्छा अब अपने बेटे दुष्यंत सिंह को ढ़ंग की जगह दिलाना होगी, मगर मोदी के रहते ऐसा मुश्किल ही है।
खैर। हालांकि वसुंधरा राजे की स्थिति अभी इतनी खराब नहीं हुई है, उन्हें राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बना कर इज्जत बख्शी गई है। उन्होंने शेखावत की जो हालत की थी, उससे से तो वे बेहतर स्थिति में ही हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से उनकी जो नाइत्तफाकी है, उसे तो देखते हुए यही लगता है कि वे भी उसी संग्रहालय में रख दी जाएंगी, जहां भाजपा के शीर्ष पुरुष लालकृष्ण आडवाणी व मुरली मनोहर जोशी को रखा गया है।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
बड़े-बजुर्ग ठीक ही कह गए हैं कि इतिहास अपने आप को दोहराता है। वसुंधरा की ताजा हालत कहीं न कहीं इस कहावत से मेल खाती है। ये वही वसुंधरा हैं, जो राजस्थान में सिंहनी की भूमिका में थीं। उनके इशारे के बिना प्रदेश भाजपा में पत्ता भी नहीं हिलता था। कुछ ऐसा ही राजस्थान का एक ही सिंह, भैरोंसिंह भैरोंसिंह का भी रुतबा रहा है। वे जब स्वयं उपराष्ट्रपति बन कर दिल्ली गए तो प्रदेश की चाबी वसुंधरा को सौंप गए, मगर वे जब रिटायर हो कर लौटे तो उनकी पूरी जमीन वसुंधरा ने खिसका ली थी। राजस्थान का यह सिंह अपने ही प्रदेश में बेगाना सा हो गया। कुछ माह तो घर से निकले ही नहीं। और जब हिम्मत करके बाहर निकले तो उनके कदमों में लौटने वाले भाजपाई ही उन्हें अछूत समझ कर उनसे दूर बने रहे। वसुंधरा का भाजपाइयों में इतना खौफ था कि वे जहां भी जाते, इक्का-दुक्का को छोड़ कर अधिसंख्यक भाजपाई उनके पास फटकते तक नहीं थे। वसुंधरा का आभा मंडल इतना प्रखर था कि उसके आगे संघ लॉबी के नेताओं की रोशनी टिमटिमाती थी। उन्होंने हरिशंकर भाभड़ा सरीखे अनेक नेताओं को खंडहर बता कर टांड पर रख दिया था। राजस्थान में संघ उनके साथ समझौता करके ही काम चला रहा था। एक बार टकराव बढ़ा तो वसुंधरा ने नई पार्टी ही बना लेने की तैयारी कर ली, नतीजतन हाईकमान को झुकना पड़ा।
जब 2014 में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का दौर आया तो भी वे झुकने का तैयार नहीं हुईं। पूरे पांच साल खींचतान में ही निकले। विधानसभा चुनाव आए तो एक नारा आया कि मोदी से तेरे से बैर नहीं, वसुंधरा तेरी खैर नहीं। बताया जाता है कि यह नारा संघ ने ही दिया था। नतीजा सामने है। आज जब ये कहा जाता है कि भाजपा वसुंधरा के चेहरे के कारण हारी तो इसे समझना चाहिए कि इस चेहरे को बदनाम करने का काम भी भाजपाइयों ने ही किया। यदि ये कहा जाए कि मोदी के कहने पर संघ ने ही वसुंधरा को नकारा करार दिया तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी, जबकि वे इतनी भी बुरी मुख्यमंत्री नहीं थीं। वस्तुत: मोदी जिस मिशन पर लगे थे, उसमें उनको एक भी क्षत्रप बर्दाश्त नहीं था। तो वसुंधरा को निपटा कर ही दम लिया।
जाहिर तौर पर सिंहनी वर्तमान में बहुत कसमसा रहीं होगी, मगर उनके मन में क्या चल रहा है, किसी को जानकारी नहीं है। जानकार मानते हैं कि अब भी वसुंधरा में दम-खम कम नहीं हुआ है, मगर मोदी का कद इतना बड़ा हो चुका है कि वसुंधरा का फिर से उठना नामुमकिन ही लगता है। वसुंधरा की तो बिसात ही क्या है, भाजपा के सारे के सारे दिग्गज नेता मोदी शरणम गच्छामी हो गए हैं। सच तो ये है कि मोदी ने भाजपा को हाईजैक कर लिया है। भाजपा कहने भर को भाजपा है, मगर वह अब अमित शाह के सहयोग से तानाशाह मोदी की सेना में तब्दील हो चुकी है। अगर वसुंधरा हथियार डाल देती हैं तो हद से हद किसी राज्य की राज्यपाल बनाई जा सकती हैं, मगर शायद उनकी इच्छा अब अपने बेटे दुष्यंत सिंह को ढ़ंग की जगह दिलाना होगी, मगर मोदी के रहते ऐसा मुश्किल ही है।
खैर। हालांकि वसुंधरा राजे की स्थिति अभी इतनी खराब नहीं हुई है, उन्हें राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बना कर इज्जत बख्शी गई है। उन्होंने शेखावत की जो हालत की थी, उससे से तो वे बेहतर स्थिति में ही हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से उनकी जो नाइत्तफाकी है, उसे तो देखते हुए यही लगता है कि वे भी उसी संग्रहालय में रख दी जाएंगी, जहां भाजपा के शीर्ष पुरुष लालकृष्ण आडवाणी व मुरली मनोहर जोशी को रखा गया है।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
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