गिरधर तेजवानी |
इसी सिलसिले में एक पोस्ट पिछले कुछ दिनों से सोशल मीडिया पर धड़ल्ले से चल रही है, जिसमें साफ तौर पर मोदी से पहले और मोदी के बाद की भाजपा का विश्लेषण करते हुए सलाह दी जा रही है कि सत्ता के लिए नैतिकता ताक पर रखने से गुरेज नहीं करना चाहिए।
इस पोस्ट में बताया गया है कि जब तक भाजपा अटल बिहारी वाजपेयी की विचारधारा पर चलती रही, मर्यादा पुरुषोत्तम राम के नाम पर नैतिकता व शुचिता को अपनाए रही, तब तक कभी भी पूर्ण बहुमत हासिल नहीं कर सकी। करोड़ों के बाद भी कांग्रेस बेशर्मी से अपने लोगों का बचाव करती रही, वहीं पार्टी फंड के लिए मात्र एक लाख रुपये ले लेने पर भाजपा ने अपने राष्ट्रीय अध्यक्ष बंगारू लक्ष्मण को हटाने में तनिक भी विलंब नहीं किया, परन्तु चुनावों में नतीजा, वही ढ़ाक के तीन पात। झूठे ताबूत घोटाला के आरोप पर तत्कालीन रक्षामंत्री जार्ज फर्नांडिस का इस्तीफा, परन्तु चुनावों में नतीजा वही ढाक के तीन पात। कर्नाटक में भ्रष्टाचार के आरोप लगते ही येदियुरप्पा को भाजपा ने निष्कासित करने में कोई विलंब नहीं किया, परन्तु चुनावों में नतीजा, वही ढाक के तीन पात।
फिर होता है नरेन्द्र मोदी का पदार्पण। मर्यादा पुरुषोत्तम राम के नक्शे कदम पर चलने वाली भाजपा को वे कर्मयोगी कृष्ण की राह पर ले आते हैं। कृष्ण अधर्मी को मारने में किसी भी प्रकार की गलती नहीं करते हैं। छल हो तो छल से, कपट हो तो कपट से, अनीति हो तो अनीति से, अधर्मी को नष्ट करना ही उनका ध्येय होता है। कुल मिला कर सार यह है कि अभी देश दुश्मनों से घिरा हुआ है, नाना प्रकार के षड्यंत्र रचे जा रहे हैं। इसलिए अभी हम नैतिकता को अपने कंधे पर ढोकर नहीं चल सकते हैं। नैतिकता को रखिये ताक पर। यदि देश को बचाना चाहते हैं, तो सत्ता को अपने पास ही रखना होगा। वो चाहे किसी भी प्रकार से हो, साम दाम दंड भेद किसी भी प्रकार से। इसलिए भाजपा के कार्यकर्ताओं को चाहिए कि कर्ण का अंत करते समय कर्ण के विलापों पर ध्यान न दें। सिर्फ ये देखें कि अभिमन्यु की हत्या के समय उनकी नैतिकता कहां चली गई थी। आज राजनीतिक गलियारा जिस तरह से संविधान की बात कर रही है, तो लग रहा है जैसे हम पुन: महाभारत युग में आ गए हैं। विश्वास रखो, महाभारत का अर्जुन नहीं चूका था, आज का अर्जुन भी नहीं चूकेगा। चुनावी जंग में अमित शाह जो कुछ भी जीत के लिए पार्टी के लिए कर रहे हैं, वह सब उचित है। वाजपेयी की तरह एक वोट का जुगाड़ न करके आत्मसमर्पण कर देना क्या एक राजनीतिक चतुराई थी? अटलजी ने अपनी व्यक्तिगत नैतिकता के चलते एक वोट से अपनी सरकार गिरा डाली और पूरे देश को चोर लुटेरों के हवाले कर दिया। राजनीतिक गलियारे में ऐसा विपक्ष नहीं है, जिसके साथ नैतिक-नैतिक खेल खेला जाए, सीधा धोबी पछाड़ आवश्यक है।
सिक्के का दूसरा पहलु ये है कि जिस हिंदूवाद के नाम पर भाजपा सत्ता पर काबिज हुई, पांच साल में उसी का पोषण न कर पाने पर भी विश्लेषकों की नजर है।
एक पोस्ट में लिखा है कि देश के लोगों ने मोदी-शाह के नेतृत्व में भाजपा के राष्ट्रवाद और हिंदुत्व को अपने असली रूप में देख लिया है। जब तक पूर्ण बहुमत के साथ यह पार्टी सत्ता में नहीं आई थी, तब तक एक कौतूहल था कि पता नहीं, ये क्या करेंगे, जब ये अपने दम पर सत्ता में आएंगे। वाजपेयी जी के नेतृत्व में भाजपा पहली बार सत्ता में आयी तो जरूर थी, लेकिन बैसाखियों के सहारे। ऊपर से अटल जी का अपेक्षाकृत उदारवादी चेहरा। तो...समर्थकों में एक कसक सी रह गई कि काश, पार्टी कभी अपने दम पर सत्ता में आ पाती। लो जी, वह भी हो गया। मोदी ने इतिहास रच दिया। कहा गया कि पृथ्वीराज चौहान के पश्चात 900 वर्षों के इंतजार के बाद कोई चक्रवत्र्ती हिन्दू सम्राट दिल्ली के सिंहासन पर बैठा है। और फिर सिर्फ उन्मादी ही नहीं, प्रायोजित भीड़ के द्वारा अखलाक की निर्मम हत्या के साथ इस हिंदुत्व का पहला परिचय मिला। गौमाता के रक्षकों के उत्पात से देश दहलने लगा। दूसरी ओर हालत ये है कि कॉमन सिविल कोड, धारा 370 और राम मंदिर के एजेंडे को लेकर भाजपा लगातार 32 वर्षों से चल रही थी, उस पर कुछ भी नहीं हुआ। ऐसे में कट्टर हिंदूवादियों की यह चिंता जायज है कि यदि आज अपने बूते पर भाजपा सत्ता में होने के बाद भी कुछ नहीं कर पाई तो ढ़लती मोदी लहर के दौर में क्या हो पाएगा? कदाचित इसी कारण भाजपा आज फिर रोजगार, गरीबी, महंगाई जैसे मुद्दों को साइड में रख कर, नोटबंदी व जीएसटी जैसे बडे कदमों की सफलता के नाम पर वोट मांगने की बजाय पाकिस्तान को गाली दे कर राष्ट्रवाद के नाम पर वोट हासिल करने की जुगत में लग गई है।
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