तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

बुधवार, जून 07, 2017

मोदी के तीन साल : आम आदमी को तो कुछ नहीं मिला

पिछली 26 मई को नरेन्द्र मोदी सरकार के तीन साल पूरे हो गए। इस अवसर पर मोदी फैस्ट के जरिए उल्लेखनीय सफलताओं का दावा किया जा रहा है। कदाचित आंकड़ों की भाषा में वह सच हो, मगर धरातल की सच्चाई ये है कि आम आदमी की जिंदगी में राहत के तनिक भी लक्षण नजर नहीं आ रहे।
अकेले न खाऊंगा, न खाने दूंगा के जुमले की बात करें तो भले ही प्रत्यक्षत: कोई बड़ा घोटाला उजागर नहीं हुआ हो, मगर समीक्षकों का मानना है कि घोटाले तो हुए हैं, मगर बाहर नहीं आने दिए गए। नोटबंदी की ही बात करें तो वह अपने आप में एक घोटाला है। पूरा देश जानता है कि उसमें किस कदर लूट मची। न केवल बैंक वालों ने कमीशन खा कर नोट बदले, अपितु दलालों की भी पौ बारह हो गई। इस तथ्य को कोई भी नहीं नकार सकता। केंद्रीय सूचना आयोग के आयुक्त श्रीधर आचार्यलु ने नोटबंदी पर कड़ी टिप्पणी करते हुए कहा कि सूचना को रोके रखने से अर्थव्यवस्था को लेकर लोगों में शंकाएं पैदा हों रही हैं। ज्ञातव्य है कि प्रधानमंत्री कार्यालय, रिजर्व बैंक और वित्त मंत्रालय नोटबंदी के पीछे के कारणों संबंधी जानकारी मांगने वाली सभी आरटीआई याचिकाओं को हाल में खारिज कर चुके हैं। सीधी सट्ट बात है कि आप कोई जानकारी बाहर ही नहीं आने देंगे तो पता ही कैसे चलेगा कि घोटाला हुआ है या नहीं।
नोटबंदी जैसे देश को बर्बाद कर देने वाले कदम को भी सरकार ने ऐसे प्रस्तुत किया मानो उससे देश का बहुत भला हुआ हो। जहां लोगों का एक बड़ा हिस्सा सरकार द्वारा बिछाए गए विकास के दावों के मायाजाल में फंसा हुआ है, वहीं जमीनी स्तर पर हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं। न तो महंगाई कम हुई है, न रोजगार बढ़ा है और ना ही आम आदमी की स्थिति में कोई सुधार आया है। स्वास्थ्य सेवाओं की गुणवत्ता में गिरावट आई है और किसानों की आत्महत्या की घटनाएं बढ़ी हैं।
जहां तक न खाने देने का सवाल है, हर कोई जानता है कि स्थिति जस की तस है। प्रशासनिक तंत्र अब भी भ्रष्टाचार में उसी तरह आकंठ डूबा हुआ है, जैसा पहले था। किसी भी महकमे पर नजर डाल लें, कहीं भी सुविधा शुल्क की व्यवस्था में कोई बदलाव नहीं आया है। हर कोई जानता है कि हर जगह रिश्वतखोरी वैसी की वैसी है, जैसे पहले थी। इस तथ्य को साबित करने की भी जरूरत नहीं है, क्योंकि यह स्वयंसिद्ध है। न तो रिश्वतखोरों के मन में कोई डर उत्पन्न हुआ है और न ही आम आदमी को किसी प्रकार की राहत मिली है।
दूसरी उल्लेखनीय बात ये है कि पाकिस्तान के साथ तो संबंध पहले से ज्यादा बिगड़े हैं। कश्मीर की हालत भी सुधरने की बजाय दिन प्रतिदिन बिगड़ती जा रही है। केवल झूठी वाहवाही और बड़ी-बड़ी डींगे हांकने का माहौल है। जो मोदी विपक्ष में रहते पाकिस्तान को उसी की भाषा में जवाब देने की बात करते थे, वही आज चुप बैठे हैं। सबक सिखाना तो दूर पाकिस्तान का हौसला और बढ़ गया है। अफसोस कि आत्ममुग्ध सरकार सर्जिकल स्ट्राइक का ढिंढोरा पीट रही है। कश्मीर के संबंध में सरकार की नीति का नतीजा यह हुआ है कि लड़के सड़कों पर निकल कर पत्थर फेंक रहे हैं। कश्मीर के लोगों से संवाद स्थापित करने में सरकार की विफलता के कारण, घाटी में हालात खराब होते जा रहे हैं।
मोदी के कार्यकाल की तीसरी उल्लेखनीय बात ये है कि भले ही वे आज भी एक आइकन के तौर पर देखे जाते हैं, मगर इस दौर में सत्ता का प्रधानमंत्री के हाथों में केन्द्रीयकरण हुआ है। मोदी के सामने वरिष्ठ से वरिष्ठ मंत्री की भी कुछ कहने तक की हिम्मत नहीं होती और ऐसा लगता है कि कैबिनेट की बजाए इस देश पर केवल एक व्यक्ति शासन कर रहा है।
चुनाव प्रचार के दौरान जो सबसे बड़ा वादा मोदी ने किया था, वह पूरी तरह से झूठा साबित हुआ। विदेशों में जमा काला धन वापस लाकर हर भारतीय के बैंक खाते में 15 लाख रुपए जमा करने का भाजपा का वायदा, सरकार के साथ-साथ जनता भी भूल चली है।
सामाजिक समरसता की स्थिति ये है कि पवित्र गाय को राजनीति की बिसात का मोहरा बना दिया गया है। गाय के नाम पर कई लोगों की पीट-पीटकर हत्या की जा चुकी है। सरकार जिस तरह से गोरक्षा के मामले में आक्रामक रुख अपना रही है, उसके चलते, गोरक्षक गुंडों की हिम्मत बढ़ गई है और वे खुलेआम मवेशियों के व्यापारियों और अन्य के साथ गुंडागर्दी कर रहे हैं।
कुल मिला कर देश को मोदी के नाम पर भले ही ऐसा चुंबकीय व्यक्ति मिला हुआ है, जो भाजपा को बढ़त दिलाए हुए है, मगर धरातल पर आम आदमी को कुछ भी नहीं मिला है। सार्वजनिक रूप से भले ही भाजपाई इस तथ्य को स्वीकार न करें, मगर कानाफूसी में वे भी स्वीकार करते हैं कि जिस परिवर्तन के नाम पर भाजपा सत्ता में आई, वैसा कोई परिवर्तन कहीं पर भी नजर नहीं आ रहा।
-तेजवानी गिरधर
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शनिवार, जून 03, 2017

जोशी के आरसीए अध्यक्ष बनने के बड़े राजनीतिक मायने

बेशक क्रिकेट एसोसिएशन के चुनाव में भी राजनीति का बड़ा दखल होता है, मगर उससे राजनीति की दिशा तय होती हो, ऐसा नहीं है। हां, इतना जरूर है कि क्रिकेट की राजनीति इशारा जरूर करती है कि राजनीति का तापमान कैसा है? आरसीए के चुनाव में भी कुछ ऐसा ही हुआ।
इसमें कोई दोराय नहीं कि प्रदेश कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष सी पी जोशी राजनीति के बड़े चतुर खिलाड़ी हैं, मगर उन्हें आरसीए अध्यक्ष बनने की जो कामयाबी हाथ लगी, उसमें कहीं न कहीं भाजपा के अंदरूनी अंतरविरोध ने अपनी भूमिका अदा की। पिछले दिनों जब इस चुनाव के लिए वोटिंग हो चुकी तो इशारे यही थे कि सी पी जोशी का पलड़ा भारी है, मगर समीक्षकों की नजर इस बात पर थी कि केन्द्र में सत्तारूढ़ भाजपा की रुचि कैसी है? माना यही जा रहा था कि चूंकि भाजपा यह नहीं चाहती कि राजस्थान क्रिकेट की राजनीति पर आईपीएल के पूर्व चेयरमैन ललित मोदी हावी रहें, इस कारण मोदी के पुत्र रुचि मोदी को सत्तारूढ़ दल का साथ मिला होने पर संदेह था। फिर भी चूंकि सारा गेम भाजपा के अंदरखाने चल रहा था, इस कारण समीक्षक यह जानते हुए भी कि जोशी ही जीतेंगे, उनके जीतने पर सवालिया निशान छोड़ रहे थे।
चुनावी गणित कैसा था, इसका अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि समीक्षक यह भाषा बोल रहे थे- जो रुझान मिल रहे हैं, उनके अनुसार जीत कांग्रेस के दिग्गज नेता सीपी जोशी की होगी, लेकिन यह तभी संभव है, जब उनके प्रतिद्वंद्वी और आईपीएल के पूर्व चेयरमैन ललित मोदी के बेटे रुचिर को सरकार का सहयोग नहीं मिला होगा। राजस्थान में ललित मोदी किसके करीबी हैं, यह किसी से छिपा नहीं है। यदि केन्द्रीय भाजपा की रुचि रुचिर में नहीं थी, इसका सीधा सा अर्थ है कि वह ललित मोदी के बहाने मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे को मजबूत होते नहीं देखना चाहती। इसी कारण इस चुनाव से जुड़ा सरकारी तंत्र असंमस में था। उसने रुचिर का पूरा साथ नहीं दिया और जोशी जीत गए।
यह तो हुई भाजपा की बात। अब अगर इस परिणाम के कांग्रेस में असर पर नजर डालें तो इतना तो कहा ही जा सकता है कि केन्द्र व राज्य में भाजपा की सत्ता होने के बाद भी अगर एक पूर्व प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष आरसीए का अध्यक्ष बनता है तो इसका प्रभाव कांग्रेस कार्यकर्ता के मनोबल पर भी पड़ता है। वह दिखाई भी दे रहा है। यह भी तय है कि इससे पूर्वोत्तर के दस राज्यों में कांग्रेस का प्रभार संभालने के कारण राजस्थान की राजनीति से कुछ कटे हुए जोशी फिर ताकतवर हुए हैं। वे इस बहाने राजस्थान में अपनी जड़ों को फिर से सींचेंगे। स्वाभाविक रूप से इसका असर कांग्रेस की अंदरुनी राजनीति पर भी पड़ेगा। निश्चित रूप से कांग्रेस के प्रदेश प्रभारी अविनाश पांडे की भी इस चुनाव पर नजर रही होगी। उन्हें अब कांग्रेस हाईकमान के निर्देशों के अनुरूप नए सिरे से माथापच्ची करनी होगी। हालांकि जोशी इस जीत के आधार पर कोई बड़ा उलटफेर करने की स्थिति में नहीं होंगे, मगर इतना जरूर है कि आगामी विधानसभा चुनाव को देखते हुए उनके पक्के समर्थकों का उम्मीदें कुछ बढ़ जाएंगी। और अगर राजस्थान से ध्यान हटा कर गुजरात की जिम्मेदारी निभा रहे पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के समर्थकों का भी साथ मिला तो वे नया समीकरण बनाने की कोशिश करेंगे।
-तेजवानी गिरधर
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सोमवार, मई 22, 2017

कांग्रेस की सुनिश्चित जीत पर संशय के बादल

प्रदेश में भाजपा शासन के तीन नकारा सालों और प्रदेश कांगे्रेस अध्यक्ष सचिन पायलट की कड़ी मेहनत की वजह से जो आम धारणा सी बन गई थी कि इस बार सरकार कांग्रेस की बनेगी, उस पर संशय के बादल मंडराने लगे हैं। अगर कांग्रेस बहुमत में आई तो मुख्यमंत्री कौन होगा, अकेले इस सवाल ने यह सवाल पैदा कर दिया है कि क्या कांग्रेस एकजुट हो कर चुनाव लड़ भी पाएगी?
चूंकि मृतप्राय: कांग्रेस को फिर से जिंदा करने में सचिन की अहम भूमिका है और प्रदेश अध्यक्ष होने के नाते चुनाव उनके ही नेतृत्व में लड़ा जाना है, इस कारण यह आमराय मानी जाती थी कि बहुमत मिलने पर वे ही मुख्यमंत्री बनेंगे, मगर इस बीच पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के समर्थकों ने ऐसा माहौल पैदा कर दिया कि गहलोत भी मुख्यमंत्री पद के दावेदार होंगे तो असंमजस पैदा होना ही था। हालांकि दोनों नेताओं ने कभी इस प्रकार का दावा नहीं किया कि वे मुख्यमंत्री पद के दावेदार हैं, वे तो यही कहते रहे हैं कि फैसला हाईकमान को करना है कि मुख्यमंत्री कौन होगा, या किसी को मुख्यमंत्री के दावेदार के रूप में प्रोजेक्ट किया भी जाएगा या नहीं, यह भी हाईकमान ही तय करेगा, मगर दूसरी श्रेणी के नेता और कार्यकर्ताओं की खींचतान के चलते यह संदेश जाने लगा है कि कांग्रेस एकजुट नहीं है।
वस्तुत: पिछले कुछ वर्षों का अनुभव ये रहा है कि राज्य की जनता ने बारी-बारी से दोनों दलों को सत्ता सौंपी है, इस कारण यह राय बन गई कि इस बार कांग्रेस सत्ता में आ सकती है। यह राय इसलिए और मजबूत हो गई,  क्यों कि इस बार वसुंधरा सरकार का अब तक कार्यकाल जनता के लिए सुखद नहीं रहा है। जिस उम्मीद में भाजपा को बंपर समर्थन दिया, उसके अनुरूप अपेक्षाएं पूरी नहीं हुईं। यहां तक कि वसुंधरा के इस कार्यकाल में पिछले कार्यकाल की तुलना में राजनीतिक व प्रशासनिक निर्णयों में मजबूती कम दिखाई दी। यह बात भाजपा के लोग भी जानते हैं, इस कारण वे भी लगभग ये मान बैठे हैं कि जनता इस बार पलटी खिला देगी। इस धारणा की वजह से कांग्रेसी भी मान बैठे हैं कि अब उनकी ही सरकार आने वाली है।  पायलट ने भी कांग्रेस में जान फूंकी है। भाजपा हाईकमान को भी यह आशंका है कि इस बार कांग्रेस बाजी न मार जाए। समझा जा सकता है जिस पार्टी की केन्द्र में बहुमत वाली सरकार हो और राज्य में भी तगड़े बहुमत के साथ सत्ता पर काबिज हो, वह अगर सचिन पायलट को भाजपा में आने का लालच देती है तो इसका अर्थ ये है कि उसे अपने बूते चुनाव जीतने का भरोसा नहीं है।
तस्वीर का दूसरा रुख ये है कि कांग्रेस में एकजुटता की कमी के चलते वह धारणा धुंधली होती दिखाई दे रही है कि कांग्रेस सत्ता में लौटेगी। कांग्रेस  के राजस्थान प्रभारी अविनाश पांडे व पूर्व मुख्यमंत्री गहलोत तक यह बयान  दे चुके हैं कि कांग्रेस कार्यकर्ता यह मान कर न बैठ जाएं कि अगली सरकार कांग्रेस की होगी।
बात अगर कांग्रेस कार्यकर्ता की मन:स्थिति की करें तो वह इस बात को लेकर असमंजस में है कि अगर सरकार बनी तो मुख्यमंत्री कौन होगा? ऐसा असमंजस निचले स्तर पर नहीं, बल्कि से ऊपर से आया है। पूर्व प्रभारी कामथ कहते रहे कि अगला चुनाव सचिन के नेतृत्व में ही लड़ा जाएगा तो नए प्रभारी पांडे कहते हैं कि मुख्यमंत्री के रूप में कोई प्रोजेक्ट नहीं होगा और चुनाव सामूहिक नेतृत्व में लड़ा जाएगा। इस प्रकार के डिप्लामेटिक बयानों का राज क्या है, ये तो हाईकमान ही जाने, मगर समझा जा सकता है कि इसका असर कार्यकर्ता पर क्या पड़ता होगा? हालांकि कांग्रेस में एकजुटता की कमी तो नजर आ रही है, मगर कार्यकर्ता हताश हुआ है, ऐसा नहीं है।  यदि उसके मन में यह बात बैठ गई कि एकजुट हो कर मेहनत नहीं की तो सत्ता का सपना सपना ही रह जाएगा तो संभव है, वह एकजुट हो जाए। लेकिन फिलहाल इस प्रकार की खुसरफुसर शुरू हो गई है कि कांग्रेस का सत्ता में लौटना आसान नहीं है। विशेष रूप से इस वजह से कि भाजपा अध्यक्ष अमित शाह जिस रणनीति के तहत अपना जाल फैलाने वाले हैं, उसे देखते हुए यह लगता है कि संघर्ष जबदस्त होने वाला है।

-तेजवानी गिरधर
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शुक्रवार, मई 12, 2017

हटने की अफवाह के बावजूद वसुंधरा का ही दबदबा

तेजवानी गिरधर
नरेन्द्र मोदी भले ही वह कदीमी शख्स हैं, जिसकी लहर पर सवार हो कर भाजपा केन्द्र में सत्तारूढ़ हुई, राजस्थान में भी लोकसभा की सभी पच्चीस सीटों पर उनकी ही बदोलत भाजपा ने कब्जा किया, मगर राज्य में अब भी मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे की ही तूती बोलती है। और इसका सबसे बड़ा सबूत है कि ओम प्रकाश माथुर, जो कि मोदी के बेहद करीबी हैं, जिनकी रणनीति गुजरात, हरियाणा व उत्तरप्रदेश में कामयाब रही, उनकी हालत ये है कि राज्य में कोई भी भाजपा नेता व कार्यकर्ता उनके पास फटकने से भी एक बारगी कतराता है। वजह सिर्फ इतनी कि कहीं वसुंधरा मेडम नाराज न हो जाएं। नाराजगी की वजह ये कि वसुंधरा के रहते राज्य में मुख्यमंत्री पद का कोई भी नेता बर्दाश्त नहीं। हालांकि अपवाद स्वरूप पिछले दिनों शहर भाजपा अध्यक्ष अरविंद यादव की ओर से माथुर का स्वागत समारोह गिनाया जा सकता है, मगर उसमें भी किस तरह से बड़े नेता किनारा कर गए, ये सब को पता है। यादव भी इसलिए खुल कर सामने आए क्योंकि वे वाया श्रीकिशन सोनगरा माथुर लॉबी में माने जाते हैं। जानकारी के अनुसार पार्टी के चंद लोगों ने बाकायदा सूची बना कर ऊपर भेजी गई कि कौन-कौन स्वागत करने पहुंचे थे। इसका सीधा सा अर्थ है कि उनके नाम रेखांकित किए गए होंगे।
जो कुछ भी हो, मगर जो व्यक्ति भाजपा का कद्दावर नेता हो, उससे अगर उसी की पार्टी की सरकार के रहते राज्य में कार्यकर्ता दूरी रखने को मजबूर हों तो वह चौंकाता है। खुद माथुर जब राजस्थान आते हैं तो उन्हें लगता होगा कि ये कौन सी दुनिया में आ गए। जिस पार्टी के वे कद्दावर नेता हैं, उसी के कार्यकर्ता मुंह फेर रहे हैं। पिछले दिनों उनके पुष्कर आगमन पर यही स्थिति हुई। हालांकि कहने भर को जरूर यह बात कही गई कि उनके आने की कोई सूचना नहीं थी, मगर सच ये है कि सब को पता था कि वे आने वाले हैं। अजमेर नगर निगम के पूर्व सभापति सुरेन्द्र सिंह शेखावत जरूर अपने साथी हितेश वर्मा के साथ आए, मगर इसलिए नहीं कि वे अभी भाजपा में हैं ही नहीं।
राज्य में यह स्थिति पहली बार नहीं आई है। इससे पहले राजस्थान के एक ही सिंह कहलाने वाले भैरोंसिंह शेखावत भी जब उपराष्ट्रपति पद से निवृत्त हो कर राजस्थान लौटे तो तत्कालीन मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने उनकी पूरी जाजम समेट कर ताक पर रख दी थी। उनकी भी हालत ये हो गई थी कि वे राज्य में जहां कहीं भी जाते तो अपने स्वागत के लिए कार्यकर्ताओं को तरस जाते थे। लंबी और कठोर साधना के बाद हासिल मुकाम का यकायक खो जाना जीतेजी मरने के समान है। राजस्थान में आने के बाद काफी दिन तक तो शेखावत सार्वजनिक रूप से नजर ही नहीं आए। और आए तो वसुंधरा के डर से भाजपा के कार्यकर्ता उनसे दूर दूर ही रहते थे। स्थिति ये हो गई कि शेखावत अपनी ही सरकार को घेरने लग गए। इसी के साथ उनका राजनीतिक अवसान हो गया। इतना ही नहीं नरपत सिंह राजवी को भी केवल इसी कारण वसुंधरा राजे की टेड़ी नजर का शिकार होना पड़ा कि वे शेखावत के दामाद थे। इससे समझा जा सकता है कि वसुंधरा राजे किस शैली की राजनीतिज्ञ हैं। अपने इर्द गिर्द वे किसी को पनपने नहीं देतीं।
पिछले कुछ दिनों से भले ही इस प्रकार की अफवाह फैल रही है कि वसुंधरा को हटा कर माथुर को मुख्यमंत्री बनाया जाएगा, मगर फिलवक्त तो यही लगता है कि भाजपा नेताओं व कार्यकर्ताओं में वसुंधरा का ही दबदबा है।
-तेजवानी गिरधर
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रविवार, मई 07, 2017

राजस्थान में जीत के लिए भाजपा अपनाएगी कई हथकंडे

तेजवानी गिरधर
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की लहर पर सवार भाजपा राजस्थान में किसी भी सूरत में सत्ता पर फिर काबिज होने के लिए कई हथकंडे अपनाएगी। आगामी विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की रणनीति क्या होगी, यह भले ही अभी तक गोपनीय है, मगर भाजपा की ओर से साफ तौर पर इशारे आ रहे हैं कि वह तकरीबन डेढ़ साल पहले ही कमर कसना शुरू कर चुकी है।
असल में भाजपा को यह ख्याल में है कि मोदी लहर के बावजूद इस बार राजस्थान में एंटी एस्टेब्लिशमेंट फैक्टर भी काम करेगा। हाल ही में हुए विधानसभा चुनावों में उत्तर प्रदेश व पंजाब इसके ज्वलंत उदाहरण हैं। विशेष रूप से राजस्थान के बारे में यह धारणा सी बन गई है कि यहां की जनता हर पांच साल बाद सत्ता की पलटी कर देती है। इसके अतिरिक्त मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे का मौजूदा कार्यकाल उनके पिछले कार्यकाल की तुलना में अपेक्षाकृत कमजोर रहा है, इस कारण आम धारणा है कि मतदाता उनके चमकदार चेहरे के आकर्षण में नहीं आएगा। ऐसे में वह अभी से जीत की कुंडली बनाने में जुट गई है। इसी सिलसिले में वसुंधरा को हटा कर केन्द्र में ले जाने और अकेले मोदी के नाम पर चुनाव लडऩे के मानस का खुलासा पिछले दिनों मीडिया में हो रहा था। हालांकि वसुंधरा की ओर यही दावा किया जा रहा है कि अगला चुनाव उनके ही नेतृत्व में लड़ा जाएगा, मगर पार्टी कार्यकर्ता अभी असमंजस में हैं।
बहरहाल, जीत के प्रति भाजपा हाईकमान इतनी शिद्दत लिए हुए हैं कि पिछले दिनों मीडिया में यह खबर तक आ गई कि राजस्थान में भाजपा अपनी जीत सुनिश्चित करने के लिए प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष सचिन पायलट को अपने खेमे में शामिल करना चाहती है। बताया गया कि उन्हें बाकायदा ऑफर भी दी जा चुकी है कि उन्हें केन्द्रीय मंत्री बना दिया जाएगा। यद्यपि सचिन की ओर से इस पर कोई प्रतिक्रिया सामने नहीं आई। भाजपा के इस हथकंडे से अनुमान लगाया जा सकता है कि एक तो वह अपनी सेना के प्रति पूरी तरह से आश्वस्त नहीं है, तभी तो विरोधी के सेना नायक पर ही हाथ मारने की सोच रही है, दूसरा ये कि इसके लिए वह तोड़-फोड़ की पराकाष्टा भी पार करने को आतुर है। भाजपा जानती है कि पिछले विधानसभा चुनाव में रसातल में पहुंच चुकी कांग्रेस को सजीव करने के लिए सचिन ने एडी से चोटी का जोर लगा रखा है। भाजपा सोचती है कि अगर उन्हें पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के ऐन वक्त पर टक्कर में आ खड़े होने का डर दिखाया जाए तो कदाचित वे डिग भी जाएं। इससे यह तो स्पष्ट है कि भाजपा को अब सत्ता प्राप्ति के लिए दिग्गज कांग्रेसियों को अपनाने से भी कोई परहेज नहीं है। ज्ञातव्य है कि चुनाव से कुछ समय पूर्व ही उत्तर प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष रीता बहुगुणा भाजपा में शामिल हो गई थीं। उसके सकारात्मक परिणाम भी आए।    भाजपा ऐसा ही प्रयोग राजस्थान में करना चाहती है। सचिन पर दाव भले ही दूर की कौड़ी लगता तो, मगर इससे इतना तो तय मान कर चलना चाहिए कि भाजपा निचले स्तर पर असंतुष्ट कांग्रेसी नेताओं को बड़े पैमाने पर तोडऩे का प्रयास करेगी।
भाजपा एक नया प्रयोग और करने जा रही है। वो यह कि हाशिये पर जा चुके पुराने नेताओं को भी जोत रही है। उसे डर है कि कहीं उपेक्षा का शिकार ऐसे नेताओं की निष्क्रियता नकारात्मक असर न डाले। जैसे ही यह फंडा सामने आया विस्तारक बनाए गए पुराने नेताओं में जोश आ गया कि  पार्टी अब उनकी कद्र कर रही है। उन्हें यह भ्रम भी हुआ कि यदि उन्होंने ठीक से काम किया तो टिकट की लॉटरी लग सकती है। और कुछ नहीं तो टिकट वितरण में तो उनकी भूमिका रहेगी ही। भ्रम होना ही था, उन्हें संघ के प्रचारक तरह विस्तारक की संज्ञा जो दे दी गई। भाजपा को अनुमान नहीं था कि ऐसा करके उसने अनजाने ही उनमें फिर से लालसा पैदा कर दी है। नतीजतन हाल ही जब जयपुर में विस्तारकों का दो दिवसीय अधिवेशन हुआ तो मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे को कहना पड़ गया कि विस्तारक स्वयं को विधानसभा चुनाव का टिकट बांटने वाला नेता न समझें। विस्तारक का काम केवल अपने आवंटित विधानसभा क्षेत्र के मतदान केंद्रों पर जाकर कार्यकर्ताओं को सक्रिय करना है। इसके अतिरिक्त विस्तारक टिकट अथवा किसी पद की लालसा न रखें। जाहिर तौर पर इससे विस्तारक हतोत्साहित हुए होंगे, मगर समझा जाता है कि पार्टी जरूर विचार करेगी कि उन्हें कैसी लॉलीपॉप थमाई जाए।
भाजपा की रणनीति में एक महत्वपूर्ण बदलाव ये भी आया है कि जहां पहले यह कहा जा रहा था कि सत्तर साल से अधिक उम्र के नेताओं को टिकट नहीं दिया जाएगा, उसे बढ़ा कर अब पचहत्तर साल कर दिया गया है।  कदाचित सर्वे में यह तथ्य आया हो कि अगर सत्तर साल के नेताओं को संन्यास दे दिया गया तो बड़े पैमाने पर जीतने वाले प्रत्याशियों का अभाव हो जाएगा।
कुल मिला कर भाजपा ने अगले विधानसभा चुनाव की रणभेरी से बहुत पहले ही अपनी सेना को सुसज्जित करना शुरू कर दिया है।
-तेजवानी गिरधर
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तिवाड़ी ने दिखाई परनामी को हैसियत

वरिष्ठ भाजपा विधायक घनश्याम तिवाड़ी का यह कहना कि जब वे विधायक थे, तब परनामी राजनीति में कुछ नहीं थे, वे उस समय सिर्फ अगरबत्ती बेचते थे, इसके गहरे मायने हैं। प्रदेश अध्यक्ष के बारे में इतनी बेबाक टिप्पणी करने का अर्थ है कि तिवाड़ी आर-पार की लड़ाई के मूड में आ गए हैं। इतना ही नहीं, इससे ये संकेत भी मिलते हैं कि पार्टी के भीतर कुछ न कुछ पक रहा है, वरना प्रचंड बहुमत के साथ सरकार चलाने वाली मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के खिलाफ खुल कर आने का दुस्साहस नहींं करते।
ज्ञातव्य है कि पार्टी लाइन से हट कर चल रहे जयपुर की सांगानेर सीट के वरिष्ठ भाजपा विधायक घनश्याम तिवाड़ी को राष्ट्रीय अनुशासन समिति की ओर से अनुशासनहीनता का नोटिस जारी किया गया है। समिति के अध्यक्ष गणेशीलाल ने यह कार्यवाही प्रदेश भाजपा अध्यक्ष अशोक परनामी की शिकायत पर की है और दस दिन में जवाब मांगा है।
नोटिस की प्रतिक्रिया में तिवाड़ी और मुखर हो गए हैं। उन्होंने कहा कि प्रदेश अध्यक्ष अशोक परनामी जिस दीनदयाल वाहिनी के गठन को लेकर केंद्रीय नेतृत्व को मेरी अनुशासनहीनता की शिकायतें कर रहे हैं, उसका गठन 29 साल पहले सीकर में उस समय हो गया था, जब मैं विधायक था और परनामी राजनीति में कुछ नहीं थे। वे उस समय सिर्फ अगरबत्ती बेचते थे। उन्होंने कहा कि वे न तो डरेंगे और न ही झुकेेंगे। भ्रष्ट सरकार के खिलाफ लड़ाई जारी रखेंगे। अपनी ही पार्टी की सरकार को भ्रष्ट करार देना कोई मामूली बात नहीं है। हालांकि एक समय में पूर्व उपराष्ट्रपति भैरोंसिंह शेखावत ने तत्कालीन वसुंधरा सरकार के खिलाफ मुहिम का आगाज किया था, मगर तब वसुंधरा बहुत मजबूत थीं। मजबूत भी इतनी कि हाईकमान से भी टक्कर ले रही थीं। मगर अब हालात पहले जैसे नहीं हैं। अब केन्द्र में भाजपा की सरकार है और हाईकमान बहुत मजबूत। ऐसे में तिवाड़ी का मजबूती के साथ ये कहना कि कुछ दिनों पहले मुझे दिल्ली में एक नेता ने कहा था कि आप राजस्थान में मौजूदा नेतृत्व को स्वीकार कर लो, सब ठीक हो जाएगा, लेकिन मैं नहीं माना, इसलिए अब नोटिस का डर दिखाया जा रहा है। मैं ऐसे नोटिस से डरने वाला नहीं हूं, गहरे अर्थ रखता है।
-तेजवानी गिरधर
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तिवाड़ी को दो साल से क्यों झेलते रहे?

पार्टी लाइन से हट कर चल रहे जयपुर की सांगानेर सीट के वरिष्ठ भाजपा विधायक घनश्याम तिवाड़ी को आखिर राष्ट्रीय अनुशासन समिति की ओर से अनुशासनहीनता का नोटिस जारी कर दिया। समिति के अध्यक्ष गणेशीलाल ने यह कार्यवाही प्रदेश भाजपा अध्यक्ष अशोक परनामी की शिकायत पर की है और दस दिन में जवाब मांगा है।
नोटिस में गौर करने लायक बात ये है कि उसमें साफ तौर कहा गया है कि वे पिछले दो साल से लगातार पार्टी विरोधी गतिविधियों एवं पार्टी के विरुद्ध बयानबाजी करने में संलग्न हैं। पार्टी द्वारा आयोजित बैठकों में वे उपस्थित नहीं हो रहे और विपक्षी दलों के साथ मिलकर मंच साझा कर रहे हैं। इसके साथ ही नोटिस में यह भी बताया गया है कि वे समानांतर राजनीतिक दल का गठन करने के प्रयास में जुटे हैं।
सवाल ये उठता है कि दो साल तक पार्टी उनको क्यों झेलती रही? दो साल का वक्त बहुत होता है। इस दरम्यान अनेक बार उनकी गतिविधियों व बयानों से पार्टी की किरकिरी हो चुकी है। यदि भाजपा की सरकार सीमित बहुमत वाली होती तो भी समझ में आ सकता था कि पार्टी उनको खोने का खतरा मोल नहीं लेना चाहती, मगर भाजपा तो प्रचंड बहुमत के साथ सरकार चला रही है। केन्द्र में भी भाजपा सरकार है। ऐसे इक्का दुक्का नेता अगर पार्टी छोड़ कर चले जाएं या निकाल दिए जाएं तो बहुत बड़ा नुकसान नहीं होगा। ऐसे में पार्टी को उनके बारे निर्णय करने में इतना वक्त क्यों लगा, यह चौंकाता तो है?
ऐसा प्रतीत होता है कि पार्टी हाईकमान काफी सोच विचार के बाद इस पार या उस पार वाली स्थिति में आया है। अभी चुनाव दूर हैं। अगर पार्टी को उनको खोना पड़ता है तो उनकी वजह से होने वाले नुकसान की भरपाई करने के लिए पर्याप्त वक्त है। अगर अब भी कार्यवाही नहीं की जाती है तो इससे अन्य असंतुष्टों के हौसले बुलंद हो सकते हैं।
बहरहाल, अब देखने वाली बात ये है कि घनश्याम तिवाड़ी क्या जवाब देते हैं और क्या पार्टी की अनुशासन समिति उनके जवाब से संतुष्ट होती है या नहीं। अगर उनको पार्टी से निकालने की नौबत आती है तो निश्चित रूप से राज्य में भाजपा के समीकरण में कुछ बदलाव आएगा। इसके अतिरिक्त यह भी साफ हो जाएगा कि कौन उनके साथ है और पार्टी के साथ। बाकी एक बात जरूर है कि आज जब कि पार्टी अच्छी स्थिति में है, उसके बाद भी तिवाड़ी ने जो दुस्साहस दिखाया है तो वह गौर करने लायक है।
ज्ञातव्य है कि भाजपा के वरिष्ठ विधायक घनश्याम तिवाड़ी अपने बेटे अखिलेश तिवाड़ी के नेतृत्व में नई पार्टी दीनदयाल वाहिनी का गठन करने में जुटे हैं।
-तेजवानी गिरधर
7742067000